आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सरेनिटी का संगीत: भारत भूषण तिवारी

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काबुल नदी में कपड़े धोती औरतें

न्यू यॉर्क टाईम्स में एक तस्वीर
15 नवम्बर 2001

कल वे थीं,
काली पुती खिड़कियों वाले
घरों में ठुँसी हुईं
आज, वे घूमती हैं
इस नदी के किनारे
रेन्वा की पेंटिंग में
बतियाती औरतों की मानिंद.
बैंगनी, चटख हरे, नारंगी
रंग-बिरंगे कपड़ों का अक्स
पानी में पड़ता है,
ऊपर तक भरी टोकरियाँ,
चटकीले बुर्के
बेपरवाही से ओढ़े गए, ढलके हुए,
नंगे पाँव, सर फिर भी ढँके
कुछ करने जब वे झुकती हैं
तो कमीजों के नीचे से
पुराने फैशन की सलवारें झाँकती हैं.
वे केंचुली उतार रही हैं
दशकों की ओढ़ी हुई,
पानी की शफ्फाक़ हिलोरों को
अपने इर्द-गिर्द बहने देती हुईं,
नन्ही मछली अंगूठों के पास अठखेली करती हुई
सामने की ओर
एक बच्ची
स्कर्ट ऊपर खिसकाए
खड़ी है टखनों तक पानी में
एक हैरान सी ख़ुशी के भाव हैं
उसके चेहरे पर

अब,
अगर आ जायें नए ज़ालिम
इस से पहले कि वे फिर खामोश कर दी जाएँ
अपनी पुरानी ज़िन्दगियों की मामूली खुशियों का मज़ा
फिर एक बार लूटने
वे दौड़ी आती हैं.

मेरिलिन ज़ुकरमन की यह कविता पहली बार मैंने ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका पेमिकन में पढ़ी थी. नाइन-इलेवन के तुंरत बाद वाले दौर में- जब युद्धोन्माद चरम पर था और बौखलाए राष्ट्रपति के मुँह से निकले ‘विद अस ऑर अगेंस्ट अस’ के नारे में अमेरिका का बच्चा-बच्चा सुर मिलाने लगा था-  इस कविता का अंडरटोन दिक्कत पैदा करने वाला रहा होगा. क्या वज़ह है कि यह कविता अमीरी बराका की कर्णभेदी ‘समबडी ब्लू अप अमेरिका’, एमानुएल ओर्तीज की धधकती हुई ‘बिफोर आइ स्टार्ट दिस पोएम’, डेवोरा मेजर की दो-टूक ‘टू बॉम्ब’ और मार्टिन एस्पादा की व्याकुल कर देने वाली ‘अलाबान्ज़ा: इन प्रेज़ ऑफ़ दि लोकल हंड्रेड’ जैसी कविताओं जितनी मशहूर नहीं हुई.

ज़ुकरमन की इस कविता में सरेनिटी का संगीत निहाँ है. तस्वीर की औरतों को उनके भयावह ‘कल’ से अलग करते ही यह सरेनिटी चारों ओर फैल जाती है और सब कुछ – नदी, औरतें, बुर्के, टोकरियाँ, मछली – उसमें गर्क होने लगता है. मगर एकाएक अनिष्ट आशंकाओं के बगूले उठने लगते हैं; और कविता विगत से आगत को एक्स्ट्रापोलेट करती हुई उस प्रशांति को झन्न से भंग कर देती है. यही झन्नाहट पाठक के कानों में हमेशा के लिए बनी रह जाती है.
इस कविता को मैं जब भी पढ़ता हूँ, एक क्षण को तो इन्टरनेट खंगाल कर उस तस्वीर को देखने का मन करता है जिसकी यह अनुरचना है. पर हर बार यह सोचकर रुक जाता हूँ कि कहीं ऐसा करने से कविता का अपमान तो नहीं होगा.

अपनेआप से यह भी पूछने लगता हूँ कि यह कृति कहीं एक ख़बर को कविता में अकोमोडेट/अप्रोप्रिएट करने की कोशिश से तो नहीं उपजी? फिर खुद ही बूझने लगता हूँ- ख़बरें पढ़ना भी तो एक जीवनानुभव होता है; बम बरसाते ड्रोन विमानों की विनाशलीला टेलिविज़न पर देखने से भी तो ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ हासिल किया जाता है; रेडियो भी किसी अब्दुल रहीम, ज़ाहिद, शाहिद, हम्ज़ा के टांग खो देने-यतीम हो जाने की खबर देकर ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ जागृत कर सकता है! रोज़मर्रा की अपनी ज़िन्दगी में गिने-चुने चेहरे देख पाता हूँ; दो-चार से ज़्यादा लोगों से बात नहीं कर पाता. अपने आस-पास वर्चुअलिटी के झुरमुट को जंगल में बदलते देख भयभीत होने लगता हूँ. यकसापन की यूडलिंग ख़त्म ही नहीं होती अपने यहाँ. नहीं! मैं इस कविता को ख़बर का अप्रोप्रिएशन न कह कर ट्रांस-क्रिएशन ही कहता रहूँगा.

पोएट्स अगेंस्ट वॉर के ऑनलाइन संकलन से यह कविता नदारद है. हो सकता है यह महज इत्तफ़ाक़ हो. मगर सॅम हैमिल को कविता की सरकारी परिचर्चा का व्हाइट हाउस से आया आमंत्रण ठुकरा कर पोएट्स अगेंस्ट वॉर जैसा युद्धविरोधी साहित्यिक आन्दोलन खड़ा करने की ताक़त देने वाली आवाज़ों में इस कविता का स्वर भी यकीनन शामिल होगा.

रेड ड्रैगनफ्लाई प्रेस से शीघ्र प्रकाश्य उनके नवीनतम संकलन का नाम है ‘इन दि नाइन्थ डेकेड‘. इस संकलन की यह दूसरी कविता है. क्या वे सचमुच अस्सी से ऊपर हैं? कुछ कह नहीं सकता.

वे गोरी अमेरिकन हैं या काली- यह भी नहीं जानता, क्योंकि बायोडेटा के लिए तस्वीर मांगने पर उन्होंने शालीनता से मना कर दिया. ऐसा नहीं कि इस बात से कोई फ़र्क पड़ता है; मगर उनकी एक कविता ‘घोस्ट्स ऑफ़ न्यू ओरलेंस’ पढ़कर उसे ‘शाह आलम कैंप की रूहें’ से मॅप करने लगता हूँ. उफ़!

इस संकलन की चार थीम्स हैं-  युद्ध कथाएँ, लोग, जगहें और नवें दशक में. हर थीम के उपशीर्षक के तौर पर कोई न कोई मशहूर काव्य-पंक्ति है. ज़ुकरमन के यहाँ उपशीर्षक बहुतायत में हैं. कविताओं में ही नहीं बल्कि पुस्तक के नाम तक में उपशीर्षक मौजूद है. मगर लगभग हर जगह उनका सधा हुआ प्रयोग है. बानगी- जगहें का उपशीर्षक हैं आक्टेवियो पाज़ की निम्न पंक्तियाँ.

कल, हमें करनी होगी ईजाद
फिर एक बार,
इस दुनिया की हक़ीक़त.

शिल्प-वैविध्य इतना कि गद्य-कविता, बैलड से लेकर ग़ज़ल तक मौजूद है.

अपनी युद्ध कथाओं में ज़ुकरमन बेहद प्रभावशाली हैं – एक अनूठे कौशल के साथ वे अपने दुस्वप्नों को पाठक के मन में इम्प्लांट कर देती हैं. उनके लोगों में मशहूर जॅज़ गायिका बिली हॉलिडे शामिल है तो युद्ध-विरोधी रैली में सेनेटर से आँख मिलाती एक आम औरत बैला भी है. उनकी जगहें आस-पास भी हैं, दूर भी. वहां डाउनटाऊन का भीड़-भड़क्का भी है,पहाड़ों की नीरवता भी. नवें दशक में भी उनके यहाँ एकालाप नहीं है- विलाप तो बिल्कुल भी नहीं.

पीड़ा, स्मृति भ्रंश, अनिद्रा इत्यादि
प्रतीक हैं आनेवाले पर्व के
उठती और गिरती
सेस्मोग्राफ की सुई की तरह
बताते हैं कि
एक बड़े ज़लज़ले का इंतज़ार करते हुए
आप ज़ोन में हैं

ज़ुकरमन यह जानकर अचंभित होती हैं कि हिंदी में पॉलिटिकल पोएट्री को हेय नहीं माना जाता. उनके अब तक चार संकलन छप चुके हैं; वे मेरा पता लेकर मुझे चारों पुस्तकें शीघ्र भेजने का वादा करती हैं. प्रतीक्षारत मैं सोच रहा हूँ कि 2002 में छपी उनकी पुस्तक ‘अमेरिका/अमेरिका’ में पहले अमेरिका की स्पेलिंग में ‘सी’ की जगह ‘के’ क्यों है?

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  1. भारतभूषण पिछले एक दो साल से हिंदी पाठकों के लिए अमरीकी और लातिन अमरीकी साहित्य से चयनित उत्कृष्ट सामग्री अनुवाद कर रहे हैं। यह सराहनीय प्रयास है। खास तौर पर इसलिए कि उनके मूल सामग्री के चयन के साथ समकालीन साहित्य और समाज की गहरी समझ है। इतना अच्छा आलेख प्रकाशित करने के लिए प्रतिलिपि को धन्यवाद।

  2. हिंदी में एक सही सामाजिक और राजनीतिक समझ वाले अनुवादक बहुत बहुत कम हैं. लाल्टू जी ने ठीक कहा है. भारत भाई से अब उम्मीदें बहुत सारी हैं और ख़ुशी की बात है कि वे उन्हें निभाते चले जा रहे हैं. अशोक पांडे के बाद मुझे भारत का ही नाम दिखाई देता है.

  3. They are molting
    shedding the decades,
    letting silvery coils
    of water flow around them,

    भाई उपरोक्त पंक्तियों का अनुवाद क्या इस तरह संभव हो सकता है:
    वे झर रही हैं
    दशकों पुराने पंख,
    चारों ओर फ़ैले पानी में उठती
    चांदी सी चमकती हिलौरें के साथ

    मैं सिर्फ़ जो अभिव्यक्ति की नकारात्मकता
    “वे केंचुल उतार रही हैं
    दशकों की ओढी हुई,

    के कारण दिख रही है, उस वास्ते ही कह रहा हूं। अन्यथा अनुवाद का मेरा कतई अनुभव नहीं।

  4. Bahut gehra abhyaas kiya hai Bharatbhooshan ji ne is kavita ka anuvaad karte hue. Kavita ka anuvaad karte hue, mool lekhak aur uski manasthiti ka vishleshan, saath hi kavita ke parey jaakar uski anya kavitaaon ke saath tulnaa, yeh baatein anuvaadak ki ‘professionalism’ bayaan karti hai. Bahut kaabil-e-taarif prayaas hai Bharatbhooshanji ka. Aapke aagaami anuvaadon ka hamein intezaar rahega.

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