आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

घर: शमीमुद्दीन अंसारी

1

वहाँ उस क्षण सोचने का समय नहीं था.मैंने तेजी से भागते प्लेटफार्म पर पैर रखा और ट्रेन छोड़ दी. मैं गिरने को था, पर संभल गया और उसी झोंक में कई कदम आगे तक आ गया. दोनों चप्पलें पीछे छूट गई थीं.मैंने उस पिछले क्षण को चेतना से धूल की तरह झाड़ा, पीछे आकर चप्पलें पहनी और वहाँ मौजूद अपने जैसे दूसरे मुसाफ़िरों से खुद को बचाते हुए आगे बढ़ने लगा.

प्लेटफार्म बस यहीं तक था.मेरठ शटल ने अब अपनी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी. “देख के उतरते भाई …………“ “……क्या हो गया था ?” “अरे अगले स्टेशन तक ही चले जाते …..” ये कुछ आवाजें मुझे सुनाई दीं. मेरे पास इनके जवाब नहीं थे.सैकड़ों लोग साहिबाबाद पर उतरते थे. उस समय शाम का पीलापन था.तेज धूल ने सबको पस्त कर रखा था .

अपने अपने घरों को लौटते लोग पटरियों और पत्थरों पर ध्यान से चल रहे थे. करीब पच्चीस मिनट बाद मैं घर में था.घर तक पहुँचते पहुँचते मेरी टांग तक पसीने में भीग चुकी थी. दरवाजा रेशू ने खोला .

“देर क्यों कर दी?”
मैं भीतर आया और बैग चारपाई पर रख दिया. “अलीगढ़ छूट गई थी.”
“क्यों छूट गई थी?”

ऑफिस से बस टाइम पर नहीं मिली. जो मिली उसे पुलिस वाले ने देर तक रास्ते में रोके रखा. हिसाब-किताब के लिए. ये बात मैंने उससे नहीं कही. बच्चे भीतर खेल रहे थे. कमरा तंदूर की तरह गरम था.मैने कपड़े उतारकर लुंगी डाली और फ्रिज से निकाल कर पानी पिया. अज्जू पापा-पापा कहते मेरी गोद में आया और मुझसे चिपट गया. मैने उसके गालों में अपने गाल सटा दिये.
“अज्जू क्या खेल रहे थे ?”
“वो खेल रहे थे”
“ उतरो बेटा, पापा हन्नू करेंगे”
“ हन्नू करोगे”
“ हाँ, गरमी बहुत है बेटा.”
“ हम भी हन्नू करेंगे.”

रेशू ने अज्जू को मेरी गोद से लिया और उसे और मानू को ले छत पर चली गई. उसने पूरा घर पानी से अच्छी तरह धोया था.मैंने पानी बाल्टी में लिया और कमरे की दीवारें पानी से तर करने लगा.बिजली थी नहीं.इन्वर्टर से चलते पंखे की रफ्तार कम हो गई थी.

खाना खाकर हम लेट गए.फर्श की तपन चटाई और बिस्तर को पार करके शरीर तक आसानी से पहुँच आती थी.मैंने बिस्तर पर और चादरों में ठंडा पानी छिटकार दिया.

बच्चे माँ से खेल रहे थे. मैं एक पत्रिका लिए लेटा था. नौ बजे होंगे. बिजली आ चुकी थी और अब पंखा दुगनी रफ्तार से लू फेंक रहा था. मैंने इस चौथी मंजिल का फ्लैट लेकर बहुत बड़ी गलती की थी.ग्राउन्ड फ्लोर का फ्लैट होता तो कुछ राहत होती. फ्रिज और टीवी इसी साल मैंने जीपीएफ एडवांस लेकर लिए थे. अब कूलर खरीदना हमारे बजट में नहीं था .

रेशू मानू से पोयम सुन नही थी.अज्जू उत्साह से बड़े भाई का साथ दे रहा था. वह अपने दोनों तन्दुरूस्त हाथ माँ के पेट पर रखे बैठा था.

दिन भर ऑफिस में अपनी सीट का काम निबटाते और कम्प्यूटर पर आँखें गड़ाए मैं बेतरह थक जाता था. फिर डेढ़ घन्टे का सफर. इतनी धूप और गर्मी होती जैसे प्रकृति हमसे कोई बदला ले रही हो.अपनी कोर्स की किताबें उठाने की मेरी हिम्मत नहीं होती.मैंने पत्रिका रख दी और आँखे बन्द कर लीं .

“ सो रहे हो क्या “
“ नहीं”
“ सोना मत”
“ तुम पहले बच्चों को तो सुलाओ ”
“ बच्चे शाम को ही तो पापा को पाते हैं ”
“ और तुम ?”
“ मैं? ……”
अज्जू ने मेरी ओर मुंह करके कहा. पापा, कआनी नुनाओ.
“मम्मी से कआनी नुनो बेटा”
“पापा कआनी नुनाओ”
मैंने उसका सिर सीने पर रख लिया.
“एक लड़का था”
“ऐं …………”
“ लड़का कहता मम्मी मम्मी हम स्कूल जाएंगे”
“ऐं …………”
“ फिर मम्मी कहतीं तुम……ना…कल स्कूल जाना.”
“ऐं …………”
“लेकिन मम्मी के पास पैसे नहीं थे.”
“ऐं …………”
“फिर ना मम्मी ने …… काम किया…… और……” मैं कब सो गया मुझे पता नहीं.

2

मैं ट्रेन का इन्तजार करता बैठा हिन्दुस्तान टाइम्स का एडीटोरियल पेज पढ़ रहा था. यह अखबार कांग्रेस का अंध समर्थक लगता था और इससे मुझे चिढ़ होती थी. एडीटोरियल पेज मैं अलग करके साथ ले आता था. एक उदास, गुमसुम दिन शुरू हो रहा था. हवा थी ही नहीं. गरमी इतनी थी कि आदमी के आर-पार हो जाए.

सामने वाली फैक्ट्री से कार्बन के छोटे छोटे कण तेजी से अखबार के पन्ने और मेरी सफेद शर्ट पर साफ साफ गिर रहे थे.तभी घोषणा हुई. “आनन्द विहार, तिलक ब्रिज, शिवाजी ब्रिज, नयी दिल्ली होते हुए शकूर बस्ती जाने वाली जीएनएस वन ईएमयू प्लेटफार्म नं ३ पर आ रही है.” मैंने अखबार मोड़ा, अपने बैग में रखा, और खड़ा हो गया.

दाहिनी ओर महिलाओं का झुण्ड था. प्लेटफार्म पूरा लोगों से भरा था. बहुत से लोग समूहों में खड़े होते थे. मैं हर तरह के संग साथ से कतराता था और नया था, इसलिए अकेला ही होता था. चलते हुए मैं आगे आया. दूर सीटी देता हुआ ट्रेन का अगला डिब्बा दिखा. और कुछ देर में ट्रेन धड़ धड़ करती हमारे सामने आ गई.

मैं कैच लपकने वाले क्रिकेट खिलाड़ी की सी तत्परता से खड़ा था ताकि जिधर गेट आए भागकर चढ़ सकूँ. ट्रेन ऐसे रूकी कि मैं पिछले दरवाजे की ओर भागा. दो चार लोगों को उतरना था. खूब धक्का मुक्की करके निकल सके. ट्रेन पर चढ़ने के उस क्षण के पागलपन में किसी को कुछ होश नहीं था. मैंने एक हाथ से अपना बैग कंधे पर उठा लिया और दूसरे से ट्रेन का सहारा पकड़ा. ओवर ब्रिज से इस समय देखने पर लगता कि ट्रेन के दरवाजों पर ताकतवर चुम्बक रखे हुए है और आदमी लोहे के बुरादों की तरह वहीं खिंचे चले आ रहे हैं. मैंने दरवाजे पर किसी तरह कदम रख दिए, और बाकी का काम पीछे की भीड़ ने कर दिया. ट्रेन चल पड़ी. बहुत से लोग छूट गए.

तिलक ब्रिज पहुँचने तक के इस पच्चीस तीस मिनट की प्रतीक्षा की ऊब से बचने के लिए मैंने बैग में रखी एक किताब निकालनी चाही मगर निकाल नहीं सका. वहाँ पाँव की करवट बदलने की, तनिक भी हिलने तक की जगह नहीं थी. मैं साँस छोड़ता और सामने खड़े शख्स के सिर के बाल उड़ते थे. मुसाफिर अनाज के ढ़ेर की तरह भरे थे.

मेरी नज़र ट्रेन की छत से लटके हत्थों को पकड़े हाथों पर पड़ी और मैंने सोचा अगर कैमरा पास में हो तो कितनी अच्छी तस्वीर आएगी. एक-एक हत्थे को चार-पांच हाथों ने पकड़ा हुआ था.

इस सबसे बेखबर भीतर बैठे हुए मुसाफिरों की एक टोली भजन कीर्तन कर रही थी. भीड़ में कुछ लोग आँखें मींचे उनके शब्दों को होंठों में दुहरा रहे थे. खूब उमस थी. पाँच मिनट में बदबू का तेज झोंका आया. इस नाले के बाद चन्द्र नगर हाल्ट स्टेशन था. डिब्बे से दो-तीन लोग उतरे और उससे ज्यादा चढ़ गए. तीन मिनट के बाद बदबू का दूसरा झोंका आया. आनन्द विहार आ गया था. यहाँ दूर तक पेड़ों को काट कर मेगा टर्मिनल बन रहा था. अब तक ट्रेन में बहुत से लोग दरवाजे से लटके खड़े थे. एक हाथ से ट्रेन पकड़े और एक पैर फर्श पर रखे हुए. जैसे वे ट्रेन मे सफर न कर रहे हों, सर्कस में खेल दिखा रहे हों.

ज्यादातर लोग चुप ही होते थे भले उनके भीतर तूफान घुमड़ रहा हो. भीतर बैठे लोग ताश खेल रहे थे या फिर बीड़ी फूंकते किसी घरेलू विषय पर बात कर रहे थे. मेरी बगल में खड़े दो तीन आदमी ट्रेन के कुण्डों से लटके से बात कर रहे थे.

“मेरे दोनो लड़के…. साले…”
“क्या हुआ यार?”
“यार कितना मना करो, सालों को कि धूप में ना खेलो. साले मानते नहीं. अब बताओ साले बैठे बिठाए एक हफ्ते में पाँच सौ रुपए की दवाई खा गए.”

ट्रेन धीमी तेज होती चल रही थी. रेलवे लाईन के दोनों ओर माचिस के डिब्बी जैसे कमरों वाले ट्रेन के डिब्बों की तरह एक कतार में घर खड़े थे. मंडावली चन्द्र विहार निकल गया जहां ईएमयू रुकती नहीं थी. फिर खेतों और जंगलों के बाद यमुना पुल आ गया. ट्रेन में तेज बदबूदार हवा के झोंका आया. नीचे ठहरा हुआ गाढ़ा काला पानी था. पुल पार करने के बाद ट्रेन तिलक ब्रिज के आउटर पर पाँच मिनट खड़ी रही.

तिलक ब्रिज पर ट्रेन रूकी और लोग निकले जैसे बाँध टूटने से पानी निकलता है. वे रूमाल से पसीना पोंछ रहे थे. प्लेटफार्म पर जगह कम थी. लोग बारातियों की तरह आगे खिसकने लगे. ट्रेन प्लेटफार्म नं ३ पर आई थी. मैंने चलते हुए देखा कि वहीं पटरियों पर एक बूढ़ा आदमी एकदम बीचोबीच पेट के बल गिरा है. उसके हाथ पैर फैले हुए थे जैसे वह आकाश में उड़ रहा हो. सिर्फ सिर के पिछले हिस्सें को छोड़कर उसके शरीर पर कोई घाव नहीं था. लेकिन वह मर चुका था. उसका कुरता पीठ पर थोड़ा ऊपर उठ गया था.उसकी चप्पलें दूर गिरी थीं.

मैं कालेज रोड से सिकन्दरा रोड पर आ रहा था जहाँ मेट्रो का काम चल रहा था. मैंने तभी देखा कि सिकन्दरा रोड से मथुरा रोड जा रही एक चलती हुई ब्लूलाइन बस के पिछले दरवाजे से एक अधेड़ आदमी ने चढ़ने की कोशिश की पर चढ़ नहीं सका. बस ने रफ्तार कम नहीं की और वह आदमी पूरे चौराहे पर बस के साथ घिसटता चला गया. आगे जाकर, मैंने देखा, बस रूकी और वह आदमी संभला और बस में चढ़ गया.

मैंने सिकन्दरा रोड पार की और बसों का इन्तजार करती उस भीड़ में शामिल हो गया.

3

शाम मैं छः बजे दफ्तर से निकला था. मण्डी हाउस पर उतरकर, चूंकि समय हो रहा था, मैं सफदर हाशमी मार्ग पर भागते हुए तिलक ब्रिज पहुँचा. मेरठ शटल सही समय पर थी. मैं उस कल वाले डिब्बे में चढ़ गया और भीड़ में किसी तरह रास्ता बनाते अन्दर आ गया. सीटों पर जगह होने का सवाल ही नहीं उठता था, फिर भी मैंने उधर नजरें दौड़ाई. ऊपर की बर्थ में बैठने की जगह मिल सकती थी. मगर मैं नहीं बढ़ा. बहुत से लोग खड़े थे. डिब्बे में कुछ लाइटें नहीं जल रही थीं. कुछ पंखे ठीक नहीं थे. गाड़ी के हम चलने के इन्तजार में थे कि कुछ राहत मिले. मैं खड़ा हो गया और बैग ऊपर बर्थ पर रख दिया.

सीटों पर खालिस पश्चिमी यूपी के लोग बैठे थे. बीड़ी फूंकते, आपस में चुहल करते, ताश की बाजियाँ लगाते, प्यार भरी गाली गलौज़ करते. भजन मंडली ने अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया. एक छोटा लाउडस्पीकर ऊपर सामान रखनेवाली बर्थ पर रखा था. एक अधेड़ आदमी अपने हाथों से माइक पकड़े खड़ा हुआ. उसने कहा- “सज्जनो, प्रभु का स्मरण करें, शांत रहें. अब मैं भाई श्री, उसने एक नाम लिया, से अनुरोध करता हँ कि वे एक भजन सुनाऐं” मैंने देखा एक आदमी करीब पैंतीस बरस का सीट के एक कोने से खड़े होकर आगे आया और माइक उसने अपने हाथ में ले लिया.

‘बोलो राधारानी की’
‘जय’

हम सबकी तरह उसने शर्ट पैन्ट पहनी थी. उसके चेहरे पर बेहद सन्तोष था. उसने आँखें मूँद ली और भजन शुरू किया. गाने पर संगत देने के लिए सारा इन्तज़ाम था. खिड़की वाली सीट पर बैठे दो नौजवानों में से एक खिड़की से हाथ बाहर निकाले गाड़ी की दीवार पर पत्थर से धुन निकाल रहा था. दो तीन दूसरे नौजवान भीतर मँजीरा संभाले थे. बहुत से लोग तालियों से ही गायक का साथ दे रहे थे. लेकिन कुछ लोग थे, जो फिर भी आपस में बातें कर रहे थे .

भजन समाप्त हुआ. माइक वापस ले कर संचालक ने कहा “भाई, कुछ लोग आपस में बातें कर रहे हैं. यदि बातें ही करनी है तो फिर दूसरे डिब्बे में चले जाओ. हमने आपको यहाँ जगह दी है तो प्रभु का नाम लो” वह एक छोटे कद का निचुड़े हुए चेहरे वाला आदमी था. उसके सिर पर बाल बिल्कुल नहीं थे. इतना कहकर उसने अगले गायक नाम लेकर आहवान किया. उपस्थित लोगों में कोई हलचल नहीं हुई. किसी ने कहा कि वह नहीं आए हैं.

तभी मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा- “मान्यवर अनुमति हो तो कुछ मैं सुनाऊँ?”

कई आँखें मेरी ओर उठीं.

“अनुमति है?” मैंने पूछा .
“हाँ बन्धु, सुनाइए”

मैंने माइक उनसे ले लिया, आँखें बंद की और अपनी हड्डियों में दौड़ती सिहरन को सँभालते हुए तान भरी. इसके पहले कभी मैंने किसी को भी गाकर कुछ नहीं सुनाया था. इसलिए मैं डर रहा था और पूरी तरह से नर्वस था. मैंने कबीर के एक दोहे से शुरूआत की जो मुझे सबसे ज्यादा प्रिय था. इसके बाद मैंने उन्हीं की एक साखी शुरू की. माइक को मैंने कसकर पकड़ा था. थोड़ी देर बाद मैंने आँखे खोल दी.

मैंने देखा बहुत से चेहरे मेरी ओर उठ गए. आसपास बैठे लोगों ने बातें करनी बंद कर दीं. ऊपर बर्थ पर बैठे लोग उत्सुकता से मुझे देखने लगे. दूर दरवाजे पर खड़े आदमी मेरी ओर मुड़ गए. मैंने महसूस किया कि डिब्बे का सन्नाटा बढ़ रहा है. साखी की संगत देने में परेशानी महसूस करते देख मैंने उन लोगों को हाथ के इशारे से मना कर दिया.

साखी खत्म होते होते मेरा विश्वास बढ़ गया. फिर जैसे जैसे मुझे मैंने रहीम, सूर, तुलसी, रसखान, कबीर, मीरा के पद याद आते गए एक के बाद एक उन्हें मैं सुनाता गया. मैं सबकुछ भूलकर गा रहा था. आखिरी पद खत्म करके मैं रूक गया. मैंने देखा लोग खुश थे और मुस्कुरा रहे थे. जैसे उन्होंने इन चीज़ों को पहले न सुना हो.

“बन्धु एक पद और” संचालक ने कहा
“अवश्य गाता, किन्तु मुझे उतरना है”

साहिबाबाद आ गया था. “आपका शुभ नाम?” उन्होंने पूछा. मैंने नाम बताया. लोगों ने खड़े होकर मुझे रास्ता दिया. कल इन्हीं की वजह से मैं फँस गया था और चलती ट्रेन से मुझे कूदना पड़ा था.

प्लेटफार्म पर चलते हुए मेरी नज़र सामने क्षितिज में पड़ी. पूर्णिमा का चाँद ट्रेन के हाई वोल्टेज तारों के पीछे फँसा था. यह एक गझिन, ठहरा हुआ, गरम दिन था. सामने एक दूसरे में फंसती निकलती रेल की पटरियाँ थीं. दाहिनी ओर नीचे उतरते ही गाँव शुरू हो जाता था. ऊपर आसमान में बादलों में कुछ बातचीत हो रही थी. नीचे संकरी सड़क के शुरू होते ही दुकानों और घरों का सिलसिला शुरू हो जाता था. पटरियाँ पार करके भीड़ नीचे गाँव में उतरने लगी. कुछ आदमी वहीं पटरियों के किनारे नंग-धड़ंग होकर पेशाब करने लगे.

4

दरवाजा रेशू ने खोला. मैंन देखा, उससे किरणें फूट रही थी. वह तुरन्त ही नहाई होगी. मैं भीतर आ गया. बच्चे छत पर खेल रहे थे.

थोड़ी देर बाद हम लोग खाना पीना करके लेटे थे. सख्त गरमी थी. मुझे याद आया कि अम्मा का आज फोन आया था. मैंने रेशू को बताया.

“क्या कह रही थीं ?”
“सबके बारे में पूछ रही थीं”
“और?”
“रूबी की शादी की तारीख तय हो गई है”

उसे खुश होना चाहिए था. मुझे डर था कि शायद वह न हो. बुझी आवाज में उसने कहा “कब है?”
आठ दिसम्बर को. मैंने बताया.
हम कुछ देर तक कुछ नहीं बोले. फिर मैंने कहा- “अम्मा ने कुछ पैसे माँगे हैं. रेशू खामोश रही. मैंने ही कहा- कह रही थीं अगर पचास हजार तक मिल जाते तो वहाँ बड़ा सहारा हो जाता”

“तो तुमने क्या कहा?”
“मैंने कहा लगभग चालीस का इन्तज़ाम हो गया” मैंने कह तो दिया.
“कहाँ से लाओगे ?”
“जी पी एफ से निकाल लूँगा”

दस बज रहे होंगे. हवा चल नहीं रही थी. बहुत गर्मी थी. रेशू उठी और बालकनी में कुर्सी पर जाकर बैठ गई. वहाँ अन्धेरा था. बिजली चली गई थी. थोड़ी देर तक लेटे रहने के बाद मैं जाकर उसके पास कुर्सी पर बैठ गया. सामने किसी-किसी फ्लैट में रोशनी थी. नीचे की दुकान में अभी तक ग्राहक थे.

“क्या उन्हें मालूम नहीं कि हमारी हालत क्या है रेशू. अगर उन्होंने माँगा है तो कुछ सोच कर ही माँगा होगा” मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा.

“तुमने कभी किसी से कुछ माँगा है ? सबके लिए हलकान होते रहते हो. क्या कोई पूछता है कि तुम कैसे रहते हो?”

एक तरह से मैं ऐसा ही हो गया था. लेकिन मैं चाहता था कि वह मुझे समझे.

“हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा रेशू. फिर क्या कोई इसे देखता नहीं है?”

“देखता है, पर देखना एक दिन यही तुम्हें कहेंगे कि बड़े भाई होकर तुमने उनके लिए कुछ नहीं किया”

“कहेंगे तो मैं क्या उनको हिसाब दूँगा. आज इस वक्त जो हमारा फर्ज है हमें पूरा करना चाहिए”

“लेकिन क्या हमारी अपनी जरूरतें नहीं हैं मानू को यहां से निकाल कर अच्छे स्कूल में डालना है. अज्जू भी अगले साल स्कूल जाने लगेगा. क्या हम उनके लिए कुछ न सोचें?”

“तब तक कुछ इंतज़ाम हो जाएगा. लेकिन अगर अभी हमने पैसे नहीं दिए तो अकेले वहाँ कैसे हो पाएगा. मैं और बात नहीं कर सकता था” इतना कहकर मैं कमरे में आ गया. इन्वर्टर से चलने की वजह से पंखे की रफ्तार कम हो गई थी. बच्चे सोए हुए भी गरमी से मचल रहे थे.

उस सन्नाटे को थोड़ी थोड़ी देर में ट्रेन के इंजन की सीटी ही तोड़ देती थी. शाम से ही आसमान में बादल थे. इस वजह से गरमी और बढ़ गई थी. अचानक ही ठंडी हवाएं चलने लगीं. और फिर पहले हल्की और फिर खूब गरज़ के साथ तेज बारिश शुरू हो गई.

One comment
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  1. अच्छी कहानी है, लेकिन कहीं फोकस नहीं करती है। एक छोटी -सी बात के लिए इतने सारे शब्द और वातारण जाया करना कहाँ तक ठीक है? यूँ आजकल हर कोई इसी तरह से लिख रहा है। शायद ये आजकल का ट्रेंड ही बन गया है।

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