आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आदमी का आख्यान: प्रेम रंजन अनिमेष

ये दरअसल मेरी कविता श्रृंखला ‘अच्छे आदमी की कवितायें’ (जिसमें फिलहाल ५६ कवितायें हैं) से चुनी हुई १६ ऐसी कवितायें हैं जिनमें एक कथा सूत्र भी है । सो इस चयनित श्रृंखला का यह नाम दिया है – ‘अच्छे आदमी का आख्यान’ । श्रृंखलाबद्व होने के साथ साथ ये कवितायें अपने आप में स्वतंत्र भी हैं – अतर्सबंध का एक महीन सूत्र इन्हें जोड़ता है । ‘अच्छे आदमी की कवितायें’ स्वयं एक वृहद श्रृंखला ‘आदमी की कवितायें’ का हिस्सा हैं जिसमें ऐसे कई खंड ( श्रृंखलायें ) हैं, जिन पर पिछले कई सालों से चुपचाप काम करता रहा हूँ । इसके बाकी हिस्से रचे जाने के अलग अलग चरणों में हैं । इस वृहद श्रृंखला के सभी खंड एक दूसरे से जुड़े होने के साथ अपने आप में स्वतंत्र कविता श्रृंखलायें हैं, और इन श्रृंखलाओं की कविताओं में भी वही स्वतंत्रता और सहबद्धता हैं । मैं मानता हूँ हमारे समय में महाकाव्य इसी तरह संभव हैं । आलोचना में प्रकाशित अपनी टिप्पणी ‘हमारे समय का महाकाव्य’ मे इस ओर इशारा किया था । लेकिन जब तक यह रचनात्मक प्रयास पूरा नहीं हो जाता, अपनी यह योजना अपने को भी बड़बोलापन ही लगती है । लिहाजा अभी तो बड़े संकोच और विनम्रता के साथ इस सर्जनाधीन वृहद श्रृंखला की पहली पूर्णप्राय श्रृंखला ( ‘अच्छे आदमी की कवितायें’ ) से ये चयनित अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ – ‘अच्छे आदमी का आख्यान’ ।

१. सर्वदाता

प्रकृति से वह इस तरह है
उसके रक्त में ही कुछ ऐसा है
जानता है

मित्र उसकी कमीज़ ले जाते
और भूल जाते
उसे पता होता महीनों के बाद
वापस लेगा भी माँगकर
तो पहन नहीं पायेगा
फफोले पड़ जायेंगे उसकी पीठ पर

सारी रेजगारी उड़ेल देता
कतार में उस आदमी की मदद के लिए
छुट्टे न होने की वजह से
जिसे टिकट नहीं मिल रहा
यह खबर होते हुए
कि अब उसकी गाड़ी
छूट जायेगी

कोई चिट्ठी मिलती पड़ी हुई
और अपने सब काम बिसार
निकल जाता ढूँढता
पते में लिखा ठिकाना
शुबहा होता भी तो बस एक पल के लिए
कहीं लोग जानबूझ कर तो नहीं
चिट्ठियाँ गिरा देते उसके रास्ते में

सवेरे अखबार में सूचनायें देखता
रात रेडियो पर संदेश सुनता गौर से

दुर्लभ था उसका रक्त
और हर किसी के
काम आ सकता था
आड़े वक्त

चिकित्सक भी यह समझते
इसलिए परवाह नहीं करते
कि अभी पिछले ही दिन
खून दिया था उसने

प्रकृति से वह इस तरह है
उसके रक्त में ही कुछ ऐसा है
जानता है

जब राह पर लथपथ
छटपटा रहा होगा
वे भी जिन्हें लहू दिया है
बचा नहीं पायेंगे

इसमें दोष नहीं उनका
कि उसका अपना ही खून
उसके काम नहीं आयेगा …

२. गुजर

चढ़ना नहीं चाहिए चलती गाड़ी पर
चढ़ना लेकिन आना चाहिए

लदी फँदी सवारियाँ आतीं
रुकतीं नहीं पड़ावों पर
धीमी होतीं जरा
उसी में सब उतरते चढ़ते

वह खड़ा
सोचता रह जाता
क्या होगा जब
कोई गाड़ी कभी
नहीं रुकेगी कहीं

तब वही सवार हो पायेंगे
जिन्हें आता
चलती गाड़ी पर चढ़ना

दरवाजा पकड़े
संग संग दौड़ना कुछ देर
फिर एक झटके में धरती को पंजों से ठेल
पायदान पर झूल जाना
इस भरोसे
कि हो जायेगी जगह सबके लिए
चलते चलते

इसी तरह उतरकर भी
रुकता नहीं
एक-ब-एक सफर

जिधर घूम रहे होते पहिये उस ओर
जाना होता संग संग कुछ दूर
अपने को अलगाने से पहले

अच्छा तो नहीं
चढ़ना उतरना चलते भागते
पर होना चाहिए हुनर
आड़े वक्त के लिए

बराबर देखता दुःस्वप्नों में

अपनी गति अपने हिसाब से
चलती जाती दुनिया

और बार बार उझक कर पाँव बढ़ा कर
सहम जाता
वह
उसके साथ नहीं आ पाता

इसी तरह चाहकर भी
चलते इस चाक से
उतर नहीं पायेगा
पूरा कर सफर

पीछे छूटती जायेगी मंजिल …

३. अनपेक्षित

कुछ समय उनके होने से
खो सा गया था अकेलापन

छोड़ने उन्हें उतरा
पाँवों में चप्पलें पहने बेमेल
और दरवाज़ा खुला छोड़

पर जैसे ही गाड़ी
चलने को हुई
भाव में भरकर
वे कहने लगे उसे भी साथ चलने के लिए

असमंजस में पड़ गया
रुँधे गले की तरह घरघरा रही थी गाड़ी
और हालाँकि उसे याद था उस पल
पर लगा
उनकी भावना के आगे
सोच भी कैसे सकता था वह
बेमेल चप्पलों
या खुले छूट गये दरवाज़े जैसी छोटी बातें

इसी तरह चल दिया साथ
उनके हठ उनके राग में खिंचा

और प्रेम में उनके
कुछ और
कुछ दिन और करते
रहने के दिन बढ़ते रहे
लौटना टलता गया

किसी कोने में फिर भी
घर की चिंता रहती

हालाँकि घर जैसा वहाँ कुछ था कहाँ
बस जीने के थोड़े सामान

फिर भी एक धुकधुकी
कि उसके पीछे खुले घर में कोई आये कहीं

आखिर कई दिन रहकर
फिरा एक रोज
घर का दरवाज़ा उसी तरह था
बिना साँकल बिना ताले का उढ़काया

खुले दरवाज़े को खोल
धड़कते दिल से भीतर
दाखिल हुआ

एक पलक में हर कोना हर चीज
देख गया एक सिरे से दूसरे सिरे तक
जो जहाँ जिस तरह छोड़ गया था
सब वैसे का वैसा

किसी के आने होने कुछ जाने की
कोई निशानी नहीं
उसके पीछे उसके बाद

पर इस बात से जाने क्यों
खुशी या राहत नहीं
गहरी धुआँ धुआँ- सी उदासी
महसूस हो रही थी भीतर …

४. चुनना

मैं सूत्रधार और आप देख रहे हैं
कार्यक्रम आज का अच्छा आदमी

जैसा आप जानते हैं
इसमें हर हफ्ते
हम आपका परिचय कराते हैं
किसी अच्छे आदमी से

आज हम अमुक जी से मिल रहे हैं
जो एक अच्छे आदमी हैं
अभी ये अपनी रसोई में हैं खाना बनाने के जतन में
हाथ में थाल थाल में चावल
और चावल पर झुके अमुक जी
आइये इनसे पूछते हैं ये क्या कर रहे हैं

अमुक जी आप अभी क्या कर रहे हैं?

जी … मैं चावल चुन रहा हूँ

अच्छा आप चावल चुन रहे हैं
आपने कहा चावल चुन रहे हैं
अच्छा यह बताइये
आप चावल चुन रहे हैं या कंकड़?

जी मैं तो
चावल चुनता हूँ
यही जानता यही समझता हूँ
तो अमुक जी … एक शरीफ इंसान …
चावल ही चुनते हैं

चावल चुनना
क्या एक जीवनदृष्टि है
या आज कंकड़ों की बहुतायत में
चावल चुनने में ही समझदारी

या फिर कंकड़ चाहे कम हों
अब दौर ऐसा है
उन्हें कुछ कर नहीं सकते

कोई चारा नहीं इसके सिवाय
कि भले आदमी की तरह चुपचाप
अपने दाने बीन कर ले जाया जाय
आप सोचिये इस पर
हम मिलते हैं
एक अंतराल के बाद …

५. स्वाद

हालाँकि इस मामले में
अपने को अनाड़ी ही
समझता था
और मजबूरी में ही
पकाता था

पर उस रात
खुशबू से लगा
अद्भुत बन गया है खाना

और फिर बुरी तरह
खलने लगा
अपना खालीपन

अकेले खाने बैठना
वह भी आप बनाकर
इससे बड़ा दुर्भाग्य भला क्या होगा

इस अद्भुत गंध का
कौन साक्षी रहेगा
यह अनूठा स्वाद
बिना दर्ज हुए किसी स्मृति में
रीत जायेगा …

उस तीव्र भावना से वशीभूत निकल पड़ा
ढूँढने कोई संगी
जब घड़ी रात दस पार जा रही थी

पहले दरवाजे पर दस्तक देते
परिचित-सी गाली सुनाई दी भीतर से
फिर परिचत की पत्नी ने
उधर से ही बोल दिया
कोई घर पर नहीं

भला नेक आदमी था
जिनके दिन अक्सर फाकाकशी में कटते

दूसरे दोस्त ने यही समझा
हो न हो खाने के समय खाने के लिए
चला आया
सो देखते अँगड़ाई लेकर बता दिया
अभी अभी भोजन खत्म किया है
और अब उसे नींद आ रही …

और तो और
फुटपाथ पर पड़े भिखारी ने भी
हाथ जोड़कर जीभ काट ली
सुबह से उसे उल्टियाँ हो रही थीं
रात किसी की दावत जीमकर

भारी कदमों से वापस लौटा
सीढ़ियाँ चढ़ता खुद को देता दिलासा
अब तक तो वैसे भी खाना
ठंडा हो चुका होगा
सारा स्वाद जा चुका होगा

लेकिन वे चीटियाँ
असहमत थीं इस बात से
जो पूरा कुनबा बटोर लायीं थीं
जितनी देर में उसे
मिला नहीं एक भी आदमी

उनके अधीर उल्लास में
पढ़ सकता था वह
अपने पकाये का आस्वाद … !

६. फेरा

जहाँ रहता था वहाँ से
दूर था मुख्य डाकघर

पर उसका तजुर्बा था
देश से दूसरे देश
चिड़ियों को जितना समय नहीं लगता
उतना लग जाता चिट्ठियों को
छोटे डाकघर से बड़े तक जाने में

इसलिए तय किया
वहीं जाकर डाल आयेगा ये जरूरी चिट्ठियाँ

अच्छे लोग
चिट्ठियों को भी छोड़ते हैं दूर तक
आदमी की तरह

ऑटो से उतरकर पैसे देने के लिए
जेब में हाथ डाला
इधर फिर उधर
और धक से रह गया
पैसे थे जिसमें उसके बदले
भूल से दूसरी पतलून पहनकर चला आया था

ऑटोवाला उसका हाल देख
मुस्कुराया
कोई बात नहीं होता है ऐसा

वह तो छोड़ गया पैसों के बिना लेकिन
अब फिक्र थी वापसी की

जैसे आये
वैसे ही होगा जाना
गाता जा रहा था कोई बूढ़ा बंजारा

आखिरकार
सवार हो गया
घर की ओर जानेवाले एक दूसरे तिपहिये पर

पड़ाव पर उतरकर
फिर उसी तरह टटोलनी शुरु की जेब

पर सीधा सादा इंसान था
सच का अभिनय नहीं जानता था
गाड़ीवान ने सिर से पाँव तक
देखा थूक फेंका जमीन पर

कोई बात नहीं
पैसे नहीं अभी तो
दे देना बाद में …उसने कहा

तब तक
कमीज़ उतार दो अपनी

फिर कमीज़ रहने रहने दी उसने
क्योंकि वह पुरानी थी
और पतलून नई

७. चुटकी

आप घर पर ही हैं न
मैं बाहर जा रही हूँ जरा
बच्चे को देखियेगा थोड़ी देर
वैसे उम्मीद है सोया ही रहेगा मेरे लौटने तक

कहीं जो जाग गया
और रोने लगा
तो चुटकी बजा देंगे टिटकारी भर देंगे
चुप हो जायेगा खेलने लगेगा …
कहकर चली गयी पड़ोस की स्त्री

उसके जाने के बाद अपने काम बिसार
देखता रहा वह सोते शिशु को
जैसे उसके जगने की राह देख रहा हो

इस बीच आजमाने की कोशिश की चुटकी और टिटकारी

पर चुटकी थी कि बज नहीं रही थी
और टिटकारी वह भर नहीं पा रहा था

कोई बात नहीं
गेंद ले आया खिलौने मीठी गोलियाँ
और भी बहुत कुछ रंग बिरंगा

सब इंतजाम कर
तैयार था नींद से जागे एक बच्चे का
अकेले सामना करने के लिए

जागा तो चूमा उसे
या शायद चूमने से ही जग गया

एक एक कर पेश कीं
जुटाकर रखीं चीजें सारी

पर रोने की जो उसने लय पकड़ी
तो रोता ही गया

देह तान साँस उतान फेंकता हाथ पैर
गोद में रखना भी था दुष्कर

पूरा घर गूँज रहा था
बाहर तक
एक नन्हे बच्चे की रुलाई से

हारकर बैठ गया
बेचारा भला आदमी
सिर पकड़कर

क्या करूँ मैं
तुम ही कहो

कातर आँखों से देखा
बुरी तरह बिलखते शिशु को

देखते देख उसे इस तरह
थमा वह
एक पल

फिर नन्ही उँगलियाँ मिलाकर
चुटकी एक बजायी
टिटकारी भर दी जीभ चटखारकर

और हँसने लगा
हँसाकर !

८. मदद

सुबह से बज रहा था दरवाज़ा

पहले दल वाले आये
सभा थी उनकी

फिर लड़कों की टोली
पूजा के लिए
करने वसूली

कुछ दृष्टिहीनों के साथ
एक दृष्टिवान था
उनके हाथ की बनी अगरबत्तियाँ बेचता

उनके बाद पहुँचे
स्वयंसेवक राहत और बचाव के

फिर एक स्त्री आयी जिसके आँचल में
चिकित्सक के मुश्किल नुस्खे की प्रतिलिपि थी

किसी को मना नहीं किया
भरसक सबकी मदद करता गया

आखिर वे कुछ कर रहे थे
वह तो आराम भी नहीं कर पा रहा था
अवकाश के दिन

अब जबकि बटुए में
कुछ ही पैसे बचे थे
उसे लगा
कुछ करना चाहिए
देने के अलावा

किसी अच्छे उद्देश्य के लिए
साधन जुटाने चाहिए
और लोग

उठने को था
कि फिर दस्तक हुई

जो था बाहर खड़ा
कुछ कहने से पहले
बचे पैसे उसके हाथ में रख दिये

इस त्वरित और अप्रत्याशित आवभगत से अचकचाया
आगंतुक मुड़कर चला गया

फिर मिला कुछ देर बाद सीढ़ियों पर
उसी की ओर लौटता

माफ़ कीजिये हड़बड़ी और परेशानी में
आभार जताना भूल गया और बताना
कि आपकी यह सहायता
उस नेक आदमी के अंतिम संस्कार में जायेगी

जिसने जीवन भर सबकी हमेशा मदद की
और किसी भी सूरत में कभी
‘ना’ नहीं …

९. जिद

थोड़ी देर गौर करने पर
कोई भी जान जायेगा
उसके पास रुमाल नहीं

धोकर इसी तरह
हिलाता रहता हाथ

चलते चलते पसीना
पोंछ लेता कमीज की बाँह से

घर भूल आया हो
ऐसा नहीं
रुमाल है ही नहीं उसके पास
न घर

छींक आती तो
हाथ रख लेता मुँह पर
और नाक में जब तब
लगी रहती उँगली
रोक नहीं सकता कहीं
जगह अपनी

बाजार में इतने रुमाल रंग रंग के
कोई अच्छा सस्ता देख
चुन सकता था
पर यह क्या
कि हर चीज़ ली जाये बाजार से

जिद उसकी
और कबकी

वही रखेगा
जो रुमाल कोई देगा
काढ़कर पहले अक्षर का फूल

हो सकता है वह सौगात भी
खो जाये जैसे
खो गयी पहली

पर जिद
है तो है

अब यह जीना भी तो
एक जिद है आखिर …

१०. लक्ष्य

जो होता है
अच्छे के लिए …

अच्छे नागरिक की तरह सोचता था वह

नगर के जन अरण्य में
प्रमुख जी की सभा थी

लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित जनप्रतिनिधि थे वे
लोकतंत्र में पूरी आस्था थी उनकी
इसलिए बरसों से कायम था
एकछत्र साम्राज्य

परिंदा भी पर नहीं मार सकता था
उनकी मरजी के बिना
और विरोध में चू तक नहीं कर पाता कोई
खुली सभाओं में भी

उस दिन पहली बार ऐसा हुआ

अपने ओजस्वी भाषण के बीच
वे सहसा रुके
और झुके एक तरफ
क्योंकि एक पक्षी ने जो अवश्य
अन्य प्रदेश का रहा होगा
गुस्ताखी कर दी थी सिर के ऊपर गुजरते हुए

ठीक उसी क्षण
वह गोली उनके बाल चूमती निकल गयी
भीड़ के बीच से जो
उन्हें लक्ष्य कर चलायी गयी थी

जो होता है अच्छे के लिए
फिर सोचा अच्छे आदमी ने

मगर यह अच्छा
होता है
किसके लिए …?

११. बरताव

आदमी से पहले आये वे इस पृथ्वी पर
और शायद वही रहेंगे बाद तक

कितने कीड़ों को बहाकर
बुहारकर फेंककर
बोध हुआ कि वे निर्दोष हैं
और जीवन को नहीं उनसे खतरा

इस दुनिया में जो आतंक और अंदेशा है
उसकी और हैं वजहें
कीड़े नहीं उसके पीछे

अब घर में आसपास कोई कीड़ा दिखाई देता
तो चुपचाप उसे देखता
समझने की कोशिश करता

चलते फिरते पोंछते धोते पकाते खाते
खयाल रखता वे साथ न सनें न पिसें
नोद में करवट नहीं फेरता भरसक
अँधेरे में मुँह खोल नहीं गाता
कि भूल से कोई कीट चपेट में न आ जाये

घूमते फिरते कोई चला आये शरीर पर
तो कोशिश करता
खुद बेवजह न घबड़ाये
न उसे करे आतंकित

ऐसा ही कोई होता
जिसका साथ दोनों के हक में न हो
तो क्षमायाचना और पूरे सम्मान के साथ
छोड़ आता दूसरी ओर

उसके होने से किसी और का होना न हो दखल
उसके जीने से किसी के जीने में न पड़े खलल

नन्हे कीड़ों से सीखी थी उसने
यह छोटी सी बात
कि इरादतन किसी को न पहुँचाया जाये नुकसान

बावजूद इसके अगर
जाने अजाने
ऐसा हो जाता
तो बहुत अफसोस होता और ग्लानि

जैसे उस दिन बड़ा परेशान था वह
अपने किसी दुख से
रात भर आँखें खुली ही रहीं
और फिर सुबह उठा तो अचक्के में
दो सुंदर कीट आ गये पैरों तले

शोक में डूब गया वह
और हताशा भी हुई

क्या करे आखिर
आदमी है वह भी …

चलो यही सही
कम से कम आदमी से ही
बरतो आदमी की तरह
भले आदमी …

साँस छाड़ते हुए कहा कीट ने
अंतिम प्रार्थना की तरह

१२. अपशब्द

कबके पहुँच गये होते
अब तक तो

फिर जब यूँ ही बेमतलब
कुछ दूर घिसटकर पटरी पर
रुक गयी गाड़ी
बाइसवीं तैंतीसवीं या उनचासवीं बार
तो होंठों से उसके
फिसल गयी एक अस्फुट गाली

अहसास होते सहसा
सकते में आ गया
जैसे अपने मुँह में देख खून का थक्का

जीवन भर उसने
किसी अपशब्द का प्रयोग नहीं किया था
और आज जैसे उम्र भर की सेंती हुई कमाई
सरक गयी गाँठ से

यह व्यवस्था या अव्यवस्था
क्या उसे डिगाने में
सफल हो गयी आखिरकार
जैसे कोई मसखरा हो सामने इतराता
तोड़कर यती की साधना

होंठों से तुरंत
चाहा फेंक देना शब्द वह कसैला
लेकिन चुघलाये हुए लसलसे सा
और चिपक गया तालू से

उँगलियों से खींच किसी तरह
निकाल बाहर किया उसे
खिड़की से

और अब लग रहा था जैसे
गाड़ी के पहिये से लगा
वह घूम रहा …

१३. ऐसा सफर

पासवाली सीट पर बैठे भलेमानुष ने
आग्रहपूर्वक थैला उसका
माँगकर अपने पास रख लिया

और बस जब अगले पड़ाव से बढ़ी
तो बताया

मैली कमीज़ रुखे बालों वाला आदमी जो
अभी अभी उतरकर गया
है दरअसल जेबकतरा
अक्सर वह दो पड़ाव पहले सवार होता
और चुपचाप अपना काम कर
उतर जाता
जो खड़े होते हैं खासकर दरवाज़े के पास
उन्हें अधिक खतरा रहता
इसलिए आपसे थैला मैंने ले लिया
बहुत शांत और सहज वह कह रहा था
जो करना था कर लेने के तोष से

उस आदमी की तरह
बस में अकसर सफर करने वाले शायद और भी थे
जिनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई

सब जानते हुए
जाने दिया उस जेबकतरे को
सबने

क्या इसलिए कि केवल शक था उस पर
जिसके पक्ष में पुख्ता सबूत नहीं थे

या कि लोग समझने लगे
वह भी दोषी नहीं
बस एक बेबस आदमी
इस व्यवस्था का एक शिकार

शायद दिन भर की थकान थी उनमें
कानून हाथ में न लेने की नेक नागरिकता
प्रशासन पर भरोसा
या फिर डर घर कर बैठा कहीं भीतर

या हर तरफ कुछ इस कदर बढ़ा हुआ अनाचार
कि इन सब का अब नहीं कोई असर

सोच बस यह
कैसे काम से काम रखा जाये
बच कर चला जाये
जहाँ तक हो सके बिना किसी पचड़े में पड़े

या फिर इतना सब
इतनी ऊहापोह
इतनी उधेड़बुन
कुछ भी नहीं

सिर्फ इतना और यही
कि यह सफर
सोच का नहीं

१४. सत्याग्रह

चलते चलते
रुक गयी बस

खिड़की से झाँककर देखा

आगे सड़क पर पड़े हुए थे
कई पेड़

और उसे लगा
गिरे नहीं जैसे
लेटे हुए हैं वे
विरोध में

और फिर जब तार पर
कतार में देखे सुग्गे
तो यकीन हो गया
पूरी हो चुकी तैयारी

एक दिन इसी तरह
समुद्र जाम कर देंगी मछलियाँ
चूहे घेराव कर लेंगे गोदामों का

शेर आपात बैठक करेंगे
सर्कस के बीच
और मुर्गियाँ बैठ जायेंगी
सत्याग्रह पर कसाई के दड़बों में

कैसा होगा दिन वह
कबूतर काले बिल्ले लगाये जुटेंगे जब
संसद के गुम्बदों पर

अच्छी या बुरी तय नहीं कर पाया
पर कैसी अजीब बातें आ रहीं थीं दिमाग में

माथा ठोंका
पीने के लिए ढाला पानी
मगर ठिठक गया
चींटियों ने कर लिया था उसमें सामूहिक आत्मप्रवाह …

१५. धुन

रात थी उनींदी
और वह जाग रहा था

अपने पुराने रेडियो पर
मिलाने की कोशिश करता
जहन में सुदूर पुकारता कोई स्टेशन

जैसे बंद पड़ी पीछे पड़ी घड़ी को
मिलाते समय से

मगर कोई ठौर नहीं मिल रहा था
हर आवाज बुरी तरह घरघरा रही थी

रात काफी हो चुकी थी
वह बड़ी शिद्दत से तलाश रहा था
एक मरकज
जहाँ से साफ़ सुनाई दे
वह भूली हुई धुन
जिसे खोज रहा था बरसों से
या कोई एकदम नया राग
अनाहत उम्मीद की तरह

आधी रात के उस समय
शोर और व्यवधान
कम होना चाहिए था
लेकिन सब कुछ था अव्यवस्थित
हर तरंग विह्वल बेचैन
एक दूसरे को काटती

इसका मतलब नींद में भी
परेशान थे लोग और उनकी विकलतायें ही
टकराकर बिखर रही थीं
हर आवृत्ति पर

रात के रेडियो पर क्या
किसी केन्द्र से प्रसारित हो रही
उसकी भी पुकार
कानों के बजाय सीने से
जिसे साफ सुना जा सकता ?

आँख झपकने से पहले
ढूँढ लेना था उसे
एक आश्वस्त अटूट स्वर
अपने ही भीतर
या फिर प्रतीक्षा करनी थी
किसी झोंके किसी थपेड़े की
एक और रात जो
बहा ले जाये नींद के तट तक
सुबह वापस छोड़ जाने को

उस अगली सुबह का लेकिन
कहाँ से होना था प्रसार
और किसे बनना था सूत्रधार …?

१६. दिलासा

अच्छे लोगों के संग
लगी ही रहतीं मुश्किलें

अच्छे आदमी की पीड़ा थी
कि उसकी पत्नी का गर्भ
ठहरता नहीं था

एक तो मुश्किल से मिला जीवनसाथी
अब आगे जीवन दूभर

हर बार उम्मीद और फिर
पानी फिर जाना
आने से पहले लौट जाना किसी का

एक अनवरत यातना …

मेरे ही अंश का दोष है कहता वह
सही पात्र नहीं मैं ही स्त्री व्यथा से दुहराती

हालाँकि चिकित्सकों के मुताबिक सब संभव था
और ज्योतिषियों की राय में नक्षत्र अपनी जगह बदल रहे थे

एक बार फिर जब
बीता वही सब
तो जागता देर तक सोचता रहा चुपचाप

फिर स्त्री के पास आकर
बोला धीरे से

एक तरह से सोचो तो
अच्छा ही है

होती भी हमारी संतान
और अगर हमारी ही तरह
तो दूभर होता जीना उसका
इस दुनिया में

और अगर वह भी होती औरों की तरह
दुनिया की तरह
तो वैसे होने से भला क्या

अच्छा है जो हम
यूँ ही चुपचाप
लौट जायें
सजे शामियाने जैसी इस दुनिया से
जहाँ निमंत्रण तो हमें
पर नहीं कोई पहचानने पूछनेवाला

अवाक् थी स्त्री
और भीगी अबूझ आँखों से
देख रही थी उसे
जैसे खोये हुए बच्चे को

रोते रोते उसके सो जाने के बाद
अच्छा आदमी सोच रहा था
अब क्या
खुद को दे सकता था
वही दिलासा

चारों ओर फैले
ध्वंस और भग्नावशेष में
जहाँ टुकड़े टुकड़े जोड़ खड़ा करना
अपने आप को फिर फिर रचना
होने की थी अकेली सूरत …

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  1. भाई गिरिराज जी / भाई राहुलजी
    नमस्‍कार
    युवा कवियों की परम्‍परा मे मुझे भाई प्रेमरंजन की कविताएं ज्‍यादा अपील करती हैं. अपने करीब महसूस होती हैं. प्रतिलिपि ने उनकी ढेर सारी कवितायें साथ उपलब्‍ध करवा दी. धन्‍यवाद.
    साथ ही श्री प्रेमरंजन जी को कथादेश द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्‍कार के लिए मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई. उनका ई-मेल पता मेरे पास नहीं था, कृपया उन्‍हें मेरी शुभकामनाएं दें.

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