आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

चिट्ठियाँ जहाँ ख़त्म होती हैं, वे मृत्यु के अक्षर होते हैं: गौरव सोलंकी

तुम्हारे सामने मेरा गिड़गिड़ाना

वे सब वहाँ से आते हैं,
हमारे माँ और पिता दोस्तों,
किन्हीं अन्दरूनी दुखों से उठते हुए
या बचपन के किसी पकवान की सुगन्ध से
और जब मैं जल रहा हूँ,
मैं जानता हूँ माँ
कि तुम भी मेरे साथ जल जाना चाहती हो
क्योंकि बचा तो नहीं सकता मुझे कोई।

यह एक चीत्कार की तरह है
कि प्यार भी गर्म सलाखों की तरह
घुसेड़ा जाए आपकी आँखों में
और जो आपको बहुत प्यार करने का दावा करते हैं,
अनसुलझी चुप्पियों में गुमसुम बैठे रहें

तुम्हारे सामने मेरा गिड़गिड़ाना, सुनो,
मेरे भगवान हो जाने जैसा है
किसी दिन हम साथ में जा रहे होंगे कहीं
और दुर्घटना होगी, बम फूटेगा, मैं मरूँगा अकेले।

तलाशता हूँ जेबें

घोड़े दौड़ते हैं नींद में,
उन्हें बेचकर सो जाती हो तुम।
हम अपने सपनों में आग लगाकर
दिन रात रोशनी बाँटते हैं अथक,
तुम मुझे देखती हो ऐसे
जैसे काँच को देखती हो
और शोर के पीछे की गली में
हम लावारिस पड़े हैं।
हाँ, तुम थोड़ी आश्वस्त।

जीत की तालियों की गगनचुम्बी गड़गड़ाहट के बिना
हम जान झोंककर तमाशा करते हैं दोस्तों!
यह और बात है कि
हमारी आँखों के नीचे पड़े काले गढ्ढों
और दुखती काँपती टाँगों से आप होते हैं विकर्षित
और खाली बोतलें फेंकते हैं।
मगर यकीन मानिए,
जिस समय हमें अपने बिस्तरों में दुबककर प्रेम करना चाहिए था,
हम आपके लिए गीत लिख रहे थे

आप बार बार यही क्यों कहते हैं
कि वे बुरे बने
उन्हें छोड़कर क्या आप
कल रात भर मेरे जागने के बारे में दो बातें करना चाहेंगे?

कैसी हवा चलती है माँ,
बार बार लगती है भूख,
तलाशता हूँ जेबें।

ज़रा सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी के लिए

घाघ आदमियों के बीच
पेड़ थे सब लड़के
और यह फ़ानूस, मोमबत्ती या आग के भी जन्म से
बहुत पहले की बात है
जब पंख वाले बारिशी कीड़े
फड़फड़ाते थे सूरज की ओर चेहरा करके
और किसी साधारण शाम में,
जब अपनी उम्र और माँओं पर थोड़ा तरस खाकर
हम सबको साथियों,
हो जाना चाहिए था थोड़ा सा रूमानी,
हम बिगड़े हुए स्कूटरों की तरह
घर की नीलामी के वक़्त भी
सबसे बेकार की चीज थे,
सबसे उदास भी बेकार में ही

समुद्र उठता है
मेरी छाती की ज़मीन में,
बाघ कपड़े पहनकर
निकलते हैं शिकार पर,
बेघर और अनाथ समय
बदहवास सा दौड़ता है बेवज़ह,
हर दिशा से बढ़ा आता है
हत्यारों का हुज़ूम

जब शुरु किया हमने
तो चौथी कक्षा की किताब की
बकरी की एक कोमल कहानी के बारे में सोचा था,
जब ख़त्म करेंगे तो
धड़ाधड़ गोलियाँ और नंगे शरीर होंगे निश्चित ही

मगर फिर भी हे ईश्वर!
ज़रा सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी
हमेशा बची रहे हममें,
बहुत सी चीजें और चित्र हों
जो कभी समझ में न आएँ।
स्वतंत्र रहने की हमारी ज़िद्दी अमर चाहत के बावज़ूद
ऐसे लोग हों ज़रूर,
जो बार बार टोकते हों,
बताते हों सही ग़लत,
ऐसी फ़िल्में रहें हमेशा,
जिन्हें छिपकर कम वॉल्यूम में देखना पड़े,
एक करोड़वीं बार भी तुम्हें चूमूँ
तो लाल हों गाल,
नाखून कुतरते रहें परेशानियों में,
खाने के वक़्त भी हिलाते रहें पैर।

बेवज़ह उदास नहीं रहता कोई
घरों के आख़िरी कोनों
या पुराने स्कूलों को खोदकर देखो,
खोलो पलंग की चादरों की आख़िरी तह।
शहर को एक बार जलाकर देखो नंगा,
घर की रोटियों में ढूँढ़ो काँच

चिट्ठियाँ जहाँ ख़त्म होती हैं,
वे मृत्यु के अक्षर होते हैं

छतों से कूदकर नहीं आती मृत्यु

अपने दुखों की छाया में बैठकर
हम चरखा कातेंगे गांधीजी!
क्या आप देखते हैं?
उन्हें पहनकर खुश होंगे हमारे नंगे बच्चे
और मान लेंगे कि
वे और बच्चों की तरह
भव्यताओं की संतानें हैं,
हमारी असमर्थताओं की नहीं।
वे अंग्रेज़ी पढ़ेंगे और चहकेंगे।
नहीं पढ़ेंगे हमारी कवितायें।
पढ़ लेंगे तो मर नहीं जायेंगे क्या?

वे बच्चे हैं
और उन्हें ख़ुश रहना चाहिए।

छतों से कूदकर नहीं आती मृत्यु।
वह जीवनदायिनी स्त्रियों की आँखों में छिपकर बैठी होती है कहीं।
तुम्हारे हर झूठ से
मेरा एक हिस्सा अपाहिज हो जाता है।
तुमसे मोहब्बत
अधरंग से होते हुए
मेरी मौत पर ख़त्म होगी।

कहाँ हो हे ईश्वर?
क्या बीच का कोई रास्ता नहीं खोजा जा सकता
जिस पर हम एक दूसरे के रास्ते ना काटें
और रोटी खाएं, पानी पियें, रो लें और
सो जाएँ ठीक से हर रात।

मैं तुम्हारे गले लगूँ
और मर जाऊँ।

One comment
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  1. kavitayen dil ko aaht aur raht saup gayen.

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