आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बैसाख की दुपहरी: प्रमोद

1. दृश्यी

धीमे धीमे बहती हवा
कुर्ते में एक लहर बना रही है
उस काई रंग के कुर्ते में
वो एक सरोवर लग रही है

वह देखो पास ही खड़ा कोई
जामुन के पेड़ सा उस पर झुका जाता है

उनके बदन के हरे बाँसों से
एक अद्भुत चमक उठ रही है
जिससे यह जगह
जंगल की तरह रोशन हो गई है

2. एक शाम गंगा का किनारा

गंगा के उस घाट की सीढ़ियों पर
वे पानी में पाँव डाले बैठे थे
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि वह घाट ऋषिकेश का था या हरिद्वार का
बनारस का था या इलाहबाद का

खास बात यह थी कि
आसमान के चाँद का अक्स उस पानी में हिल रहा था
और उसकी चाँदनी उस शाम उसकी पिण्डलियों से फूट रही थी
पानी उस चाँदनी को छूता हुआ उसकी ओर बहा आता था
इस तरह आज धरती हल्की सी उसकी ओर झुकी थी
जिसके लिए वह धरती का शुक्रगुज़ार था
उस हल्के से ढलान में बैठकर उसका मन
ऊन के उस गोले की तरह लुढ़क जाने को कर रहा था
जिसे लुढ़कते चले जाने के बावजूद
दूसरी ओर दो हाथ थामे रहते हैं हरदम

और इस तरह मन ही मन लुढ़कता हुआ
वह अपने ही वजन से हल्का हुआ जाता था

3. कुछ लाल और चुटकी भर पीला

अप्रेल के इन आखिरी दिनों में
गुलमोहर और अमलतास ने
नए कुर्ते सिलवा लिए हैं
और अब खड़े हैं बेपरवाह
अपनी अपनी लाल और पीली जेबों में हाथ डाले
जब भी कोई गुजरता है नीचे से
थोड़ा सा लाल और थोड़ा पीला डाल देते हैं उस पर
और मन ही मन मुस्कुराते हैं अपनी इस हरकत पर

तुम आओ मेरी प्रिय
हाथों में हाथ डाले
अप्रेल की इस दुपहरी में हम गुजरें
कुछ लाल और चुटकी भर पीला
चुनते हुए अपने लिए

4. बैसाख की दुपहरी

गेहुँ के उन दानों के भीतर
भ्रूण की तरह छुपी है उसकी खुशी
खलिहान में भोर के सूरज सी बिखरी रास को
समेटने की मेहनत की चमक चेहरे पर है

बैसाख की चढ़ती गर्मी और उसकी अलसा देने वाली दुपहरी में
वह नम बालों को सूखने के लिए खुला छोड़
पास खड़ी शीशम के कंधों पर सिर टिका
सहेली नींद की बाहों में चली गई है
इस तरह शीशम के नीचे एक स्याह और नम आसमान उतर आया है
अखरोट के कटोरे उसकी बड़ी बड़ी आँखें
नींद में भी पूरी तरह मुँदने से रह गईं हैं
और आँखों के उस खुलेपन से दूज के दो चाँद झाँक रहे हैं

चिलचिलाते आसमान को बेहद चिड़ है
कि धरती से बमुश्किल दो हाथ ऊपर शीशम की उस छाँह में
क्योंकर है एक और आसमान
और तिस पर भी क्योंकर हैं उसमें दो दो चाँद मुस्कुराते हुए
वो भी साँझ से पहले

5. जुलाहा प्रभात

मई की दुपहर
आसमान की ओर इस तरह उठ रही है धूल
जैसे सूरज के दिल में गुबार उठ रहा हो
न अब गुस्सा है न वो तमतमाहट
और अपनी तमाम उदासी में भावुक हो
वह आसमान की गोद में सिर रखकर लेटा है

इस उदास दुपहर में
सड़क पर खड़ा है इक शख्स
जींस का आसमान और सफेद कुर्ते सरीखा दुपहरी का चाँद
अपनी देह से लपेटे
उसकी अपनी ही तरह शर्माई मुट्ठियाँ
कुर्ते की जेबों में छिपी हैं
तिरछी गरदन किए
आसमान तकता है
यूँ कुछ देर इस उदासी में शामिल हो रहा है

ऐसी ही ना कुछ सी उदासियों और खुशियों से
फटी लीरों से रंग भरी दरियाँ बुनती स्त्रियों की तरह
अपनी कोमल कविता रच लेता है
यह जुलाहा प्रभात

6. जीवन संकेत

शिला सी छाती लिए
वह लेटा है बनकर पहाड़
तुमने आकर हौले से रखा अपना सिर
खुले हैं बाल
मृत शिला की दरारों से जैसे छाती फाड़
अभी अभी फूटा है जीवन
तुम्हारे बालों की नर्म कोमल घास

शिला के नीचे कहीं कोई हलचल है
फूटकर बहने को प्यार की प्यास का चश्मा कोई गुनगुनाने लगा है

यही है यही है जीवन संकेत

7. मुझे एक बछडे़ की तरह प्यार करो

ओ प्रिय !
मेरी एड़ियाँ इतनी मजबूत नहीं कि तुम्हारा सामना कर सकूँ
ना ही पंजों में इतना बल कि तुमसे भाग सकूँ

मैं बेबस हूँ
तुम्हारा ठिठका हुआ हिरनोटा

मेरी गर्दन को सहलाओ
मुझे एक बछड़े की तरह प्यार करो
मेरी पीठ के अंतिम छोर तक अपना हाथ फिराओ
मैं आँखें मूँद अपना मुँह
तुम्हारे कंधे पर ठीक उस जगह टिका लेना चाहता हूँ
जहाँ तुम्हारे रंग की रोशनी फूट रही है

8. जी चाहता है

तुम्हारी नीलगिरी सी इस देह में
ठीक कमर के पास
अक्सर एक नदी उभरती है

अपने इस सैंतीसवें साल में
मेरा उसमें डूबके मर जाने को
जी चाहता है

2 comments
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  1. pramod tum toh kamaal ho yaar.i dont know about others but these poems are exceptional for me.lage raho pammu.manoj meena

  2. मनोज अगर यह सच है तो इसके ऐसा होने में तुम्‍हारा व ‘ वितान ‘ के सभी दोस्‍तों का हाथ है. कविता पर तुम लोगों द्वारा की गई बहसें ही मेरी कविता की पाठशाला थी .

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