कोई दूसरा अंत: गीत चतुर्वेदी
दुनिया के ख़त्म होने के दिन का गीत
दुनिया को ख़त्म होना है जिस दिन
एक मक्खी मंडरा रही है घास की पत्तियों के गिर्द
मछुआरा लहराते जाल की मरम्मत कर रहा
छोटी डॉल्फि़नें ख़ुशी से कूद रहीं समंदर में
छज्जे के पास नन्ही गौरैया खेल रही हैं
और सांप की त्वचा हमेशा की तरह सुनहरी है
दुनिया को ख़त्म होना है जिस दिन
छतरियां ताने खेतों से गुज़र रही हैं औरतें
बग़ीचे के किनारे सो रहा है शराबी
सब्ज़ी बेचने वाले गली में चिल्ला रहे
और पीले पाल वाली एक नौका धीरे-धीरे आ रही द्वीप के क़रीब
वायलिन की आवाज़ हवा में गूंजती है
और तारों भरी रात में प्रविष्ट हो जाती है
और जिन्हें उम्मीद थी कि बिजली चमकेगी बादल कड़केंगे
निराश हैं
और जिन्हें उम्मीद थी कि संकेत मिलेंगे होगी आकाशवाणी
देवदूतों की तुरहियां बजने लगेंगी
यक़ीन नहीं कर पा रहे कि ऐसा हो रहा है
जब तक कि सूरज और चांद हमारे ऊपर हैं
जब तक कि भौंरे मंडरा रहे हैं गुलाबों पर
जब तक कि जन्म रहे हैं गुलाबी शिशु
कोई यक़ीन नहीं करता कि ऐसा हो रहा है
सिर्फ़ सफ़ेद बालों वाला एक बूढ़ा जिसे कि पैग़ंबर होना था
पर जो पैग़ंबर नहीं क्योंकि वह उनसे भी ज़्यादा व्यस्त है
दोहरा रहा है टमाटरों की गठरी बांधते हुए:
इस दुनिया का और कोई दूसरा अंत नहीं हो सकता
इस दुनिया का और कोई दूसरा अंत नहीं हो सकता
मृत्यु, अंत और सर्वनाश की परिकल्पना हर समाज में है, उसी तरह जन्म, आरंभ और नवनिर्माण की भी। ये तत्व वृत्ताकृति बनाते हैं। इसीलिए जीवन को वृत्ताकार माना जाता है। कई बार कविता भी अपनी संरचना में वृत्ताकार होती है। अंत और आरंभ के बिंदु इस क़दर जुड़े होते हैं कि उनमें फांक कर पाना मुश्किल होता है। पोलैंड के कवि चेस्वाव मिवोश की यह कविता शुरुआत और पहुंच के अपने रैखिक बोध के बावजूद वृत्ताकृति है। यह कविता जहां ख़त्म होती है, उसके तुंरत बाद पहली पंक्ति से फिर शुरू हो जाती है।
यह कविता वारसा में 1944 में लिखी गई थी, द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था, पोलैंड का एक हिस्सा जर्मनी और दूसरा सोवियत अधिकार में जा चुका था, लाखों लोगों को जबरन निर्वासन झेलना पड़ा था, यहूदियों के लिए बने मृत्युकक्ष गणनाओं से थक चुके थे, किसी भी जगह, किसी भी समय हवाई जहाज़ से एक बम गिरता और चीज़ें देखते-देखते ख़त्म हो जातीं, कई बार ‘देखते-देखते’ जैसे मुहावरे की प्रैक्टिस तक के लिए देखने वाली कोई आंख न बचती। वे दुनिया के ख़त्म होने के दिन थे। एपोकैलिप्स जैसी डॉक्यूमेंटरी फि़ल्में, जो बिना किसी नाटकीय रूपांतरण के बनी हैं, उन्हें देखकर पढ़े हुए शब्दों की भयावहता का अहसास हो जाता है। मारे गयों के निर्दोष होने के साथ ही बचे हुए लोगों का निर्दोष और बचे रह जाने की त्रासदी की अनुभूति होती है। मिवोश की शुरुआती कविताएं इसी बचे रह जाने की ग्लानि की कविताएं हैं, जिनमें वे कविता और भाषा की संभावनाओं और सीमाओं की जांच करते भी चलते हैं।
दुनिया को जिस दिन ख़त्म हो जाना है, उस दिन कोई ख़ास घटना नहीं होती। वही सारी चीज़ें होती हैं, जिन्हें रोज़मर्रा का कार्य-व्यवहार कहा जाता है। मक्खी, मछुआरे, मछलियां और गौरैयां अपने रोज़ के कामों में लगे हुए हैं, औरतें, शराबी और सब्ज़ी बेचने वाले भी कुछ नया नहीं कर रहे। पीले पाल वाली एक नौका और वायलिन की आवाज़ है, जो पता नहीं, रोज़ आती हैं कि नहीं, लेकिन इनके आने में भी कोई नयापन नहीं है। ये सब रोज़ इस तरह, इतनी बार होता है कि किसी भी सूरत में इन्हें किसी ख़ास संकेत या प्रतीक की तरह, ठीक उसी दिन के संदर्भ में, नहीं लिया जा सकता। लेकिन इस सब कार्य-व्यवहार के बीच कवि बता रहा है कि जिस दिन यह सब हो रहा था, उस दिन दरअसल दुनिया का ख़त्म होना बदा था।
क्या दुनिया इस तरह ख़त्म होगी? धर्मग्रंथों ने तो हमें बताया है कि एक क़यामत का दिन होगा, कोई जजमेंट-डे होगा, कोई महाप्रलय होगी, जिस दिन मुर्दे अपनी क़ब्रों से निकल आएंगे और आखि़री मर्दुमशुमारी होगी, सबके किए का हिसाब किया जाएगा, ठीक उसी समय आफ़्टरलाइफ़ के अलग-अलग दायित्व सौंपे जाएंगे, नई दिशाएं और नए गंतव्य बताए जाएंगे, जो निश्चित ही इस फ़ानी दुनिया से अलहदा होंगे। बादल कड़केंगे, बिजली चमकेगी, देवदूतों का काम होगा कि वे तुरहियां बजाएं और ईश्वर अपने सहचरों के साथ, जो अपने पदानुक्रम में हिसाब-किताब के काम सरिया रहे होंगे, फ़ैसला सुना रहा होगा।
लेकिन दुनिया तो आज ही ख़त्म हो रही है और पवित्र किताबों में लिखी बातों जैसा कुछ भी नहीं हो रहा। जो लोग इन किताबों पर यक़ीन करते हैं, वे वर्तमान के इस दृश्य पर यक़ीन नहीं कर पा रहे। क्योंकि दुनिया जिस तरह ख़त्म हो रही है, हमारी कल्पनाओं के अनुसार उसका ऐसा अंत होना ही नहीं था। इतनी आसानी से ख़त्म हो जाएगी दुनिया? तो क्या कोई दूसरा अंत भी होगा?
1944 में लिखी गई होकर भी, द्वितीय विश्वयुद्ध के सारे प्रभावों को अपने भीतर रखते हुए भी, होलोकास्ट की त्रासदियों को अपने शब्दों के बीच छिपाए हुए भी, इस कविता में कहीं भी युद्ध का जि़क्र नहीं है। इसमें ऐसा कोई वाक्य, उद्धरण, पंक्ति या इशारा नहीं आता, जिससे यह पता कर सकें कि दुनिया अगर आज के दिन ख़त्म हो रही है, तो दरअसल उसके ख़त्म होने का कारण क्या है?
मिवोश अपनी कविता में जिन नैरेटिव डिवाइसेस का सुंदरतम व इनोवेटिव इस्तेमाल करते हैं, उनमें से एक हैं एलिप्सिस। यह डिवाइस आपको रास्ते देता है कि आप मुख्य घटनाओं का चित्रण अपनी रचना में न करें, जबकि पेरीफ़ेरल घटनाएं, जिनका कि कोई सीधा संबंध मुख्य घटनाओं से स्थापित होता न दिखता हो, उनका प्रयोग करें। उनका स्थान-निर्धारण इस तरह करें कि, थोड़ी दूर से उन्हें देखने पर, एक अल्पश्रव्य ध्वनि गूंजे, जो मुख्य घटनाओं की मूल ध्वनि का अहसास करा दे और इस तरह पाठक अपनी तरफ़ से उन मुख्य घटनाओं का अंदाज़ा लगा ले। इस डिवाइस का इस्तेमाल रचना को डेटेड बनने से भी बचाता है, क्योंकि मुख्य घटनाओं का अंदाज़ा हर युग का पाठक अपनी तरह से लगाता है- अपने इतिहास-बोध और स्मृति-बोध से गुज़रकर ख़ुद तक आए अनुभवों के आधार पर।
इसलिए इस कविता में कहीं भी युद्ध का जि़क्र नहीं है, उन कारणों का जि़क्र नहीं है, जिनसे कि दुनिया को ख़त्म हो जाना है, इससे कवि अपने पाठकों को कारणों की संभावनागत विशालताओं की ओर जाने की छूट भी देता है। पाठक अपने अनुभवों के आधार पर कल्पना करे कि दुनिया का अंत किन कारणों से हो रहा है। और वह अंत हो रहा है, सिर्फ़ इसी बिंदु पर मिवोश दृढ़ हैं। कविता का शीर्षक और प्रीफेस इसी बात पर है। आगे ऐसा लगता है कि कवि अंत की इस घोषणा पर दृढ़ नहीं है, क्योंकि किसी ने नोटिस ही नहीं किया है कि दुनिया ख़त्म हो रही है, कोई मान ही नहीं रहा, लेकिन पैग़ंबरनुमा वह बूढ़ा मान रहा है और जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि यह वृत्ताकार संरचना की कविता है, लोगों के इस अविश्वास के बाद भी कविता आखि़री के बाद जब पहली पंक्ति की ओर धकेलती है, तो दरअसल, कथन की यह दृढ़ता अधिक स्पष्ट हो जाती है। यह न केवल अंत के कारणों को अव्यक्त छोड़ देती है, बल्कि अंत के होलोकास्टिक विवरण को भी। इस दृढ़-कथन के बावजूद।
कविता में पैग़ंबरनुमा बूढ़े का आना इसके अर्थों को एक ख़ास दिशा की ओर ले जाना भी है। बूढ़ा, जो कि टमाटरों की गठरी बांध रहा है, पैग़ंबरों से भी ज़्यादा व्यस्त है। उसकी उपस्थिति कविता को धर्मशास्त्रीय-मिथकीय-पौराणिक चेतना से भी जोड़ देती है। यह धर्मग्रंथों-जनश्रुतियों में प्रलय की अवधारणाओं को निरस्त करती है और इस तरह के एक शांत, लगभग ‘अनप्रेडिक्टेबल-अनआइडेंटिफ़ाइड-अनटेम्ड-अननोटिस्ड-अनपरसीव्ड’ अंत का दृश्य बनाकर उन अवधारणाओं में एक शुद्धिपत्र जोड़ती है- प्रलय का कॉरीजेंडम! कि दुनिया का अंत उस तरह नहीं होगा, जैसा तुम सब लिख गए हो, हम देख रहे हैं अंत को, और वह वैसा नहीं है। सच कहें, तो उसे वैसा होना भी नहीं। इसके अलावा कोई और अंत नहीं हो सकता।
इसके पहले जो अंत हुए हैं, वे अच्छी तरह बताकर हुए हैं, जैसा कि ‘बुक ऑफ जेनेसिस’ में लिखा है। जब ईश्वर प्रलय ला रहा था, तो उसने नूह को उसके बारे में विस्तार से बतला दिया। उसे नौका बनाने की तरकीबें भी बता दीं। नूह ने ईश्वर की इस ताक़ीद के बारे में किसी से नहीं बताया और वह दुनिया की महत्वपूर्ण नस्लों को बचाने में कामयाब हो गया, एक नई दुनिया बनाने के लिए। दूसरा उदाहरण भी जेनेसिस से ही है, जब ईश्वर पूरी दुनिया को तो नहीं, सोडोम और गोमोरा नामक दो नगरों को नष्ट करना चाहता था। ईश्वर ने अब्राहम को अपनी मंशा के बारे में बताया। अब्राहम ने ईश्वर से आग्रह किया कि यदि उन नगरों में दस-पांच या एक भी धार्मिक-नैतिक-सदाचारी व्यक्ति मिल जाएगा, तो ईश्वर उन नगरों को क्षमा कर देगा। ईश्वर ने भी वचन दे दिया। वहां अब्राहम के भतीजे और उसके परिवार के रूप में ईश्वर को धार्मिक-नैतिक लोग मिले भी, लेकिन हालात ऐसे बन गए कि ईश्वर को अंतत: उन नगरों को ख़त्म करना ही पड़ा।
इसके अन्य धार्मिक विश्लेषणों से इतर यह ध्यान देने लायक़ है कि जिस बात को नूह ने चुप्पी के साथ स्वीकार कर लिया था और किसी से बताया तक नहीं था, वैसी ही बात को सुन अब्राहम ईश्वर से लगभग जिरह करता है। नूह बचाने में सफल होता है, अब्राहम नहीं।
क्या इस कविता में आए बूढ़े, जिसे दरअसल एक पैग़ंबर होना था और जोकि नहीं है, को भी ईश्वर ने दर्शन देकर/देवदूत भेजकर यह सूचना दे दी है कि दुनिया का अंत होना है? और चूंकि यह पैग़ंबर नहीं है, इसलिए यह नूह की तरह चुपचाप स्वीकार नहीं करता, अब्राहम की तरह जिरह भी नहीं करता, बल्कि ईश्वर को भी संदेह से देखता कि तुम हो? वही हो? और चूंकि वह पैग़ंबर नहीं है, इसलिए सूचनाओं-संकेतों की भाषा मानता ही नहीं। पर यहां तो बताया ही नहीं गया है, उलटे बताए जाने के सारे गुणों-तरीक़ों को ही अनुपस्थित माना गया है। और उन पर यक़ीन करने वालों को बेयक़ीनी में जड़वत।
1 सितंबर 1939 को जब हिटलर की फ़ौज ने पोलैंड पर हमला किया था और दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई थी, तब भी क्या ऐसा ही दिन न रहा होगा? अप्रत्याशित रूप से फटे हुए बम ने ग़ाफि़ल लोगों को अविश्वास, अचरज या चीत्कार करने का मौक़ा तक न दिया होगा, उनके चीथड़े उड़ा दिए होंगे, तब भी क्या ऐसा ही दिन न रहा होगा- एक आम दिन, जब सारे काम अपनी गति से चल रहे थे और किसी को भान ही नहीं था? जब सीक्रेट पॉलिटिकल पुलिस घर में सोते हुए निरपराध लोगों को उठा ले गई होगी और किसी कैंप-गुलाग में भेजने से पहले ही जंगल के किनारे गोलियों से भून दिया होगा, तब भी ऐसा ही दिन रहा होगा। जब ‘ऑटम ऑफ़ द नेशन’ की शुरुआत के दमन हुए होंगे, जब ‘ईस्टर्न ब्लॉक’ से लाल झंडा उतर गया होगा, तब भी? जब थिएनमान चौक पर टैंकों को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर सिविलियन ड्यूटी पर लगाया होगा, तब भी? कारण की तलाश में हम पोलिश भाषा और वहां की स्थितियों से बाहर भी निकल सकते हैं। युद्ध के अलावा और भी कारण तलाश सकते हैं। तमाम नैतिक-व्यावहारिक पतन, अमानवीयताओं, क्रूरताओं, गुप्त हिंसाओं और स्निग्ध मुस्कान वाले कुटिल अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों तक- दुनिया के अंत के किसी भी कारण की कल्पना की जा सकती है।
ऐसे भी देख सकते हैं कि जिस तरह दुनिया रोज़ बनती है, उसी तरह रोज़ ख़त्म भी होती है। संभव है कि दुनिया का यह ख़त्म होना क्षेत्रफल में पृथ्वी को नापने वाली दुनिया न हो, यह किसी की निजी दुनिया हो, किसी अंतर्तम की दुनिया हो? बहुत हद तक संभव है, क्योंकि यह कविता हमें इस तरह पढ़े जाने की भी आज़ादी देती है, लेकिन हर जगह एक ही दृश्य-बंध के साथ, जिसमें भावुक-नाटकीय दृश्य-ध्वनि-विस्फोट नहीं होगा। कोई झन्नाटेदार बैकग्राउंड म्यूिज़क नहीं बजेगा, कोई चेतावनी नहीं दी जाएगी- बस, सब कुछ ख़त्म हो जाएगा।
मिवोश संशयात्मा हैं (उनकी बाद की कविताओं से भी यह ज़ाहिर होता है। इस कविता के लगभग साल-भर बाद ही उन्होंने ‘समर्पण’ कविता लिखी थी, जिसकी एक पंक्ति कविता की सीमाओं की पड़ताल का एक मुहावरा बन गई है- ‘वह कविता किस काम की, जो देशों और लोगों को बचा न सके’)। संभवत: इसी को बोर्हेस ने ‘अ पोएट्स क्रीड’ कहा है। मिवोश प्रतीकों, कार्यव्यवहारों, देवदूतों, पैग़ंबरों, धर्मग्रंथों, ऐतिहासिक-मिथकीय अवधारणाओं को संशयग्रस्त होकर देखते हैं। चांद और सूरज का हमारे ऊपर बने रहना, भौंरों का गुलाबों के पास मंडराना, गुलाबी शिशुओं का जन्म लेते रहना- मासूम, स्वप्न और उम्मीद से भरे हुए अत्यंत प्रचलित प्रतीक हैं। इन सबके बीच अंत की घोषणा करना इनकी ओर भी संशय से देखना है। क्या ये सारे प्रतीक भी सर्वनाश के इस महाषडयंत्र में शामिल हो गए हैं- कोल्ड वार के संदिग्ध सहकर्मियों-मुख़बिरों की तरह? क्या ये प्रतीक भी छल कर रहे हैं, अपना वह पुरातन वादा तोड़ते हुए कि जब तक हम उपस्थित रहेंगे, दुनिया को सुंदर और जीवित बनाए रखेंगे? क्या देवदूत वादाखि़लाफ़ी कर रहे हैं, जबकि उन्होंने कहा था कि क़यामत के ठीक पहले हम तुरही बजाकर संकेत दे देंगे? क्या वे ईश्वर से भी वादाखि़लाफ़ी कर रहे हैं कि उसका हुक्म तक नहीं मान रहे? इसका अर्थ यह है कि ये प्रतीक अपने स्वभाव-व्यवहार में संदिग्ध हो चले हैं? ‘क्या ये भी हत्यारों के साझीदार हुए?’
bahut hi saaf-suthri bhasha men aapne aapne is kavita ka marm udghatit kiya hai…geet men aisi aalochkiy vyavastha dekh kar mujhe bahut aaswasti hui…main mn hi mn unki vishnu khare wali kavita par likhi tipanni ko apvad maan kar chal raha tha…lekin geet ke is lekh ne mujhe na sirf sukhad achraj karne ke karan diye balki yah aaswasti bhi di ki we kavitaon par, bhale hi ek-ek kavita par, likhenge aur jab bhi likhenge uska apne tain behtar se behtar paath prastut karenge…milosz ki is kavita ko padhne men sanlagn unki itihas dristi ki or mera dhyan khas taur se gaya…yh itni bedhak hai ki usne kavita ke bhitar jazb un anlikhi panktiyon ko bhi likh diya hai jo kavyabhipray talashte hue kai dafa haath nahi lagti…ek achhi aalochna/paath agar aisa kare to yah uski sabse badi saflata hai…aalochna ke is prathmik gun-dharm ko geet pahchante hain aur isiliye wah kavita aur pathak ke beech apne gadya ko pul ban jane dete hain…lekin aisi udar chhot dete hue bhi apni paini antardrishti ya purwagrah ko shithil nahin karte…