आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

खूबसूरत टैंकों के देश में जहाँ सरस्वती को हाकडा कहते हैं: प्रेम चन्द गांधी

पिछली बार मैं यहाँ दिसम्बर की कड़कड़ाती ठण्ड में आया था। उस वक्त फलों और सूखे मेवे की पेटियां लिए कुली दौड़ते चले आ रहे थे। नीली वर्दी में भारतीय और में पाकिस्तानी कुली। इस बार बस इक्का-दुक्का कुली नजर आ रहे हैं। पहले भारतीय सीमा पर हुई जाँच के बाद पाक सीमा पर एक बार फिर द्विस्तरीय जाँच से गुजरकर हम पाकिस्तानी सरहद में इमिग्रेशन काउन्टर की ओर चल पड़े। सामने से आती एक आलीशान सफेद गाड़ी से एक खूबसूरत नौजवान उतरा। ड्राइवर की पोशाक में पाकिस्तानी फौजी था। नुकीली-बल खाई हुई मूंछों और काउ-बॉय हैट पहने अधिकारी ने उसका इस्तकबाल किया। आगन्तुक नौजवान किसी बड़े फौजी अफसर या नेता का मेहमान था। उसे बार्डर देखने की ख्वाहिश थी। मैंने मन ही मन कहा, और हमें बार्डर के उस पार देखने की।

डेढ़ बरस में ही कितना बदलाव आ गया है। सड़क खासी चौड़ी हो गई है। दांयी तरफ इमिग्रेशन दफ्तर की नई इमारत बन चुकी है। लेकिन हमें अभी पुरानी बिल्डिंग की ओर ही जाना है, क्योंकि अभी दफ्तर वहीं हैं। इन नए निर्माणों से पता चलता है कि हमारे संबंध भी एक नये दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ बहुत-सी पुरानी चीजों से छुटकारा पाना है, फिर चाहे वह जगह की तंगी झेलती इमारत हो या विश्व- ग्राम के दौर में पुरानी दुश्मनी।

इस बार के पाक- सफर पर मुझ सहित छह लेखक-पत्रकार जयपुर से, दो बठिण्डा से, दो दिल्ली से और एक चंडीगढ़ से हैं। राजस्थान श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष ईशमधु तलवार, युवा कवि ओमेन्द्र, शायर फारूख इंजीनियर, वरिष्ठ पत्रकार सुनीता चतुर्वेदी और आनन्द अग्रवाल जयपुर से हैं। कवि-कथाकार डॉ राजकुमार मलिक और फिल्मकार अजय चावला दिल्ली से हैं। डॉ आर पी सिंह और रघुवीर सिंह बठिण्डा से तो गोविन्द राकेश चण्डीगढ़ से हैं। मौका है पत्तन मुनारा इण्टरनेशनल कांफ्रेंस। पत्तन मुनारा वह जगह है जहाँ कभी सरस्वती बहा करती थी।

साढे छह फीट लम्बे मेजबान दोस्त इरशाद अमीन दूर से ही दिखाई दे जाते हैं। अपने साथ चार दोस्तों को लिए चले आ रहे हैं। हम गले लग रहे हैं और गुलाब की पंखुड़ियाँ बरसाई जा रही हैं। सीमा के इस पार या उस पार कहीं भी, भारतीय दल के सदस्यों के सामान की जाँच की महज खानापूर्ति होती है। जानते हैं इनके सामान में कुछ भी अवांछित नहीं होगा। बहरहाल, दफ्तरी औपचारिकताएँ खत्म होती हैं और हम फौजी इलाके से बाहर आते हैं और चार कारों में सवार होते है। इस बार सीमा पर आमदरफ्त कम है इसलिए खूबसूरत चित्रकारी से सजे टैंक कहीं नज़र नहीं आ रहे ।

पिछली दफा वाघा से लाहौर जाने वाली इस सड़क पर काम चल रहा था, आज वह फोर लेन हो चुकी है। दोस्ती का जज्बा भरे दिलों की तरह चौड़ी और खूबसूरत। यूँ सड़क का हुस्न उसके दोनों तरफ के नज़ारों से होता है और यहाँ कहीं खेत लहलहा रहे हैं तो कहीं ईटों के भट्टों की चिमनियां बुलन्द हैं। एक गधागाड़ी पर चारा लदकर जा रहा है, सुनीता चतुर्वेदी के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा, ‘अरे यहाँ भी वही गधागाड़ी।’ हाँ, सच मे सरहद के इस पार कुछ भी तो नहीं बदलता सिवाय दीवारों और साइन बोर्डो पर लिखी इबारत के। हिन्दी की जगह उर्दू आ जाती है या कहें कि आप लखनऊ-हैदराबाद के किसी मुस्लिम-बहुल इलाके में आ गए हैं। थोड़ा-सा फासला तय करते ही आबादी आ जाती है। जलु मोड़। पिछली बार यहाँ ठेलों पर किन्नू थे, इस बार आडू, सरदा और गरमा के साथ खरबूजा-मतीरा है। वही गंदगी का आलम, बेतरतीब फैला कचरा, हर तरफ कीचड़ और यातायात नियमों को ठेंगा दिखाते चालक और राहगीर।

बाटा का बड़ा सा बोर्ड बाटापुर की ओर इशारा करता हुआ। यहाँ से हम एक तंग रास्ते में दाखिल होते हैं। दोनों तरफ खेतों की ऊंची मेड़ है। थोड़ा आगे चलकर दाँये मुडते ही कैनाल रोड शुरू हो जाती है। नहर में किनारे से एक फीट नीचे बहता पानी है और नहर के दोनों तरफ आने-जाने की सड़क है। नहर एक डिवाइडर है। लाहौर शहर के बीचों-बीच से गुजरती यह नहर यहाँ से कोई तीस किमी आगे जाकर खत्म होती है। नहर में कहीं बच्चे नहा रहे हैं, तैरना सीख रहे हैं यानी किसी भी तरह मानसून पूर्व की इस चिचिलाती धूप से राहत पा रहे हैं। इंसान ही क्या जानवर तक नहर के शुक्रगुज़ार हैं जो इन बेज़ुबानों को अपने आगोश में ले ठण्डी थपकियां दे रही है। क्या भैंस और क्या गाय, कूकर-शूकर भी पिकनिक मना रहे हैं। आटो रिक्षा और टेम्पो वाले अपनी गाड़ियों की धुलाई कर रहे हैं। कुल जमा में नहर एक नेमत है, जो खेत-बागीचों से लेकर अपनी राह के तमाम जरूरतमन्दों पर बिना किसी भेदभाव के बरसती है।

मैं, तलवार, ओमेन्द्र और सुनीता जिस गाड़ी में हैं, उसे सुलेमान चला रहे हैं । वे इरशाद अमीन के खास शार्गिद हैं, पत्रकारिता में नहीं सेवादारी में। पिछली बार के सफ़र में एक शाम मस्त रेडियो के भाई शफकतुल्लाह के घर पत्रकार सईद अहमद, इरशाद अमीन, अफजल साहिर, पवन कुमार, गोविन्द प्रसाद और मैंने साथ गुजारी थी। तब रात ढाई-तीन बजे तक सुलेमान ने हमारी खातिरदारी की थी।

नहर के साथ-साथ चलते हुए हम एक सब-वे (अण्डरपास) में दाखिल हुए और ऊपर आये तो ऊंची इमारतों, बड़े-बड़े विज्ञापन-बोर्डो और चौडी चमचमाती-सड़कों के साथ लाहौर सामने था। रेंगते हुए वाहनों के काफ़िले के साथ हम खरामा-खरामा चलते रहे। दक्षिण दिल्ली की तरह यहाँ सड़क के दोनों किनारों पर और डिवाइडर के बीच हरे-भरे और फूलदार पेड-पौधे हैं। आँखों को सुकून देते हुए।

लक्ष्मी चौक। लाहौर की शान। हमेशा गुलज़ार रहने वाला लक्ष्मी चौक एक वक्त में पाक फिल्म इंडस्ट्री का केन्द्र हुआ करता था। यहाँ चौबीस घण्टे खाना मिलता है और देर रात तक सड़कों पर चहल-पहल बनी रहती है। यहीं के शानदार नेशनल होटल में हमें एक रात बिताकर अगले दिन लम्बे सफ़र पर निकलना है।

ऐसी यात्राओं में दोस्तों के लिए कुछ तोहफे, कुछ निशानियाँ होती हैं। हमारे मेजबान दोस्त इरशाद अमीन के लिए भी कुछ ऐसी ही यादगार चीजें हम ले गये थे। राजस्थान पत्रिका में हिन्दी में छपे उनके दो लेखों की कटिंग, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की लोकायत, वीणा म्यूजिक के श्री केसी मालू की ओर से पाकिस्तानी दोस्तों के लिये खास तौर पर भेंट किये गये राजस्थानी संगीत की सीडीज का एक सेट, जयपुरी बन्धेज की कुछ चुन्नियाँ, और ऐसे कई छोटे-मोटे उपहारों के साथ राजस्थान से संबंधित पर्यटन सामग्री का एक किट हमने इरशाद साहब को भेंट किया। पत्तन मुनारा कांफ्रेंस के हवाले से मैंने जो महत्वपूर्ण सामग्री खोजी थी, उसको लेकर देर रात तक उनसे चर्चा की।

अगले दिन सुबह हम चले पड़े रहीम यार खाँ की जानिब। वातानुकूलित मिनी बस में हम लाहौर से निकले तो कई किमी तक नहर हमारे साथ थी। फिर हाइवे आया तो कदम-कदम पर रंग-बिरंगे सजे-धजे आकर्षक चित्रों से लबरेज ट्रकों का एक न खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हुआ। पाकिस्तान के ट्रकों पर की जाने वाली चित्रकारी पर बहुत-सी डाक्यूमेंटरी फिल्में बनी हैं। बारीक बेलबूटों वाली इस चित्रकारी का एक ट्रक फिल्म गदर में सन्नी देओल भी चलाते हैं। मैं निकला गड्डी लेकर।

करीब दस घण्टे तक हम लोग चलते रहे।

शाम का वक्त था और सूरज ढल रहा था। मैंने दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर देखा। इसी तरफ हमारा जैसलमेर है। हम रहीम यार खाँ के ठीक पास में थे। जिसे हम थार का रेगिस्तान कहते हैं, उसे यहाँ चोलिस्तान या रोही कहा जाता है। रोही नाम शायद रोहिड़ा के खूबसूरत फूल के कारण पड़ा हो। शुष्क-नीरस बदरंग जीवन में सौन्दर्य की तलाश ऐसे ही की जाती है। यूँ राजस्थानी में रोही उस इलाके को भी कहते हैं जहाँ थोड़ी बहुत वनस्पति और सुनसान हो। हनुमानगढ़-गंगानगर में भी रेगिस्तान को रोही कहते हैं।

सीमा के इस नजदीकी इलाके में पहली बार कोई भारतीय प्रतिनिधि मण्डल आया है। इरशाद अमीन के दोनों मोबाइल लगातार बजते रहे। तमाम खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां सक्रिय हैं। एक सामान्य कस्बानुमा शहर है रहीमयार खाँ। यहाँ के द पैलेस गेस्ट हाउस में हमें ठहरना है। जहाँ पहुंचते ही हमें सबसे पहले पुलिस की हथियारबंद वैन दिखाई देती है। भीतर दाखिल होते हैं तो आला अफसर बताते हैं कि हमारे आने से पहले वे पूरे गेस्ट हाउस की गहन जांच कर चुके हैं। उसके हाथ में मेटल डिटेक्टरनुमा यंत्र देखकर विश्वास होता है। लेकिन किसी को हमसे क्या दुश्मनी हो सकती है ? खैर।

अगली सुबह यह अहसास और पुख्ता हुआ। पता चला चार-पाँच सुरक्षाकर्मी गेस्ट हाउस में ही डेरा डाले बैठे हैं। नाश्ता करते ही हमें निकलना था, पत्तन मुनारा देखने। आगे-आगे पुलिस की वैन और उनके पीछे हम। शहर से गुजरे तो देखा, यहाँ दो नहरें हैं बड़ी और छोटी। हम बड़ी नहर के किनारे आगे बढ़ रहे थे। एक जगह नहर मुड़ गई और हम सीधे चलते रहे। लेकिन एक छोटा नाला मौजूद था। इरशाद इमीन ने बताया, यह सेम नाला है। यानी जब जल स्तर बढ़ जाता है तो अतिरिक्त पानी को ज़मीन से निकाल बहा दिया जाता है। यह पानी ठेठ रेगिस्तानी इलाकों में छोड़ दिया जाता है। ताकि वहाँ का जलस्तर बढ़ सके। मुझे याद आया, नीचे सरस्वती बह रही है और ऊपर नहर। यहाँ का जलस्तर तो बढेगा ही। क़ुछ कच्चे-पक्के रास्ते पार कर हम अर्ध रगिस्तानी इलाके में पहुंचे। यहाँ चारों तरफ बहुत-सी टेकरियां हैं या कहें टीले हैं, जिन पर लाल ईटों के टुकड़े बेतरतीब बिखरे पड़े हैं। खींप की झाडियां और कीकर व बबूल के अलावा बस कांटेदार वनस्पति। मिट्टी का रंग जैसे सफेद झक्क चांदी का बुरादा। दूर से ही पत्तन पुनारा की मीनार दिखाई देती है। इतिहासवेत्ता और पुरातत्वविदों में इस बात को लेकर विवाद है कि यह मीनार है या मंदिर। पाकिस्तान में सिन्धु नदी के किनारे बरसों से खुदाई करने वाले माइकल मीस्टर ने स्टडीज आन आर्ट, आर्कियोलॉजी एण्ड इण्डोलॉजी पुस्तक में इस पर एक शोधपत्र भी लिखा है। बदकिस्मती से मैं यह पुस्तक जयपुर में नहीं खोज पाया। वैसे भी साढे चार हजार रूपये खर्च कर यह किताब खरीदने की सरधा नहीं थी। एक खासी ऊंची टेकरी पर यह दो मंजिला इमारत खड़ी है। पक्की ईंटों से बनी इस मीनार की लम्बाई चौड़ाई ज्यादा नहीं है। निचली मंजिल पर भीतर छत का आकार गुम्बद जैसा है। बाहर की तरफ दीवारों पर आले, बेल-बूटे बने हैं। दूसरी मंजिल पर लगी ईंटों को देखकर लगता है कि इन्हें सहारा देने के लिए लगाया गया है ताकि पूरी इमारत को धराशायी होने से बचाया जा सके।

बहावलपुर स्टेट गजट 1904 के अनुसार यह नगर 2400 बरस पुराना है। यहाँ से उत्तर-पश्चिम में कभी सरस्वती बहती थी। पाकिस्तान में सरस्वती को हाकडा के नाम से जानते हैं। लगभग सौ वर्ग मील में फैली लाल ठीकरियों वाली टेकरियां एक शानदार अतीत के दफन होने का सबूत है। एक अनुमान के मुताबिक एक समय सरस्वती इतनी बड़ी नदी थी कि उसमें जहाज या बड़ी नावें चला करती थीं। टेकरियों में दफन शहर एक बड़ा व्यापारिक महत्व का नगर था। और यह मीनार शायद जहाजों को रास्ता दिखाने वाला लाइट हाउस। पत्तन को बंदरगाह के अर्थ में लें तो यह साफ भी हो जाता है।

सुनीता चतुर्वेदी ने कहा कि वेदों में सरस्वती के एक छोर पर सोने जैसी और दूसरे किनारे पर चांदी जैसी रेत का वर्णन है। पत्तन मुनारा क्षेत्र की रजत रेत को देखकर यह धारणा और पुख्ता हो जाती है। साहित्य इसी तरह इतिहास को हमारे लिए खोलता है। सोनार किला वाले जैसलमेर में सुनहरी रेत और यहाँ पत्तमन मुवारा क्षेत्र में चांदी जैसी! लेकिन किम्वदंतियां इतिहास पर धूल भी डाल देती हैं। जैसे मीनार के ठीक बगल में रहने वाले एक बाब ने बताया कि यह इमारत सिकन्दरे आजम के जमाने की है। जबकि इसकी निर्माण कला और तकनीक ऐसे दावों को मिथ्या सिद्ध करती है।

कहते हैं कि इस इमारत की कई मंजिलें थीं। वे सब कैसे गिरीं पता नहीं, लेकिन बहावलपुर स्टेट गजट के अनुसार इसकी एक मंजिल को सन 1740 में बादुर खाँ हालानी ने और दूसरी मंजिल को फैजल खाँ हालानी ने गिराया। यह ध्वसं दीनगढ़ रियासत की किले बन्दी के लिए ईटें जुटाने के लिए किया गया था। आज जैसलमेर सीमा पर जो किशनगढ़ है उसी का पुराना नाम दीनगढ़ है। यहाँ का किला अठाहरवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जैसलमेर को महज 74000 रूपयों में बेच दिया गया था। इस संबंध में जैसलमेर के कथाकार ओम प्रकाश भाटिया ने अपने शोधपरक उपन्यास दीवान सालमसिंह में लिखा है,

इस बीच सूचना मिली कि दीनगढ का अमीर फजल अली खाँ रेत के टीलों और मुश्किल जीवन से परेशान होकर दुर्ग छोड़ना चाहता है। सालमसिंह ने संदेश भिजवाया कि अगर वह बेचना चाहता है तो जैसलमेर उसे खरीद लेगा। फजल अली खाँ ने दीवान को दीनगढ़ बुलाया। बातचीत हुई और सौदा चौहत्तर हजार रूपयों में पट गया। जिसमें पचास हजार किले के और चौबीस हजार अन्य सामान के दिए गए। फजल अली खाँ किले का कब्जा सालमसिंह को सौंपकर सिंध चला गया। दीनगढ़ तनोट के पास था। उसका नाम बदलकर किशनगढ रखा गया।

कर्नल मिनचिन, (ब्रिटिश सरकार के सिंचाई महकमे में बडे इंजीनियर थे, जिनके नाम से मिनचिनाबाद बसा हुआ है ओर यह गंगानगर के ठीक उत्तर-पश्चिम में है ) ने 1870 में इस मीनार की बगल वाली टेकरियों की खुदाई कराई थी, लेकिन कुछ भी हासिल नहीं हो सका। खुदाई के दौरान मजदूरों को भयानक बदबूदार कोई लिसलिसा पदार्थ मिला, जिस पर बडे आकार की अजीबोगरीब रंग वाली मक्खियों का छाता जमा हुआ था। भंयकर दुर्गन्ध और मक्खियों के जहरीले डंकों से कई मजदूर तुरन्त ही मारे गये और इसके बाद कभी कोई खुदाई नहीं हुई।

बहरहाल, इस मीनार की हालत इस कदर ख़राब है कि यह भी पता नहीं चलता कि इसकी ऊपरी मंजिलों पर जाने का रास्ता क्या था। संभव है ऐसे अवशेष भी समय के साथ ध्वस्त हो गए हों। कुछ पुरातत्वविद इसे बौद्ध मठ मानते हैं। ऊपरी मंजिल के एक कोने में बुद्ध की मूर्तियों का एक पैनल इसका सबूत है। यह पैनल उस स्तम्भ के अवशेष पर अंकित है जो दूसरी मंजिल का आधार है। वैसे इस मीनार को प्राथमिक तौर पर बौद्ध मठ ही माना जाता रहा है। नवाब बहावलपुर ने ब्रिटिश काल में एक बार नये साल के ग्रीटिंग कार्ड पर इस मीनार की तस्वीर छापी थी। यहाँ आस-पास ऐसी ही चार और मीनारें हैं और ये सब मिलकर एक बौद्ध विहार की संरचना प्रस्तुत करते हैं। इस मीनार के चारों ओर की टेकरियों में खोखर, भण्डार, दरवाज़ा और बिन्दोर टेकरियां प्रमुख हैं। इनमें बिन्दोर मीनार से तीन मील पश्चिम में है, जबकि खोखर, भण्डार और दरवाजा पांच मील पूरब की ओर हैं। अनुमान लगाया जाता है कि अपनी चरम विकसित अवस्था में पत्तन मुनारा शहर कोई सौ वर्ग मील में बसा था। भण्डार को खाद्यान्नम भण्डार, दरवाजा को मुख्य प्रवेश द्वारा और बिन्दोर को केन्द्रीय कारागार माना जाता है। खोखर के बारे में कोई अनुमान नहीं है कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है या रहा होगा ?

किसी भी मुस्लिम शासक ने पत्तन मुनारा का अपने किसी भी दस्तावेज में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया। यही माना जा सकता है कि मुगलों के आगमन से बहुत पहले ही पत्तन मुनारा नष्ट हो गया होगा। कर्नल जेम्स टाड ने जैसलमेर के इतिहास में पत्तन के राजकुमार और राजकुमारियों की चर्चा की है, लेकिन पत्तन के भूगोल के बारे में कुछ नहीं कहा। सम्भव है यह वही पत्तन हो। दसवीं सदी में पत्तन को पुन: बसाया गया था और 11वीं ईस्वी सदी तक यह सूमरा वंश की राजधानी रही।

रहीम यार खाँ रेल्वे स्टेशन से पांच मील पूरब में सरस्वती के पुराने प्रवाह क्षेत्र में पूर्वी किनारे पर स्थित पत्तन मुनारा, हडप्पा-मोहन्जोदडो सभ्यता का ही अवशेष है। आज के पाकिस्तान में कुछ लोग जानते हैं कि इस उन्नत सभ्यता की पहली खोज राजस्थान में कालीबंगा में 1914 में इटली के एलपी तैस्सितोरी ने की थी। सिंध में मोहन्जोदड़ो की खुदाई तो 1922 में हुई थी। एलपी तैस्सितोरी ने कालीबंगा सहित लगभग सौ जगह खुदाई कराई थी, जिसमें कोई एक हजार पुरा वस्तुएँ जमा की थीं। उन्होंने ही सबसे पहले कालीबंगा और यहाँ की पुरा सम्पदा को प्रागैतिहासिक घोषित किया था। यह राखालदास बनर्जी और अलेक्जण्डर कनिंघम से बहुत पहले की बात है यानि इन लोगों द्वारा हडप्पा के काल निर्धारण से पहले की।

उपलब्ध ऐतिहासिक, पुरातात्विक और वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि कालीबंगा भूकम्प से नष्ट हुआ भारतीय इतिहास का पहला शहर है। साइंस एज (अक्टूबर, 1984, नेहरू सेन्टर, मुम्बई) में डा. बीबी लाल ने कालीबंगा के भूकम्प को ‘अर्लीएस्ट डेटेबल अर्थक्वेक इन इण्डिया’ कहा है। भूकम्प के कारण धरती में पड़ी दरारों से सरस्वती का पानी नीचे भूमिगत जलधाराओं में जाकर लुप्त हो गया। कालान्तर में मौसमी बदलावों से अकाल-सूखा पड़ने लगा और भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण अरावली पर्वतमाला ऊपर उठने लगी, जिससे सरस्वती की सहायक नदियों के रास्ते बदल गये और सरस्वती के बहाव क्षेत्र में टीले आकर जमने लगे और धीरे-धीरे रेगिस्तान बढ़ने लगा। इसी रेगिस्तान में कालीबंगा, पत्तन मुनारा जैसे नगर 2500-1500 ईपू में नष्ट होकर जमींदोज़ हो गये।

अब यहाँ पाकिस्तानी पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड इस इमारत और आसपास के समूचे क्षेत्र को संरक्षित घोषित करता है। इरशाद अमीन ने बताया कि गरीबी की मार झेल रहे, इतिहास से अनभिज्ञ लोग किसी खज़ाने की तलाश में यहाँ जब-तब खुदाई कर सबूतों को नष्ट करने में सक्रिय रहते हैं। हमें ऐसी कारगुज़ारियों के बहुत से दस्तावेज़ यहाँ दिखाई दिये। इस पुरा वैभव के अतीत और भविष्य पर चिंता-चर्चा करते हुए हम वापस गेस्ट हाउस लौटे।

शाम जिन्ना हॉल में कार्यक्रम खासी देरी के बाद शुरू हुआ। इस देरी का कोई खास कारण नहीं था। बस यूं ही। और लोग थे कि तीन घण्टे की देरी भी आराम से बर्दाश्त कर रहे थे। कार्यक्रम दो सत्रों में होना था पहला विचार सत्र था। इसकी अध्यक्षता सिरायकी भाषा के विद्वान सिराजुद्दीन सांवल ने की। इनकी बनाई सिरायकी भाषा की डिक्शनरी आक्सफोर्ड से छप रही है। भारत में बहुत से लोगों को पता नहीं होगा कि दक्षिणी पंजाब ही नही बल्कि पश्चिमी पंजाब और सिंध के बड़े इलाके की मादरी जबान सिरायकी है। यहाँ वरिष्ठ पत्रकार रिफअत शेख ने पत्तन मुनारा पर अपना गंभीर पर्चा पढ़ा। शायरा और शोधार्थी सबा वहीद ने चोलिस्तान यानी रोही की औरतों के हालात पर पत्र-वाचन किया। उनके पत्र में रोही की औरतों के पहनावे, रस्मों-रिवाज और खासकर उनकी जद्दोजहद भरी जिन्दगी के बारे में जो तथ्यात्मक बातें थीं, उनसे पता चला कि कुदरत की मार के साथ-साथ औरतों की हालात सरहद के आर-पार बराबर हैं।

मौके की नजाकत को देखते हुए मैंने अपने वक्तव्य को बहुत छोटा किया और इस बात पर जोर दिया कि पत्तन पुनारा की खुदाई से निकले वैज्ञानिक प्रमाण सिन्धु सभ्यता के अनेक रहस्यों से पर्दा उठा सकते हैं। धर्म और राजनीति हमें भले ही दो मुल्कों में बांटते हैं, सांस्कृतिक तौर पर हमारा इतिहास एक है ओर भविष्य में हमारे संबंधों को इसी आधार पर मजबूत किया जाना चाहिए। जिस हाकडा या सरस्वती के किनारे यह नगर आबाद था, वह हमारी साझा संस्कृति की शानदार मिसाल रही है। इसका एक छोर राजस्थान में कालीबंगा है तो विस्तार में हडप्पा और मोहन्जोदडो है। यहाँ की खुदाई से सिन्धु सभ्यता की अज्ञात लिपि से लेकर, सभ्यता के नष्ट होने जैसे अनेक रहस्यों पर से शायद परदा उठ सकता है।

विचारों के बाद सजी संगीत की महफिल। इसमें चोलिस्तान और सिरायकी के प्रसिद्ध लोक कलाकारों ने प्रस्तुतियां दीं। सबसे पहले रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे इकतारा लिए किशनलाल भील ने बोल-बोल वे गीत सुनाकर झुमा दिया। इसके बाद प्रसिद्ध गायक फकीरा भगत के बेटे मोहन भगत ने कंवर भगत की वह प्रसिद्ध लोरी सुनाई, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे सुनकर एक दुखियारी मां का इकलौता मृत लड़का भी जीवित हो उठा था। हम लोगों की उपस्थिति देखकर मोहन भगत ने अपने ही अंदाज में एक राजस्थानी गीत भी सुना ‘ खड़ी नीम कै नीचै मैं तो एकली ‘ । युवा गायक इखलाक ने बाब गुलाम फरीद की काफियां गाई। इसके बाद सिरायकी के प्रसिद्ध गायक बंधु जमीन परवाना और नसीर मस्ताना ने लोक-गीतों की जो झड़ी लगाई तो सब झूम उठे। कार्यक्रम की अंतिम प्रस्तुति के तौर पर नजमा खानम ने दो सिरायकी लोक-गीत सुनाए, जिनकी धुन मुझे हमारे ‘नींबूडा’ और ‘तारां री चूनड़ी’ जैसी लगी।

रहीमयार खाँ में बड़ी तादाद हिन्दुओं की है। कहते हैं कि पूरे चोलिस्तान में कोई दस लाख हिन्दू रहते हैं। किशनलाल भील और मोहन भगत की गायकी सुनकर लगा कि सरहद भले ही मुल्कों का बंटवारा कर देती हो, संगीत का, संस्कृति का बंटवारा नहीं कर सकती। यहाँ के हिन्दू कलाकरों को भी लोग सर आँखों पर रखते हैं।

अगले दिन हम चल पड़े चोलिस्तान की मशहूर भोंग मस्जिद देखने के लिए। यह कोई प्राचीन मस्जिद नहीं है, बल्कि आजादी के बाद की तामीर है। लेकिन इसका वास्तुशिल्प ओर कलात्मक रूप आँखों को मोह लेता है। लगभग पच्चीस सालों में बनी यह मस्जिद यहाँ के नवाब ने बनवाई थी। इसके कोने-कोने में वास्तुशिल्प की उत्कृष्टता, भव्यता और नफासत दिखाई देती है। सोने, चांदी, हीरे-पन्ने का ऐसा बारीक और आश्चर्यजनक काम है कि देखने वाले की आंखे फटी की फटी रह जाएं।

नवाबी खानदान का आतिथ्य पाकर हम वापस रहीमयार खाँ आए। यहाँ एक कॉलेज में चल रहे मैंगो शो में हमें भी बुलाया गया है। खुशआमदीद और पुष्प वर्षा के बीच आमों की किस्में देखीं तो खयाल आया कि हम अब तक आम खाने से मतलब रखते आए हैं, किस्मों की तरफ कभी गौर ही नहीं किया। लबे माशूक, सुर्खा, रतौल, गालिब-पसन्द, सेन्शेसन, चौसा और न जाने कितनी किस्में। एक छोटी -सी नशिस्त में बताया गया कि आम उत्पादन और निर्यात में भारत पहले नम्बर पर है और पाकिस्तान छठे नम्बर पर ।

शाम हमें तीसेक किमी दूर खानपुर जाना था। देरी का सिलसिला बदस्तूर जारी था। रवाना हुए तो कार्यक्रम का वक्त हो चुका था। कोई दो घण्टे की देरी से हम चल रहे थे। आगे-आगे सिक्यूरिटी और पीछे-पीछे हम। एक जगह पुलिस वैन साइड में हुई और सैकड़ों लोगों की नारे लगाती ढोल बजाती भीड़ हमारे सामने थी। एक बार चौंकने के बाद यह जानकर तसल्ली हुई कि ये सब हमारे स्वागत के लिए आए हैं। उतरते ही जहूर धरेजा नगर के वाशिन्दों ने गुलाब की मालाओं से लाद दिया और देर तक पुष्प वर्षा होती रही। हमें एक अहाते में ले जाया गया। कुर्सियों पर बिठाकर ठण्डे की बोतलें पेश की गई। ढोल-बाजे बज रहे थे और नौजवान झूमर नाच रहे थे। बिल्कुल अपने घूमर से मिलता-जुलता नृत्य। सामूहिक आनन्द और उल्लास को अभिव्यक्त करता यह नृत्य इतना सहज -सरल है कि नर्तकों के उठते कदमों और अंग-संचालन को देखकर मुझे लगा जैसे मैं किसी आदिम जनजाति के नृत्य को अपने सरलतम रूप में देख रहा हूं। लोकनृत्य का यही स्वरूप किसी भी समुदाय को उसके प्राचीनतम रूप में अभिव्यक्त करता है। निश्चित रूप से सिरायकी समुदाय बहुत पुराना है, जरूर सरस्वती और सिरायकी का भी कोई संबंध होगा। इस बीच सुनीता खुद को धुन पर थिरकने से नहीं रोक पाई। सैकड़ों ग्रामीणों के बीच ऐसा भव्य स्वागत देखकर आँखें भर आई।

वापस गाड़ी में सवार होकर हम पास ही अल मंसूर गेस्ट हाउस पहुंचे। यहाँ के बड़े- से लॉन में हजारों लोग जमा थे। एक बार फिर पुष्प वर्षा ओर अभिनन्दन। कैमरों के फ्लैश चमक रहे थे और टीवी कैमरों की आंखें इस इलाके में पहले भारतीय डेलीगेशन का स्वागत दर्ज कर रही थीं। पहले हमें खाना खिलाया गया और उसके बाद तीन सत्र। विचार सत्र, मुशायरा और संगीत संध्या। विचार सत्र में मेरे अलावा ईशमधु तलवार, सुनीता चतुर्वेदी, डॉ राजकुमार मलिक और गोविन्द राकेश ने खानपुर की जनता का इस स्वागत के लिए आभार जताया। मुशायरे में ओमेन्द्र और फारूख इंजीनियर ने समां बांधा। फारूख के शेर और ओमेन्द्र के दोहों -माहियों को बार-बार सराहा गया।

ऐसे मौकों पर स्थानीय लेखन को करीबी से देखने का मौका मिलता है। इसलिए हम लोगों ने अपने काव्य-पाठ के बाद सिरायकी भाषा के नए कवियों को बडे गौर से सुना। यहाँ युवा शायर अमानुल्ला अरशद ने 1857 के हवाले से हमारा स्वागत करते हुए अपना कलाम पेश किया तो लगा एक बंटवारे ने हमसे हमारा घर- आंगन ही नहीं साझा इतिहास भी छीन लिया। और दूसरी तरफ दादूराम बालाच उर्फ इशराक और जहाँगीर मुख्लिस की शायरी सुनकर महसूस हुआ कि प्रगतिशील जनवादी परम्परा कैसे अपनी राह खुद निकाल लेती है। स्थानीय लोगों के दु:ख दर्द और अमीरों के शोषण को इन युवा रचनाकारों ने बड़ी शिद्दत से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। दादू राम हिन्दू हैं, लेकिन इशराक तखल्लुस से शायरी करते हैं। तीसेक साल के दादूराम के एक रिश्तेदार जयपुर में मानसरोवर में कहीं रहते हैं। उनके गीतों को वहाँ के बड़े-बड़े मशहूर गायकों ने आवाज दी है। अलबत्ता अलसंख्यक होने का दर्द भी उन्हें कचोटता है। जहाँगीर मुख्लिस भी बड़े पाये के कवि है। उनकी एक किताब भी छपी है ओर उनके कलाम में भी शोषण के विरूद्ध प्रतिकार की हुंकार गूंजती है।

मुशायरे के बाद सजी संगीत महफिल में युवा सिरायकी गायक सज्जाद बालाच, अजमल साजिद और महबूब रफी ने अपनी कलात्मक गायकी से वहाँ मौजूद हजारों श्रोताओं को झूमने और नाचने पर मजबूर कर दिया। उर्दू के व्याख्याता महबूब रफी ने हमारी फरमाइश पर गलाम अली की ‘चुपके-चुपके’ और मेहदी हसन की ‘जिन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं’ सुनाकर मस्त कर दिया। देर रात तीन बजे हम रहीमयार खाँ के लिए रवाना हुए। जहाँगीर मुख्ल्सि हमारे साथ हो लिए। वे अब कल हमारे साथ चलेंगे।

हमें लंच करना उच शरीफ में, लेकिन रात हुई देरी के कारण हमने गेस्ट हाउस में आम और गरमा का हल्का लंच लिया। गरमा हमारे खरबूजे जैसा फल होता है लेकिन स्वाद में मीठापन गन्ने की रंगत लिए होता है। भरपेट फलाहार के बाद हम बहावलपुर के लिए रवाना हुए।

रास्ता खानपुर वाला ही था लेकिन हाइवे पर। ताजगढ़ आया तो जहाँगीर ने बताया यहाँ आज भी हिन्दुओं की छोड़ी गई बहुत सी हवेलियां मौजूद हैं। एक गली में कोई चार मंजिल की मौसम की मार खाई पुरानी हवेली दिखी। ऐसी हवेलियों को छोड़कर आने वाले परिवारों के बारे में सोचने से ही रूह कांप उठती है। एक बंटवारे ने पता नहीं हमवतनों से क्या-क्या छीना है?

यूँ छीनने को तो यह उच शरीफ भी मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के महान राजा दाहरसेन से छीना था। यह वह जगह है जहाँ पाँच नदियों रावी, चिनाब, झेलम, सतलुज और व्यास का संगम होता है। सिकन्दर ने जो अलेक्जेंड्रिया अर्थात सिकंदरिया नाम के तीन नगर बसाए थे या नाम दिए थे उनमें से एक उच शरीफ भी है। यहाँ की आबादी लगभग तीस हजार है ओर यह पूरा इलाका बेहद खूबसूरत और हरा-भरा है। यहाँ के हरे-भरे रास्ते को पार कर हम पहुँचे जलालुद्दीन सुर्ख बुखारी की दरग़ाह पर। चौदहवीं सदी के मध्य यहाँ आने वाले बुखारी पहले सैयद थे। उनकी ख्याति एक धर्मगुरू की रही है। इनकी दरग़ाह से होकर हम पीछे कब्रिस्तान में गए तो तीन शानदार मकबरे और थे। ईरानी वास्तुकला का नायाब नमूना। विशाल और भव्य। ईंट, गारे और लकड़ी से बनी इमारत पर खूबसूरत नीली टाइल्स। सबसे बड़ा मकबरा बीवी जीवन्दी का है और इसके ठीक सामने उनके जीवन साथी बहावल हलीम का। इनके शिष्य नूरिया का मकबरा भी यहीं है और कहते हैं कि नूरिया ने ही ये दोनों मकबरे यहाँ सत्रहवीं सदी में बनवाए थे, जिन पर 1794 ई में ये ईरानी टाइल्स लगाई गई। 1817 में आई बाढ़ ने तीनों मकबरों का एक बड़ा हिस्सा लील लिया, जिसे संरक्षित करने का काम चल रहा है।

उच शरीफ पर पहले सिंध के राजा दाहरसेन के दादा चच का शासन था। कहते हैं कि इन्हीं के काल में शतरंज यानी चेस का आविष्काेर हुआ। उच का पुराना नाम देवगढ था और सन् 1244 में जब शेरशाह सैयद जलालुदीन, कैची बुखारी, यहाँ पहुंचा तो यहाँ का राजा देवसिंह मारवाड भाग गया और उसकी बेटी सुन्दरपुरी ने इस्लाम ग्रहण कर लिया। जनवरी सन् 325 में जब सिकन्दर के सेनापति पैथून ने इस क्षेत्र को जीत कर अलेक्जेंड्रिया नाम दिया तो उच शरीफ सिंकदरिया हो गया। उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्रतुलएन हैदर यानी ऐनी आपा के दादा भी उच शरीफ के ही थे। अलेक्जेंड्रिया नाम के तीन नगर सिकन्दर के वक्त बसाए गए थे, जो मिश्र, इराक और भारत में हैं।

बहावलपुर जैसे कोई ख्वाब में सुना हुआ नाम। गंगानगर-बीकानेर से इतना नजदीक लेकिन हमारे लिए कोई तीस घंटे की दूरी पर। हमारे अनूपगढ़ से यहाँ के बहावलनगर की रोशनियाँ दिखाई देती हैं। किसी जमाने में मुल्तान और बहावलपुर के रास्ते ही बीकानेर से राजस्थान का व्यापार चलता था। कोई दो सौ साल पहले अव्बासी खानदान ने बहावलपुर रियासत की कमान संभाली। मेरे साथ जहाँगीर मुख्लिस बैठे थे। उन्होंने रास्ते में अहमदपुर से अपने परिवार यानी एक पुत्र, दो पुत्रियों और पत्नी तथा साले की बेटी को साथ लिया। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनकी एक बेटी का नाम कोमल और दूसरी का मूमल है। मैंने कहा कि मूमल तो राजस्थानी नाम है। उन्होंने बताया कि सबसे लड-झगड़ कर जिदपूर्वक यह नाम रखा है। फिर मैंने उन्हें रात भेंट की गई सीड़ी में से देखकर बताया कि राजस्थानी का प्रसिद्ध गीत मूमल कहाँ है, क्योंकि सीड़ी पर हिन्दी में ही विवरण छपा हुआ था। उनके आग्रह पर मैंने पूरे गीत की पंक्तियों का एक-एक कर भावार्थ बताया।

हम देरी से चल रहे थे, इसलिए सबसे पहले पहुंचे प्रेस क्लब बहावलपुर। पाँच घंटे से पत्रकार हमारा इंतज़ार कर रहे थे। स्वागत सत्कार के बाद आपसी परिचय ओर फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। मैंने इस बात पर जोर दिया कि सरहद हमें अलग जरूर करती है लेकिन हमारी चिंताएं एक हैं, हमारे स्वप्न एक हैं। हमारे गंगानगर-बीकानेर के लोग बहावलपुर के बारे में और बहावलपुर वाले वहाँ के बारे में जानना चाहते हैं। ऐसा कोई सिलसिला बने कि सरहद के बावजूद दूरियां न रहें। ईशमधु तलवार और सुनीता चतुर्वेदी ने पत्रकारिता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में रिश्तों में मिठास घोलने की बात कही।

रात के साढे दस बज चुके थे और शाम सात बजे से एक और जगह सैंकड़ों लोग हमारा इंतज़ार कर रहे थे। बिना देरी किए हम पहुँचे गुलजार सादिक यानी सादिक बाग। हमारे उतरते ही पुष्प वर्षा शुरू हो गई। पहली बार एक बुर्कानशीन महिला हमारे इस्तकबाल के लिए आगे आई। इसी के साथ ढोल, नगाड़े झांझर और तुरही के कर्णप्रिय संगीत के बीच रंग- बिरंगी पोशाकें पहने लड़कों ने झूमर नाच शुरू किया। वे नाचते आगे बढ़ते जाते और हम उनके पीछे-पीछे।

बाग में चारों तरफ शादियों जैसी रोशनी की गई थी और शदीद बारिश के बावजूद सैकड़ों स्त्री-पुरूष हमारी राह देख रहे थे। यह पहला मौका था, जब हमने किसी कार्यक्रम में एक साथ इतनी औरतें देखीं। चोलिस्तान डवलपमेंट कौंसिल के बैनर तले यह इस्तकबालिया प्रोग्राम डॉ फ़ारूख अहमद खान ने रखा था। मंच पर चरखा, परींडा, चौपाल सजी थी तो सामने दो खाटें बिछी थीं। इन खाटों पर कलात्मक बुनाई सिलाई वाली गुदड़ियां थीं और पांवों में वैसा ही कालीन। मंच पर लगे बैनर में कोट दिरावर के किले के साथ ऊंटों का एक काफिला, एक झोपड़ी और घूंघट से झांकती एक महिला का चेहरा था। यानी कुल जमा पूरा का पूरा राजस्थानी माहौल। मंच पर एक तरफ हमारे लिए कुर्सियां लगी थीं।

पेशे से सर्जन डा. ज़ावेद इकबाल और पत्रकारिता के प्राध्यापक प्रो. राना शहजाद ने जुगलबंदी के अंदाज में मंच संभाला। उन्होंने परिचय के साथ-साथ बातचीत, सवाल-जवाब का भी खूबसूरत संमा बांध दिया। मंच पर एक तरफ साज़िन्दे अपने साज बाजों के साथ तैयार बैठे थे। कुछ साथियों के परिचय के बीच शाजिया नाज ने बाबा गुलाम फरीद की काफियां सुनाई। हमारे निवेदन पर हसीना खानम से राजस्थानी गीत सुनवाए गए। ‘उड़ उड़ रे म्हारा काळा रे कागला क़द म्हारा पीव जी घर आवै’ ज़ोरदार आवाज और पक्की लयकारी में इस गीत को सुनना एक अद्रुत अनुभव था। इसी दौरान बारिश तेज हो गई। सब लोग और निकट आ गए।

बारिश की वजह से प्रोग्राम संक्षिप्त करना पड़ा और फिर हम खाने के लिए चल दिए।

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