विष्णु खरे की कविता ‘जो मार खा रोईं नहीं’ का एक ख़याल-पाठ: गीत चतुर्वेदी
हिंदी कविता के पारंपरिक काव्य-आस्वादन-पठन-अभिरुचियों की रूढ़ता को विष्णु खरे की कविता जिस तरह-जितनी बार-जितने तरीक़ों से तोड़ती है, उनकी कविता के बारे में उतने ही रूढ़ शब्द-क्रम में बात की जाती है- मसलन वह रूखे गद्य के कवि हैं, तफ़सीलों का बोझ उनकी कविता को दोहरा कर देता है, ‘अगर कुछ कम कहते या बीच में ही छोड़ देते तो बेहतर होता’, ‘वह कहती है, गाती नहीं’, उनके यहां कविता के भीतर कहानी चलती रहती है जो कई बार कविता को उससे बाहर कर देती है आदि-आदि. एक आग्रह यह भी किया जाता है कि उनकी कविता में प्रवेश से पहले पाठक को ख़ास कि़स्म की तैयारी करनी चाहिए. उनकी कविताओं से गुज़रते हुए मुझे बार-बार यह लगता है कि इन कविताओं में अधिकाधिक प्रवेश पाने के लिए सारी तैयारियों को ताक पर रख दिया जाना चाहिए. बिल्कुल सहज होकर, जो आ रहा है उसे आने देते हुए, और बार-बार रुकते हुए. जिन शर्तों पर किसी रचना को कविता माना जाता है, उन्हें विष्णु खरे न केवल पूरा करते हैं, बल्कि वह अपने लिए लगातार नई शर्तें ईजाद करते हैं. जब पाठक एक ख़ास कि़स्म के काव्य-पठन-स्वभाव के बाद उनकी कविता में उतरता है, जैसा कि ज़्यादातर संभव है, बिना तैयारी से मेरा आशय अतिरिक्त पूर्वग्रहों से मुक्ति से भी लिया जा सकता है, तो उसके उस स्वभाव को दचका लगता ही है. हालांकि तैयारियों की यह बात भी एक तरह का क्लीशे ही है, क्योंकि पिछले दो दशक में विष्णु खरे की कविता जितनी ज़्यादा पढ़ी गई है, जितनी उस पर बात हुई है और जितना ज़्यादा उनकी काव्य-सरणियों व आभासों का अनुकरण किया गया है, वह अकारण ही नहीं, उनकी कविता को हिंदी की मुख्यधारा व उस धारा को स्टीयर करने वाली कविता बना देता है; और हिंदी कविता का पाठक, जो भी है जितना भी है, उनकी कविता में जिज्ञासु प्रवेश कर रहा है, उनकी कविता से नए अर्थ और साहस ले रहा है, जिससे उसकी व्यापक स्वीकृति जो पिछले बरसों में और अब और भी लगातार बढ़ रही है, का भान भी हो जाता है, इसलिए तैयारी-आदि की बात नहीं करनी चाहिए.
कविता के शारीरिक-ऑर्गेनिक ढांचे के भीतर खड़े हो अपने कवि के लिए (और एक तरह से अपने समय के समूचे काव्य-कर्म-व्यवहार के लिए) जिस तरह की चुनौतियां और कठिन सरणियां खड़ी की जाती हैं, वैसा हिंदी कविता में निराला-मुक्तिबोध-रघुवीर सहाय के बाद सिर्फ़ विष्णु खरे में सचेत, आर्गुमेंटेटिव सलीक़े से संभव दिखाई पड़ती हैं. ये सरणियां एक-दो कविताओं में नहीं, बल्कि कमोबेश हर कविता में होती हैं इसीलिए बड़े कवि एक-दो, आठ-दस कविताओं के कवि नहीं होते, बल्कि हमेशा समग्रता के बोध में होते हैं. लेकिन फिर भी उनके पास एक-दो ऐसी कविताएं होती हैं, जिन्हें हम उनके काव्य-व्यक्तित्व या ट्रीडिंग के महती गुणों के बीज की तरह ले सकते हैं. राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित विष्णु खरे के संग्रह ‘सब की आवाज़़ के पर्दे में’ की यह कविता, ‘जो मार खा रोईं नहीं’, जो कि आगे है और जिस पर मैं अपनी बातें कहूंगा और जो कि मेरी प्रिय कविताओं में से है, न केवल खरे की कविता की, बल्कि समकालीन हिंदी कविता के दृश्य-विवेक का आरूपण करती कृति है.
जो मार खा रोईं नहीं
तिलक मार्ग थाने के सामने
जो बिजली का एक बड़ा बक्स है
उसके पीछे नाली पर बनी झुग्गी का वाक़या है यह
चालीस के क़रीब उम्र का बाप
सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी
अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ
नाराज़ हो रहा था अपनी
पांच साल और सवा साल की बेटियों पर
जो चुपचाप उसकी तरफ़ ऊपर देख रही थीं
ग़ुस्सा बढ़ता गया बाप का
पता नहीं क्या हो गया था बच्चियों से
कुत्ता खाना ले गया था
दूध दाल आटा चीनी तेल केरोसीन में से
क्या घर में था जो बगर गया था
या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं
जो भी रहा हो तीन बेंतें लगी बड़ी वाली को पीठ पर
और दो पड़ीं छोटी को ठीक सर पर
जिस पर मुंडन के बाद छोटे भूरे बाल आ रहे थे
बिलबिलाई नहीं बेटियां एकटक देखती रहीं बाप को तब भी
जो अंदर जाने के लिए धमका कर चला गया
उसका कहा मानने से पहले
बेटियों ने देखा उसे
प्यार करुणा और उम्मीद से
जब तक वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया
24 पंक्तियों और शीर्षक समेत 188 शब्दों की यह कविता अगर आठवें दशक या तथाकथित नवें दशक के प्रचलित छायावादी-सिंथेसाइज़्ड डिक्शन में लिखी गई होती, तो इसमें मार रोना रोया गया होता, ये बेटियां हदस-हदस कर रोतीं और मोड़ पर ओझल हो गए बाप के लौट आने की झलक दिखा दी जाती, ये लड़कियां अचानक विद्रोह कर देतीं या उम्रो-हालात को छोड़ घर से भाग ही जातीं, बहुत ही सरल तरीक़े से बाप को कविता के भीतर ही सत्ता का प्रतीक और बेटियों को कविता के भीतर ही निरीह लोक की तरह दिखा दिया जाता, ‘गुड बॉय बनाम बैड बॉय’ का ‘मायोपिक’ सरलीकरण ड्रा कर लिया जाता; अचानक इसी दृश्य के बीच कोई पेड़ उचक कर बोलने लग जाता, संभव है कि जिस पतली हरी डाली को बाप ने बेंत की तरह इस्तेमाल किया, ख़ुद वही पतली हरी डाली इसमें बिसूरते हुए, मनुष्य की इच्छाओं के अपमान व शमन पर, सर्रियल तरीक़े से कोई बोली-बानी उचार देती; या भाषा की एक फि़ज़ूल-बारीक कारीगरी करके सलीम-जावेद अंदाज़ में बार-बार दुहराया जा सकने वाला एक ‘डायलॉग’ एक्स्प्लोर कर लिया जाता- यानी कुल मिलाकर एक ऐसा भावुक शामियाना खेंच दिया जाता, जिसमें आप तीसरी ही पंक्ति से कविता से एक ‘हेडोनिस्ट’ दुख ‘इन्हेल’ करने लग जाते और हर पंक्ति के ख़त्म होने पर ‘अहा-अहो’ भाववाद से भर जाते. पर ये उस डिक्शन में लिखी ही क्यों जाती? और आज यह संभावना जताने का तुक ही क्या है? मुझे नहीं पता, यह कविता ठीक-ठीक कब लिखी गई, लेकिन यह 1994 का संग्रह है और इससे पहले कवि का संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ था, इसलिए, मोटे तौर पर, मैं यह अंदाज़ा लगाता हूं कि यह 78 से 94 के बीच के 16 बरसों में कभी लिखी गई होगी. अब इन 16 बरसों में लिखी जा रही हिंदी कविता (जो बाद में आठवें व तथाकथित नवें दशक की कविता के नाम पर अपनी तमाम ख़ासियतों, के साथ स्थापित की गई) को याद करते हुए विष्णु खरे की इस कविता को पढ़ा जाए, तो इस सवाल में छिपे इशारों तक जाया जा सकता है. जिस समय दृश्य में ‘वैसी’ कविताओं का ठुंसापन था, उस समय विष्णु खरे एक नए तरह के दृश्य-विधान के साथ ऐसी कविता लिख रहे थे, जो ‘वैसी’ कविताओं के बनाए भाव-लोक से एकदम उलटे जा खड़ी होती थीं, जिसमें भावुकता-भावनिकता का कोहराम नहीं मचा था, डायलॉगबाज़ी नहीं थी, प्रचलित भाषाई चमत्कार की बैसाखी पा लेने की आकांक्षा नहीं थी, बल्कि देर से ‘डिसाइफ़र’ होने वाला वह ‘मेलन्कलिक’ स्ट्रोक था, जो वांग कार-वाई जैसे फि़ल्मकारों की फि़ल्मों में थीम की तरह बैकग्राउंड में बजता है और फि़ल्म पूरी होने के बाद दर्शक के मन के फ़ोरग्राउंड पर.
सबसे पहले तो कविता में कविता और उसके रिवीलेशन में फि़ल्म माध्यम की तकनीकों के प्रयोग पर ध्यान दिया जाए. हिंदी कविता में सिनेमैटोग्राफ़ी की बारीक तकनीकों का किसी कवि ने सबसे ज़्यादा, सबसे समृद्ध और सबसे ज़्यादा प्रभावोत्पादक प्रयोग किया है, तो वह विष्णु खरे ही हैं. ऐसा करके भी उन्होंने एक नई सरणी ही बनाई है, क्योंकि दृश्योत्पादन या उसका पुनरुत्पादन ही समकालीन कला के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है. शुरुआत की स्टैंड-अलोन तीन पंक्तियां एक रियलिस्टिक दृश्य बनाती हैं, उसमें फ़ोकस में वही चीज़ें हैं जो होनी चाहिएं- मसलन एक थाना है, जिसका काम तमाम कि़स्म के जरायम पर का़बू पाना है, लेकिन अभी-अभी जो अपराध हुआ है उस पर उसकी नज़र नहीं होनी; बिजली का एक बक्स है जहां सबसे चपल ऊर्जा का भंडारण और वितरण है, लेकिन जो किंचित ऊर्जाहीन हो गए दो चरित्रों से नितांत अनभिज्ञ होगी और जिसकी गति, पिटाई के इस बिल्कुल फ्रीज हो गए दो लम्हों के ठीक विलोम में होगी; वहां सड़ांध से भरी नाली है जो दृश्य की क्रूरता में है और भव्यता के विलोम में खड़ी झुग्गी है. यह रियलिज़्म बिना किसी अतिरिक्त परिभाषा के है और वाइड एंगल से नैरो या मीडियम शॉट की ओर जाता हुआ कैमरा है. पहले पैराग्राफ़ में कवि लॉन्ग शॉट में है, ब्रॉड एंगल है, दूसरे में वह मीडियम या मिडिल शॉट में आता है, जिसमें फ़ोकस में चालीस के क़रीब का बाप और पांच व सवा साल की बेटियां हैं; इसमें जो भाव या वेश-भूषा का वर्णन है, वह उतना ही है जितना मीडियम शॉट में, एक साथ तीन किरदारों को फ्रेम में लेते हुए, संभव हो सकता है- सूखी-सांवली काया, बढ़ी हुई दाढ़ी, हाथ में पतली हरी डाली, ऊपर की ओर देखतीं दो बेटियां और नाराज़ होने की एक क्रिया. अगले पैराग्राफ़ में, ग़ुस्सा बढ़ जाता है, पिटाई हो जाती है, कुछ आशंकाएं हैं, विज़ुअल बड़-बड़ की तरह, हर पंक्ति एक नए दृश्य की संभावना बनाती है जिसे आप कृष्ण-धवल में देख सकते हैं, वहां मीडियम शॉट में कैमरा ‘होवर’ हो रहा है, थोड़ा क्लोज़ होता हुआ और छोटी बेटी के सिर पर मुंडन के बाद उग रहे भूरे बाल साफ़ दिख रहे हैं. यहीं कैमरा फिर थोड़ा पीछे होता है, एक बार फिर तीनों दिखते हैं, तीसरे को एकटक देखतीं दोनों बच्चियां, और उसके बाद एक डीप क्लोज़-अप, दोनों बच्चियों के चेहरों पर, जहां प्यार, करुणा और उम्मीद है. यह देर तक टिका रहने वाला क्लोज़-अप है, जिसमें सिर्फ़ चेहरे के ही नहीं, मन के भी भाव दिखाए जाने हैं. फिर एंगल बदल कर एक लॉन्ग शॉट, जिसमें ओझल होता हुआ बाप हो. पढ़ते हुए इस शॉट को आप एक शॉट पहले भी ले जा सकते हैं.
खरे इस तकनीक को अपनी कविता में एक्स्प्लोर करते हैं, एक नई टेरीटरी बनाते हुए. और अगर कैमरे की इस भाषा को समझा जाए, तो खरे की कविता में आप वह लिरिकल मूवमेंट देख सकते हैं, जो कई बार कहा जाता है कि उनकी कविता में नहीं है. इसीलिए जब ‘कविता का गल्प’ में अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘(विष्णु खरे की कविता) कहती है, गाती नहीं’ तो अचरज होता है कि इतने विज़ुअल लिरिसिज़्म को पकड़ पाने में ‘समृद्ध’ हिंदी आलोचना क्यों बार-बार असफल हो जाती है. किसी सधे हुए फि़ल्मकार-सा ऐसा गाता हुआ दृश्य-प्रबंध जिसमें स्क्रीन-प्ले कहीं बाधित नहीं होता, बल्कि उसे एक लय और गेयता अतिरिक्त रूप में मिलती है, किस ‘गाते हुए’ कवि ने संभव बनाया है? यह विज़ुअल लिरिसिज़्म खरे की लगभग हर कविता में मौजूद है. दरअसल, बारीक तफ़सीलों की महत्ता स्थापित करते हुए, लगभग स्लो-मोशन में चलती हुई, एक ‘कोहेसिव’, ‘इम्पर्सोनेटेड’ दृश्य-रचना करना ही, आज की कविता में, शिल्प के स्तर पर ‘खरेस्क’ (Khare-sque) होना है.
मैं अक्सर सोचता हूं कि कविता में जब कोई ‘प्रोटागॉनिस्ट‘ होता है, तो उसकी उम्र क्यों लिखी जाती है? इस कविता में भी है. तीनों किरदारों की उम्र एक ज़रूरी तथ्य की तरह बताई गई है. पांच और सवा साल की उम्र चालीस के जि़क्र के कारण सपोटिंग आंकड़ा है, पर मेरा ध्यान ‘चालीस’ पर है. विष्णु खरे जैसा कवि महज़ किसी ख़ामख़याली या झोंक की किसी झक में ‘चालीस’ का जि़क्र नहीं करेगा, पर क्या यहीं उनके कवि का सब-कॉन्शस काम करता है? यह एक मनोवैज्ञानिक शोध का विषय है कि जिस समय हम कविता करते हैं, उस समय किस ‘मानसिक उम्र’ में होते हैं. बहुत सारे लोग बूढ़े हो जाने के बाद भी किशोरावस्था जैसा लडि़याते हुए भाव-बोध के साथ कविता लिखते हैं जो कि कविता में स्पष्ट दिखता भी है, तो कई कवियों को हम लगातार एक नि:स्वार्थ, निष्कलुष बाल्यावस्था में पाते हैं. चार्ली चैपलिन मानते थे कि उनके कलाकार की उम्र वही पांच-सात साल के बच्चे की उम्र है, जिसकी निगाह से वह पूरी दुनिया को देखते हैं. यह मानसिक उम्र कला के भीतर कंटेंट को आयु-उचित मौलिक दृष्टि से और अन्विति को उसके अनुभव से प्राप्त (‘एक्वायर्ड’) आयु से नियंत्रित करती है. एक समय के बाद कवि की मानसिक उम्र में बहुत ज़्यादा फेरबदल नहीं होता. वह जहां अपना पोएटिक टेम्पो पाता और स्वीकार करता है, वह उसी के आसपास रहती है. मेरा मानना है कि कवि की मानसिक उम्र में बहुत जल्दी-जल्दी और बहुत ज़्यादा बदलाव आना अच्छा संकेत नहीं है. हम जिस मानसिक उम्र में रहते हैं, उसी के आंकड़े के प्रति ज़्यादा आकर्षित होते हैं. चालीस का यह आंकड़ा मुझे एक मानसिक अवस्था का बोध कराता है. खरे की कविता में आया हुआ ‘बाप’ अक्सर इसी उम्र के आसपास होता है. तो विष्णु खरे की कविता को स्टीयर करने वाली यह उम्र मुझे यही चालीस की लगती है, जहां वह मैच्योर्ड, तार्किक और व्यावहारिक जान पड़ते हैं. (भावनिक होने की कोई उम्र नहीं होती, लेकिन) यही मैच्योरिटी उन्हें ऐसा होने से बचाती है. इसीलिए उनकी कविता ऑर्गेनिक स्तर पर इतना नहीं बदलती, जितना कि अमूमन देखा जाता है और इसका कारण यह है कि यह ऑर्गेनिक संरचना कवि ने पर्याप्त परिपक्वता हासिल करने के बाद अर्जित की है. यह खरे का ख़ास गुण है, जो कि इस कविता से साफ़-तर दिखता है
और दूसरी कविताओं को पढ़ने में मदद करता है, और यह ‘ट्रांसफ़रेबल’ नहीं है. इसी तरह कविता के पहले पैराग्राफ़ में जो दृश्य बनता है, वही खरे के समूचे काव्यकर्म की प्रतिबद्धता, जिसे रूढ़ अर्थों में न लिया जाए, व्यापकतर दिखाई देती है. उनकी दूसरी कविताओं में भी.
बाप और बेटियां उनकी कविताओं में ख़ूब आती हैं. बेटियां उसी तरह (पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक स्तर पर) पिटे होने के बाद के अवसाद में, प्यार करुणा और उम्मीद में; बाप उसी तरह ख़ामोश क्रोध, बेबसी और करुणाजनक, निस्पृह, ‘एग्नॉस्टिक’ स्वप्न देखते. यहां आया हुआ बाप भी कोई क्रूर-खल या इलेक्ट्रा-कॉम्प्लेक्स नहीं है, बल्कि वह साधारण निम्न/मध्यवर्गीय परिवार का नायक/प्रमुख किरदार है, जिसके पास अपना अबूझ क्रोध उतारने के लिए यही दो बच्चियां हैं. कवि यह रहस्य बनाकर रखता है कि उसने बेटियों को किस बात पर पीटा है, वह आशंका के जितने कारण बताता है, उनमें प्रमुख तौर पर बच्चियों की ग़लती दिखनी है, लेकिन ये वो ग़लतियां हैं, जिनसे बाप के जीवन-संघर्ष में एकाध प्रकरण और जुड़ जाना होगा. यानी वह निम्नमध्यवर्गीय बाप अपने जीवन-संघर्ष में एखादा प्रकरण और जुड़ जाने से आया हुआ क्रोध बच्चियों पर उतार रहा है. यहां सिर्फ़ एक पंक्ति – ‘या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं’ – उसके जीवन-संघर्ष के साथ उसके भावनात्मक-संघर्ष को भी झकझोर देने वाली आशंका की हैं. ज़्यादा शब्दों के इस्तेमाल का आरोप (??) – मसलन ‘वह कविता में थोड़ा कम कहते तो अच्छा होता’ — झेलने के बाद भी खरे, दरअसल, कविता में बहुत सारी बातें नहीं कहते या अनकहा छोड़कर एक ख़ास अर्थ की तरफ़ स्टीयर करने की कोशिश करते हैं, जैसे जिस निम्नमध्यवर्ग का चित्र उन्होंने बनाया है, उसमें यह आसानी से दिखाया जा सकता था, कि बाप अपना कहीं और का ग़ुस्सा बच्चियों पर उतार रहा है, पर खरे दृश्य-चित्रण ही इसीलिए करते हैं कि ऐसी ‘ऑबवियस’ कि़स्म की बातों को उन्हें कविता में कहना ही न पड़े, पाठक दृश्य को देखकर ख़ुद ही समझ जाए. इसीलिए खरे की कविता को लेकर यह कहा जाना कि वह अनकहा नहीं छोड़ते, मुझे ग़ैर-ज़रूरी लगती है. ऐसी तमाम अनकही बातें, जो कवि पाठक के अनुभव और कविता को उसकी ऑर्गेनिक बॉडी से एक्स्टेंड करने की उसकी क्षमता पर छोड़ देता है, इस कविता में और उनकी दूसरी कविताओं में भी आसानी से, कई बार किंचित पाठकीय श्रम के बाद, देखी जा सकती हैं. जैसे इसी कविता में मार खाई बेटियां जिन्होंने शायद घर से ज़्यादा देर बाहर रहने के कारण भी मार खाई हो, घर के भीतर चली जाती हैं और विरोध का विलोम दर्ज करती हैं.
‘विरोध का विलोम’ से मेरा आशय क्या है? ऐसी स्थिति, जो आपके स्पेस का अतिक्रमण कर रही हो, आपके ज़रूरी कंफर्ट को तोड़ रही हो, या एक कि़स्म के बेजा दबाव को हावी कर रही हो, उसके प्रति एक दृश्य में आपका मूक, ‘सटल’ या परोक्ष विरोध जताना/अनाभिव्यक्त अनुभव करना और उसके बाद अगले दृश्य में और उसके बाद अपनी कारुणिक बेबसी, बे-चारगी को जानते हुए, ख़ुद को ग़लत मान लेते हुए एक क्रिया द्वारा उस स्थिति को स्वीकार कर लेना. जैसा कि इस कविता में ये बच्चियां करती हैं. उन्हें पिता से मार पड़ी है, न जाने किस बात के लिए, वे ख़ुद भी उन कारणों को नहीं जानतीं, इसलिए वे मार खाकर चौंकी हुई हैं, चूंकि वे ख़ुद कारण नहीं जानतीं इसलिए ऊपर जताई गई आशंकाएं भी निराधार ही साबित होती हैं, तो अज्ञात-अनजाने कारणों से पड़ी मार ने इन बच्चियों को चौंका दिया है और उसकी पीड़ा है, एक अन्याय का आभास है, तिस पर वे ‘रो नहीं रहीं.’ कविता इसके शीर्षक में और ‘न रोने’ की क्रिया में है. न रोना केवल चौंक नहीं है, बल्कि अज्ञात कारणों से हुई पिटाई व अन्याय के आभास, जो पांच और सवा साल की बच्चियों को भी होता है और यहां आकर कविता में उनकी उम्र बताए जाने का स्पष्टीकरण भी मिल जाता है, का विरोध दर्ज करने के लिए है. रोना उस पिटाई को पहली ही नज़र और पहले ही प्रति-कर्म में स्वीकार कर लेना है, अगर वे रो देतीं, तो यह विरोध नहीं होता, और फिर कविता भी नहीं होती, कम से कम यह और इस तरह की, वे मार खा रोईं नहीं. पिता मारने के बाद उन्हें अंदर जाने के लिए धमका कर चला गया है, दृश्य से बाहर ओझल हो रहा है, लेकिन ये बच्चियां अपनी जगह ठिठकी खड़ी हैं. रोती हुई नहीं, बल्कि न रोती हुईं. एकटक देखती हुईं. अबूझ अन्याय को बूझने की कोशिश करती हुईं. कविता में न पूछे गए सवालों को पूछती हुईं.
क्या आपने कभी बेजा-अज्ञात कारणों से या अकारण किसी बच्चे को थप्पड़ मारने के बाद उसका चेहरा देखा है, जब वह रोता नहीं, पूरे चेहरे को सवाल बनाकर आपकी ओर देखता है, तब अभी रो देने और उसे रोकने की कोशिश करने वाला वह भाव और पीड़ा और अन्याय और अपमान का आभास आप पर क्या असर डालता है? यदि आपमें उतनी संवेदनाएं हुईं, तो या तो आप रो देंगे या उस दृश्य से हट जाएंगे. तो ये बच्चियां ‘जो मार खा रोईं नहीं’ न रोकर आपको रुला देंगी.
लेकिन जब झल्लाया हुआ पिता न जाने किस कारण से बच्चियों को पीट रहा है और पिटी हुई ये बच्चियां बिना रोए बाप को दूर तक जाता देख रही हैं, एक सवाल मन में यह आता है कि इन दोनों बच्च्यिों की मां इस कविता में क्यों नहीं है? हालांकि कविता में पूरा कुनबा ही आए, यह ज़रूरी नहीं, लेकिन कवि ने इस काव्य-दृश्य यह रहस्य ही रहने दिया है कि इनकी मां है भी या नहीं, है तो घर के भीतर है या काम पर कहीं बाहर गई है, या रिश्ते-नातेदारों के पास गई है, पर वहां वह पांच और सवा साल की बच्चियों को लिये बिना तो नहीं जाएगी. इस कविता के भीतर के त्रिकोण के ग़ायब तीसरे कोण यानी मां को केंद्र में रखकर देखा जाए, तो इसकी मार्मिकता और बढ़ जाती है. क्या इन दोनों बच्चों की मां नहीं है, इसलिए पिता को उनकी देखभाल करनी पड़ रही है और काम के घंटों में से बीच-बीच में घर आकर बच्चियों को देख जाया करता है और उन्हें घर से बाहर भटकता देख नाराज़ हो रहा है? ऐसे में यह पिता और बेटियों- दोनों की लाचारगी को बहुत गहरे से दिखाती है. मां की अनुपस्थिति कविता की करुणा में इज़ाफ़ा कर देती है और अनकहे में कविता रहस्य रख छोड़ने और पाठक की कल्पना पर पूरा यक़ीन करने के विष्णु खरे के काव्य-स्वभाव का एक और आयाम बनाती है.
और विष्णु खरे इस कविता को ‘जो मार खा रोईं नहीं’ जैसा शीर्षक देकर, जो कि कविता में कहीं पंक्ति के रूप में नहीं आया और जो कि निराला की प्रसिद्ध कविता की एक पंक्ति है, इसके अर्थों में बढ़ावा कर देते हैं. ‘तोड़ती पत्थर’ में यह पंक्ति इस तरह आती है-
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
निराला की कविता में यह स्त्री कवि को देखने से पहले उस भवन की ओर देखती है और किसी को देखता न पा जो मार खा रोई नहीं वाली दृष्टि से देखती है. निराला के यहां भी वही अपमान, पीड़ा, अन्याय, विरोध और ‘नेवर से डाय’ वाला चुनौती-बोध है, जो विष्णु खरे के यहां है. लेकिन खरे इसे अपने दृश्य-बंध में स्थापित करते हुए उसके अर्थों को बहुलता देते हैं. निराला की ही तरह विष्णु खरे करुणा का एक प्रति-संसार रचते हैं, जिसकी ओर कविता एक उदात्त मानवीय आकांक्षा की तरह जाना चाहती है. निराला की ही तरह खरे यहां एक ‘पॉलिटिकल ऐलीगरी’ बनाते हैं जो सत्ता के संबंधों को परिभाषित और मनुष्य की विवशताओं को अलग-अलग तरीक़े से परिलक्षित करती है. खरे के यहां यह एक ‘ऑटिस्टिक स्टेटमेंट’ की तरह आता है.
‘आइरनी’ विष्णु खरे की कविता का एक अभिन्न स्वभाव-विशेषता है. हिंदी के शब्दकोश ‘आइरनी’ का अर्थ ‘व्याजोक्ति’ से लेकर ‘विडंबना’ तक बताते हैं, लेकिन इस शब्द का कोई एक सीधा-सा अर्थ यहां फिट नहीं होता. जैसा कि ‘किंग्स इंग्लिश’ में कहा गया है, ‘आइरनी की सौ से ज़्यादा परिभाषाएं दी जा सकती है और उनमें से बहुत कम पर आम सहमत हुआ जा सकता है, पर फिर भी इस शब्द का बुनियादी आशय यह है कि धरातल पर दिखने वाला अर्थ और छुपा हुआ अर्थ एक नहीं होता.’ जब विष्णु खरे की कविता में आइरनी आती है, तो वह सीधे-सीधे व्यंग्योक्ति या व्याजोक्ति नहीं होती, सीधे-सरल शब्दों में ‘एम्बीग्विटी’ भी नहीं होती, जबकि वह एक बहुस्तरीय थीम, समस्यामूलक दृश्यता, अर्थ की बहुलता और उनके पीछे छिपा हुआ एक डार्क ह्यूमर होती है. इस कविता की आखि़री चार पंक्तियों –
उसका कहा मानने से पहले
बेटियों ने देखा उसे
प्यार करुणा और उम्मीद से
जब तक कि वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया
में यही आइरनी दिखती है. बेटियों ने न रोकर जो भावनात्मक विरोध किया, उसके बाद उन्होंने अपने पिता को एकटक देखा, इस उम्मीद में कि वह लौटकर आएगा, अपनी ग़लती मानेगा, पीटने पर अफ़सोस जताएगा और पिता का प्यार देगा, वह नहीं आता, बल्कि ओझल हो जाता है और बेटियां उसका कहा मानकर घर के भीतर चली जाती हैं. और मां का न होना इस चौंक, उम्मीद और मांग को और बढ़ा देता है.
Mai khare ji ki rachnao Ko bahut pasand karta hu