आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

द्विभाषी बौद्धिकता का उत्‍थान और पतन: रामचंद्र गुहा

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यह निबंध विद्वान लाइब्रेरियन बी एस केशवन और उनके पुत्र मुकुल के बीच हुई बहस से प्रेरित है, जिसमें मैं एक मूकदर्शक की तरह शामिल था। मैं अब भूल गया हूं कि वे किस बात पर लड़ रहे थे। लेकिन मुझे याद आता है कि पिता 90 वर्ष की उम्र के बावजूद अपनी ओर से बेहतर प्रदर्शन कर रहे थे। एक अंतराल के बाद वे मेरी ओर देखते और अपने बेटे की ओर संकेत करते हुए कहते, ‘मक्‍कू’, ‘पैथ्‍यम’। ये शब्‍द दिल्‍ली में हिंदीभाषी मां की कोख से पैदा हुआ मुकुल नहीं समझ सकता था, लेकिन मैं समझ रहा था। इन शब्‍दों का मोटे तौर पर मतलब था, ‘मूर्ख’ और ‘पागल’।

बी. एस. केशवन जानते थे कि मैं बैंगलोर में रहता था, मेरे माता-पिता दोनों तमिल थे और मेरे एक ताउजी तमिल के विद्वान थे। इस प्रकार, जब उनके बेटे की कथित या असल मूर्खता उन दोनों की साझी भाषा अंग्रेजी में समझ में नहीं आती तो वो अपनी मातृभाषा में लौट आते थे, जो सैद्धांतिक रूप से मेरी भी मातृभाषा थी। यहाँ ‘सैद्धांतिक रूप से’ पर मैं जोर देना चाहता हूं। मेरे ताउजी अक्‍सर मुझे पोस्‍टकार्ड में लिखा करते थे, ‘तमिल सीखे और सहज जीवन जियो’। मैं एक प्रकार से उनके कहे पर नहीं चल सका, लेकिन इतने बरसों में मैंने तमिल के कुछ शब्‍द सीख ही डाले, जिनमें ‘मक्‍कू’ और ‘पैथ्‍यम’ भी हैं।

बी एस केशवन गज़ब के बहुभाषी व्‍यक्ति थे। वे तमिल, कन्‍नड़ और अंग्रेजी धाराप्रवाह बोल सकते थे, अच्‍छी बांग्‍ला और ठीकठाक हिंदी बोल सकते थे और संस्‍कृत पर भी उनका अच्‍छा अधिकार था। निसंदेह उनका बहुभाषी होना उनके काम की वजह से था, वे नेशनल लाइब्रेरी के पहले निदेशक थे, उन्‍होंने राष्‍ट्रीय सूचना तंत्र विकसित किया था और मुद्रण व प्रकाशन में ऐतिहासिक कीर्तिमान स्‍थापित किए थे। हालांकि उनके जैसा भाषा प्रेम उनकी पीढ़ी के बहुत से दूसरे भारतीयों जैसा ही था, जिन्‍हें अपने काम में इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी। मसलन मेरे पिताजी, पेश से एक पेपर टेक्‍नोलोजिस्‍ट थे, वो अंग्रेजी और तमिल अच्‍छी बोलते थे, कन्‍नड़ और हिंदी में ठीकठाक थे। उन्‍हें फ्रेंच और जर्मन का ज्ञान था और वो दोनों भाषाएं पढ सकते थे। दूसरी तरफ मुकुल केशवन और मैं सिर्फ अंग्रेजी में ही खुद को सहज महसूस करते हैं। हम दोनों बातचीत की हिंदी बोल सकते हैं और हिंदी में लिखे दस्‍तावेजों को शोध के लिए पढ सकते हैं। लेकिन हम दोनों हिंदी में विद्वतापूर्ण किताबें और लेख नहीं लिख सकते। और न ही हम में से कोई किसी भी रूप में किसी तीसरी भाषा का बहाना बना सकता है।

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आइये अब व्‍यक्तिगत से ऐतिहासिक बहस की ओर चलें, भाषा के सवाल पर यह बहस दो महान आधुनिक भारतीयों के बीच हुई थी। अप्रेत, 1921 में महात्‍मा गांधी ने अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ एकतरफा पक्ष लिया। सबसे पहले उड़ीसा मेंमें एक भाषण में उन्‍होंने अंग्रेजी शिक्षा को ‘बेहद गंभीर बुराई’ कहा। गांधी जी ने कहा कि ‘बाल गंगाधर तिलक और राजा राममोहन राय और भी महान व्‍यक्ति हो सकते थे, अगर उन्‍हें अंग्रेजी शिक्षा की छूत की बीमारी ना लगी होती।‘ गांधी जी की राय में ये दो प्रभावशाली और प्रतिष्ठित भारतीय, ‘जनता को प्रभावित करने के मामले में चैतन्‍य, शंकर, कबीर और नानक की तुलना में बहुत बौने थे।‘ इस विषय पर चेतावनी देते हुए गांधी जी ने कहा कि

‘शंकर जो काम अकेले कर सकते थे, वह अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों की पूरी फौज नहीं कर सकती। मैं और भी मिसालें दे सकता हूं। क्‍या गुरू गोविंद सिंह अंग्रेजी शिक्षा की उपज थे। क्‍या कोई एक भी अंग्रेजी जानने वाला भारतीय है जो उस महान गुरूनानक के समकक्ष हो, जिन्‍होंने एक वीर और बलिदानी धर्म की स्‍थापना की।…अगर जाति को पुनर्जीवित करना है तो वह अंग्रेजी शिक्षा के माध्‍यम से नहीं किया जा सकता।‘

गांधी जी के एक मित्र ने उड़ीसा की इस बातचीत को अखबारों की रिपोर्ट में पढ़ने के बाद गांधी जी से इस बारे में उनके दृष्टिकोण को और स्‍पष्‍ट करने के लिए कहा। अपने ही अखबार में लिखते हुए गांधीजी ने स्‍पष्‍टीकरण दिया कि,

‘मेरी यह पक्‍की राय है कि जिस ढ़ंग से अंग्रेजी शिक्षा दी जा रही है, उसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्‍त भारतीयों को कमजोर बना दिया है, इससे भारतीय विद्यार्थियों की मानसिक सामर्थ्‍य पर बहुत जबर्दस्‍त दबाव पड़ा है। भारतीय भाषाओं को विस्‍थापित कर देना ब्रिटिश संबंधों का सबसे दुखद अध्‍याय रहा है।‘

‘’राम मोहन राय और भी बड़े सुधारक हो सकते थे’’, गांधीजी का दावा था, ‘’और लोकमान्‍य तिलक और बड़े विद्वान हो सकते थे, अगर उन्‍हें अंग्रेजी में चिंतन करने और अपने विचारों को मुख्‍य रूप से अंग्रेजी में व्‍यक्‍त करने की मजबूरी नहीं होती।‘’ गांधीजी ने तर्क दिया कि, ‘’वो तमाम अंधविश्‍वास जो भारत को प्रभावित करते हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिससे मुक्ति के लिए, स्‍वतंत्रता और सही दिशा में चिंतन के लिए अंग्रेजी शिक्षा की जरूरत हो। अंग्रेजों द्वारा प्रवर्तित शिक्षा पद्धति का परिणाम यह है कि ‘’भारतीय शरीर, मानस और आत्‍मा को वह बौना कर रही है।’’

कोई नहीं जानता कि गांधीजी का वह अज्ञात मित्र इस स्‍पष्‍टीकरण से सहमत हुआ कि नहीं। लेकिन एक व्‍यक्ति जो गांधीजी के इन विचारों से बहुत कम संतुष्‍ट या सहमत था, वो थे कविवर रवींद्रनाथ टैगोर। उन दिनों वे यूरोप की यात्रा कर रहे थे, जहां उन्‍हें डाक से गांधीजी के लेखों की प्रतियां मिलीं। टैगोर गांधीजी के इस उच्‍च स्‍वर से और खासकर राममोहन राय की प्रताड़ना से बहुत त्रस्‍त हुए। 10 मई, 1921 को उन्‍होंने दोनों के परस्‍परिक मित्र सी एफ एंड्रूज को पत्र में यह कहते हुए लिखा, ‘’मैं गांधीजी द्वारा आधुनिक भारत के राम मोहन राय जैसे महान व्‍यक्तियों के अवमूल्‍यन का और हमारी आधुनिक शिक्षा के विरूद्ध उनके रवैये का सख्‍त विरोध करता हूं।‘’ गांधीजी ने नानक और कबीर का जोरदार उदाहरण दिया, लेकिन, जैसा कि टैगोर ने कहा, ये संत ‘’महान थे क्‍योंकि अपने जीवन और शिक्षाओं से उन्‍होंने हिंदू और मुस्लिम संस्‍कृतियों को एकमेक कर दिया- और इस प्रकार की आध्‍यात्मिक एकता तमाम मतभेदों के बावजूद विशुद्ध भारतीय है।‘’

टैगोर ने तर्क दिया कि राममोहन राय ने अपनी शिक्षा में और अंग्रेजी की प्रशंसा में नानक और कबीर के अच्‍छे काम का बहुत कम इस्‍तेमाल किया। इस प्रकार, ‘’आधुनिक युग में राममोहन राय समग्रता में उस मानस के प्रतिनिधि थे जिसने इस बात को समझा कि हिंदू, मुस्लिम औइ ईसाई संस्‍कृतियों के बीच एक आधारभूत एकता है। इसलिए वो भारत का पूरी सच्‍चाई के साथ प्रतिनिधित्‍व करते थे और यह सच्‍चाई नकार पर नहीं संपूर्ण स्‍वीकार पर आधारित है।‘’ टैगोर ने संकेत किया कि,

राममोहन राय पश्चिम का स्‍वीकार करते हैं तो यह बिल्‍कुल स्‍वाभाविक हो सकता है, इसलिए नहीं कि उनकी शिक्षा पूरी तरह पूर्वी रही, बल्कि उनके भीतर तो भारतीय मनीषा की समूची विरासत मौजूद है। वे बचपन में कभी पश्चिम जाकर नहीं पढ़े, और इसलिए उनके पास वो प्रतिष्‍ठा है जिससे वो पश्चिम के मित्र हो सकते हैं। अगर उन्‍हें आधुनिक भारत नहीं समझ सकता है तो इसका मतलब यही है कि उनकी अपनी सच्‍चाई के शुद्ध प्रकाश को एक पल के लिए भावनाओं के तूफानी बादलों ने ढंक लिया है।

एंड्रूज के नाम टैगोर का यह पत्र प्रेस में जारी कर दिया गया और गांधीजी ने इसे पढ़ा। इस पर गांधीजी का जवाब था कि उन्‍होंने ‘अंग्रेजी सीखने का इस तरह विरोध नहीं किया था’, लेकिन इसे ही सब कुछ और देवतुल्‍य बना देने और अंग्रेजी को मातृभाषा की जगह स्‍थान देने से मेरा विरोध है। ‘मेरा धर्म कोई जेलखाना नहीं है’, उन्‍होंने जोर देकर कहा, ‘इसमें तो ईश्‍वर के बनाए अंतिम व्‍यक्ति तक के लिए जगह है।‘ इस आरोप का कि वो और उनका असहयोग आंदोलन कट्टर राष्‍ट्रवाद का ही द्योतक है, गांधीजी ने खण्‍डन करते हुए कहा कि,

मेरे खयाल से मैं कविगुरू की तरह ही खुली हवा में श्रद्धापूर्वक विश्‍वास करने वाला हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर से दीवारों से घिरा रहे और खिडकियां बंद हों। मैं चाहता हूं कि तमाम देशों की संस्‍कृतियां मेरे घर आंगन से जितना संभव हो आजाद हवाओं की तरह बहें। लेकिन मैं दूसरों द्वारा बहाकर उड़ा देने से इन्‍कार करता हूं।

ये शब्‍द भारत भर के सभागारों और प्रेक्षगृहों में दीवारों पर सजे हुए हैं, लेकिन पहली पंक्ति के बिना। ‘मेरे खयाल से मैं कविगुरू की तरह ही खुली हवा में श्रद्धापूर्वक विश्‍वास करने वाला हूं।‘ सच्‍चाई यह है कि सैद्धांतिक रूप से इस तर्क के बावजूद गांधी और टैगोर कमोबेश एक ही जगह खड़े हैं। गांधी जी अपनी किताबें गुजराती में लिखते थे, लेकिन ये तय कर लेते थे कि उनका अंग्रेजी में अनुवाद हो ताकि बड़े पाठकवर्ग तक किताब पहुंचे। और जब जरूरत पड़ती तो वे विजेता की भाषा का इस्‍तेमाल खुद भी कर लेते थे। उनके शुरूआती लेख 1891 में वेजेटेरियन सोसाइटी ऑफ लण्‍डन में प्रकाशित हुए थे, ये लेख सीधे और अनलंकृत गद्य में थे, जो उनके अंग्रेजी लेखन की विशेषता रही है। फिर चाहे वो औपनिवेशिक सरकार के लिए याचिका हो या उनके इंडियन ओपिनियन, यंग इण्डिया और हरिजन में लिखे गए संपादकीय हों अथवा अनेक मित्रों को लिखे गए पत्र हों।5

प्रारंभिक द्विभाषी चिंतक

एक से अधिक भाषाओं में लिखने वालों में गांधी जी उनके जैसे लेखकों के ही अनुगामी थे, जिनकी वो आलोचना कर रहे थे। मसलन बालगंगाधर लिक की मातृभाषा मराठी थी, जिसमें निश्चित रूप से उनके लेख प्रकाशित हुए थे। दूसरी तरफ राममोहन राय ने फारसी में किताबें लिखीं और बांग्‍ला में लेख लिखे। राय संस्‍कृत और अरबी के भी अच्‍छे जानकार थे। इसी तरह टैगोर थे, जिन्‍होंने अपने उपन्‍यास और कविताओं से बांग्‍ला साहित्‍य को समृद्ध किया। वो भी इस बात का ध्‍यान रखते थे कि उनका महत्‍वपूर्ण कथेतर साहित्‍य अंग्रेजी में उपलब्‍ध हो। उनकी महत्‍वपूर्ण राजनैतिक विचारों की किताब ‘नेशनलिज्‍म’, उनके अंग्रेजी में लिखे लेखों या दिए गए भाषणों का संग्रह है। उनके महत्‍वपूर्ण और आज भी प्रासंगिक पूर्व और पश्चिम के संबंधों को लेकर लिखे गए लेख या तो अंग्रेजी में लिखे गए या उनके किसी साथी द्वारा उनकी देखरेख में अनुवाद किए गए। टैगोर जानते थे कि व्‍यक्तिगत या पारिवारिक स्‍तर पर प्रेम और अपमान को मातृभाषा में बेहतर व्‍यक्‍त किया जा सकता है, जबकि तर्क और न्‍याय के निर्वैयक्तिक प्रश्‍नों को एक बड़े समुदाय के समझ में आने वाली भाषा में व्‍यक्‍त करना ठीक रहता है, जिससे बड़े भूभाग तक बात पहुंचाई जा सके। यह सिर्फ बांग्‍ला में संभव नहीं।

अंग्रेजी और मातृभाषा में लिखते हुए गांधी और टैगौर दोनों समाज के लिए भी और स्‍वयं के लिए भी योगदान कर रहे थे। वे एक बड़े व्‍यापक पाठकवर्ग तक पहुंचे और उनके विचार सुनते हुए खुद उनकी सोच का दायरा व्‍यापक हुआ। यह वैचारिक खुलापन उनके लेखन में भी सामने आया। इस प्रकार गांधीजी ने उन चिंतकों को पढ़ा जो अनिवार्यत: गुजराती नहीं थे और उनसे प्रभावित भी हुए। रस्किन और तोलस्‍तोय के प्रति उनका ऋण रायचंद भाई और नरसी मेहता से कहीं कमतर नहीं था। गांधीजी को उस समय ने भी समृद्ध किया जो उन्‍होंने गुजरात से बाहर बिताया, इंग्‍लैंड के कई बरस, दक्षिण अफ्रीका के कई दशक और हजारों मील की उनकी भारतीय उपमहाद्वीप की यात्राएं।

दूसरी तरफ टैगोर ने यूरोपियन साहित्‍य का विशद अध्‍ययन किया था। जब उन्‍होंने 1920 में अपने प्रकाशक कुर्त वुल्‍फ के निमंत्रण पर जर्मनी की यात्रा की थी तो उनके मेजबान को ‘टैगोर की शिक्षाओं की वैश्विक सौरभ’ जीवन भर स्‍मरण रही। उनकी बातचीत से उद्घाटित हुआ, ‘वो पश्चिम के बारे में अपने मिलने वाले किसी यूरोपियन से कहीं अधिक जानते थे।‘ टैगोर ने बहुत सी चीजों के अलावा टी एस इलियट के बारे में भी अपने विचार रखे। ‘यह सचमुच आश्‍चर्यजनक बात है’ वुल्‍फ ने कहा, ‘कि 1861 में भारत में जन्‍मा कोई व्‍यक्ति एंग्‍लो अमेरिकन कविता में ऐसी दिलचस्‍पी दिखाए और उसमें भी अपने से तीस बरस छोटे कवि की कविता में।‘

गांधी की भांति टैगोर ने भी अपनी यात्राओं औ किताबों से समान मात्रा में बहुत कुछ सीखा। उन्‍होंने यूरोप में लंबा वक्‍त बिताया, जापान की यात्रा की, कई बार अमेरिका गए, और चीन, दक्षिण पूर्व एशिया, ईरान और लेटिन अमेरिका की यात्राएं कीं।

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गांधी और टैगोर के लिए विदेशी भाषा वह वातायन था जिससे वे विश्‍व की दूसरी संस्‍कृतियों, सभ्‍यताओं और जीवन पद्धतियों को देख सकते थे। इन दोनों के लिए अपनी भाषा से इतर किसी भाषा पर अधिकार उन्‍हें कम से कम स्‍थानीय और उनके काम को व्‍यापक वैश्विक बनाने वाला महत्‍वपूर्ण कारक था। उनके अध्‍ययन और यात्राओं ने उनके लेखन को समृद्ध किया, इस प्रकार वे विश्‍व को बंगाल और गुजरात लाए और दूसरी भाषा में लिखकर वे बंगाल और गुजरात को दुनिया तक ले गए। द्विभाषिकता यहाँ एक प्रकार का उपकरण-माध्‍यम या कोई बड़ी चीज, बेहद सहनशील यानी बहुलतावादी संस्‍कृति या बहुसंस्‍कृतिवाद का एक रूप था।

इस मामले में दोनों प्रातिनिधिक व्‍यक्ति थे। इनसे पहले सैयद अहमद खां थे, जिन्‍होंने उर्दू और अंग्रेजी के बीच यात्रा करते हुए एक तरफ तो ब्रिटिश सरकार को मुस्लिम हितों के प्रति संवेदनशील बनाया और दूसरी ओर मुस्लिमों को आधुनिकता के विचारों की ओर लाने का प्रयास किया। इनके बाद बी आर अंबेडकर थे, जिन्‍होंने स्‍थानीय समुदाय के लिए मराठी में लिखा और शेष भारत व विश्‍व के लिए अंग्रेजी में लेखन किया। अंबेडकर ना केवल अपने संत तुकाराम से परिचित थे, बल्कि जॉन स्‍टुआर्ट मिल से भी। एक और उदाहरण लें, सी राजगोपालाचारी की आज भी उनकी अंग्रेजी लेखन शैली के कारण प्रशंसा की जाती है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे तमिल में कहानी और निबंध लेखन के संस्‍थापक लेखकों में थे। वे ना केवल अपनी कुरल काव्‍यधारा से परिचित थे, बल्कि महात्‍मा गांधी से मिलने से बहुत पहले थोरो को पढ़ चुके थे, ऐसा एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने बताया था। राजाजी के समकालीन वी डी सावरकर ने भी अंग्रेजी में पुस्‍तकें लिखीं, और साथ ही साथ मराठी में नाटक और विवादास्‍पद लेख लिखे। राजनीति के दूसरे छोर पर कम्‍युनिस्‍ट हीरेन मुखर्जी को लें, वे एक जबर्दस्‍त लेखक थे, जिन्‍होंने बांग्‍ला और अंग्रेजी में चर्चित लेखन किया।

लोहिया और बहुभाषिकता

एक चिंतक-राजनेता, जो पहली नजर में असामान्‍य लग सकते हैं, वे थे राममनोहर लोहिया। यह तय है कि लोहिया ने आम जीवन और शिक्षण संस्‍थानों से अंग्रेजी हटाने का आह्वान किया था, लेकिन इसके साथ ही देश भर में हिंदी के प्रचार के लिए भी कहा। हालांकि लोहिया ने एकभाषावाद की नहीं बहुभाषावाद की वकालत की थी। उन्‍होंने विद्यालयों में दिये जाने वाले निर्देश मातृभाषा में देने की मांग की, और इस बात पर जोर देकर कहा कि बच्‍चों को दो अतिरिक्‍त भाषाएं अवश्‍य सीखनी चाहिए, एक हिंदी और दूसरी कोई विदेशी अथवा भारतीय भाषा। उन्‍हें राष्‍ट्रों के बीच संवाद के लिए एक अंतर्राष्‍ट्रीय भाषा की जरूरत महसूस होती थी, लेकिन वे इस बात को लेकर आश्‍वस्‍त नहीं थे कि वो भाषा अनिवार्यत: और हमेशा के लिए अंग्रेजी होगी। अंतर्राष्‍ट्रीय संवाद की भाषा की भूमिका इतिहास में पहले फ्रेंच निभा चुकी थी, और वे सोचते थे कि भविष्‍य में चीनी या रूसी भाषा यह भूमिका निभाएगी। लोहिया खुद जर्मन जानते थे, उन्‍होंने पीएचडी की डिग्री बर्लिन विश्‍वविद्यालय से ली थी, जबकि उनके कुछ जबर्दस्‍त और विवादास्‍पद अंग्रेजी विरोधी लेख अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुए थे।

तो लोहिया किसी भी रूप में अपवाद नहीं थे। द्विभाषावाद और बहुसंस्‍कृतिवाद उनकी पीढ़ी के दूसरे नेताओं की तरह उन तक सहज रूप से आया। उनके समकालीन समाज विज्ञानियों में भी यह सहज भाव से आया। 1940 और 1950 के दशक में सक्रिय ऐसे लोगों में, नृतत्‍वशास्‍त्री निर्मल कुमार बोस और इरावती कर्वे, अर्थशास्‍त्री डी आर गाडगिल, और समाजशास्‍त्री डी पी मुखर्जी थे, इन सबने अपने अंग्रेजी और मातृभाषा में समान रूप से लेखन कर नाम कमाया। इनका अकादमिक लेखन अंग्रेजी में और लोकप्रिय या साहित्यिक लेखन बांग्‍ला या मराठी में होता था। कई बार स्‍थानीय भाषा का लेखन अंग्रेजी में अनुवाद होकर जबर्दस्‍त प्रभाव पैदा करता था। मसलन कर्वे द्वारा महाभारत का ‘युगांत’ के रूप में किया गया पुनर्प्रस्‍तुतिकरण। गांधी और टैगोर की तरह समृद्धीकरण की प्रक्रिया दुतरफा थी, ये सब कम स्‍थानिक हुए, और अपने लेखन से उन्‍होंने अपने पाठकों को एक विस्‍तृत और व्‍यापक संसार का स्‍पर्शनीय अनुभव कराया।

उस दौर के राजनेताओं और विद्वानों जैसा द्विभाषावाद लेखकों और आलोचकों में भी मिलता है। मेरे खयाल से हरीश त्रिवेदी ने पहली बार इस बात पर ध्‍यान दिलाया था कि बीसवीं शताब्‍दी के शानदार सर्जनात्‍मक लेखकों में से अधिकांश अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, लेकिन उन्‍होंने अपनी कविताएं या कहानियां दूसरी भाषाओं में लिखीं। यह लिखते वक्‍त मेरे पास वो लेख नहीं है, लेकिन त्रिवेदी ने संभवत: जो नाम बताए थे, उनमें कन्‍नड़ के कवि गोपालकृष्‍ण अडिगा और उपन्‍यासकार यू आर अनंतमूर्ति, हिंदी में कवि हरिवंश राय बच्‍चन और कथाकार निर्मल वर्मा और उर्दू में शायर फिराक गोरखपुरी जैसे नाम थे। इन सबने अंग्रेजी साहित्‍य पढ़ाया, जबकि कुछ ने तो अंग्रेजी में ही सर्वश्रेष्‍ठ ब्रिटिश विश्‍वविद्यालयों से पीएचडी भी की। साहित्‍य के इतिहासकार निसंदेह इस सूची में असमिया, ओडि़या, बांग्‍ला, तमिल, तेलुगू, आदि के प्रतिष्ठित लेखकों के नाम जोड़ सकते हैं, जिन्‍होंने जीवन भर अंग्रेजी अध्‍यापन किया लेकिन लिखा अपनी मातृभाषा में।

यहाँ इस बात पर गौर करना चाहिए कि एकाधिक भाषा में सहज होना सिर्फ कुशलता का मसला नहीं है बल्कि संवेदनशीलता की भी बात है। एक लेखक, उसका लेखन और उसके पाठक, सब इस तथ्‍य से लाभान्वित होते हैं कि संकेतित व्‍यक्ति एक से अधिक भाषाओं या एक बड़े सांस्‍कृतिक विश्‍व का जानकार है। निश्चित रूप से बच्‍चन का हिंदी काव्‍य किसी ना किसी स्‍तर पर केंब्रिज में डब्‍लू बी यीट्स पर किये गए शोधकार्य से प्रभावित रहा होगा। इसी प्रकार उनका अध्‍यापन या समय समय पर अंग्रेजी में किया गया लेखन निश्चित रूप से हिंदी साहित्‍य में उनके गहरे डूबे रहने के कारण समृद्ध हुआ होगा।

संभवत: द्विभाषावाद से संबद्ध मसले का जबर्दस्‍त उदाहरण है प्रेमचंद के ‘गोदान’ का विन्‍यास। 1936 में प्रकाशित यह उपन्‍यास आधुनिक हिंदी उपन्‍यास का आधाररूप है, जबकि प्रेमचन्‍द ने इस उपन्‍यास की रूपरेखा अंग्रेजी में बनाई थी।

(अंग्रेजी से अनुवाद: प्रेमचंद गाँधी)

2 comments
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  1. राम गुहा के पूर्वाग्रह कम हो रहे हैं । सिंन्डीकेट्स के जरिए उनके लेख हिन्दी में छपने लगे ,ज्यादा लोग पढ़ने लगे उसके बाद यह परिवर्तन आया है। ’गैर तकनीक” रूप से उनकी मातृभाषा अंग्रेजी हुई । उअन्की तरह अंग्रेजी में ही सोचने वाले कितने लोग होंगे?

  2. A very deceptive piece. Well argued and typical Ram Guha piece. But, ends with a wrong note. Having said that, I thoroughly enjoyed this. It is very well translated by Premchand Gandhi. It deserves to be read carefully by people.

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