आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

ये कविताएँ मेरे लिये अंत हैं: दिलीप चित्रे

1. भोपाल भ्रूण

उस बोतल में जिसमें एम्नियोटिक तरल नहीं
दस प्रतिशत फ्रॉर्मलडीहाइड सॉल्यूशन है,
भोपाल त्रासदी के इक्कीस साल बाद भी,
ज़हर से मरा हुआ एक भ्रूण है
अपनी फॉरेन्सिक जाँच की रहस्यमय स्थिति से
मुक्त होने के इन्तज़ार में

आश्चर्य, कि बीस से अधिक वर्षों के बाद भी
किसी ने ध्यान नहीं दिया एक सही यन्त्र की खोज पर जो
पढ़ सके उन हजारो मौतों को जो
किसी वैश्विक कॉर्पोरेट की स्थानीय टंकियों से निकाल कर
हवा में रिस आये मिथाइल आइसोसाइनाइट से हुई थी

मेरा बेटा, उसकी पत्नी और उनका अजन्मा बच्चा बचे हुवों में थे
वे झेलते रहे कई तरह से
लेकिन उस रासायनिक सदमे के सटीक असर को जिसने हजारों ज़िन्दगियाँ
बदल कर रख दी
आज तक नहीं जाना गया है
वह है भोपाल भ्रूण में
विज्ञान से उपेक्षित, अपने आप में दफ़न कला की तरह

हम जीते हैं उस भूल को क्योंकि उसे भूल कर ही जी पाते हैं
भले ही रह जाये वह अपरीक्षित जैसे हो बोतल में बन्द
किसी एम्नियोटिक तरल में नहीं बल्कि लम्बे पश्चाताप में
दूर किसी मरते हुए तारे की रोशनी.

2.

और शायद मैं झिड़क दिया जाऊँ

और शायद मैं झिड़क दिया जाऊँ
चूक जाने के लिये जीवन में पर्वत
और सफेद घोड़ा
दौड़ता हुआ यथार्थ के छोर पर
उसकी अयाल चमकती हुई धूप में

मुझे ठहराया जावेगा होने के लिये
उगते सूरज के सामने अन्धा
जब हल्दी का पीलापन लिये बादल
उसकी दमक में फूट पड़ते हैं
और मुझसे पूछे जायेंगे सवाल
अपना गीत भूल जाने पर

वह कोई सामान्य ईश्वर नहीं है
सिर्फ एक पागल हवा
जो उम्मीद से भी ज्यादा
उमड़ सकती है

मैं जवाबदेह नहीं हूँ
अपने परम आनन्द के लिये

3. खोए पुत्र के लिये अधूरा शोकगीत

पूर्व आवृत्ति

यह सहस्राब्दि मेरे लिये पहले ही बीत चुकी थी.
मैं ने स्वप्न देखा मृत्यु हमें पृथ्वी पर प्रेम के सभी जन्मों से मुक्त कर रही थी
मैं ने स्वप्न देखा तुम्हारी शुरुआत का

मैंने तुम्हें साँस के लिये संघर्ष करते देखा
मैंने स्वप्न देखा हर कुछ का जो जीवन को उसका अर्थ देती है
मृत्योन्मुख क्रियाएँ, मृत्यु को नकारते कर्म

मैं ने स्वप्न देखा तुम्हारी माँ और तुम मुझसे अलग हो रहे थे
जैसे बुझने से पहले तेज़ी से चमक उठा तारा ऊँची तल्ख आवाज़ में गा रहा हो
दूर किसी आकाशगंगा में

मुझसे हमेशा के लिये खो गये पुत्र
मेरे शव परीक्षण में तुम्हारा भी अंश मिलता है
जिसके लिये मैं तारों से जड़ी चादर नहीं ढूँढ पाता हूँ

मैं एक रोशनी हूँ खुद से ही दूर कर दी गई
मृत्यु के जीवित बल से जो हम पर अपनी साँस छोड़ रहा है
हम यानि हर वो चीज़ जिसे नाम दिया जा सकता है

रसायन, खनिज, जीव,
रेडियम, और व्हेल, लोहा और बरगद
पेड़, स्वर्गिक मछली और पार्थिव पशु,

हडि्डयों के एकदम करीब एक गर्जना,
बादल का फटना और कड़कती बिजली का लौटना
अमरता के अण्डे में

पहली आवृत्ति

मुझे संकेतों पर गौर करना था
ज्वालामुखी का फटना, धरती का कम्पन, मछलियों की बैचेनी,

और पशुओं की घबराहट. किसी अनिष्ट का संकेत,

जन्म लेते शिशु की पहली थरथराहट जिसने बनाया मुझे
पिता अपनी बनाई दुनियाँ का मुख्य अभियुक्त
एन्ट्रोपी के सि़द्धान्तों के खिलाफ़ उगाये गये पेड़
आभास मात्र थे उस जंगल का जिसे हमने बनाया और जिसमें हम
मेरे हाथों की स्याही से रंगे थे तुम और तुम्हारी माँ, मुझे दी गई
लेखनी और भोजपत्र, मैं टॉथ था, टॉडेस्फ्रयूग, मृत्यु की आवृत्ति की धुन

मैं इन्तज़ार करता तुम्हारा पत्थर का ताबूत था, तुम्हारा इन्क्यूबेटर
मैं तुम्हारी हवा था और ऑक्सीजनहीनता
मैं जीवन के हर रूप पर ज़हर के कण बरसाता बादल था

मैं विश्वासघाती था मनुष्यता का, गद्दार बन गया आदमी
मेरी कहानी शुरु होती है जहाँ एब्राहम की खत्म हुई थी
अपने पुत्र के बलिदान पर

या प्रहलाद की आस्था और तुम्हारा अपना भाग्य
औचित्य, औचित्य मेरे प्रथम प्रायिश्चत्त का पापी के
कृत्य का ईश्वर के उपवन में जो तुम्हें धरती पर ले आया

बलिदान, बलिदान कैसा भी, एक कविता भी कर देगी
हे सर्प जिसने उस सर्वव्यापी सेब को चमक से भर दिया था
प्रभु के बाग में, धन्यवाद तुम्हें

हमने अपना पहला अनिश्चित टुकड़ा काटा ज्ञान और नश्वरता का

दूसरी आवृत्ति

यहाँ क्या पक रहा है? माँस की यह महक कहाँ से उठ रही है?
कौन पका रहा है ज्ञान की जड़ी बूटियों से जीवन का तेल?
कौन भूखा है? कौन उन्हें करा रहा है मानव का भोज?

क्या यह यज्ञ है हमारे प्रमुख पूर्वज की तुष्टि का, हमारे वंश के जनक का ?
हे रक्तरंजित पूर्वजों, मैं तुमसे पूछता हूँ
अपने शोक की ज़मीन, अपनी क्षति की रणभूमि और मिन्दर से

मैं शोक करता हूँ सिर्फ अपने पुत्र के लिये नहीं, मेरा शोक सबके लिये है
जो अपनी ही मनुष्यता के लिये एक छोटी जगह ढूँढते हैं और उन्हें नहीं दी जाती है
जो अस्तित्व के बुलबुले में जीते, फूटते और मर जाते हैं

संशय के इस माहौल में, चुप्पी के इस मौसम में, यह गहरी निराशा
जो आक्रान्त करती है इस भंगुर ग्रह पर एन्ट्रोपी की खिलाफ़त करती हमारी आबादी को

एक मर रही आकाशगंगा में

हम जो दूसरों की मृत्यु पर भोज करते है, हमें कभी क्षमा नहीं किया जायेगा
क्योंकि ईश्वर रचना है दाह संस्कार के लिये हर उस चीज़ को जो उससे निकली है

अपनी अथक अग्नि में

अन्तिम आवृत्ति

मैं कहाँ था जब तुमने अन्तिम साँस ली थी?
तुम कहाँ थे सत्य के मेरे क्षण में?
हम उस विश्व के नक्शे में कहाँ थे जिसने हमें बाँट दिया था

और लपेट कर रख दिया था उस संसार को जिसमें हम अपनी सम्वेदना में बसे थे
मैं कहाँ हूँ अभी अपनी सम बिन्दुओं से वंचित कर दिया हुआ
और तुम कहाँ स्थित हो इस लगातार ऊग रहे विश्वज्ञान की ईश्वरीय कविता में?

मुझे माफ़ कर दो, मेरे बेटे, मुझे दुख है तुमसे ऐसा कहते हुए
जबकि मैं जानता हूँ कि
तुम मुझे नहीं सुन सकते वहाँ से जहाँ तुम चले गये हो

अवरोह

झुलसी हुई इस बगिया की हर एक पीड़ा एक पेड़
हुआ करती थी. मेरे घाव अब नज़र नहीं आते
लेकिन दर्द की छाया मेरे अस्तित्व पर फैली है.

हर मौसम ने अपनी अपनी आग पर भूना
मेरी देह को, मेरे माँस को राख कर दिया
इसे ही अब मैं अपना अनुभव कहता हूँ

और अब मुक्त हो कर उसके बन्धन से मेरी स्मृति
उगती है विशाल वृक्ष बन कर
जो यथार्थ के सभी बागों के योग से भी ऊँचा है.

4. अब मुझे आपित्त नहीं

तुम पहुँच सकते हो
न तो
दुनिया के शीर्ष पर
न ही उसके तल तक

तुम हमेशा उसके
एकदम भीतर ही रहोगे
कुछ भी नहीं
दर्द देता है कभी भी
कुछ भी सुख नहीं देता
यह चारागाह
भेड़ के मुँह से ज्यादा
मिले हुए को चरती

हे प्रभु मेरे गड़रिये!
हे प्रभु …

गोविन्द,
तुम जारी रहो अपनी गौओं के साथ
अब मुझे आपित्त नहीं
किसी चीज़ से

5. 22 दिसम्बर, उत्तरी गोलार्द्ध का सबसे छोटा दिन

मैं तरसता हूँ आदिम गुफा के लिये. मेरे पशु को नींद चाहिए.
मेरे पोशण के लिये कम ही कुछ बचा है सिवा उसके जो मेरे भीतर जमा है
मैं बहुत धीमी साँस लेना चाहता हूँ, तल को छूते हुए

काश यह दिन और भी छोटा हो पाता, रोशनी के
क्षणांक जितना. काश यह चक्र और भी धीमा हो पाता, बस एक क्षणिक चमक
चौबीस घण्टों में, बाकी सब एक गहरी रात.

मैं आँखें बन्द कर लेना चाहता हूँ हिमपात पर, मैं अनजान रहना चाहता हूँ
बदलाव की निरन्तरता की पीड़ा से, घड़ी की जिद से,
धरती के घूमने से, नक्षत्रों की चाल से

सितारों और उपग्रहों से, उस बल से जो हमें देश काल में
मोड़ देता है, चेतना के आन्तरिक घुमाव से,
मैं होना चाहता हूँ न ऊर्जा, न पदार्थ, न जीवित कुण्डलिनी

सिवा बोध की सबसे छोटी झपक के, जो दबी है त्वचा
और माँस के भीतर, मस्तिष्क की खोह में छुपा, जाड़ों का रहस्य

6. वर्षगाँठ

(डेविड के लिये)

डेविड मेरे मित्र जॉन डेविड मोर्ले का नाम है. वे म्यूनिख़ के एक उपनगर लोछम में रहने वाले आत्म निर्वासित ब्रिटिश उपन्यासकार हैं. उसी एस-बाह्न लाइन के स्ट्रानबर्ग झील किनारे फेल्डफिंग में विला वॉल्डबेर्टा में मैं एक रेजिडेन्ट के तौर पर रहा करता था.

हमारा सम्पर्क आखिर छूट गया, है न?
हम कहाँ थे? मुझे तुम याद हो
लोछम स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर
मुझे और वीजू को दूर से हाथ हिलाते
अब समझ पाया मैं कि हम
खाये हुए शरणार्थियों के जोड़े लगते थे

तुम्हारा शीशे-और-काठ का घर
जादुई लगता था हल्की स्याह
पतझड़ के बाद दिन की रोशनी में
बवारिया में हम किसी और के लिखे में
बस शब्दों से थे
अगर यही अर्थ है शरणार्थी होने का तो

7. तीव्र नीली कोलम सिम्फनी

(i)

चाँद का पिछला हिस्सा उगता है स्वप्न में
एक गहरे गड्ढे सा चमकता शुक्ल पक्ष में. काँव-काँव करते कौवे
चूने सी सफेद चाँदनी रात में
राख के ढूह हर तरफ आवाज़ों के नहीं होने में, एक निष्ठुर आकाश
निराकार रात की लहर में घुटता हुआ
मैं घुटता रहा
रात की आकारहीनता में
निराकार मैं
घुटती रात की
लहर में
ठण्ढे ग्रह सा लपेटा हुआ
आकारहीनता के बहाव के भीतर
जो बिखेरता है नीली आग सितारों की
स्वप्न की एक लहर में
पानी की पलकों के भीतर हुआ, मैं
जैसे कोई निराकार सजगता घुटती है सपने के भीतर, घुटन
जागता हुआ ट्राँस में मैं
चलता हूँ चाँदनी में धुली चट्टानों पर
पाँव धरता अजीब पेड़ों से झरे पत्तों पर
जिनका तना जाँघ सा है
टहनियाँ बाँहों-सी, पत्रहीन
टहनियाँ, छटपटायी पुकार सी, टेढ़ी-मेढ़ी
और अब चल रहा हूँ मैं सितारों की आग पर,
झरे पत्तों पर, पानी पर, पत्थर पर
मुक्त हो कर लहर से
ऋणमुक्त हवा में
अपनी ही छाया को पार कर गया हूँ अब
नहाता हुआ काली-उजली झाग के
अनाम अनुभवातीत में

(ii)

लहरें, लहरें, लहरें
लहरें सब की हर तरफ
केन्द्र ओझल

बुझी हुई आग का पानी कहाँ है
धूसर यादों के मोती कहाँ है
मृत झीलें, अंधी और देखती हुई
पानी की सतह पर रंग सोये हुए
उस जगह जिसका कोई नाम नहीं है
अक्षरहीन रात में तारों के पार तुम
यादों के रेशे
उल्लसित और उद्धीप्त भूलेपन में
मैनें क्षणों की गोलाई, उनके घुमाव को देखा
अन्तिम कुछ सुरों की मिटती तरंगों में
झुकते आकाश, अलग होते, खोलते हुए
स्वर्ग का संगीत
उसके चमकते ज्योतिपुँज को
गुम होते हुए अन्धेरों में देखा
फिर तब सफेद गुलाब की खुशबू
और पलक पंखुरी की नीली आग पर ओस का उदास प्रतिबिम्ब
चर्मबद्ध मैं, छद्म पाया गया
जागृति के अगले ही क्षण में
ढलती नींद की लहर ने
ला छोड़ा मुझे नींद के किनारों पर

(iii)

उद्दीपन स्वर्ग की इिन्द्रयों के
महीन कतारों में प्याज के फाँकों की तरह.
शायद वीर्य स्खलन के क्षण में
खून की रोशनी भी
तीव्र-कोमल-नीली हो जाती है
जननेद्रियों की तरह बिन्दु पर सुनते हुए गौर से
मरती हुई कनखियों पर दृश्य को
एक अर्थ जिसे नाम नहीं दिया जा सकता
जज़्ब नहीं किया जा सकता
दो शब्दों के बीच सरकती सजगता
जैसे नींद में होश
होता है तीव्र-कोमल-नीला
और इन्द्रिय, शिश्न भग्न, हिजड़े
कामुक हर्ष ध्वनि करते हैं
गाये हुए उस सहवास की आँच से
जो तीव्र-कोमल-नीला है

(iv)

आदमी का गला बैकुण्ठ का भार नहीं सह सकता
वह सिर्फ तुलसी की माला पहन सकता है
और बेसुरे कोरस में भजन गाते हुए
वे जो प्रलय की लोक कथाओं से डरते हैं लौट जाते हैं सामान्य सजगता में
कुण्ठाओं के शहर में
मैं वास्तविकता की आग पर चलता हूँ
मेरे पैर भी जल जाते हैं. नंगे पैर
मैं भी भयावह प्रलय के गीत गाता हूँ
गीत जिनसे वास्तविकता की आग पर चलने की चाह है

(v)

मैं घर लौटा हूँ सड़ाँध मारती गली में
उसके कोने पर मैनें पान की पीक थूकी
मैनें शवयात्रा निकलते देखी
गुलाल…फूल…पेट्रोमैक्स की रोशनी…माटी की हाँडी में सुलगते कोयले
मैने शिशु का जन्म देखा
मैं बीड़ी पीता बैठा रहा
यहाँ इसी फुटपाथ पर
मैंने कसम खाई
चलते हुए इसी आग पर
मैंने श्राप थूका
और खून

मैं औरतों के साथ सोया, नशे में डूबा
मैंने संभोग के 84 आसन आजमाये
इस आग पर
मैं छह भाषाओं में संभोग कर सकता हूँ
मैंने थीसिस लिखी है इसी सच्चाई पर
मैं समय से पहले उम्रदार हुआ
बूढ़ा हो गया है मन
और मेरी देह उतारती हैं केंचुल आग में हर साल
इसमें से किसी भी रास्ते ने सुलगना बन्द नहीं किया है अब तक
मैनें मासूम की गीली मुस्कान देखी है
इसी आग की रोशनी में

(vi)

घुटता हुआ लहर में
मैं आकारहीन हूँ
इस जागृति का
अब तक कोई छोर नहीं
झूलता हुआ चीजों से
लदा ऊपर तक, और फिर नीचे
डूबता हुआ आँखों में
कुण्ठाओं के शहर के फुटपाथ पार करता
लड़खड़ाता, थरथराता

(vii)

ये सब के सब हैं विविध.
सिनेमा के टिकट
कविताओं की चिन्दियाँ
मृत्यु के प्रमाणपत्र
गुजरती पहचान,
कांडोम,
विज़िटिंग कार्ड
जेब भर भूने चने
चश्में के पीछे की आँखें
एक बेर और एक कद्दू
आसमान में सूरज
पँचांग में तिथि
ग्रहों की चाल
नशे में धुत असफलतायें
ऊब की घड़ी के हाथ
हमेशा घूमते हैं
भोग की परिधि में
घुटते हुए लहर में
जागे या सोये
कण्ठ से सूखे …
और कौन गायेगा
इस आग में
एयर कन्डीशन्ड पैरों के साथ?

8.

सुनों इस हवा को

हवा के विशाल पारदर्शी घोड़े पर सवार
आग के कलेजे में
चारों हवाओं के खुर गाड़ता
वह आ गया है
पहाड़ पर

पृथ्वी
सिर्फ एक क्षण की
विराम स्थली है उसकी
जिसे कोई पानी प्रतिबिम्बित नहीं करता
जिसे कोई आँख नहीं देख पाती
और जिसकी उपस्थिति
पर्वत-सी पतली है.

सुनों इस हवा को!
यह पहाड़ के
उन्मत्त आनन्द में उठे
एक पंख की फड़फड़ाहट है.

9. प्रस्तावना

छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को हर कोने हर एकान्त में
जहाँ रोशनी नहीं पहुंचती तुम्हें खोजने, तुम्हारे एकान्त को
भयानक भीड़ बनाने

छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को मन के हर दरार हर तरेड़ में
हाँ विचार रिस कर नहीं आते

पड़े रहो नीचे और गहरे,
क्योंकि सतह वाली कोई भी चीज़ तुम्हें सहायता नहीं देगी

छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को हो जाओ छविहीन और रहो एकाकी
क्योंकि तुम्हें फिर भी एक मौका मिल सकता है
मानव की दुनियाँ में उग आने का.

10.

पकते हुए माँस की गहरी गन्ध में
बदहवास अन्धेपन में
मैनें चाटा तुम्हें
भोग की जीभ और भय की अंगुलियों से
मेरी यादों में तुम
ब्रेल में लिखी किताब की रोशनी पर
हम दोपहर के खाली पालने में डोलते रहे
झूलते रहे रात के आर-पार
‘ओ मेरे अविश्वासी प्रेमी’ तुमने कहा था,
आकाश मेरे लहू में खुल चुका है

अब मैं पाता हूँ कि प्रेम ने मुझे कुछ नहीं सिखाया
मैं खुद से ही मुक्त नहीं हो सकता
मेरे संवेग हिंस्र पशु हैं बिना जंगल के
मेरी आत्मा एक पंछी बिना आकाश के

11.

मेरे लिये ये कवितायें अन्त हैं
ये एक तरह से मुझे खत्म करती हैं
भले ही ये किसी सुइसाइड बॉम्बर की तरह
आप के पास पड़ोस में फ़ट जायें

मैं आतंकवादी नहीं हूँ लेकिन आतंक के युग में जीता हूँ
इनमें से कुछ मेरे कोमल मुहावरों में घुस आते हैं
मैं किसी इल्हाम को सच करने वाला जिहादी भी नहीं हूँ
बस मेरी कवितायें ही मुझे खत्म करती हैं

फिर एक बार नये आश्चर्य पाने को
मैं इन्तज़ार करता हुआ खालीपन बन जाता हूँ
लेकिन ज्यादातर वे दर्द ही लाते हैं
कुछ कभी लाते हैं अलभ्य प्रकटन
सीमाहीन सुरों सा

इसका कोई अन्त नहीं, सिवाय मेरे
दूर मुझसे बल्कि सभी कविता उड़ी जा रही है.

12.

खून धीरे धीरे निकलता है कलेजे से; वह धड़कता
रहता है खत्म हो जाने तक. लगातार खून बहाते रहना हमारे भाग्य में है
जब तक कि हमारा नामोनिशान मिट न जायें.
मैं वो कागज नहीं हूँ, जिस पर मैं लिखता हूँ,
ना ही वो शब्द जिसे मैं टाइप, प्रिंट या स्याही से उगलता हूँ
मैं किसी घटना की छाया हूँ नहीं हूँ
ना ही उसका कोई दाग जो मिट नहीं सकता. यह एक तरह का खून है जो
जमता नहीं है थमता नहीं है.
यह प्रतीक भी नहीं है
ज्ञान की अमिट लौ और उसकी रोशनी के मिथकों का.
मेरे पंछी बिना आकाश के उड़ते हैं. मेरी मछलियाँ तैरती हैं
शून्य में. मेरे शब्द पड़े हैं आहट के जंगलों में
उन पेड़ों के बीच जो अभी उगे नहीं हैं, उभरे नहीं हैं.

13. ध्वंस

(आदिल के लिये)

मात्र पचास सालों में ही मेरे उन दिनों के शहर की कई निशानियाँ
लुप्त हो गई, ध्वस्त कर दी गई. मिटा दी गई या और भी बुरा कुछ
क्या मैं सचमुच आशा करता हूँ कि वे वैसी ही रहेंगी मेरी और तुम्हारी यादों में, हमारे शब्दों में ?
हमने पुरज़ोर कोशिश की नक्शों को बिम्बों और बिम्बों को नक्शों में बदलने की
पर किसके लिये? किस श्रोता, किस पाठक के लिये हमने इस सलीब को धारण किया?
हम खुद ही एक देश काल के ध्वंसावशेश बनते जा रहे हैं
जो अब अपने इतिहास को भी धारण नहीं कर पाता
अब तो गिद्धों ने भी उन ख़ामोशी की मीनारों पर आना बन्द कर दिया है
जहाँ हमने अपने शरीर को अनन्त चक्र का भोज्य बनने के लिये रख देने की आशा की थी
नग्न और मृत समय की सतह पर
कभी मैं यहाँ अजनबी था पर आशा से भरा हुआ
अभी भी बिना किसी आशा का अजनबी ही हूँ
सिवा समुद्र के उस परिचित मद्धिम रुदन
और अनन्तता की सान्त्वना से.

14. धीरे धीरे

धीरे धीरे आओ, जैसे आता है शोक, या फ़ुर्सत से आओ, जैसे आती है दर्द की याद जो
सुन्न हुए दर्द से भी गहरी यातना देती है
ज़िन्दगी ने मुझे पहले भी सुन्न किया है
और मौत ने उसके बाद हमेशा.
आओ मेरे पास जैसे धीमी ताल में आती है कविता
एक अनकहा अर्थ पाने.

धीमे सधे कदमों से पास आओ मेरे
जैसे आती है मौत
करो मेरे साथ टैंगो का अन्तिम मत्त नर्तन
ओ बिजली की गति, चौंका दो मुझे
अपनी गणितीय निरन्तरता से
अँकित करो मुझे ईश्वरीय धुन्ध पर
और कृपा दो कि धीमा हो सकूँ
गहरे अतल में समाते हुए

One comment
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  1. yahan kuchh kamaal ki kavitaye hain.kuchh sashakt anuvaad……. kuchh padh li, kuchh fursat me padhoonga.

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