कविता चींटियों की बांबी में लगी ख़तरे की घंटी है: गीत चतुर्वेदी
आज की कविता के बारे में कुछ भी बोलने से पहले मैं उस समाज के बारे में सोचता हूँ, जिसमें मैं रहता हूँ, जो कि बोर्हेस के शब्दों में ‘स्मृतियों और उम्मीदों से पूर्णत: मुक्त, असीमित, अमूर्त, लगभग भविष्य-सा’ है; मैं उस भाषा के बारे में सोचता हूँ, जिसमें मैं सोचता-लिखता हूँ, जो कि, जैसा भी दिख रहा है, बहसतलब रूप से निरंतर क्षरित और मृत्योन्मुखी है, जो वंचितों और मजबूरों द्वारा बेबसी में अपनाई जा रही है, तमाम घोषित ‘बूम्स’ के बावजूद जो अपनी वर्तमान लिपि के साथ कितने बरसों तक चल पाएगी, कहना कठिन है. ऑक्तोवियो पाज़ कहता है कि भाषा सबसे पुरानी और सबसे सच्ची मातृभूमि होती है, उसमें यह ज़रूर जोड़ दिया जाना चाहिए कि कविता ऐसी तमाम मातृभूमियों का महाद्वीप है, लेकिन सरलता से पूछा जाए कि यदि यह मातृभूमि नहीं होगी, तो उसका महाद्वीप कहाँ से होगा? हम निश्चित भाषाई निर्वासन के पथ पर हैं, जहाँ कुछ समय बाद, बल्कि कई बार तो अभी भी, अपने अज्ञान को सम्मानित करते हुए सरलता, सुपाच्यता का आग्रह किया जाएगा और फिर एक स्ट्रेटेजिक उपेक्षा के साथ छोड़ दिया जाएगा.
बहुत पीछे नहीं, सिर्फ़ चार सदियाँ पीछे जाएँ, तो एक निरर्थक, लेकिन बात करने लायक़, प्रसंग मिलता है- हुमायूं पूरब में कहीं लड़ रहा था कि उसके पास सूचना आई कि दूर समरकंद के पास उसकी सबसे प्रिय पत्नीकी मृत्यु हो गई है. वह बादशाह था, फिर भी उस तक सूचना पहुंचने में सात महीने लगे थे. वह इन सात महीनों तक उसे जीवित मान कर रोज़ उसके लिए तोहफ़े इकट्ठा करता रहा था. ऐसे किस्से उससे पहले की सदियों में भी हुए होंगे, उसके बाद की सदियों में भी और हमारी इस सदी में भी कमोबेश संभव हों, पर यह निरपराध-सी अज्ञानता का समय नहीं है. माध्यमों की तेज़ी और सूचनाओं का विस्फोट एक अपराधी-नुमा ज्ञान का प्रसार करता है. दूर हुई घटना की हिंसक प्रतिक्रिया से पड़ोस का जल उठना इसी का मिनिएचर है. इतिहास के आततायियों ने भी बेशुमार हत्याएँ की और अपने समय की सुविधाओं के अनुरूप उनका प्रदर्शन भी किया, लेकिन आज आपको तुरंत दिख जाता है कि एक घंटे पहले ही स्वात में एक औरत की पीठ पर हथौड़ा मार-मारकर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी गई है. उसका बाक़ायदा वीडियो बनाकर दुनिया-भर को दिखाया जा रहा है. क्रूरता को कभी ‘क्वांटीफ़ाय’ नहीं किया जा सकता, लेकिन यह क्रूरताओं के प्रदर्शन का सबसे क्रूर समय है, निश्चित ही. प्रदर्शन इस समय का सबसे अश्लील आचार है. पूंजी का जादू-भरा यथार्थ और उससे उपजे नव-बाज़ार का ‘सौ फ़ीसदी शर्तिया भले अनैतिक’ के रवैये ने पूरे माहौल को बाइबल में आने वाली नगरियों सोडोम और गोमोरा की तरह बना दिया है, जहाँ हर आचार एक अनियंत्रित, अराजक, अनैतिक व प्रदर्शनोन्मुखी व्यभिचार में बदल जाता है, जहाँ नज़ाकत निहायत फूहड़ता बन जाती है.
यह उदात्तता, अनुभव, सेंसरी, मोहकता, द्रवता और द्रव्यताओं के ब्रैंडिग टूल्स में बदल जाने का समय है, जहाँ व्यक्ति की ‘सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ गौण है, ‘कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ महत्वपूर्ण है. यह स्वांग के केंद्र में आ जाने का समय है, जहाँ हर क्रिया एक डी-ग्रेडेड मल्टीग्रेडेशन में तयशुदा अभिनय लगती है. जहाँ हर सूचना एक टारगेटेड मिसाइल की तरह आप पर गिरती है और आपकी बर्बाद अचकचाहट में अपनी सफलता प्राप्त करती है.
तुर्की कवि आकग्यून आकोवा की एक पंक्ति है, ”कविता चींटियों की बांबी में लगी ख़तरे की घंटी है.” मुझे रघुवीर सहाय की एक पंक्ति ठीक इसी के सामने याद आती है,” ख़तरे की घंटी बजाने का अधिकार सिर्फ़ बादशाह के पास है.” कविता में हम वही अधिकार वापस लेने का संघर्ष करते हैं या एक वैकल्पिक घंटी बना रहे होते हैं, जिसकी आवाज़ बादशाह की घंटी की आवाज़ से ज़्यादा साफ़ और ईमानदार हो. और ऐसे समय में, जब बादशाह मनोरंजन के लिए ख़ुद कविता करता हो, कविता को विज्ञापन फिल्मों की कैचलाइन में बदल देता हो, दर्द की एक धुन और आँसू के एक बड़े फोटो के साथ, गुड़िया छीनकर बच्चों के हाथ में बंदूक़ का खिलौना पकड़ा देता हो, कविता की भाषा में आपसे जेब ढीली करने की मनुहार करता हो, रूढि़यों, भ्रांतियों और पूर्वग्रहों के विखंडन के बजाय परमाणु विखंडन पर ख़ज़ाना खोल देता हो, जो बच्चों को चॉकलेट न मिलने पर घर से भाग जाना सिखाता हो, मुक्ति के नाम पर स्त्री की देह को सिसकारियों से छेद देता हो, जो बीच राह रोककर पुरुष की मैली शर्ट, फटे जूते और ख़ाली बटुए का मख़ौल उड़ाता हो, और यह सब जानबूझकर, योजना बनाकर, विज्ञापनों में, कविता की भाषा में करता हो, वह समय कितना ख़तरनाक होगा, अंदाज़ा नहीं लगा सकते. जब बादशाह यह मनवा दे कि मृत्यु और तबाही दरअसल भूख, ठंड, बारिश, बाढ़, रोग, महामारी से नहीं, बल्कि एलियंस, साइबोर्ग्स, नामुराद उल्काओं और रहस्यमयी उड़नतश्तरियों से होती हैं, तो उस समय की भयावहता की कल्पना कर सकते हैं हम. अचरज है कि ये सब कविता की भाषा में भी हो रहा है.
हम इस पूरे यथार्थ को ढो रहे हैं और इससे मुक्त होना संभव भी नहीं दिखता. यह सबसे पहले कला की धार को कुंद करता है, विशुद्ध कला का हॉलो बनाकर. फिर यह विचारों का दिशासूचक मुर्गा़ स्थापित करता है, तमाम विचारहीन लोगों को वैचारिकता के चमकीले तमग़े पहनाकर. यह पहले ध्वंस का तजुर्बा करता है, फिर सर्व-कल्याण की प्रयोगशालाओं को अनुदान देता है. इसके हर क़दम पर लैंडमाइन्स बिछी हुई हैं, यह भ्रम के फव्वारों से शीतलता देता है. यह हमारी ज्ञात सभ्यता का एकमात्र ऐसा समय है, जब भ्रम महज़ एक मानसिक अवस्था नहीं, एक राजनीतिक हथियार है.
बंद कमरे में बैठकर पूरी दुनिया का अनुभव कर लेने के ग़रूर के साथ यह आपके अनुभव को ही ब्लिंकर पहनाता है, मस्तिष्क अनुभूतियों को जैसे डी-कोड करता है, यह उसी प्रक्रिया पर चोट करता है और एक तरह से अनुभवों की निजी डी-कोडिंग को ध्वस्त कर देता है.
ऐसे गॉलिएथ के सामने जिसमें शकुनियों की चालाकियां भी भरी हों, कविता क्या कर लेगी? जैसे डेविड कॉपरफील्ड कहता है- ‘मोर सूप’, वैसे ही कविता भी ‘विरोध का मोर सूप’ मांगेगी. वह ज़्यादा सीधी लेकिन कम सरल होगी, वह जटिल होगी लेकिन उसके जोड़ों का दर्द नहीं दिखेगा, वह तमाम पारंपरिकताओं का मुखर नकार करेगी और मुहावरों को चुनौती और नया अर्थ देगी, वह बहुलताओं को समाविष्ट और बहुमतों को निरस्त करेगी, स्वयं निरस्त हो जाने के आत्महंता जोखिम तक जाकर. वह तेवरों से भरी तमाम तार्किकताओं से परे होगी लेकिन अराजकताओं से भी दूर होगी, प्रतिबद्धता से नालबद्ध लेकिन असंबद्धताओं को अर्थवान बनाते हुए. छोटी से छोटी संभावनाओं में यक़ीन करना सबसे बड़ी प्रतिबद्धता होती है. वह स्वांगमय, गुस्सैल, भ्रामक आत्मजयी, हेडोनिस्ट सुखयाचक या सशर्त निरीहता में अपने लिए एक घर की मांग नहीं करेगी. इस यथार्थ के प्रतिरोध के लिए उसे अत्यधिक सरलता का आग्रह छोड़कर कठिन कंदराओं की ओर जाना होगा, सुंदरता की 90 परसेंट ग्रैंड सेल में उसे अपनी तथाकथित पारंपरिक सुंदरता के पैमाने बदलने होंगे, उसे एहतियातन अपनी एफिशिएंसी को इफ़ेक्टिवनेस में बदलना होगा- जैसा कि एक यूनानी मिथक में एक रानी का जि़क्र आता है, जिसने अपना दाहिना स्तन इसलिए कटवा लिया था कि वह पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से तीर चला सके- उसने अपनी कथित/स्त्रियोचित सुंदरता का परित्याग कर दिया था.
वर्तमान कविता को अपने रूप, अन्विति, व्याकरण, तेवर में सुपाच्य स्वीकृत-पने को बदलना होगा. उसे वर्तमान और अतीत के पारस्परिक-राजनीतिक-पारिवारिक-पारिस्थितिकीय सहवास को नहीं, सहमतियों को संदेह की निगाह से देखना होगा. सहमत लोगों के बीच करुण वृंदगान से विलग हमें असहमत होने की निहायत नई चेन बनानी है. हमारी कविता ढेर सारे शब्दों का इस्तेमाल करने के बाद भी मूक होने का भान देती है- जैसे टीवी पर म्यूट का बटन दब गया हो. उसकी वय और इयत्ता को काल-उचित बनाना होगा. बौद्धिकता निजता से नहीं बनती, हमें एक सामूहिक-सामाजिक बौद्धिकता का परिष्कार करना होगा. हमारे साहित्यिक समाज को अपरिमेय उपेक्षा से भरे फर्स्ट हैंड नकार को नकारना होगा. नंबर देने वाली माट्साब ब्रैंड आलोचना तब तक इस कविता को नहीं पकड़ पाएगी, जब तक कि वह अपनी आदतें न सुधार ले. लेकिन कविता पढ़ने और उस पर यक़ीन करने वाले लोग, जो लगातार कम होते जा रहे हैं, उसके साथ खड़े ही रहेंगे.
(यह भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार समारोह के अवसर पर नई दिल्ली में 10 सितंबर 2009 को पढ़ा गया वक्तव्य है.)