आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

था बेसुरा लेकिन जीवन तो थाः कुमार अम्बुज

था बेसुरा लेकिन जीवन तो था

‘ध’
दिनों में धूप थी और धूल
रातें भरी हुईं थी धुएँ से

दिनचर्या बाणरहित धनुष थी

धप् धप् थी और धक्का
धमकियाँ थीं और धीरज

इसी सबके बीच में से उठती थी
हरे धनिये की खुश्बू!

‘रे’
सबसे ज्यादा वह अरे! अरे! में था
फिर मरे! मरे! में

जितना पूरे में उससे कम अधूरे में नहीं

रंग भूरे में और घूरे में भी
ठहरे में कुछ गहरे में

अकसर ही वह मुट्ठी में से
रेत की तरह झरता था.

‘स’
वह सबमें था
समझ में, नासमझी में
इसलिए आदि में और अंत में भी

मुस्कराहट और हँसी में

समर्थ में, असहाय में, सत् में, असत् में
इस समय में

और हमारे आधे-अधूरे सपनों में.

‘ग’
भगदड़ में से भागते हुए रास्ते में गाय थी
मण्डियों ने उसे गज़ब गाय बना दिया था

गमलों में फूल खिल रहे थे
और मुरझा रहे थे गमलों में ही गुमसुम

जो गया वह चला ही गया था

गुलज़ार थे गपशप के चौराहे

सबको अपना अपना गाना गाना था
लेकिन गला था कि भर आता था

इस तरह संगीत में गमक थी.

‘म’ ‘प’ नहीं थे
जैसे कभी कम्बल नहीं था
कभी पानी

बाजार में उपलब्ध थे
मगर मेरे पास न थे

बच्चे थे मगर माँ-बाप नहीं थे

जीवन में संगीत था बेसुरा
लेकिन जीवन तो था.

‘नी’
वह नीड़ में था
जिसे पाना या बनाना सबसे मुश्किल था

फिर वह ऋण की किश्तों में था
फिर कहीं नहीं में

सुनसान में, वीरानी में
नीरवता में और नीरसता में

अंत में वह मुझे
थककर चूर हो गये शरीर की नींद में मिला

और फिर आधी रात में नींद तोड़ देनेवाली
चीख में.

शीर्ष बैठक

वह एक मुस्कराहट के साथ सभागार में प्रवेश करता है
उसने आते ही हर शख़्स को कब्जे में ले लिया है
कक्ष में बार-बार उसकी सिर्फ उसकी आवाज़ गूँजती है

वह विनम्र है लेकिन हर बात का उत्तर हाँ में चाहता है
धीरे-धीरे उसे घेर लिया है आँकड़ों ने
गायब होने लगी है उसकी हँसी
वह चीखता हैः मुझे यह काम दो दिन में चाहिए
और ठीक अगले ही पल तानता है मुट्ठियाँ
मानो अब मुक्केबाजी शुरू होने को है

अचानक वह गिड़गिड़ाने लगता हैः
देखिए, आप तो मरेंगे ही, मुझे भी ठीक से नहीं रहने देंगे
फिर वह तब्दील हो जाता है एक याचक में
वातानुकूलित कक्ष में सब उसके माथे पर पसीना देखते हैं
दोपहर हो चुकी है और वह गुस्से में है
अब वह किसी भी तरह का व्यवहार कर सकता है
उसके पास से विचार गायब होने लगे हैं
उसकी अभिव्यक्ति चार-पाँच वाक्यों में सिमट गई है
‘मुझे परिणाम चाहिए’- एक मुख्य वाक्य है

उसकी कमीज़ पर चाय और दाल गिर गई है
लेकिन उसके पास इन बातों के लिए वक़्त नहीं है
वह कहता है चाहे बारिश हो या भूकंप
मुझे व्यवसाय चाहिए और और और
और और व्यवसाय चाहिए
इतने भर से क्या होगा कहते हुए वह अफसोस प्रकट करता है
फिर दुख जताता है कि उसे ही हमेशा घोड़े नहीं दिए जाते
और जो दिए गए हैं वे दौड़ते नहीं

वह अगला वाक्य चाशनी में डुबोकर बोलता है
लेकिन सख्त हो चुकी हैं उसके चेहरे की माँसपेशियाँ
उसके शब्द पग चुके हैं अनश्वर कठोरता में
हालाँकि वह अपने विद्यार्थी जीवन में सुकोमल था
खुश होता था पतंगों को, चिड़ियाओं को देखते हुए
वह फुटबॉल भी खेलता था और दीवाना था क्रिकेट का
लेकिन अब उससे कृपया खेल, पतंग
या पक्षियों की बातें भूलकर भी न करें
उससे सिर्फ असंभव व्यवसाय के वायदे करें
और अब उस पर कुछ दया करें
हड़बड़ाहट में आज वह रक्तचाप की गोली खाना भूल गया है

वह आपसे इस तरह पेश नहीं आना चाहता
लेकिन बाजार और महत्वाकांक्षाओं ने
उसे एक अजीब आदमी में बदल दिया है
बाहर शाम हो चुकी है पश्चिम का आसमान हो रहा है गुलाबी
पक्षी लौट रहे हैं घोंसलों की तरफ और हवा में संगीत है
लेकिन वह अभी कुछ घंटे और इसी सभागार में रहेगा
जिसमें लटकी हैं पाँच सुंदर पेंटिग्स
मगर सब तरफ घबराहट फैली हुई है.

पुश्तैनी गाँव के लोग

वहाँ वे किसान हैं जो अब सोचते हैं मजदूरी करना बेहतर है
जबकि मानसून भी ठीक-ठाक ही है

पार पाने के लिए उनके बच्चों में से कोई एक
दो मील दूर सड़क किनारे दुकान खोलेगा
और ब्याज और फिल्मी पोस्टरों से दुकान को भर लेगा

कोई किसी अपराध के बारे में सोचेगा
और सोचेगा कि यह भी बहुत कठिन है
लेकिन मुमकिन है कि वह कुछ अंज़ाम दे ही दे

पुराने बाशिंदों में से कोई न कोई
कभी कभार शहर की मण्डी में मिलता है
सामने पड़ने पर कहता है तुम्हें सब याद करते हैं
कभी गाँव आओ, अब तो जीप भी चलने लगी है
तुम्हारा घर गिर चुका है लेकिन हम लोग हैं

मैं उनसे कुछ नहीं कह पाता
यह भी कि घर चलो, कम से कम चाय पीकर ही जाओ
कह भी दूँ तो वे चलेंगे नहीं
एक, दूरी बहुत है और शाम से पहले उन्हें लौटना ही होगा
दूसरे, वे जानते हैं कि शहर में उनका कोई घर हो नहीं सकता

कुछ समुच्चय

स्मृति की नदी
वह दूर से बहती आती है गिरती है वेग से
उसीसे चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ.

वसंत-१
दिन और रात में नुकीलापन नहीं है
मगर कहीं कुछ गड़ता है.

वसंत-२
भूलती नहीं उड़ती सूखी पत्तियाँ
अमर है उनकी उड़ान.

वसंत-३
पीले, सूखे पत्तों के नीचे कुचला गया हूँ मैं.

इंटरमीडियेट परीक्षा परिणाम
बच्चे युवा दिखने लगे हैं
वे अज्ञात सफर के लिये बाँध रहे हैं सामान.

प्रार्थना
एक शरणस्थली
संभव अपराध के पहले या फिर उसके बाद.

राष्ट्रीयता
दीवार पर लगे बल्व को देखता हूँ मैं
और सोचता हूँ एडीसन की राष्ट्रीयता के बारे में.

लोकतंत्र
आखिर एक आदमी
जनता को कर ही लेता है अपने नियंत्रण में.

बाँसुरी से
वक्त आये तो बीच में ही बाँसुरी बजाना छोड़कर
उस बाँसुरी से भगाना पड़ सकता है कुत्ते को.

कमाई
मैं उस तरह पाना चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम
जैसे कभी प्यासे कौए ने कमाया था घड़े में रखा तलहटी का जल.

आमंत्रण
अमावस की तारों भरी रात में निष्कंप पोखर.

अधेड़ावस्था
दो बच्चे धूल में खेलते, गिरते-उठते
मैं उन्हें देखता हूँ, सिर्फ देखता हूँ.

कविता
वह तुम्हें मरुस्थल या सुरंग के पार ले जाती है
और अक़्सर छोड़ देती है किसी अज़ायबघर में.

दुख
(चेखव के एक सौ बरस बाद)
आदमी, गाय, बैल, घोड़ा, चिड़िया, मेरे आसपास कोई नहीं
इस मोटरसाइकिल से कैसे कहूँ अपना दुख.

विजेता
घर में घुसते ही गिरता हूँ बिस्तरे पर
यह एक दिन को जीत लेने की थकान है.

जाहिर सूचना
प्रिय नागरिक! न्याय मुमकिन नहीं
मुआवजे के लिए आवेदन कर सकते हैं.

जरावस्था
जब हमारी गवाही देने की ताकत कम होने लगती है.

बचपन की आवाज़
टीन की चादरों पर बारिश की कर्कश आवाज
वर्षों बाद यकायक सुनायी देती है संगीत की तरह.

विकास
जो एक वर्गकिलोमीटर के दायरे में भी एक सरीखा नहीं है.

कवि का बीज
पाँवों, बालों, पूँछों, पक्षियों की बीट और पंखों के साथ
मैं महाद्वीपों को लाँघता हूँ.

3 comments
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  1. achchhi lgi kawitaayeh aapki pdhkr . dhanyawad.

  2. In kavitaon me ek tarah ki vividhta hai.
    kavitayen achchhi hai aur khushi deti hain.

  3. ambuj ji fir aandolit kr baithe. shubh kamnayen

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