आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कसक: भूतनाथ

(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में)

पेशे से मैं चपरासी हूँ. बाप-चचा की दया से नगर पालिका में मेरी भी नौकरी लग गयी है. दर माह के ४,००० रुपये उठाता हूँ. तनख्वाह पहले बहुत होती थी लेकिन जबसे मेरा पिल्ला बड़ा हुआ है, तब से कम पड़ने लगी है. पता नहीं क्या सूझा था मुझे जो मैंने शादी के लिए हामी भर दी थी. बीवी मिली तो जान का जंजाल, ये खा लो, वो खा लो, इतनी देर कहाँ थे, रात में देर से मत आओ, इसको मत बुलाओ,  उसको मत भगाओ, ये पड़ोसी ऐसा है, वो इतने पैसे कमाता है, और दुनिया भर का रोना. सूरत देख कर तो जैसे करंट लग जाता है, जी चाहता है एक दिन गला घोंट दूँ. बस मन मसोस करके रह जाता हूँ.

बाप को दहेज मिल गया, माँ को लगा कि अब चैन से मर सकती है. और लगे भी क्यूं नहीं, जनम भर मेरा ख़ून चूसने वाली एक डायन जो मेरे गले बाँध गयी. जब तक जिंदा थी, ये पढ़ो वो पढ़ो, बाप के पीछे जाओ. बाप की जान पहचान थी, नौकरी लग गयी. जो आवारा यार दोस्त थे, उनसे मैंने कन्नी काट ली. अब दारु की महफ़िलें जमती थी. बस जब घर जाता था तो दिल को बस उस नागिन का ज़हर पीना पड़ता था. हाय राम, कैसी जली कटी सुनाती है. मेरी सास भी ऐसी ही चुड़ैल थी. लेकिन मैंने सबको एक लड़का होने के बाद कह दिया बस… अब कोई नहीं चाहिऐ. झंझट जितना कम हो उतना बढ़िया है.

बस खाने पीने भर मिल जाये. आदमी को चाहिऐ क्या इसके अलावा?  और परेशानी है तो सारे रंगमहल क्या बंद हो गए हैं. मुझे कोई रंगमहल बड़े अच्छे नहीं लगते. इसीलिये क्योंकि वहाँ पर औरतें वाहियात होती हैं. पाकीज़ा की मीना कुमारी नहीं मिलती वहाँ पे. उनको आपकी जेब से मतलब होता है. मेरी बातें लोग नहीं मानते, लेकिन इससे सच नहीं बदलता. गलती से मेरी पैदाइश किसी राजा महाराजा के यहाँ होती तो लोग गौतम बुद्ध समझते. अब नारी नरक का द्वार हो ना हो, मेरी डायन ज़रूर थी. थोड़ी दुनिया मैंने भी देखी थी, जो हर जगह लिखा होता है वही सच नहीं होता. और अगर कुछ सच है तो हमेशा क्यों नहीं होता. बड़े-बड़े साहिब, ख़ूब रिश्वत खाते हैं, अपना पेट बढ़ाते हैं, उनको तो कभी कुछ नहीं हुआ. कोई इन्क्वायरी बैठी? कभी चार्जशीट हुआ? ये सब पूजा पाठ, वाहियात बातें छोडो. मैंने, क़सम से, ना रिश्वत खायी ना ही बाक़ी सब कमीनों की तरह २-२ रुपये इक्कठे कर के महल बनाया. इसके लिए डायन गाली दे, या मेरा पिल्ला मन ही मन कुढ़े. किसी का भला नहीं करता तो किसी का बुरा भी नहीं. मेरे ही साथ काम करता था करीम. उसका पिल्ला स्कूल में फेल हो गया. बोला चलो, पीर बाबा के मज़ार पे चादर चढ़ाएंगे. फालतू बकवास, पर यारी दोस्ती भी कोई चीज़ होती है. बोलने लगा, ऐसे ही फालतू वाले पीर बाबा नहीं है. वहाँ पे ख़ूब सारे चिमगादर रहते हैं. और कोई चिमगादर को मार दे, वहीँ मर जाता है. और किसी को चिमगादर छू दे तो उसकी मुराद पूरी हो जाती है.

सारे बेईमान लोग को अपने पिल्ले से पूरा पूरा प्यार होता है. सबको बेटा लोग को साहिब बनाना होता है. अरे साला तुम लोग क्या बन गया लाइफ में. पिल्ला सबको कुछ बनना होगा तो खुद बनेगा. लेकिन छोड़ो, ट्यूशन करवाओ, मज़ार पे चादर चढ़ाओ, चढ़ाओ बे, बस सबको मत घसीटो.

शाम का समय था. साहब लोग अभी कचहरी से निकल ही रहे थे. पीर बाबा की मज़ार पे काफी भीड़ थी. मेरा मन नहीं किया अन्दर जाने का. लोग आ जा रहे थे. मुझे देख कर कुछ लोग मन ही मन गालियाँ दे रहे होंगे, कि बेशरम अन्दर हो आ. देते रहे, मैं परवाह नहीं करता. पहले करता था, फिर पता चला कोई मेरे परवाह करने की परवाह नहीं करता, तो बस छोड़ दिया. ज़रूरी नहीं है कि मज़ार पे आये हो  तो चादर ही चढ़ाओगे.

आसमान नीला हो गया था, सूरज बस डूबने वाला था. चिमगादर सब किकियां रहे थे. छोटे से रास्ते में कचहरी की भीड़, शाम का समय, साइकिल वाले लोग आ जा रहे थे, खोमचा वाला सब निकल रहे थे. मज़ार ऊंचाई पे था, लोग यहाँ से निकल रहे थे, आ रहे थे, जा रहे थे. बहुत शोर हो रहा था. तभी मुझे एक औरत दिख गयी, मज़ार चढ़ने वाली सीढ़ी पे बैठी थी. लोग उसको धक्का दे कर, कभी गाली वाली बक के, कभी बच बचा के निकलते ही जा रहे थे. उसके लिए कोई नहीं रूक रहा था. मैं ऊपर खड़ा था. उसको देखता रह गया. कोई बहुत सुन्दर नहीं थी. मुसलमान थी. माथे पे दुपट्टा कस के बाँधे हुए थी. सलवार-कमीज़ भी बहुत पुरानी होगी, कहीं-कहीं फटी भी होगी, देख कर ऐसा लगता था पता नहीं कितनी पुरानी है. ३५ तो पार कर ही गयी होगी. मैं बस देख रह था और उसको  कुछ नहीं दिख रह था कि कोई उसे इतनी भीड़ में कहीं से देख भी रह हो. और मैं देख भी रह था तो इसीलिये क्योंकि, पता नहीं क्यों कुछ पुरानी सी बात याद आ गयी.

उतनी भीड़ में वो मोहतरमा, गन्दी से सीढ़ी पे बैठ के एकटक देखे जा रही थी. उसकी नज़रें ऊपर मज़ार पर बहुत देर से लगी हुई थी. मैं थोढ़ा नीचे उतर आया. पूरी दुनिया की भीड़ जा रही है. लोग धक्के मार रहे हैं, लेकिन नहीं – वहीं बैठी है. पगली है क्या, मैंने सोचा, फिर और पास गया.  मैं सीढ़ी के एक किनारे पे खड़ा था. वो बीच रास्ते में दोनो हाथ उठा कर कुछ बुदबुदा रही थी. माथे पे पसीने की बूँदें छलक आयी थी. चहरे पे कैसा शिकन आ पड़ा था. ना उसकी पलकें झुकती थी, ना ही आँखें थकती थी. जैसे पता नहीं अब कितने बरसो यही करना है. बड़ी शिद्दत थी उसकी दुआ में. एक पल के लिए मुझे लगा मेरी सारी अक्लमंदी बेकार है,  जो इसके लिए मैं  कुछ भी नहीं कर सकता. पता नहीं क्या हुआ होगा उसका. बेचारी कैसे रोना दबा के रो रही है, कोई देख नहीं रहा है, और जो मैं देख रह हूँ ऐसे के कुछ कर भी नहीं सकता. ऐ खुदा, इसकी दुआ कबूल कर लेना.

फिर मैं देखने लगा कि कहीं से कोई चिमगादर आ के छू ले इसको. पीछे से किसी ने हाथ रखा. करीम था, चादर चढ़ा आया था. “चल ना,” करीम ने कहा. जब हम रास्ते पे आ गए तो उसने बेहूदा बातें करनी शुरू कर दी. “क्या हुआ, मुसलमानी पसंद आ गयी तुझे?” साला बच्चे का बाप हो गया है, घूस खा खा के दिमाग का अचार तो पहले कर रखा है, अभी भी लड़कपन वाली छिछोरी बातें. हम भी थे वैसे, अब वो दौर बीत चुका है. साले लोग, अब तो बड़े बन जाओ, अभी लड़के के जगह लड़की हुई होती, तो तुम लोग सब तमीज़ बतिया रहे होते. लेकिन क्या बोलता,  दारु पीता हूँ, ऐसे कचरा लोगो से दोस्तो रखता हूँ, क्या बोलूँ, इन सब की तरह हूँ मैं भी.

“ये सबा बेगम, मेरे मोहल्ले में रहती है. इसका खसम आफताब आलम, जल्दी ही अल्लाह को प्यारा हो जाएगा. अस्पताल में पड़ा हुआ है. सोच रह हूँ कि अफताब मियाँ के मरने के बाद कुछ चांस लगाऊं.” मन तो मेरा ऐसा कुढ़ गया कि, एक कस के कान के नीचे चपेट मारूं. फिर मन भूतिया गया. गलत क्या बोल रह है, मैं भी तो दिन में दस बार ऐसे ही बोलता हूँ. बोलता हूँ, लेकिन ईश्वर गवाह है, ऐसे कभी सोचता नहीं. हँसी-मज़ाक और चीज़ है, बेहूदगी और.

थोड़ी दूर और चलने के बाद मैंने कहा, “करीम मियां, थोडा काम है मुझे चौक बाज़ार से. खुदा तुम्हारे बच्चे को बरकत दे, इम्तिहान में अच्छा करे, और जिन्दगी की इम्तिहान का ख़याल रखे.” पता नहीं मुझे क्यों ऐसे फलसफे सूझ रहे थे, करीम मियाँ हँस-हँस के दोहरे हो गए.  जैसे ही करीम मियाँ ने रुख्सत ली, मैं वापस पीर बाबा की मज़ार की तरफ हो लिया. हवा के साथ साथ, ना जाने किस बेहोशी से मैं वहाँ बढ़ता जा रह था. कौन सी रूहानी ताक़त मुझे खीचें जा रही थी.

मुझे अब वो पुरानी बात याद आ गयी. लेकिन सबा नहीं, आलिया था उसका नाम. आलिया, आलिया, आलिया ही था.

मैं बहुत छोटा था. कुछ ९ बरस लगे थे. बाबू जी ने साइकिल दिला दी थी. बच्चे के हाथ में साइकिल, मानो कि जेट विमान मिल गया हो. गांधी जी वाली साइकिल थी, पूरे २४ इन्ची वाली. बाबू जी चालाक थे, ली थी साइकिल अपने लिए, इसीलिये २४ इन्ची थी, और मुझे कहा कि मेरे लिए आयी है. लेकिन अब कुछ नहीं से कुछ तो बढिया है, माफ़ किया बाबू जी को और साइकिल चलाना सीख लिया. बहुतो बार गिरा. हाथ पाँव छिल जाते थे. रोज़ रोज़ गेंदा का पत्ता पीस पीस के लगाते थे, और घाव सुखाते थे. लेकिन साइकिल चलाने का जोश रत्ती भर भी कम नहीं होता था. कुछ भी काम हो, थोड़ा-मोड़ा भी, माँ बोले कि नहीं, मैं साइकिल ले कर बाज़ार की तरफ चम्पत. बाज़ार था थोड़ा दूर, लेकिन मज़ा आता था. एक हाथ में सादा नमक का पैकेट था. एक हाथ से साइकिल का हैंडल संभाल रखा था. चले जा रहे थे. बस अब अँधेरा ही हो चला था. रास्ते में एक जगह बनती थी सुन्दर मूर्तियाँ. कुम्हार की दुकान थी.

दशहरा आने वाला था, मूर्तियाँ बन रही थी. जैसे ही नज़र सामने हुई, तब तक बड़ी देर हो गयी. बहुत करीब एक मेरे उमर की लड़की अपने सर पे एक झोला रख के जा रही थी. ब्रेक लगाने को हुआ तो,  नमक का थैला छूटने लगा, थोड़ा साइड करने लगा, जब तक हुआ तब तक…. बचते बचाते भी टक्कर हो गयी.

सड़क पे मैं उल्टा गिरा हुआ था.

साइकिल २४ इन्ची की क्यों थी? मुझे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था. मेरे चारो तरफ चावल बिखरे हुए थे, और कुछ कुछ सामान. वो बेचारी लड़की भी नीचे गिरी हुई थी. लेकिन मेरे उठने से पहले वो बिज़ली की तरह वो उठी, जैसे ही मैं साइकिल उठा के खड़ा ही हुआ था कि, उसने मेरा कॉलर पकड़ लिया.

“में को मोल दे.”

“क्या?”  मेरा ख़ून सूख गया. कहाँ से दूं? पैसे कहाँ हैं मेरे पास? घर में पता चलेगा तो बाबू जी और पीटेंगे. क्या करूं. मैं तो जैसे बहरा हो गया.

“तेरे को सुनाई नहीं देता. में को मोल दे. मोल दे में को.” वो बोले जा रही थी. मुझसे लंबी थी. पीली सलवार कमीज़ पहने थी, मुसलमानी थी. बाल में हफ्तो से तेल नहीं डाला था. लाल लाल रिबन से बाल कैसे कैसे तो निकले जा रहे थे. शकल सूरत अच्छी थी, खूबसूरत थी, पर उस समय तो पता नहीं क्या क़यामत लग रही थी.

“में को मोल दे.” वो चिल्लाने लगी.

अभय भैया उधर से गुज़र रहे थे. “क्या है रे? क्या है देख इधर.” वो बोले.

“समूचा समान गिरा दिया. धक्का मार दिया. मोल ले के जायेगी मैं.”

“तुम जाओ तो रे मुन्ना. साइकिल उठाओ, खिसको. और हाँ रे, उठा अपना चावल और जा यहाँ से. क्या रास्ते में नखरा लगा रही है. रास्ता में काहे चलती है. रास्ता साइकिल रिक्श के लिया है क्या. किनारे चलती…”

पता नहीं अभय भैया कहाँ से आ गए थे. मेरे को तो भगवान का अवतार लग रहे थे. अब सुनने के लिए कौन बैठता है. घर आ के खेलना शुरू कर दिया. २०-३० मिनट बीते होंगे. फिर वो दिखायी दी. उसके हाथ में कुछ नहीं था. मुझे देख कर बोली, “तेरा घर कहाँ हैं?”

“काहे पूछ रही हो?”

“में को मोल दे. मैं मोल लेने आयी. अब्बा कहाँ है तेरे? अम्मी कहाँ हैं?”

“मेरा घर यहाँ थोड़े ही है. मैं तो दूसरे मोहल्ले में रहता हूँ. यहाँ तो खेल रहे हैं सब. खेलने आते हैं सब यहाँ.” मैंने कहा.

“मैं पता कर के आयी. तू यहीं रहता है. आज मैं मोल ले के जायेगी. मैं तेरे पडोस में रहती है. मैं तेरे को जानती रे, मेरे को झूठ क्या बोलता है रे. अभी मैं तेरा घर देखती. मेरा समान गिरा दिया…” वो बड़बड़ाने लगी.

बगल वाली कूटनी पड़ोसन मेरी, मेरा घर बता दी. दोस्त लोग बोलने लगे कि मुझे अभी भाग जाना चाहिऐ थे, और २-३ घंटे बाद आना चाहिऐ था. उस समय घर पे बाबू जी नहीं थे तो डर कम था. दरवाजे के पास से अम्मा की आवाज़ आयी.

घर पहुंच के देखा, वो बहस कर रही थी.

“चाची जी, १५ किलो चावल था. सब गिरा दिया. और बिलायती भी था और दाल भी.”

“हाँ रे मुन्ना? गिरा दिये तुम?” माँ पूछी.

“बिलायती क्या होता है?” मैंने पूछा.

माँ ने देखा, सब समझ गयी, फिर कहा, “टमाटर.”

“टमाटर नहीं था, माँ.” मैंने कहा.

“बिलायती भी था. तुम भाग गए, देखे कहाँ ढंग से, आलिया झूठ नहीं बोलती. नमाज़ पढ़ती है मैं ५ बार. ”

“चलो तुम मेरे साथ,” माँ बोली, “बाज़ार चलो, जो जो गिरा है सब दिला देते है. चलो.”

मैंने कभी नहीं सोचा था कि माँ ऐसा भी कर सकती है. माँ फिर तैयार हो के आयी. तब तक मैं कभी आलिया को देखता, कभी सोचता कि रात में क्या होगा? बाबू जी मारेंगे? माँ क्या बोलेगी बाद में? आलिया बड़ी खुश नज़र आ रही थी. थी बड़ी सुन्दर लेकिन…

जैसे ही हम लोग बाहर आये, तभी एक जवान नाटे क़द का मुसलमान आया, काली काली बड़ी दाढ़ी, पतली-पतली मूँछे, लम्बा नीला कुरता, सफ़ेद पाजामा, सर पे उज़ली टोपी. “आलिया, चल घर चल. क्यों चली आयी.”

माँ ने कहा, “मेरे लड़के ने इसका नुकसान करा दिया है. इसे बाज़ार ले कर जा रही हूँ, जो चीज़ गिरी है खरीद लाते हैं.”

“नहीं नहीं, तकलीफ ना कीजिये. आलिया तो बच्ची है. घर में पहुंची रोते-रोते, अम्मी को कहा कि जा रही है और चली आयी. अम्मी पीछे से आवाज़ लगाती रह गयी. मैं नमाज़ पढ़ के आया तो अम्मी ने बताया के आलिया ऐसे ही निकल गई है. चलो आलिया.”

“अरे नहीं नहीं, नुकसान तो हुआ है.” माँ कहते रह गयी.

“बच्चों से ही गलती होती है. जाने दीजिए.” आलिया का भाई उसको घसीट हुए ले कर चला गय. उसने मुझे पीछे मुड़ के एक बार हिकारत से देखा, ऐसा लगा कि ज़मीन फट जाये और मैं कूद पडूँ. उनकी माली हालत हमसे अच्छी तो नहीं ही होगी, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि उस के भाई ने कुछ कहा क्यों नहीं?

आलिया चली गयी. एक दो बार दिखी भी, लेकिन फिर कभी नहीं. लेकिन आलिया ने जैसे देखा था मुझे आख़िर समय मे, भाई के साथ जाते हुए, वो कसक मैं कभी भूल नहीं पाया.

बहुत दिनों के बाद ऐसा लगा कि ये चीज़ मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा, तो ये था सबा बेगम की मशक्कत भरी दुआ. जब भी इन्सान को ऐसा लगे कि कसक से जुड़ा लम्हा यादगार बनने वाला है तो उसे हर संभव कोशिश करनी चाहिऐ कि उसका दामन दागदार ना रहे, वर्ना खुद पे जो लानत लगती है वो आदमी जिन्दगी भर नहीं मिटा पाता.

सबा आलिया नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि मुझे भूल सुधारने का एक मौका मिल गया है. ज्यादा देर नहीं हुई थी लेकिन अँधेरा बहुत हो चला था. मैं जैसे ही मज़ार के पास पहुँचा तो पाया कि थोड़ी पहले का मेला  अब मरघट के सुनसान में तब्दील हो गया था. जैसे ही मैं सीढियाँ चढ़ने को हुआ तो मुझे एक चिमगादर छू गया. ना जाने मेरी कौन से मन्नत पूरी होती, तभी कानो में आवाज़ आयी, “नसीब वाले हैं आप मियाँ. मैं सुबह से बैठी हूँ, मुझे कोई चिमगादर नहीं छूता.” सबा बेगम किनारे पे खड़ी थी.

“आपको डर नहीं लगता, रात होने को आयी हैं, ये इलाका भी सुनसान हो गया है.” मैंने गहरी भारी आवाज़ में कहा.

“जब इतनी क़यामत आ पड़ी हो सर से खौफ जाने कहाँ गायब हो जाता है. खैर, अब मैं चलती हूँ, खुदा हाफ़िज़.” सबा बेगम ने कहा.

“सबा बेगम…” मैंने आवाज़ दी, तो वो रूक कर मुझे देखने लगी.”देखिए, मैं आपसे ही मिलने आया था.” मैंने कहा.

“आप मुझे जानते हैं?”

“आप यहाँ दुआ माँग रही थी, तो मैंने देखा आपको. आपके मोहल्ले में मेरा दोस्त करीम रहता है, उसने आपके बारे में बताया. मुझसे रहा नहीं गया तो मैं आपको ढूँढता हुआ आ गया.”

“ज़हमत के लिए शुक्रिया. खुदा के वास्ते घर चले जाइए, आपकी बेगम आपका इंतज़ार कर रही होंगी.” बडे अदब से कह के वो आगे चलने लगी.

“जी आप मुझे गलत समझ रही है. मैं वैसा नहीं हूँ. थोड़ा समय चाहिये बताने ले किये.” फिर मैंने उसे आलिया वाली बात बतायी, करीम के बारे मे, अपने बारे में बताया. “देखिए मुझे चिमगादर ने भी छू दिया है. शायद मैं आपके कोई काम आ सकूँ?”

“जी आफताब मियाँ के इलाज़ के लिए रुपये नहीं हैं. किससे माँगू समझ नहीं आ रहा.”

“कितने चाहिऐ?”

“कोई १०,०००, लेकिन… इसके बाद भी भरोसा नहीं कि वो बचेंगे. हालात बहुत खराब हो चुकी है. पहले ही ऑपरेशन में बहुत देर हो चुकी है.”

“पैसे की चिंता मत कीजिये. मैं कोई ना कोई इंतज़ाम कर लूँगा. कल दोपहर तक मैं आपके घर खुद आ जाऊँगा.” मैंने कहा.

“आप मेरे लिए फ़रिश्ते हैं. अल्लाह आपको बरकत दे.”

जल्दी जल्दी मैं घर पहुँचा. लेकिन अब मैं सोचने लगा- क्या कहूँगा मैं बीवी से? वो नहीं मानेगी. उसको बोलने की ज़रूरत क्या है? लेकिन क्या मैं बेटे और बीवी से मुँह मोड़ लूं? ये पैसे मुझे कभी वापस नहीं मिलेंगे? हैं भी कितने मेरे पास? सब तो दारु में उड़ा देता हूँ. कुछ प्रोविडेंट फंड से लोन ले लूँगा. कुछ पैसे होंगे, लेकिन क्या करूँ? सबा मुझसे आस लगायी होगी. मुझे भी क्या ज़रूरत आ पड़ी थी? क्या मैं भी करीम की तरह शोहदा हो गया हूँ?”

“पागल हो गए हो क्या? दिमाग फिर गया है? मुसलमानी पसंद आ गयी है? सारी जमा पूंजी उसके हवाले कर दोगे? दिमाग बेच आये हो? अरे पैसे की इतनी ज़रूरत है तो भीख मांगे. तुम ही दानवीर हुए हो? बेटी नहीं हुई है तो इसका क्या मतलब? लड़के को पढाना नहीं है क्या?”

चुड़ैल नहीं मानेगी. पता था मुझे. कौन सा दारु में उड़ा रह हूँ. लेकिन नहीं, मेरा बेटा तो कभी लगता ही नहीं कि मेरा बेटा है. माँ का पोसा हुआ पिल्ला, बस उसकी बात मानेगा, जैसे दुनिया भर में सब से बुरा मैं ही हूँ. शायद यही सिखा के बड़ा किया होगा कि बाप जैसा मत होना. बस दारु पीता हूँ लेकिन दुनिया से बेहतर हूँ. कुछ बातें ऐसी होती है जो केवल आदमी समझ सकता है, औरतें कभी नहीं. और बेटा बाप को उसके जीते जी कभी नहीं समझ सकता.  रात में ही बीवी ने किस किस को संदेशा भिजवाया. ससुर और साले लोग आ गए. सब मिल कर समझाने लगे. माँ ने कहा था कि कभी ससुर और सास को जवाब नहीं देना, नहीं तो बता देता. सुनता रहा दुनियादारी की बातें, जिनको सीख-सीख के मेरे साले लोग ना जाने कहाँ के जज कलेक्टर बन गए थे.

सुबह से बीवी ने खाना नहीं बनाया. बेटे की ना जाने कहाँ से तबियत बिगड़ गयी. ऐसा सर दर्द करने लगा कि जैसे आज ही चल बसेगा. बीवी तो बस लगातार रोने लगी. कुल का दीपक बुझने लगा था.

मुझे इतनी चिढ हुई, मैं चुपचाप ऑफिस गया. थोड़ा दौड़-धूप करके पैसे इक्कट्ठे किये. साले लोगो ने ऑफिस में भी हल्ला कर दिया था. किसी किसी ने पूछा तो मैंने ऐसे देखा कि ख़ून पी जाऊँगा. सबको कल शाम का किस्सा पता था, बाकि जिसे नहीं पता था करीम के पास बैठ के सुन रहे थे. वो चटखारे लगा-लगा के बता रहा था. मुझे देख कर तिरछी मुस्कान मारी और ऐसे प्रकट किया कि राम कथा सुनाने के बाद उसको परमानन्द मिल रहा है.

पता चला कि प्रोविडेंट फंड से पूरा लोन नहीं मिलेगा. थोड़ा सा पैसा बैंक से निकालने के बाद, कुल ६००० हुआ था. बैंक से निकल के करीम के मोहल्ले के तरफ बढने को हुआ तो साला, ससुर और बीवी रास्ते में मिल गए. बीवी बोली, “शरम नहीं आती, मेरे होते हुए इश्क फरमाने जा रहे हो. ना जाने कैसे हूर की परी है. क्या मंतर किया है. ”

ससुर ने बोला, “तुम्हारा बेटा सर दर्द के मारे मारा जा रह है, कैसे बाप हो?”

“बड़े होने का लिहाज़ कर रहा हूँ, कृपा कर के आप यहाँ से चले जाईये. मेरी जाती मुआमले में दख़ल ना दीजिए.” साला गरम हो गया, पर ससुर ने बात समझी और साले के साथ चला गया. बीवी ने वहीं रोना शुरू कर दिया. मैं उसको बाँह से पकड़ के घर चलने लगा. कई बार मुझे भी लग रह था कि मैं क्या कर रह हूँ. पर बीवी जितना ज़ोर दे रही थी, मेरा दिमाग उतना ही खराब हो रहा था.

घर में एक बार लगा कि बेटे को सच में सर दर्द है. वो नाटक नहीं कर रह था. बेचारा छटपटा रहा था. सबा के पास जाऊँ या इसको ले कर डाक्टर के पास? सोच ही रह था कि दरवाज़े पे दस्तक हुई.

मैंने दरवाज़ा खोला, सामने सबा बेगम खड़ी थी. मुझे लगा कि बीवी कोई तमाशा करेगी. बीवी भी पीछे से आ गयी.

मैंने कहा,”ये है सबा जी, जिसके बारे में मैं बता रह था.”

पता नहीं मेरी बीवी कैसे इतनी समझदार हो गयी, ” बैठिये, मैं चाय बना के लाती हूँ.”

“नहीं, नहीं. उसकी ज़रूरत नहीं है.” उसने बड़े धीरे कहा.

“जी दरअसल, मेरे लड़के की तबियत खराब हो गयी है, मैं…” मैंने मन में ठान लिया कि अब पैसे नहीं दूंगा. आख़िर मेरा भी घर बार है. कल को सच में बेटा मरने लगा तो मैं क्या करुंगा? किससे माँगू? मैं भी ऐसे ही मज़ार पे बैठूँगा?

“ओ… आप इलाज़ करा के आईये. हम तो बस इतना कहने आए थे कि आप पैसे के लिया जहमत नहीं उठाईएगा.हमें लगा आप परेशान हो रहे होंगे. और… ”

“परेशानी कैसी, मैंने बस पैसे…”

“और अब अफताब मियाँ नहीं रहे ना… कल रात ही उनका इन्तेकाल हो गया.” सबा ने बुझी बुझी नज़रों से ज़मीन को निहारते हुए हलके से कहा.

बीवी के हाथ से चाय का प्याला गिर पड़ा. वो बेचारी सन्न देखती रह गयी. मेरा बेटा भी खड़ा हो गया, हम सब को टुकुर-टुकुर देख रह था.

“मातमपुरसी हो रही थी तो मैंने सोचा कि आप परेशान हो रहे होंगे, यही कहने चली आयी थी.” बहुत-बहुत ठण्डी आवाज़ थी. कैसे गूँज रही थी. आँखें जो कल दुआ में नहीं थक रही थी, आज बस दो बातो में ऐसे थक गयी थी के कहीं देख ही नहीं पा रही थी. अचानक उसे लगा कि वो कहाँ बैठी हुई है, वो झटके से उठ गयी, “मैं भी बस चली आयी. अब जाती हूँ. ऊपर वाला सब का दिल देखता है. आपने मेरे  लिए इतना सोचा इसके लिए शुक्रिया.”

मुझे लगा कि ये कैसी औरत है, इसका खसम मर गया है, लोग मातमपुरसी कर रहे हैं, ये ना जाने किस बेईमान इन्सान के घर आ गयी. क्या हो गया, पागल है क्या?

सच में वो पागल ही थी. कैसे चुपके से उठ के वो चली गयी. कैसे चल रही थी. पता नहीं कौन देख रहा है, पता नहीं कहाँ पाँव पड़ रहे हैं, पता नहीं कहाँ जायेगी, बायें या दाएं. शायद अब उसको कहीं नहीं जाना था. मुझे लगा कि वो मुझे मुड़ के देखेगी, आलिया की तरह. एक बार देख ले, शायद मेरी वजह से….. लेकिन अफताब मियाँ तो कल रात ही मर गए थे. पता नहीं क्यों और कैसी कसक उठी एक बार फिर.

फिर एक बार भी सबा नहीं दिखी. लेकिन चिमगादर वाले पीर बाबा के पास सब जाते हैं. किसी किसी को चिमगादर छूता है, किसी को नहीं. मैं कहता हूँ कि कुछ नहीं होता, लेकिन मेरी बात कोई नहीं मानेगा.

2 comments
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  1. इंसानी फितरत और अंतर्द्वंद को खूब पेश किया है. भाषा एकदम परिवेश को सटीक प्रस्तुत करती है और साथ ही पात्र को भी जीवत कर देती है. मैं जरूर इनकी और कहानियाँ पढ़ना चाहूँगा. कहानी कला सिखने के हमें आज ऐसी ही रचनाओं को पढ़ने की जरूरत है.

  2. Sir aapki kahani dil ko choo gaya apko bahut bahut dhanwad.

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