आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

एक वैकल्पिक धर्म-लोक: काँचा इलैया

दलित बहुजन देवियाँ और देवता

कई ऐसे देवी-देवता हैं जिनकी जातिगत या क्षेत्रीय खासियतें हैं. मगर इन सबमें एक चरित्रगत समानता है. वे जिस चेतना को बढ़ाते हैं या उनका जो परिप्रेक्ष्य आधार है उसमें वे एकसमान हैं. इन देवी-देवताओं  के इर्द-गिर्द जिस चेतना का निर्माण होता

है वह चेतना उत्पादन प्रक्रियाओं से गहरे जुड़ी है. यह बेहद महत्त्वपूर्ण बात है कि मानवीय अस्तित्व और उत्पादक शक्तियों और प्रकृति के बीच का संबंध ही इन चरित्रों का आधार है.

देवी-देवताओं के चरित्रों का विकास एक दार्शनिक आधार होता है. दलितबहुजन जनता में यह दार्शनिक आधार एकदम भिन्न है. देवी-देवता समाज के किसी हिस्से को दबाने के लिए काम नहीं करते हैं. समुदाय के किसी हिस्से का शोषण करने के लिए काम नहीं करते हैं. समुदाय के किसी हिस्से का शोषण करने के लिए उनकी रूप-रचना नहीं की जाती है. वे एक सामान्य सांस्कृतिक आदर्श की रचना करने के लिए काम करते हैं. इससे जनसमुदाय को उत्पादक गतिविधियों में लगे रहने की प्रेरणा मिलती है. दलितबहुजन संस्कृति और हिन्दु ब्राह्मणवादी संस्कृति के बीच के भेद का मूल्यांकन करने के लिए हमें दलितबहुजन ग्रामीण-जनों के बीच लोकप्रिय देवी-देवताओं के चरित्रों को समझना चाहिए. यह एक ध्यान देने की बात है कि दलित बहुजन आख्यानों मे देवियों की संख्या देवताओं से कहीं ज्यादा है.

पोचम्मा

आन्ध्रप्रदेश के दलितबहुजनों में पोचम्मा (मुझे विश्वास है कि इसके जैसी विशेषताओं वाली देवी पूरे भारत में मिल जायेगी) एक बेहद लोकप्रिय देवी है. हर गाँव के नजदीक पोचम्मा देवी का एक छोटा मंदिर मिल जाता है. देवियों के मामले में खुद मंदिर की अवधारणा भी भिन्न है. मंदिर एक ऐसा स्थान है जहाँ  देवी निवास करती है मगर यह मंदिर ऐसा नहीं होता कि वहाँ  देवी की रोजाना पूजा-अर्चना की जाये. पोचम्मा पुजारियों द्वारा रोजाना पूजा वाली देवी नहीं है. साल में एक बार लोग ( ब्राह्मण-बनिया के अलावा सभी जातियों के लोग) मंदिर में बोनालु (मटके जिनमें मीठा चावल पकाया जाता है) लेकर जाते हैं. वे देवी का प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे पत्थर को धोते हैं. और मंदिर और उसके आस-पास की जगह को साफ करते हैं. लोग पुजारियों की मध्यस्थता के बिना देवी के पास जा सकते हैं. वे देवी से उसी तरह से बात करते हैं जैसे वे अपने लोगों के बीच बात करते हैं. वे कहते हैं-“मां! ळमने खेतों में बीज बो दिये हैं. अब तुम वादा करो कि हमारी फसल अच्दी हो. हमारा एक बच्चा बीमार है. अब उसे ठीक करना तुम्हारी जिम्मेदारी है …” अगर कोई इन प्रार्थनाओं को सुने तो उसे पता चल जायेगा कि यह कितना मानवीय है. यह कोई बहुत नयी चीज नहीं है. लोग देवी के सामने एक पत्ते पर थोड़ा सा बोनम (इसे पाडी कहा जाता है) रखते हैं. सबसे अंत में वे अपने साथ लाये मुर्गे या भेड़ को काटते हैं. दलितबहुजन लोग दयालु (पीटने वाला ताल वाद्य) को बजाते हैं. युवा लोग नृत्य करते हैं और आनंद मनाते हैं.

पोचम्मा के बारे में उनकी धारणा क्या है? वह लोगों को हर तरह की बीमारी से बचाती है. वह हर तरह की बीमारी का इलाज करती है. सीता की तरह उसकी कोई खास लैंगिक भूमिका नहीं है. पोचम्मा के पति के बारे में कोई नहीं जानता.

उसका कोई पति नहीं है. सिर्फ इसी बात के लिए कोई उसे घटिया या बेकार नहीं मानता है. एक तरफ सरस्वती और लक्ष्मी के बीच का फर्क तो दूसरी तरफ उनके और पोचम्मा के बीच का फर्क आश्चर्यजनक है. पोचम्मा स्वतंत्र है. वह किसी आदमी की सेवा नहीं करती. मनुष्यों के साथ उसका रिश्ता लिंग, जाति और वर्ग से ऊपर है. वह गाँव के हरेक प्राणी की देखभाल करती है. वह अपने आपको प्रकृति, उत्पादन और प्रजनन से जोड़ती है. पोचम्मा और लोगों के बीच काफी गहरा रिश्ता है. इसकी वजह ये है कि वह सभी भाषाओँ और अन्तरविरोधों को समझती है. लोग उससे अपनी जुबान में बात कर सकते हैं. ब्राह्मण उससे संस्कृत में बात कर सकता है. और कोई अंग्रेज अंग्रजी में.

पोचम्मा के पास जाने से पहले हर कोई नहाता है और साफ कपड़े पहनता है. जिनकी हैसियत हो वे नये कपड़े पहन सकते हैं. पोचम्मा के पास जाने के लिए किसी पट्टुवस्त्रम (रेशमी वस्त) पहनने की जरूरत नहीं है. किसी को पूरे दिन का उपवास करने की भी जरूरत नहीं है. हिन्दू देवी-देवताओं के मामले में उन्हें ऐसा करना पड़ता है. लोगों के घर मे जो खाना मौजूद हो उसे वे खा सकते हैं. साथ ही वे ताड़ी या अरक पी सकते हैं. इसका मतलब ये नहीं है कि पोचम्मा शाकाहारियों से नफ़रत करती है. (जैसे अब हिन्दू देवता मांसाहारियों से घृणा करते हैं और प्राचीन भारत में वे शाकाहारियों से घृणा करते थे) कोई भी शाकाहारी खाना लेकर पोचम्मा के पास जा सकता है. वह लोगों की देवी है. इसलिए वह लोगों की आदतों का सहानुभूतिपूर्वक आदर करती है. दलितबहुजनों में पुरोहिताई की कोई अवधारणा नहीं है. इसलिए हर कोई अपने तरीके से पोचम्मा से प्रार्थना कर सकता है. क्या कोई मुसलमान या ईसाई उसके पास जा सकता है? हाँ , पोचम्मा के मंदिर में कोई भी धर्म प्रतिबन्धित नहीं है. किसी भी धर्म के लोग उसके पास जा सकते हैं. पोचम्मा यह स्पष्ट नहीं करती कि उसे क्या भेंट दी जाये. पोचम्मा की भेंट परिवार की आर्थिक हालत पर निर्भर करती कि उसे क्या भेंट दी जाये. पोचम्मा की भेंट परिवार की आर्थिक हालत पर निर्भर करती है. अमीर लोग बोनालू के साथ साड़ी और ब्जाऊज का कपड़ा लेकर जाते हैं. और उसे वापस अपने घर ला सकते हैं. जो लोग भेंट देने की स्थिति में नहीं होते हैं वे बिना किसी भेंट के जा सकते हैं.

पोचम्मा का मंदिर राम, कृष्ण और वेंकटेश्वर के मंदिरों की तरह केन्द्रीकृत नहीं होता है. वह हरेक गाँव में मौजूद है. उसके पास जाने के लिए लोगों को लम्बी दूरी तय करने की जरूरत नहीं है. यह बात लोगों की सामाजिक और आर्थिक जिन्दगी, उनके समय और उनके मनोवैज्ञानिक संतोष को प्रभावित करती है. दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पोचम्मा के इर्द-गिर्द पैदा होने वाली आध्यात्मिकता लोगों को बांटती नहीं है. यह मतभेदों की स्थिति नहीं बनाती है. यह किसी आदमी को दोस्त और को दुश्मन नहीं बनाती है.

पोचम्मा साम्प्रदायिक कलह में विश्वास रखने वाली देवी नहीं है. उसके लिए धार्मिक भिन्नता को कोई अर्थ नहीं है. अगर मंदिर के आस पास लोग खड़े हों और कोई सुअर वहाँ  से गुजरे तो कोई इसे बुरा नहीं मानता. सूअर समेत कोई भी जानवर दलितबहुजन संस्कृति में अशुभ नहीं माना जाता है. ऐसे किसी साम्प्रदायिक दंगे का उदाहरण नहीं मिलता जो पोचम्मा के मंदिर से शुरू हुआ हो. ऐसे दंगे राम मंदिर, कृष्ण मंदिर और नरसिंह मंदिर से शुरू होते हैं ठीक वैसे ही जैसे मस्जिद से शुरू होते हैं.

क्या पोचम्मा की जड़ें भौतिकतावादी संस्कृति में हैं या जादुई (चमत्कारी) संस्कृति में? गाँव में कई ओझा होते हैं. ब्राह्मणों की तरह वे भी दूसरे लोेक की शिक्त् में विश्वास करते हैं. लेकिन गाँव के ओझा अपने आपको पोचम्मा से नहीं जोड़ते हैं. वे स्वतन्त्र लोग होते हैं. वे यह दावा करते हैं कि वे आत्माओं को बुलाकर लोगों की स्थिति में बदलाव ला सकते हैं. लेकिन कोई भी ओझा पोचम्मा को नियंत्रित करने का दावा नहीं करता है. पोचम्मा और लोगों के बीच मध्यस्थता करने की भूमिका किसी को नहीं दी गई है. गाँव के ओझा उछल-कूद करते हैं, नृत्य करते हैं और अपने लम्बे बालों को खोल देते हैं. वे शक्तिशाली पेड़ों और पत्तियों के नाम बोलते जाते हैं. वे उन लोगों के नाम बोलत हैं. जिन्होंने इन पेड़-पौधेां को खोजा होता है.

वे इस प्रकार की गतिविधि को शिवमतुलुता कहते हैं. ओझा को शिवासाथुलु कहा जाता है. कभी कभी ये लोग किसी खास देवी के भक्त होते हैं. कुछ शिवसाथुलु पोचम्मा के भी भक्त हैं. वे धन के लालच में लोगों को भ्रमित नहीं करते हैं. वे दिन भर काम करते है और शाम को शिवम समाधि में चले जाते हैं. वे लोगों को यह नहीं कहते हैं. कि वे बीमारियों को दूर कर सकते हैं. अधिक औरतें और खास तौर पर विधवाएं दूसरे लोक की ताकत में विश्वास रखती हैं. दिन भर के काम के बाद में शिवम समाधि में चले जाते हैं और शिव साथी बन जाते हैं. फिर वे नाचते-गाते हैं और पेड़, पौधों और लोगों के नाम उच्चारते हैं. दरअसल शिवसाथी प्रथा विधवाओं के लिए सामाजिक जगह है. क्या पोचम्मा शिक्षित है. या अशिक्षित? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता. लेकिन तथ्य यही है कि शिक्षा के संबंध में पोचम्मा का नाम नहीं आता. ग्रामीण जनसमुदाय, खासतौर पर औरतें, अशिक्षित होती हैं. वे शिक्षा या रोजगार से पोचम्मा का संबंध नहीं जोड़ती हैं. गाँव के लोगों की मांगें (मनौतियाँ) मुख्यत: उत्पादन, प्रजनन और बीमारी से जुड़ी होती हैं. इस आधार पर पोचम्मा एक भौतिकवादी देवी है जो मानवीय जीवन और उसकी आवश्यकताओें से जुड़ी है.

कट्टामाईसम्मा

पोचम्मा के बाद दूसरी लोकप्रिय देवी कट्टामाईसम्मा जल की देवी है. उसका उपासना स्थल (एक छोटा पत्थर) गाँव के तालाब के किनारे बनाया जाता है. उसको किसी बड़े मंदिर की जरूरत नहीं है. लोगों का विश्वास है कि तालाब को जल से भरा रखना ही कट्टामाईसम्मा का काम है. वह जल-संसाधनों की देखभाल करती है. दलितबहुजन लोग मानते हैं कि बुआई से लेकर कटाई तक कट्टामाईसम्मा फसल की देखभाल करती है. तालाब के नीचे वाली धान की फसल उसकी दुआओं से ही अच्छी होती है. आजकल इस तरह की मान्यता धीरे-धीरे समाप्त हो रही है. अब वे सोचते हैं कि फसल की गुणवत्ता खाद और कीड़े मारने की दवाई पर निर्भर करती है. इसलिए एक औसत अनपढ़ किसान खादों का प्रयोग करता है. इस आधार पर दलितबहुजन मस्तिष्क एक वैज्ञानिक मस्तिष्क है. जो उभरती हुई तकनीक और विज्ञान को आसानी से ग्रहण कर लेता है. इसके बावजूद कट्टामाईसम्मा उसकी चेतना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. कट्टामाईसम्मा के संबंध में कई रीति-रिवाज निभाये जाते हैं.

पांच सालों में एक बार कट्टामाईसम्मा से संबंधित त्यौहार मनाया जाता है. कई गाँवों में कई, बकरियाँ और मुर्गे काटे जाते हैं. और एक बड़ी दावत का आयोजन किया जाता है. चावल पकाया जाता है. फिर उसे जानवर के खून में भिगोकर बलि (त्याग) के रूप में खेतों में बिखरा दिया जाता है. इस बारे में ऐसा विश्वास है कि कट्टामाईसम्मा देखे कि खेतों में अच्छी फसल हो और फसल सामाजिक रूप उपयोगी हो. हमारी भाषा में कहते हैं. कि इससे बरक्कत (समृद्धि) होती है.

कट्टामाईसम्मा का सामाजिक उद्गम क्या है? खोजबीन करने पर पहली बात तो यही पता चलती है कि कट्टामाईसम्मा एक दलितबहुजन औरत है. उसने तालाब (जंदा) निर्माण की तकनीक की खोज की थी. वह काफी इधर-उधर घूमी होगी और उसने बड़ी सावधानी के साथ भूमि और जल के पैटर्न का अध्ययन किया होगा. शायद वह पहली औरत है जिसने बताया कि एक तालाब को कहाँ बनाना चाहिए? तालाब का निर्माण कैसे करना चाहिए? किसी तालाब में कितना जल संग्रहीत करना चाहिए. इस तरह की खोज ने कृशि उत्पादन को सचमुच बढ़ाया होगा.

पोलीमेराम्मा

पोलीमेराम्मा एक ऐसी दूसरी देवी है. जिसकी रचना दलितबहुजनों ने की और उसे अपने बीच में लोकप्रिय बनाया. पोलीमेराम्मा बाहर से आने वाली हर तरह की मुसीबतों से गाँव की रक्षा करती है. वह इन मुसीबतों को गाँव की सीमा पर ही रोक लेती है. लोगों ने उसे जाति और वर्ग से ऊपर उठकर समूचे गाँव की रक्षा का भार सौंपा है. पांच या दस सालों में एक बार पोलीरम्मा के मंदिर पर एक भैंस को काटा जाता है. बड़ी मात्रा में पकाये गये चावल में उसके खून को मिलाया जाता है. इसके मांस को माला, मडिग्ग और मुसलमान खाते हैं. मुसलमान इन रीति-रिवाजों से बहिष्कृत नहीं किये जाते हैं. खून में भीगे हुए चावल को बलि के रूप में हरेक छत पर फेंका जाता है. सभी खेतीहर परिवार इस बलि की मांग करते हैं. मगर ब्राह्मण और बनिया अपने आपको इस काम से अलग रखते हैं. मुसलमान परिवार भी गाँव के खेतीहर ढांचे में शामिल हैं. इसलिए वे भी इस बलि में अपने हिस्से की मांग करते हैं.

मुसलमान मर्द और औरतें दलितबहुजन मर्द और औरतों के साथ फसल रोपणी, बुआई और कटाई करते हैं. दलितबहुजन जो खाने की चीजें खेतों पर ले जाते हैं उनमें मुसलमान हिस्सेदारी करते हैं. वे अपने वैयक्तिक खेती सम्बन्धी कौशलों की हिस्सेदारी करते हैं. पीरीला (मुहर्रम) का उत्सव जितना मुसलमानों का होता है. पीरी शोभायात्रा में दलितबहुजन आगे-आगे रहते हैं. वे पीरो को (लकड़ी का ढांचा जिसे डाटी कहा जाता है इस ढांचे के ऊपर तांबे की प्लेट लगी रहती है और उसे रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाया जाता है.) अपने कंधों पर उठाते हैं. ऐसे मौके पर मुसलमान बिरियानी (एक ऐसा खाना जिसे बकरे के मांस और चावल को मिलाकर पकाया जाता है) पकाते हैं और उसे दलितबहुजनों के घरों में भेजते हैं. इस प्रकार दलितबहुजनों के परिवारों में बिरियानी का स्वाद मुसलमानों की देन है. यह मुसलमानों और दलितबहुजनों के बीच गहरे संबंध की स्थिति है. इसलिए सारे दलितबहुजन त्यौहार मुसलमानों के भी त्यौहार होते हैं. तेलंगाना के गाँवों में बरकती बहुत लोकप्रिय शब्द है. यह शब्द उर्दू के शब्द बरकत से लिया गया है. दलित बहुजनों और मुसलमानों के बीच इस गहरे संबंध की स्थिति में मुसलमानों की बलि की मांग एक जुड़ी हुई प्रक्रिया है.

बलि को हरेक घर की छत पर बिखरा दिया जाता है. इसके बाद एक गाँव को दूसरे गाँव के लिए एक सप्ताह तक बंद कर दिया जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि इस गाँव में दूसरे गाँव की बीमारियाँ और बुराइयाँ प्रवेश ना कर पायें. इसी तरह गाँव के लोग दूसरे गाँव में नहीं जाते हैं. ऐसा माना है कि यात्रा करने से उस गाँव की समृद्धि चली जाती है. इस दौरान समृद्धि, अच्छाई-बुराई के बारे में बहसें होती हैं और ये सारी बहसें उत्पादन, प्रजनन और बीमारियों पर आधारित होती हैं.

हमारी देवियाँ

ऐसी बहुत सी देवियाँ हैं जो गाँव, क्षेत्र और जाति विशेश की देवियाँ हैं. इनमें से कुछ येल्लम्मां, मारेअम्मा, अप्पलम्मा, सामाक्का, सारक्का आदि देवियाँ हैं. इन देवियों का एक महत्त्वपूर्ण पहलू ये है कि इन देवियों की कोई खास स्त्रीयोचित भूमिका नहीं है. ये देवियाँ अपने पतियों का नियंत्रण, शोषण करने या उनके साथ छल-कपट करने के लिए नहीं जानी जाती हैं. वह किसी पुरूष को अपने आधीन भी नहीं करती हैं. इसमें से कोई भी देवी कोमल स्त्रेणता का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. उन्हें कमल के फूल पर बैठा हुआ नहीं दिखाया जाता है. साथ ही वह मोर, हंस या किसी दूसरे पक्षी पर यात्रा करती हुई भी नहीं दिखाई जाती है. कोई भी एक देवी ऐसी नहीं है जिसे सरस्वती या लक्ष्मी की तरह अपने पतियों के पैर दबाते हुए दिखाया जाता हो. दलितबहुजन पुरूष भी इन देवियों का आदर करते हैं. वे शक्तिशाली और स्वतंत्र औरतें हैं. बंगाली देवी काली को उग्र और स्वच्छंद, लाशों पर नृत्य करती और गले में खोपड़ियों को पहने हुए दिखाया जाता है. लेकिन दक्षिण भारत की

दलित बहुजन देवी ऐसी हिंसा का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. वो बुद्धिमान औरतों के रूप में जानी जाती है. उन्होंने गाँवों की खुशहाली के लिए किसी न किसी चीज की खोज की है. वो ऐसी इंसान हैं जिन्होंने खतरों से गाँव वालों को बचाया है. वो गाँव की फसलों और समृद्धि पर लगातार दृष्टि बनाये रखती हैं.

कुछ ऐसी देवियाँ भी हैं जिन्हें पूरे इलाके को बचाने के लिए युद्ध करने पड़े हैं. सामाक्का और सारक्का ऐसी ही दो देवियाँ हैं. ये दोनों आदिवासी देवियाँ तेलंगाना जिले में बहुत लोकप्रिय हैं. इन देवियों की कहानी उन लड़ाकू आदिवासी औरतों की तरफ इशारा करती है जिन्होंने 12वीं और 13वीं सदी के दौरान मुलुगु आदिवासी पट्टी में काकातिया राजाओं के आक्रमणों का जमकर मुकाबला किया. सामाक्का ने आदिवासी जनसमुदाय को उनके बचाव के लिए संगठित किया था. शक्तिशाली काकातिया फौज ने इस आदिवासी सेना को परास्त कर दिया था. सामाक्का, सारक्का और सामाक्का के भाई जामपना की जामपानावागु (मुलुगु के निकट वारंगल जिला) के नजदीक हत्या  कर दी गई. उस दिन के बाद से सामाक्का और सारक्का आदिवासियों की शहीद नायिकाएं बन गई. धीरे-धीरे मैदानी इलाके वाले दलितबहुजनों ने जातरा (त्यौहार) मनाना शुरू कर दिया.

सामक्का और सारक्का युद्धभूमि से उभरी देवियाँ हैं. फिर भी हिन्दू देवताओं के विपरीत ये देवियाँ विजेता या आधीन करने वाली देवियाँ नहीं हैं, बल्कि वो शहीद देवियाँ हैं. यह एक साधारण सी बात है कि शहीद दैवीय आत्माओं में तब्दील कर दिया जाता है. ईसा मसीह की कहानी इस बात का उदाहरण है. ऐसा कोई हिन्दू देवी-देवता नहीं है जिसने जनसमुदाय की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी हो. वे हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के नायक-नायिकाओें की तरह अंतत: विजयी होते हैं. किसी आख्यान में नायक या नायिका को अंतत: विजेता दिखाकर हिंसा को न्यायसंगत बना दिया जाता है. बल्कि हिंसा को एक सकारात्मक लोकाचार के रूप में बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है. दलितबहुजन सांस्कृतिक परंपराओं और हिन्दू सांस्कृतिक परंपराओं के बीच यही मुख्य भेद है. हिन्दू आख्यानों की तरह किसी भी दलितबहुजन आख्यान में हिंसा को विशेषाधिकार की तरह पेश नहीं किया जाता है.

पोटाराजु

यह बात पोटाराजु के देवताओं के आख्यानों के बारे में भी सच है. उदाहरण के लिए गाँव के सामान्य देवता पोटाराजु को लें. खेतीहर जातियों में पोटाराजु एक बेहद लोकप्रिय देवता हैं. प्रत्येक किसान परिवार अपने खेत में सफेद रंग से पुते और हल्दी के धब्बे वाले पत्थर को रखते हैं. इस देवता का मंदिर के साथ कोई संबंध नहीं है. यह मुश्किल से एक वर्ग फुट जगह घेरता है. उधर हिन्दू देवताओं के मंदिर खेती के लिए उपयोगी और आवासीय भूमि माँ से कई एकड़ स्थान घेर लेते हैं. पोटाराजु से संबंधित बहुत कम रीति-रिवाज हैं. लोगों की ऐसी मान्यता है कि पोटाराजु चोरों से और लुटेरे जानवरों से खेतों को बचाता है. इस मान्यता में सुरक्षा को बोध है. शायद इसलिए कोई किसान खेतों की देखभाल नहीं करता है. कारण कोई भी फसल चुराने की हिमाकत नहीं करता है. हर आदमी यह मानता है कि ऐसा करने पर उसे पोटाराजु के कोप का सामना करना पड़ सकता है. अगर कोई चोर पोटाराजु की मूर्ति को देख लेता है तो वह कुछ भी छूने की हिम्मत नहीं कर पाता है. उसके बदले में पोटाराजु लोगों से क्या चाहता है? वह बहुत छोटी सी भेंट मांगता है. फसल के पक जाने के बाद पोटाराजु को एक मुर्गे की बलि देनी होती है. लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस छोटी सी भेंट से पोटाराजु प्रसन्न हो जाता है. जो लोग पोटाराजु के सामने कुछ भी भेंट नहीं चढ़ाते हैं उन्हें भी मुर्गे की तरी प्रसाद स्वरूप दी जाती है.

गाँव का कोई देवी या देवता ऐसे यज्ञ की मांग नहीं करता है जिसमें किसी पूजारी की जरूरत पड़ती हो. उनको पूलीहूरा प्रसाद, डाडूजानम, घी या पेरूगनाम चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है. इन देवी-देवताओं  को संतुष्ट करने के लिए तेल, चिकनाई या मिठाई को आग में चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है. आजकल ब्राह्मणवाद के प्रभावस्वरूप् कुछ किसान इन देवी-देवताओं  को संतुष्ट करने के लिए नारियलों (दरअसल ये सफाचट सिरों पर बंधी चोटी का प्रतीक हैं-पिलाकाजुटू) को तोड़ कर चढ़ाते हैं. कभी कभी बुरी आत्माओं से छुटकारा पाने के लिए टूटे हुए नारियल और कटे हुए निम्बू गलियों के कोनों पर फेंक दिये जाते हैं. लेकिन दलितबहुजनों का कोई ऐसा त्यौहार नहीं है जिसमें खाने या किसी अन्य वस्तु को फेंक दिया जाता हो.

बीरप्पा

बीरप्पा (यादवों का देवता), काटामाराजु (गौड़ों का देवता) आदि कुछ देवता जाति विशेष के देवता हैं. इन कुछ खास जातियों के देवताओं की कहानियाँ उन मुसीबतों को बयान करती हैं जो मुसीबतें इन देवताओं ने उस जाति या पेशे को बनाने में उठाई हैं. इनके आख्यानों से यह भी पता चलता है कि इन देवताओं ने उन जातियों की सांस्कृतिक परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए कितना संघर्ष किया है. बीरप्पा का उदाहरण लें. बीरप्पा का एक बृहद आख्यान है जिसे अनुभवी कथवाचक हरेक उत्सव के मौके पर लोगों को सुनाते हैं. यह कथावाचन एक रिवायत है. इस कथावाचन के डोलू, तालाल जैसे अपने परम्परागत संगीत वाद्य हैं. कथावाचक उसी वेशभूशा को पहनते हैं जो बीरप्पा खुद पहना करता था. इस कथावाचन की संगति में बेहद आनन्ददायी लय और शैली में नृत्य किया जाता है. मैं आज तक एक भी किसी ऐसे ब्राह्मण या बनिया को नहीं जानता हूँ जो एक कहानी का पूरा ब्यौरा जानता हो. मगेर बीरप्पा की कहानी हमारे बचपन का हिस्सा थी. अनेक कुरूम्मा और गोला (यादव) लड़के बीरप्पा को अपना आदर्श मानते हैं. अनेक कुरूम्मा और गोला लड़कियाँ उसकी बहन अक्कामांकाली को एक आदर्श औरत मानती हैं.

बीरप्पा कौन था? बीरप्पा एक कुशल भेड़ पालक था. बीस साल का होने पर भी उसने विवाह नहीं किया था. बचपन में ही उसके माता-पिता भगवान को प्यारे हो गये थे. उसकी बहन ने ही उसे पाला-पोसा था. उसकी बहन ने उसके कारण ही अपना विवाह नहीं किया था. अक्कामांकाली और बीरप्पा दोनों ही कुशल भेड़पालक थे. पूरा परिवार अक्कामांकाली की देखदेख में ही चलता था. इस बात में हमें यह सूत्र मिलता है कि यादव परिवार अभी तक मातृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रभाव में थे.

बीरप्पा के एक मामा थे. मामा की कामारथी नाम की एक लड़की थी. बीरप्पा कामारथी को प्यार करता था और उससे शादी करना चाहता था. पर बीरप्पा अनाथ था. इसलिए उसका मामा उसे अपनी लड़की नहीं देना चाहता था. बीरप्पा के परिवार के पास बहुत थोड़ी सी भेड़ें थीं. लेकिन उसके मामा के पास काफी थीं. बीरप्पा ने पक्का इरादा कर लिया था. कि वह अपने मामा की लड़की से शादी करके ही रहेगा. उसने सोचा कि जब उसकी भेड़ें बढ़ जायेंगी और उसमें अपने मामा को पराजित करने की ताकत आ जायेगी तब वह मामा को हराकर उसकी लड़की से शादी कर लेगा. इसलिए उसने सही वक्त का इंतजार किया. उसकी बहन जानती थी कि उसका मामा एक बेहद दुश्ट आदमी है और बीरप्पा के लिए उसे हरा पाना एक बेहद मुश्किल काम था. इसलिए उसने बीरप्पा को इस विचार को त्याग देने की बार-बार प्रार्थना की. मगर बीरप्पा अपनी बात पर अटल बना रहा.

एक दिन बीरप्पा ने अपनी बहन को मना लिया. वह अपनी बहन की अनुमति लेकर अपने मामा के गाँव पहुंचा. वह कामारथी से मिला. उन दोनों ने वहाँ  से जाने की योजना बनाई. मामा को इस बात का पता चल गया. उसने अपने आदमियों को इकट्ठा किया और बीरप्पा से मुकाबला करने जा पहुंचा. लेकिन बीरप्पा ने उसे परास्त कर दिया और अपनी प्रेमिका के साथ अपने गाँव जा पहुंचा. अक्कामांकाली ने अपनी जाति के लोगों को दूसरे गाँववालों को बुलाकर उन दोनों की शादी करवा दी.

इस कहानी के अनेक दृश्य ऐसे हैं जो अक्कामांकाली, बीरप्पा और कामारथी से अलग-अलग रूप संबंधित हैं. हम देखते हैं कि अपने भाई की अनुपस्थिति में किस तरह अक्कामांकाली भेड़ों को चराने, ऊन निकालने और दूध दुहने की समस्याओं से जूझती है. कथा इस बात का इशारा करती है कि मांकाली में भेड़ और बकरी पालन से जुड़ी गतिविधियों को अच्छी तरह से कर पाने की पूरी क्षमता थी. इस कहानी में पुरूष और स्त्री के कार्य क्षेत्रों को अलग-अलग नहीं बताया गया है.

गुर्जडा अप्पा राव ने अपने उपन्यास (कन्याशुल्कम) में एक ब्राह्मण घर में विधवा ब्राह्मणी बुचम्मा की स्थिति दर्शाई है. लेकिन बीरप्पा के घर में अविवाहित अक्कामांकाली की स्थिति एकदम भिन्न है. यह ब्राह्मण आख्यानों में आने वाली लक्ष्मी, सीता या सरस्वती की स्थिति से भी भिन्न है. बीरप्पा की बहन अविवाहित है. वह एक आश्रित और असहाय औरत है. इसलिए बीरप्पा उसका अपमान करता है या उसे डांटता है. ऐसा इस कहानी में कहीं नहीं आता है. इसके विपरीत कथा के हरके मोड़ बिन्दु पर अक्कामांकाली एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती है. कोई भी बड़ा कदम उठाने से पहले बीरप्पा अपनी बहन से सलाह लेता है.

पूरी की पूरी कहानी प्रेम आधारित विवाह के संरक्षण, स्त्री-पुरूष की समानता पर जोर देने और भेड़ पालन को एक पेशे के रूप में विकसित करने के विचार के इर्द-गिर्द घूमती है.

इन सारे दलितबहुजन देवियों और देवताओं के चरित्र, भूमिकाएं और आख्यान क्या दर्शाते हैं? इन देवियों और देवताओं की सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक परंपराएं पूरी तरह से हिन्दू प्रभुत्ववादी/एकाधिपत्यवादी देवताओं और देवियों से पूरी तरह से भिन्न हैं. दलितबहुजन देवियों और देवताओं की जड़ें सांस्कृतिक रूप से उत्पादन, सुरक्षा और प्रजनन में समाई हुई हैं. वे समाज के एक तबके को दूसरे से या एक जाति को दूसरे से अलग नहीं करते हैं. इन कहानियों में शत्रु के चरित्र की रचना करने के लिए कोई जगह नहीं है. लोगों की दार्शनिक धारणाओें के केन्द्र में युद्ध और हिंसा जैसी चीजें नहीं हैं रीतिरिवाज इतनी सामान्य गतिविधि है कि उसमें आर्थिक नुकसान नहीं के बराबर है. दलित बहुजन समाज में पवित्रता की भावना बहुत गहरी है. इसके बावजूद यह ऐसे पुरोहित जाति या वर्ग के उभार की अनुमति नहीं देती है जो उत्पादन से दूर हो या लोगों को देवी-देवताओं से अलग रखती हो. देवियों, देवताओं और लोगों के बीच बहुत ही थोड़ी या कोई भी दूरी नहीं है. दरअसल इन देवियों और देवताओं पर लोग मुश्किल से ही निर्भर हैं. जहाँ  तक थोड़ी बहुत निर्भरता या थोड़े बहुत संपर्क की बात है. तो लोगों और पूजे जाने वालों के बीच का रास्ता एकदम सीधा है. वहाँ  भाषा, लोक मंत्रों के अवरोधक नहीं हैं.

हिन्दू देवताओं और देवियों की तुलना दलितबहुजन देवियों-देवताओं  के साथ कैसे की जाये? हिन्दू देवता मुख्य रूप से नायक हैं. वे युद्ध नायक हैं उन युद्धों के जो दलितबहुजनों के विरुद्ध लड़े गये. ये युद्ध शोषण और असमानता पर आधारित समाज की रचना करने के लिए लड़े गये. ऐसे समाज का ढांचा जाति व्यवस्था की रचना करता है और उसे बनाये रखता है. हिन्दू मिथक शास्त्र पुरूष केन्द्रित मिथकशास्त्र है. यह मिथकशास्त्र औरतों को लैंगिक विशेषता वाली भूमिकाओं तक सीमित रखता है और उन्हें एक काम् वस्तु ही मानता है.

ब्राह्मणवादी हिन्दू ये दावा करते हैं कि उनकी परम्परा की जड़ें अहिंसा में नीहित हैं. लेकिन सच्चाई इसके एकदम उलट है. सारे हिन्दू देवता हिंसक युद्धों के प्रचारक थे. उनका धर्म जाति धर्म है और उनकी शैली अमीर और शोषणकारी है. उत्पादन को उनका पहला शत्रु बनाया गया है. इन देवताओं तक केवल पुरोहित की मदद से ही पहुंचा जा सकता है. वे केवल संस्कृत ही समझते हैं. ये तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि ये देवता लोगों से पूरी तरह से कटे हुए हैं.

दलित बहुजन देवियों और देवताओं की परंपरा हर तरह से एकदम उलट है. यही समय है कि हम इन फर्कों का सामना करें और उनको समझें. यह बहुत जरूरी है कि दलितबहुजन अध्येता ब्राह्मणवादी अध्येताओं के साथ पूरी तरह से बहस में शामिल हों. ब्राह्मणवादी अध्येता और नेतागण हिन्दुत्व की बात करते हैं और उसे सभी जातियों का धर्म बताते हैं. इन लोगों को यह अवश्य महसूस करना चाहिए कि इस देश की अनुसूचित जातियों, दूसरी पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जन-जातियों में हिन्दू धर्म से मिलता-जुलता कुछ भी नहीं है.

सदियों से दलितबहुजन सभी जातियों को एकजुट करने का प्रयास करते रहे हैं. ब्राह्मण, बनिया और क्षत्रिय इन प्रयासों का विरोध करते रहे हैं. आज भी कोई ब्राह्मण हमारे देवी-देवताओं के नाम ग्रहण नहीं करते हैं. आज भी ये लोग यह नहीं समझते हैं कि हिन्दू परम्परा और संस्कृति की तुलना में दलितबहुजन परम्परा और संस्कृति कही ज्यादा मानवीय और समतावादी है. आज भी हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं को अयोग्य ही माना जाता है. अगर इस देश के ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय और नव-क्षत्रिय भिन्नता में एकता चाहते हैं तो उन्हें हमारे साथ आना चाहिए. उन्हें चाहिए वे हिन्दूकरण की बजाय दलितीकरण की ओर देखें.

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