आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

एक पत्थर बेडौल अटपट गुरूत्त्व के अधीनः मनोज कुमार झा

संशय

आग की पीठ से पीठ रगड़ना कभी, कभी पैरों में बाँध लेना जल की लताएँ
रात की चादर की कोई सूत खींच लेना फेंट देना उसे सुबह के कपास में
कमल के पत्ते से छुपाना चेहरा, फोटो खिंचवाना गुलाब से गाल सटाकर
ट्रेन से कूदना देखने मोर का नाच और बुखार में हाथ हिलाना जुलूसियों को

कोई मेघ उड़ेलता उस घाट जल जहाँ मेरी लालसाएँ धोती हैं वस्त्र
या बस लुढ़क रहा एक पत्थर बेडौल अटपट गुरूत्त्व के अधीन .

विनय पत्र

तुम भी तो भूल जाती प्रिये कभी किसी कथा की मुद्रिका कोई तो कभी किसी यात्रा में दिखा हिरण
सबके भूलने के अपनी-अपनी खड़ाऊँ अपने-अपने मुकुट
वो पंछी जो आता इधर कभी-कभार टिकता थोड़ी देर तो तसवीर होती तेरे सेलफोन में
उड़ने का दुख तो मुझे भी कि सबके मन में पंछियों का बसेरा
कहीं कोई नीड़ तो पिंजड़ा कहीं कोई
साँस गहरी मैंने खींची थी जरूर बेखयाली में और इतने से उड़ तो सकता है कोई पंछी
मगर उसका जोड़ा भी तो आया था वहाँ गर्दन हिलाता कि उधर है कहीं थोड़ा अन्न
मानता मेरी स्मृति भी पककर फटा लदबद दाड़िम छिटक गए होंगे दाने बहुत
तो आओ प्रिये लेकर आएं तलघर में जल रहे रंगों के दीये
कोशिश करें पुनः कि हों पूर्ण चित्र अपने और इंद्रधनुष पर भी मलें कुछ रंग नवल निखोट.

प्रतिमान

वो एक पुरानी दुकान बब्बन हलवाई की
वहाँ मिठाइयों से मक्खियाँ भगा रहे एक वृद्ध
स्वाद बचाने का कोई व्रत हो कदाचित .
कहते हैं सन बियालीस की लड़ाई में इनकी टाँग टूट गई थी
गोतिया था लिखने-पढ़ने में होशियार सो उठा रहा स्वतंत्रता-पेंशन .

इनके जीभ में किसी जिन्न का वास है
तुरन्त बता देंगे किस दुकान का है पेड़ा .
बाइस कोस से आता था इनको न्योता
तीस साल से था इनके हाथ में पीतल का लोटा सवा किलो का
दो साल पहले कोई छीन ले गया धुँधलके में .
चौक के तीन-चार हलवाई इनसे पैसे नहीं लेते
आखिरी टिकान इनकी हुनर की इज्जत का.
खानें की चीज़ें अब बहुत दूर से आने लगी हैं
इन्हें अच्छे लगते डिब्बे-कागज में बँधा रंगों और अक्षरों का गुच्छा
एक बार एक लड़के ने दिया था कुछ निकालकर
तो इन्हें अच्छा लगा था स्वाद-थोड़ा नया थोड़ा परदेसी-सा
मगर ये अचरज में कि डिब्बे से पता चलता है स्वाद
थे हैरान सोचते हैं कि कहाँ कहाँ से आता होगा अन्न,
कहाँ कहाँ से शक्कर
कितने बड़े होंगे कड़ाह और फिर कैसे फेंटता होगा कोई
कि बराबर डिब्बे में बराबर स्वाद
और क्या घोल देते हैं , जिह्वा-द्रव में कि मुड़ा हुआ स्वाद भी लगे सीधा .

हमारे इस संसार की छाया में खड़े वे हाथ हिला रहे हैं
जगमग रोशिनियों और चकमक अक्षरों के
पीछे थरथरा रही इनकी देह
दो बाँचने इनकी आँखों को भी दुनिया और इनके जीभ को स्वाद .

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