तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं: गौरव सोलंकी
नीली आँखें
– तुम्हारी आँखें तो नीली नहीं हैं…
मुझे याद पड़ता है कि हमारे बीच की पहली बात यही थी। उससे पहले वह तुनकमिजाज़ लड़की, जो अपने अक्खड़ जमींदारों के परिवार से हर सद्गुण विरासत में लेकर आई थी, मेरे लिए उतनी ही अपरिचित थी, जितनी उसके पीछे खड़ी चश्मे वाली लम्बी लड़की या उससे पीछे खड़ी मुस्कुराती हुई साँवली लड़की। मैं एक पत्रिका के लिए लेखकों की तलाश में था और वह एक कविता लेकर मेरे पास आई थी। डायरी में से जल्दबाज़ी में फाड़े गए उस पन्ने पर लाल स्याही से लिखे हुए नीलाक्षी पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी और मैं उसकी गहरी काली आँखों को देखकर अनायास ही पूछ बैठा था।
वह भड़क गई थी- क्या बकवास है?
उसका लहजा देखते ही मैंने तुरंत अपने कंधे उचकाकर और मुँह बिचकाकर सॉरी बोल दिया था, लेकिन वह मेरी उम्मीद पर खरा उतरते हुए बेअसर रहा था।
– तुम यहाँ मुझे देखने के लिए बैठे हो या इन आर्टिकल्स को?
– दोनों को…
और इस जवाब पर तो वह आगबबूला हो गई थी। वह तब तक बोलती रही, जब तक पीछे वाली मुस्कुराती हुई साँवली लड़की उसे खींचकर नहीं ले गई। मैं चुपचाप उसे सुनता रहा था और उन सबके चले जाने के बाद देर तक हँसता ही रहा था। बहुत दिनों बाद मैं उतना हँसा था।
चौपड़ बाज़ार का जो दरवाज़ा कोर्ट की तरफ़ खुलता था, उसी दरवाजे पर एक किताबों की दुकान थी- नेशनल बुक डिपो। उस दुकान के अन्दर स्टोर की तरह का एक कमरा था, जिसमें लम्बे समय तक न बिकने वाला सामान पटक दिया जाता था। दिसम्बर 2004 में आई वह डायरी भी ज़िद्दी थी कि दो साल तक बिकी ही नहीं और उस कमरे में डाल दी गई। उसके नीचे साहित्य की कई किताबें पड़ी थी और कुछ महीने बीतते बीतते उसके ऊपर का बोझ भी बढ़ने लगा।
बहुत बड़ी घटनाएँ भी छोटी छोटी बित्ते भर की घटनाओं की साँसें लेकर जीती हैं। एक लड़की को अपने शोध के लिए किसी नए और न बिकने वाले लेखक की किताब की तलाश थी। उसने नेशनल बुक डिपो के गल्ले पर बैठे रामानुज पाण्डे को अपनी इच्छा बताई और पाण्डे जी ने अपने आदेश की प्रतीक्षा में खड़े दीपक को स्टोर में से कुछ उठाकर लाने के लिए भेज दिया। वह तीन-चार किताबें उठाकर लाया और उनके बीच में वह डायरी भी आ गई, जिसके कवर पर सुनहरे अक्षरों में 2004 लिखा था। लड़की ने कविताओं की एक किताब चुन ली और मुस्कुरा दी। इस मुस्कान पर फ़िदा होकर रामानुज पाण्डे ने 2004 वाली वह डायरी उस किताब के साथ मुफ़्त भेंट कर दी।
मेरी वे कविताएँ नीलाक्षी को बहुत पसन्द आईं। अपने थीसिस के लिए उसने बाद में कोई और किताब खोज ली और मेरी किताब उसके बिस्तर के पास मेज पर रखी रहने लगी, जिसे वह सोने से पहले एक बार जरूर पलटकर देख लेती। उसी किताब की कुछ कविताओं को उसने अपनी डायरी में नोट कर लिया और एक दिन उन्हीं में से कोई पन्ना फाड़कर अपने नाम से छपवाने के लिए मेरे पास ले आई। वह मुझे नहीं जानती थी। मैं भी उसे नहीं जानता था। डायरी, कविता को और कविता, डायरी को हल्का हल्का पहचानने लगी थी।
अँधेरे की कहानी – माँ की कहानी
बहुत दिनों से मैंने और माँ ने साथ साथ कोई फ़िल्म नहीं देखी है। मैं टीवी ऑन कर देता हूँ। माँ साथ में बुनाई का काम भी निपटा रही है।
कुछ देर से माँ ने एक बार भी टीवी की ओर नहीं देखा है। मुझे पता है कि माँ मुझसे कुछ कहना चाह रही है।
– नीलाक्षी अच्छी लड़की नहीं है।
माँ जैसे घोषणा कर देती है। मैं चुप रहता हूँ।
– हो भी सकती है…पर लगती नहीं मुझे।
वह अपनी बात सुधारकर बोलती है। माँ ने कभी नीलाक्षी को देखा नहीं है, माँ ने कभी फ़ोन पर भी उससे बात नहीं की है, लेकिन वह बार बार पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहती है। वह यह भी जानती है कि उसकी बात से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
बाहर अँधेरा है। मुझे नीलाक्षी की याद आती है। मेरा मन करता है कि मैं माँ के आरोप के विरोध में कुछ कहूँ लेकिन मैं कुछ नहीं कह पाता।
माँ फिर बोलती है- तेरे लायक नहीं है वो।
मैं उठकर बाहर चला जाता हूँ। आँगन में चमगादड़ घूम रहे हैं। वे कुछ बोलते हैं और लौटकर आती हुई आवाज़ से अन्दाज़ा लगाते हैं कि सामने कुछ है या नहीं। मेरा मन करता है कि मैं उनकी बातों के उत्तर में कुछ कहूँ। बिना सुने गए लगातार बोलते रहना कितना हताश कर देता होगा ना?
माँ अन्दर से आवाज़ लगाती है कि ब्रेक ख़त्म हो गया है। माँ मेरे साथ फ़िल्म देखना चाहती है लेकिन मेरा वहाँ जाने का मन नहीं करता।
नीलाक्षी और कविता को छोड़कर मैं और माँ दुनिया के हर मसले पर बात करते हैं और जब भी इन दोनों में से किसी पर बात की जाती है तो हम दोनों में से कोई एक जरूर नाराज़ होता है।
बाहर आसमान है, उसमें अँधेरा है, अँधेरे में चमगादड़ हैं, उनमें न सुना जाना है, उनमें हताशा है, हताशा में मैं हूँ, मुझमें माँ है, मुझमें नीलाक्षी भी है, मुझमें कविता भी है।
माँ में एक भयावह-सा खालीपन है। माँ आजकल दिनभर बुनती रहती है। माँ अकेली है।
किस्मत वाले हो तुम बुद्धू
– तुम सिख हो?
– तुम्हें नहीं पता?
मैं आँखें फाड़ फाड़कर उसे देख रहा था। हमारी पहली मुलाक़ात को तीन महीने होने को आए थे और मुझे उसका धर्म ही नहीं पता था। उसके बाद मेरे सामने रखी हुई कॉफ़ी ठंडी हो गई। उसके बाद शाम गहराने लगी। उसके बाद नैस्केफे की लाल छतरियों के नीचे बिछी कुर्सियों पर लोग घटने लगे। उसके बाद मेरा मोबाइल दो बार बजा। उसके बाद उसकी हेयरपिन खुल गई और उसके लम्बे बाल हवा में लहराते रहे। तब तक हम चुपचाप एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे।
मैंने फिर से पूछा- तुम सच में सरदार हो?
– हाँ जी हाँ।
उसके गालों में गड्ढे पड़ते थे। उसके गाल सेब की तरह लाल थे और चेहरे पर एक पवित्र-सी कोमलता थी। उसकी आँखों में चमक थी और लम्बे बालों में उमंग। मुझे पहली बार लगा कि उसकी शख्सियत में सब कुछ तो सरदारनियों जैसा था, फिर मुझे अब तक यह अहसास क्यों नहीं हुआ?
– बताया ही नहीं तुमने कभी…
– इसमें बताने का क्या था? तुमने कभी बताया कि तुम उल्लू हो?
वह मेरा हाथ पकड़ते हुए बोली। मैंने हाथ खींच लिया।
– नाराज़ हो गए?
मैंने मुँह बनाते हुए हाँ कह दिया।
– रात रात भर जागोगे तो उल्लू ही कहूँगी ना। कहाँ से सीखा है आधी रात के बाद सोना और फिर दस बजे जगना?
– माँ मत बनो तुम। दो-दो माँए नहीं चाहिए मुझे।
– किस्मत वाले हो तुम बुद्धू।
– दो माँओं की आदत पड़ जाएगी तो बाद में तकलीफ़ होगी।
– क्यों?
– तुम तो किसी पगड़ी वाले सुखविन्दर बलजिन्दर से शादी करोगी ना…
– मैं सिद्धार्थ से शादी करूंगी जो मेरी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा।
हमारी पहली मुलाकात को तीन महीने होने को आए थे। हमने साहित्य, सिनेमा और मोहब्बत के अलावा किसी विषय पर कभी बात भी नहीं की थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि उसे मीठा ज्यादा पसन्द है या नमकीन। उसके घर में कितने लोग हैं और उसका घर है कहाँ, यह भी मैं पूरे यकीन के साथ नहीं बता सकता था। मुझे उसकी राशि भी नहीं पता थी और जन्मदिन भी। लेकिन हाँ, मैं उससे प्यार करता था और बादलों के आसमान से काली हुई उस शाम में नीलाक्षी मुझे शादी का वचन भी दे चुकी थी।
एक बेढंगा सा आम लड़का, जिसे दाढ़ी बनाना बहुत ऊबाऊ काम लगता हो, उसे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?
तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?
मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूँ और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूँ। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
– सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं?
मैं मुस्कुरा देता हूँ। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूँ और बनाने लगता हूँ। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
– तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?
– मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है।
– कहानी कब सुनाओगे?
– तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
– चाय में लिखा है।
– अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ?
– नहीं, दूसरी की।
– मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ?
– नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं?
– तुम सवाल बहुत पूछती हो।
वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
मैं पूछता हूँ, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
– मुझे नहीं पता…
मैं जानता हूँ कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूँ। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूँ कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?”
मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूँ। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
– कंगूरे क्या होते हैं?
अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
मैं पूछता हूँ – तुम्हें तैरना आता है?
वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
मैं आखिर कह ही देता हूँ कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूँ। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूँ। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूँढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी…शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो। एक लड़की याद आती है, जो याद आते आते लौट जाती है।
वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं। उस पार मीठा अँधेरा है जो उसे कभी कभी तीखा लगता है। वह अपनी जुबान पर अँधेरे की हरी चरचरी मिर्च धर लेती है और जब उसे चबाती है तो हल्की हल्की सिसकारी भरती है। मैं उसे शक्कर कहता हूँ तो वह शक्कर होकर खिलखिलाने लगती है।
कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
मैं कहता हूँ कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है? मैं नहीं बताता।
फिर पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे बुरी लगती है? फिर वह कुछ पूछते पूछते भूल जाती है। फिर मैं कहता हूँ , “नीलाक्षी…….” और फिर कुछ नहीं कहता।
डर के आगे
मैं सात साल का हूँ। माँ ने मुझे पुजारियों के घर से दूध लाने को कहा है। वे मन्दिर में रहते हैं, शायद इसीलिए उनके घर को सब पुजारियों का घर कहते हैं। शिप्पी ने मुझे बताया है कि पुजारी भगवान नहीं होते। उसने उनके घर के एक बूढ़े को बीड़ी पीते देखा है और तब से उसकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई है। भगवान कौन होते हैं, यह पूछने पर वह उलझ जाती है और सोचने लगती है। शिप्पी मुझसे बड़ी है या बड़ी नहीं भी है तो भी उसे देखकर मुझे ऐसा ही लगता है। वह आधे गाल पर हाथ रखकर सोचती है तो मेरी नज़रों में और भी बड़ी हो जाती है।
मैं डोलू उठाकर चल देता हूँ। इस बर्तन को हाथ में लेते ही झुलाते डुलाते हुए चलने का मन करता है, शायद इसीलिए इसे डोलू कहते हैं। शिप्पी अपने घर की देहरी पर बैठी है। मुझे अकेले जाते देख वह भी मेरे साथ हो लेती है। वह वादा करती है कि अगर मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा तो लौटने के बाद वह मुझे बैट बॉल खेलना सिखाएगी। मैं कहता हूँ कि तब तक तो रात हो जाएगी और वह कहती है कि हाँ, अब दिन भी छोटे होने लगे हैं। मैं सिर उठाकर आसमान तक देखता हूँ मगर मुझे कहीं दिन का चेहरा या पेट या पैर नहीं दिखाई देते।
उसने नया फ्रॉक पहन रखा है, जो उसके घुटनों से थोड़ा ऊँचा है। मैं उसे कहता हूँ कि यह पुराना है, इसीलिए ऊँचा हो गया है। वह मेरे सामने पीठ करके खड़ी हो जाती है और पीछे चिपका हुआ स्टिकर दिखाकर बताती है कि यह उसने पहली बार पहना है। स्टिकर को छूने के प्रयास में उसके फ्रॉक का एक हुक खुल जाता है। अब वह चलती है तो एक कंधे पर फ्रॉक लटक सा जाता है। वह मुझसे आगे है। मैं उसे पकड़कर रोक लेता हूँ और बताता हूँ कि उसका एक हुक खुला है। वह बताती है कि उसे शर्म आ रही है। मुझे भला सा लगता है। वह मुझसे लम्बी है। उसका हुक लगाने के लिए मुझे तलवों के बल पर ऊँचा होना पड़ता है। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि पुजारियों के कुत्ते से मुझे बहुत डर लगता है। वह बताती है कि कुत्तों से कभी नज़र नहीं मिलानी चाहिए, नहीं तो वे गुस्सा हो जाते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि कुत्तों के आस पास कभी भागना नहीं चाहिए। यह मुझे माँ ने बताया था। माँ की याद आने पर मुझे लगता है कि हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, नहीं तो देर से लौटने पर माँ डाँटेगी।
रास्ते में सरकारी स्कूल के अन्दर से होकर जाना पड़ता है। स्कूल के सब कमरों पर ताले टँगे हैं, लेकिन एक कमरे का दरवाजा टूटा है, जिसमें से भीतर जाया जा सकता है। हम उधर से गुजरते हैं तो उस कमरे में कभी कभी आइस पाइस खेलते हैं। लेकिन आज जल्दी है, इसलिए हम सीधे निकल जाते हैं।
रामदेव जी का मन्दिर गाँव से बाहर है। उसके आस पास रेत के ऊँचे टीले शुरु हो जाते हैं, जिन पर लोटना और फिसलना मेरे और शिप्पी के प्रिय खेलों में से है। वह बाहर ही खड़ी रहती है। मैं जब घर के अन्दर से दूध लेकर आता हूँ तो वह ललचाई नज़रों से उन टीलों को देख रही है। मैं उसे बैट बॉल का वादा याद दिलाता हूँ तो वह थोड़ी सी उदास होकर मेरे साथ लौट चलती है। दिन इतने छोटे हैं कि हमारे लौटते लौटते धुंधलका होने लगा है।
स्कूल के अन्दर वाली राह सुनसान है। हम दोनों हाथ पकड़कर चल रहे हैं। तभी पीछे किसी के पैरों की आहट सुनाई देने लगती है। मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ। नहीं, पहले शिप्पी देखती है कि पुजारियों का लड़का अतुल हमारे पीछे आ रहा है। वह फुसफुसाकर मुझसे कहती है कि उसे इसका नाम नहीं पता, लेकिन यह अच्छा लड़का नहीं है। वह अचानक काँपने लगी है। मैं भी मुड़कर देखता हूँ कि वह सिगरेट के कश लगाता हुआ आ रहा है। मैं उसे रोज़ देखता हूँ, लेकिन आज मेरे मन में भी डर की एक लहर दौड़ जाती है। हम तेज तेज चलने लगते हैं और कुछ देर में लगभग दौड़ने लगते हैं। हम टूटे दरवाजे वाले कमरे के सामने हैं, जब वह हमारे सामने आ खड़ा होता है।
शिप्पी की उम्र आठ साल है। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उसने चौड़े घेरे का ऊँचा गुलाबी फ़्रॉक पहन रखा है। उसका हाथ मैंने कसकर पकड़ रखा है। अतुल हमसे पाँच-छ: साल बड़ा है। वह मेरे सिर पर हाथ फेरता है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेरे हाथ से शिप्पी का हाथ छुड़ा देता है। उसकी आँखों में आँसू आ गए हैं। वह बुरी तरह काँपने लगी है। मैं देख रहा हूँ कि वह उसे खींचकर टूटे हुए दरवाज़े से कमरे के अन्दर ले गया है। मैं डरकर भाग लेता हूँ और कुछ दूर जाकर फिर थमकर खड़ा हो जाता हूँ। मैं बार-बार भागता हूँ और फिर लौट आता हूँ। उस ठंडी शाम में मैं पसीने से भीगा हुआ हूँ। मुझे कुछ समझ नहीं आता। मेरा रोने का मन करता है, लेकिन डर के मारे मैं रो भी नहीं पाता।
मेरे बड़े होने के बाद टीवी पर एक विज्ञापन आता है- डर के आगे जीत है…
नहीं, डर के आगे जीत नहीं है। डर के आगे सरकारी स्कूल का एक कमरा है, जिसमें घुसते हुए अतुल का हाथ शिप्पी के ऊँचे फ्रॉक को और भी ऊँचा उठाता हुआ ऊपर तक चला जा रहा है। डर के आगे मेरा उस कमरे के बाहर अँधेरा होने तक खड़ा रहना और फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरकर जाते अतुल के बाद रोती बिलखती शिप्पी को देखते रहना है। डर के आगे घुप्प अँधेरा है, जिसके बाद मैं शिप्पी से कभी नहीं पूछता कि भगवान कौन होते हैं?
डर के चार घंटे आगे शिप्पी का बिना किसी से कुछ कहे अपने बिस्तर पर सो जाना है।
चौदह का लड़का
मैं चौदह साल का हूँ। चौदह का लड़का होना कुछ नहीं होने जैसा होता है। मैं लाख रोकता हूँ लेकिन ठुड्डी पर बेतरतीब बाल निकलने लगे हैं। मैं बाल कटवाने जाता हूँ तो नाई से दाढ़ी बनाने के लिए कहने में बहुत शर्म आती है। मैं हर बार यूँ ही लौट आता हूँ और बेतरतीबी अपने अंदाज़ से बढ़ती रहती है। मैं अब बच्चा नहीं हूँ और बड़े भी मुझे अपने साथ नहीं बैठने देते। कुछ साल पहले तक साथ की जिन लड़कियों के साथ गुत्थमगुत्था होकर कुश्ती लड़ा करता था, वे अब सहमी-सी रहती हैं और बचकर निकल जाती हैं। उन्हें बड़ी माना जाने लगा है, लेकिन चौदह के लड़के घर के सबसे उपेक्षित श्रेणी के सदस्य होते हैं, जिनके सिर पर सबका संदेह मंडराता रहता है। अब चड्डी पहनकर घर में घूमने पर माँ डाँट देती है। चौदह के लड़कों को लगता है कि नहाते हुए उनके चेहरे पर फूटने वाले मुँहासों जैसा ही कुछ है, जो उन्हें पता नहीं है और सबको लगता है कि उसके पता लगने के बाद वे बड़े हो गए हैं। उन्हें अवास्तविक और सम्मोहक से सपने दिखते हैं, जिन्हें वे कभी कभी सहन नहीं कर पाते। मैं हर सुबह अपने उन नशीले सपनों पर शर्मिन्दा होता हूँ और अपने आप ही उपेक्षा की लकीर पर थोड़ा और जमकर बैठ जाता हूँ।
दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। मुझे बताया नहीं जाता, लेकिन मुझे मालूम है। दीदी की शादी हो जाने के ख़याल से मुझे बहुत बुरा लगता है।
दीदी पूरियाँ तल रही है, दीदी दहीबड़े बना रही है, दीदी ने भौंहें बनवाई हैं, दीदी ने साड़ी पहनी है, दीदी रो रही है। दीदी जब अन्दर वाले कमरे से बर्तनों का नया सेट निकालने जाती है तो एक मिनट रुककर रो लेती है। दीदी पैन से अपनी हथेली पर कुछ लिखती है और फिर खुरचकर मिटा देती है। मैं पूछता हूँ कि क्यों रोती हो तो वह मुझे झिड़क देती है और तेजी से बाहर निकल जाती है। माँ मुझे डाँटती है कि वह औरतों का कमरा है, मुझे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मैं माँ की नहीं सुनता और वहीं अँधेरे में पड़ा रहता हूँ। माँ बड़ बड़ करती रहती है। फिर पुकार होती है कि बाज़ार से काजू लाने हैं, लेकिन मैं नहीं सुनता। बाहर गाड़ी आकर रुकती है। घर में भगदड़ मच जाती है। “अरे सिद्धार्थ, मेरी चुन्नी तो लाना”, माँ चिल्लाती है और मैं सोचता रहता हूँ कि दीदी क्यों रोती है?
माँ बाहर गई है और बाकी लड़कियाँ औरतें उसी अँधेरे कमरे में इकट्ठी हो गई हैं।
“गठीले बदन का है”, मौसी इस तरह कहती है कि दीदी की सब सहेलियाँ हँसने लगती हैं।
– क्या करता है?
– उससे क्या लेना?
फिर हँसी।
– हैंडसम है..
मेरी चचेरी बहन दीदी की बाँह पर चिकोटी काटती है। दीदी नहीं रोती। क्यों?
– नाम क्या है लड़के का?
कोई दरवाजे के बाहर से पूछता है।
– अतुल…..
और ऐसा होता है कि कमरे की दीवारों पर राख पुतने लगती है, मेरे सिवा सब गायब होने लगते हैं। छत तड़ तड़ तड़ाक टूटती है और गिरने लगती है। लेटे हुए मुझे चाँद दिखाई देता है, जिस पर बैठकर शिप्पी चरखा कातती हुई सुबक सुबक कर रो रही है। उसका सूत सपनों के रंग का है- मटमैला। मैं शिप्पी को पुकारता हूँ, लेकिन वह मुझसे बात नहीं करती। वह सूत पर लिखकर भेजती है-पूछती है कि मैं रात को कैसे सो जाता हूँ? मैं हाथ जोड़ता हूँ, पैर पड़ता हूँ, बाल नोचता हूँ, छाती पीटता हूँ और शिप्पी नहीं सुनती।
मोटरसाइकिल और इंतज़ार की कहानी
यह एक बहुत बड़बोला सा दिन है, अपनी ऊँचाई से ज्यादा बड़ा। धूप देखकर ऐसा लगता है, जैसे चार सूरज एक साथ निकले हों। पार्क की सीमाओं का अतिक्रमण करते एक पेड़ की छाया में मैंने मोटरसाइकिल खड़ी कर दी है और उस पर बैठकर नीलाक्षी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अब से पहले हम बिना एक दूसरे को मिलने का वक़्त दिए यहीं मिलते रहे हैं।
कुछ देर में मुझे लगने लगता है कि जैसे पूरी दुनिया मुझे इग्नोर कर रही है। झाड़ू लगाता हुआ जमादार मुझे वहाँ से हटने के लिए नहीं कहता। उसे असुविधा होती है, लेकिन वह चुपचाप मोटरसाइकिल के पहियों के नीचे दबे हुए पत्ते भी बुहार ले जाता है। मैं पास से गुजरती हुई एक औरत से समय पूछता हूँ और उसे नहीं सुनता। सड़क के उस पार लगे हुए होर्डिंग पर खड़ी हुई लिरिल वाली लड़की ने मेरी ओर से इस तरह मुँह फेर रखा है जैसे मुझे देखते ही होर्डिंग टूटकर गिर जाएगा। मैं जिस जगह खड़ा हूँ, वहाँ रोज एक चायवाला खड़ा होता है। कल वह अपनी इसी जगह के लिए एक कार वाले से झगड़ बैठा था, लेकिन आज उसने अपनी रेहड़ी मुझसे दूर हटकर लगा ली है। मैं नीलाक्षी को फ़ोन करता हूँ और मेरा फ़ोन उठाना जरूरी नहीं समझा जाता। उस बड़बोली दोपहर में मुझे लगने लगता है कि मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह ख़याल इतना तीखा है कि अकेला ही आत्महत्या करने पर मजबूर कर सकता है। मुझे जोरों से प्यास लगती है। मैं छटपटाने लगता हूँ। मैं माँ को फ़ोन करता हूँ कि वह मेरी कुछ कविताएँ ढूंढ़कर मुझे अभी सुनाए। मैं अपने अस्तित्व को महसूस करना चाहता हूँ। मुझे अपने होने को देखने के लिए कुछ चाहिए, लेकिन माँ चिढ़ जाती है और जल्दी घर आने को कहकर फ़ोन काट देती है। इन दिनों मेरी आवाज़ के फ़ोन काटना बहुत बार होता है।
मैं चाहता हूँ कि गुलमोहर के उस पेड़ का कोई पत्ता मुझ पर गिरे और इस प्रयास में मैं उसके नीचे टहलने लगता हूँ, लेकिन मुझे छुआ तक नहीं जाता। मुझे लगता है कि शायद मेरा नम्बर देखकर नीलाक्षी फ़ोन ना उठा रही हो। मैं कोई टेलीफ़ोन बूथ ढूँढ़ने के लिए चल देता हूँ और हड़बड़ी में भूल जाता हूँ कि दो हज़ार पाँच की उस हीरो होंडा पैशन मोटरसाइकिल में मैंने ‘एन’ के आकार के छल्ले में पिरोई हुई चाबी लगी छोड़ दी है। मैं भूल जाता हूँ….नहीं, मुझे आभास भी नहीं है कि सामने फोटोग्राफ़र की दुकान पर बैठा बेरोज़गार रणवीर सिर्फ़ ताश ही नहीं खेल रहा। मैं भूल जाता हूँ कि चाय की रेहड़ी वाला मुझे नहीं पहचानेगा और उसे कोई मोटरसाइकिल भी याद नहीं रहेगी। मैं भूल जाता हूँ कि सामने लिरिल से नहा रही निर्जीव लड़की, लड़की नहीं बाज़ार है। मैं भूल जाता हूँ कि जब पुलिसवाला पूछेगा तो मुझे अपनी बाइक का नम्बर भी याद नहीं होगा। मुझे मालूम नहीं है कि रणवीर के पास पैसे नहीं हैं और उसकी पत्नी मोटरसाइकिल लाने की ज़िद पर अड़ी है।
जैसे ही नीलाक्षी फ़ोन उठाती है, मैं केबिन के काँच में से देखता हूँ कि एक युवक, जिसके नाम रणवीर को मैं नहीं जानता, मेरी मोटरसाइकिल लेकर तेजी से जा रहा है। वह फ़ोन उठाकर भी कुछ नहीं बोलती। बोलती भी कैसे? जो नम्बर डायल हुआ है, वह नीलाक्षी का तो नहीं है। मैं भूल जाता हूँ कि आखिर में जो 765 है, वह 865 तो नहीं है ….या 378 तो नहीं है….या 475 तो नहीं है…
संख्याओं को याद न रख पाना मेरी पुरानी कमज़ोरी है और कोई नीलाक्षी भी है और उसको फ़ोन करना साँस लेने से भी ज़्यादा जरूरी है, रणवीर यह नहीं जानता। यदि जानता होता तो शायद सिर्फ़ मोटरसाइकिल लेकर जाता। हालांकि यह इन सब संभावनाओं को सोचने का वक़्त नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूँ।
मोटरसाइकिल का चोरी हो जाना एक आम-सी घटना है, लेकिन उस पर रखे सेलफ़ोन का और उसमें रखे नम्बरों का उसके साथ चोरी हो जाना इतना आम नहीं है कि बरसों बाद एक दोपहर रोटी का कौर तोड़ते हुए अचानक उसे याद कर रो न पड़ूं।
नाम की कहानी (संदर्भ के लिए)
– नीलप्रीत…..ए की नाम होया बई?
वह उसे छेड़ने के मूड में था लेकिन अपने नाम का मजाक उड़ाया जाना उसे भला नहीं लगा। वह खामोश रही।
– तू कोई होर प्यारा जा नां रख लै….
– तू ही रख दे।
वह तुनककर बोली तो उसने कुछ क्षण सोचा और फिर एक झटके में कह दिया- नीलाक्षी।
यूँ कि उस की पहली प्रेमिका का नाम नीलाक्षी था जो एम बी बी एस करने रूस चली गई थी और जिसका नाम उसकी कलाई से थोड़ा ऊपर न पर छोटी इ की मात्रा के साथ गुदा हुआ था। यूँ कि मेरी नीलाक्षी का नाम नीलप्रीत था और नीलप्रीत हँसते हँसते बनाना शेक पीते पीते नीलाक्षी हो गई थी। यह नेशनल बुक डिपो के पाण्डे जी से मुस्कान के बदले डायरी लेने से बहुत पहले की बात थी। लेकिन नीलप्रीत ने नीलाक्षी को हमेशा के लिए अपने माथे पर सजाकर रख लिया, जैसे उसने उसके दिए हुए बीसियों उपहार अपनी अलमारी में सजाकर रख लिए थे, जिनमें चॉकलेट के रैपर तक सँभालकर रखा जाना बहुत अचरज की बात थी।
यूँ कि जिस नाम से मैं उससे प्यार करता था, वह नाम भी किसी ने उसे गिफ़्ट में दिया था। लेकिन वह बताती थी कि जब वह चार दिन की थी और उसके बम्बईया बुआ और फूफा उसे देखने आए थे और उसके रंगीन फूफाजी ने नीले काँच के चश्मे के पीछे से उसे देखा था और उन्हें भ्रम हो गया था कि बच्ची की आँखें नीली हैं और उन्होंने घोषणा कर दी थी कि लड़की का नाम नीलाक्षी ही रखा जाएगा। फूफाजी जिस फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी में एक्टर कोऑर्डिनेटर थे, उसकी मालकिन का नाम नीलाक्षी था। तोम्स्क में मेडिकल पढ़ रही नीलाक्षी और बम्बई में फ़िल्म बना रही नीलाक्षी चाहे असल में हों या न हों, लेकिन अगर होंगी तो उन्हें प्रेम करने वाले लोग उनसे ही प्रेम करते होंगे, वन्दना या दीपशिखा से नहीं।
मैं किसी और के तोहफ़े में दिए हुए नाम की, किसी और की नीलाक्षी से प्रेम करता था।
भूल जाने वाली लड़कियाँ
वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे शताब्दी एक्सप्रेस के वातानुकूलित डिब्बों से चोरी चोरी झाँकते पानी में डूबी धान के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’‘के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में अतीत के धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी।
वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
दीदी आ गई थी। मेरी पाँच साल की भांजी दिनभर कहती फिरती थी कि उसकी मम्मी छोड़ दी गई है और इसी एक बात पर माँ उसे दस बार पीटती थी। वह कुछ देर रोती और फिर आँसू पोंछकर खेलने लगती और कुछ देर बाद कागज के गत्तों से अपनी गुड़िया का घर बनाती। सब कुछ भूलकर नानी को बुलाकर अपना घर दिखाती, माँ तारीफ़ करती, उसे पुचकारती और वह उस गुड़ियाघर का दरवाज़ा खटखटाते हुए अनजाने में यही बड़बड़ाने लगती। माँ की आँखों में प्याज कटने जैसे आँसू आ जाते और वह फिर से उस अबोध बच्ची को एक चाँटा लगा देती। डाँट-फटकार, चीख-पुकार और मान-मनौवल का यह सिलसिला घर में सारा दिन चलता।
कुछ दिन तक दीदी भी अचानक किसी भी बात पर रोना शुरु कर देती और फिर घंटों तकिए में मुँह छिपाए पड़ी रहती। लेकिन यह सब धीरे धीरे कम होने लगा। दीदी आस-पड़ोस में जाने लगी। फिर धीरे धीरे शादी से पहले के उन्हीं पुराने किस्सों में रस लेने लगी। एक दिन मैंने दीदी को हँस-हँस कर किसी पड़ोसन को यह बताते सुना कि शारदा को आए दो महीने हो गए हैं, लेकिन उसकी ससुराल वाले उसे लेने ही नहीं आ रहे। दीदी को आए छ: महीने हो गए थे और दीदी सचमुच हँसती थी।
मेरा बचपन का दोस्त संदीप मुझे अब भी ख़त लिखता है। वह मनोवैज्ञानिक बन गया है और कभी कभी बिना प्रसंग के यूँ ही बेसिरपैर की बातें लिखता रहता है। इस बार की चिट्ठी में उसने लिखा है कि लड़कियों के दिमाग में एक मीमक नाम का द्रव होता है, जिससे वे जल्दी भूल जाती हैं।
जैसे मैं ट्रेन में बैठा हूँ। मेरे पास की दो सीटों पर दो लड़कियाँ बैठी हैं। वक़्त काटने के लिए वे बात करने लगती हैं। एक बताती है कि वह जे एन यू से मास कॉम पढ़ रही है। दूसरी बताती है कि वह सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है। फिर वे दोनों चूड़ीदार और पटियाला सलवार पर चर्चा करने लगती हैं। फिर दूसरी पहली को बताती है कि इंटरनेट पर एक ऑर्कुट नाम की साइट है जिसमें दोस्त बनाए जा सकते हैं, पुराने दोस्तों को ढूँढ़ा जा सकता है और फिर वह तुरुप के पत्ते की तरह भेद खोलने वाले स्वर में कहती है कि उसमें दूसरों की बातें भी पढ़ी जा सकती हैं। दूसरी कहती है कि वह भी जॉइन करेगी। फिर ट्रेन रुकती है और दोनों उतरकर अपने अपने घर चली जाती हैं। शाम होते होते दोनों एक दूसरे को भूल जाती हैं, ऐसे कि कुछ महीने बाद पहली लड़की जब एक न्यूज़ चैनल पर समाचार पढ़ रही है और दूसरी लड़की टीवी चलाकर मैगी खाते खाते ऑफ़िस के लिए तैयार हो रही है तो सब कुछ सामान्य है, कहीं कोई सुखद आश्चर्य नहीं, और मैं दोनों को कभी नहीं भूल पाता।
जैसे नीलाक्षी किसी बात पर बहुत खुश है। मैं नैस्केफ़े की एक लाल छतरी के नीचे उसके सामने बैठकर उसकी आँखों में झाँक रहा हूँ। मेज पर उसकी उंगलियाँ ‘हमको हमीं से चुरा लो’ की धुन में थिरक रही हैं। मैं उससे प्यार करता हूँ और आज उसका मन अपनी चंचलता के चरम पर है। उसका किसी से हँसी ठट्ठा करने का मन है। उसका मन है कि वह कुछ अटपटा कहे, जो कहने से पहले उसे भी पता न हो। उसका बहुत मन है कि आज वह किसी से एक औचक-सा झूठा वादा जरूर करे और ऐसे में मैं उसे मंच देता हूँ। वह अचानक कहती है कि वह सिद्धार्थ से शादी करेगी, जो उसकी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा और अगले क्षण के बिल्कुल पहले ही वह भूल जाती है कि उसने क्या कहा है, जैसे वह भूल चुकी है कि दसवीं बारहवीं की मार्कशीट में उसका नाम नीलप्रीत था और बचपन में उसे सब शिप्पी कहकर पुकारते थे। हमारी पूरी पीढ़ी ही ऐसी है जो अपने गँवई बचपन की यादों को किसी गीले कपड़े से साफ करके उस पर लाल पीले रंग से केलिफ़ोर्निया और लन्दन लिख देना चाहती है या कम से कम मुम्बई ही। नवी मुम्बई।
माँ को रह-रहकर जाने क्या याद आता है कि वह नीलाक्षी से मिले बिना ही मुझसे बार बार मौके-बेमौके कहती रहती है कि वह अच्छी लड़की नहीं है।
टोटे टोटे (टुकड़े टुकड़े)
– इसका क्या अर्थ होता है कि कोई अपने पीएचडी थीसिस के छठे पन्ने पर लिख दे- अंग्रेज़ी के पहले अक्षर ‘A’ को समर्पित?
चायवाला चुप खड़ा रहा। मैं उस टेलीफ़ोन वाले केबिन से दौड़कर आया था और चीखने चिल्लाने, शोर मचाने या अपनी मोटर साइकिल के पीछे दौड़ते रहने की बजाय मैंने चायवाले से यही पूछा था। वह अचकचाकर मुझे देखने लगा था, लेकिन चुप। उसके बाद मैंने अपने मोबाइल के लिए जेबें टटोली थीं और वह रणवीर की शर्ट की बायीं जेब में था, इसलिए मुझे नहीं मिला और मैं पार्क की रेलिंग के सहारे ढह गया था।
उससे पहली शाम तक मुझ पर पंजाबी सीखने का जुनून सवार था। सब अख़बार हटवाकर मैंने घर में जगबाणी लगवा लिया था, जिसे न मैं पढ़ पाता था और न ही घर में कोई और। मैं लाइब्रेरी में जाकर सिर्फ़ पंजाबी की किताबें ढूँढ़ता, जो गिनती में बीस से ज्यादा नहीं होती। मैं उन्हें खोलकर बैठा रहता था और अक्षरों को चित्रों की तरह देखता रहता था। मुझे उस 2004 वाली डायरी में पंजाबी में लिखा पढ़ना था।
जहाँ उन किताबों की शेल्फ़ थी, वहाँ अमूमन कोई नहीं आता था। मैं भी वहाँ जाता था या ऐसा मुझे सिर्फ़ लगता ही था, मैं पक्के तौर पर नहीं बता सकता।
उस शाम भी मैं ऐसे कोने में बैठा था, जहाँ बिल्कुल मेरे सामने आए बिना मुझे नहीं देखा जा सकता था, लेकिन मैं पूरे हॉल को देख सकता था। और मैंने देखा कि उस कोने में, जहाँ उसके सिर को ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ लगभग छू ही रही थी, नीलाक्षी बेसुध हुई जा रही थी। वह और अतुल इस तरह साथ थे कि उन्हें अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता था। उनके होने में एक दूसरे के पृथक अस्तित्व को पी जाने, निगल जाने की बेचैनी थी। वह हवा जितनी हथेली हिलाकर उसके पार की हवा को महसूस कर सकती थी। उनके बीच नामों की अदलाबदली थी, बदलने के दौरान की दरमियान की शरारतें थीं, अपना हिस्सा पहले लेने की ज़िद थी, अपने चेहरे पर गिरी लट हटाने का उन्मादी आलस था, हटा देने का बेचैन आग्रह था, होठों के दुस्साहस पर रूठ कर उन्हीं में छिप जाना था, फिर से गलती करके मना लेने का आत्मविश्वास था, उस की काँपती हुई गर्दन पर वही निठल्ला सा तिल था, डेढ़ सौ साल पुरानी वही लाइब्रेरी थी, अतुल था और नीलाक्षी थी जो उसके लिए बार-बार नीलप्रीत हो जाती थी और वह उसे नीलाक्षी कर देता था।
मैंने देखा कि मैं दूध लेकर डोलू हिलाते हुए आ रहा हूँ और जैसे ही मैं पुजारियों के घर से बाहर निकलता हूँ, मेरे साथ चलने से पहले शिप्पी हवा में अपना दायां हाथ उठा देती है और उसके हाथ के लाख के कंगन बजते हैं। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं।
नहीं, शिप्पी की उम्र आठ साल है या आठ नहीं तो दस होगी…या ग्यारह। वह किसी को इशारा नहीं कर सकती। उसे मालूम भी नहीं होगा कि किसी को बुलाने के लिए बिना आवाज़ लगाए भी कुछ किया जा सकता है। वह दिनभर कंचे खेलती रही थी, इससे उसका हाथ दर्द करने लगा होगा और इसीलिए उसने हाथ ऊपर उठाया होगा। लेकिन अतुल पीछे क्यों आ रहा है? शिप्पी नहीं, मैं उसे पहले देखता हूँ और डर सा जाता हूँ। शिप्पी की उम्र ग्यारह है और मेरी सात। शिप्पी ने चौड़े घेरे का ऊँचा फ्रॉक पहन रखा है। आज शाम से ही ठंडी पछुआ हवा चल रही है। मुझे लगता है कि वह डरकर काँप रही है।
उसकी आँखों में रेत गिर गई है और वह हाथ से आँखें मल रही है। मेरी आँखों में डर के आँसू हैं और उनके पार मुझे पूरी दुनिया में आँसू दिखाई देते हैं, शिप्पी की आँखों में भी।
मैं पक्का नहीं कह सकता कि उसे देखने के बाद शिप्पी ने मेरे कान में कुछ कहा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि जब वह उसे टूटे दरवाज़े वाले कमरे में ले जा रहा था तो मैंने उसे रोते देखा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि आधे घंटे बाद जब अतुल उस कमरे से बाहर निकला तो मैं बाहर खड़ा था और उसने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि मैंने ज़मीन पर पड़ी हुई शिप्पी को रोते देखा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि चार घंटे तक मैं उसे चुप करवाने के लिए अपनी शर्ट भिगोता रहा था। मुझे कुछ याद नहीं है और मैं कुछ याद कर सकने की स्थिति में भी नहीं हूँ। अपनी लड़कियों जैसी खराब याददाश्त और सच को बताने की हिम्मत न जुटा पाने के लिए मैं हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता हूँ।
लेकिन मैंने साफ साफ देखा है कि चाँद खाली है। वहाँ किसी को फ़ुर्सत नहीं कि चरखा काते और मटमैले सूत पर कुछ लिखकर भेजे। जो चाँद को पढ़ना चाहते हैं, उन्हें उसकी शाश्वत शीतलता जला डालती है।
मैंने देखा कि सामने नीलाक्षी अकेली आराम से बैठकर शरतचन्द्र का ‘देवदास’ पढ़ रही है और मैं गुस्से से उठकर उसके पास जाता हूँ और उस एकांत को भेदती हुई, लजाती हुई, मार डालती हुई गालियाँ बकने लगता हूँ। मैं नाखूनों से उसका चेहरा नोचने लगता हूँ और वह मुझसे बचती भी नहीं, पत्थर की तरह स्थिर बैठी रहती है। मैंने देखा कि लहूलुहान नीलाक्षी अपनी सफाई में या बचाव में कुछ भी नहीं कहती और कुछ देर बाद दिखती भी नहीं।
उसके बाद मैंने कभी नीलाक्षी को नहीं देखा। पक्का नहीं कह सकता कि उस शाम भी देखा था या नहीं। मैं रात तक वहीं ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ और ‘देवदास’ के बीच गुमसुम बैठा रहा था।
मैं उससे प्रेम करता था। मैं दोहराता हूँ कि मैं उससे प्रेम करता था, लेकिन मुझे उसका घर नहीं मालूम था, उसके घरवालों का नहीं पता था। उसका दस अंकों का फ़ोन नम्बर ही मेरे लिए उस तक पहुँचने का इकलौता ज़रिया था और अगले दिन वह नम्बर मेरी मोटरसाइकिल के साथ चोरी हो गया था।
बिना किसी प्रसंग के एक बार फिर संदीप ने यूँ ही लिख दिया कि सब क्रिएटिव लोग मानसिक तौर पर कुछ असामान्य होते हैं। मैं अब उसकी चिट्ठियाँ नहीं पढ़ता। वह फ़ोन करता है तो मैं बात नहीं करता।
पल्प फ़िक्शन
तुमने सुना क्या? दरवाज़े के उस पार की दुनिया में दीदी अपनी दो सहेलियों से फुसफुसाकर बातें कर रही है। वह शादी के बाद पहली बार तीन दिन के लिए आई है। वह इतनी ख़ुश है कि तुम्हें देखती है तो ऐसे, जैसे भूल ही गई है। जैसे वे सब शामें, जब तुम दोनों बेसिरपैर के शब्द बोलते हुए हँसा करते थे – एक लड़का रोज़ हमारे घर के सामने से गुज़रता था और गर्दन घुमाकर अन्दर ज़रूर देखता था। हमने उसका नामकरण किया था, ‘टेढ़ी गर्दन वाला’ और फिर इसे ‘गर्दन टेढ़ी वाला’ बनाने से इसकी शॉर्ट फ़ॉर्म GTV हो गई थी। हम हँसते थे और एक दूसरे को मारकर भागते थे, पकड़ते थे, थककर चूर हो जाते थे और एक थाली में खाना खाते थे। – जैसे वे सब शामें बचपने का एक मज़ाक भर थीं और उन्हें भूल जाना ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी है। वह तुमसे कोई ख़ास बात नहीं करती। तुम्हें उसकी बदली हुई दुनिया जाननी है तो तुम्हें दरवाज़ों की ओट में खड़े होकर उसकी बातें सुननी ही होंगी। तुम्हारे पास और कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं गया। तुम चौदह साल के मासूम से लड़के हो, अपनी मासूमियत से आजिज और जून की गर्मी में पसीने से भीगे हुए छिपकर खड़े हो।
– तू तो मेरी जान, एक हफ़्ते में ही गुलाब सी खिल गई है।
यह रश्मि की आवाज़ है। दीदी हँसती है। दीदी की हँसी में इन दिनों एक नया रस घुल गया है, जिसने उसकी हँसी की चाशनी को गाढ़ा कर दिया है। इसमें दुख की कोई बात नहीं है। मैं आपको बताऊँ कि दुख की कोई बात नहीं होती, दुख होता है सिर्फ़, जिसमें डूब जाना होता है। वह ऐसे आता है जैसे आप सड़क पर नंगे खड़े हैं, बरसात होने लगी है और आपका कोई घर नहीं है।
– वे फौलाद हैं जैसे… – दीदी धीरे धीरे कह रही है – मैं बेहिसाब प्यार करने लगी हूँ उनसे।
– और तेरा वो मधुसूदन?
दीदी चुप हुई है। मुझे लगता है कि वह रो देगी। मधुसूदन उसे चिट्ठियाँ देता था और मिलने के लिए बेकरार रहता था। वह कॉलेज के गेट पर खड़ा होकर उसकी राह देखता था और उसकी शादी तय होने के बाद से उदास रहने लगा था। उस नौजवान हँसमुख लड़के को मैंने दीदी के पैरों में पड़कर रोते भी देखा था। लड़के जब अपना सारा आत्मसम्मान भुलाकर लड़कियों के सामने रोते हैं तो उन्हें बचाकर किसी सुन्दर दुनिया में ले जाने का मन करता है। वे लड़के, जो बहुत से बेहतर काम कर सकते हैं, प्यार कर बैठते हैं और ख़त्म हो जाते हैं।
– अरे कैसा मधुसूदन? पागल थी मैं भी जो सोचती थी कि उसके बिना कैसे जी पाऊँगी? बेवकूफ़ हो जाते हैं हम कच्ची उम्र के प्यार में।
– वो कॉलेज छोड़ गया है।
– मैं अपने अतुल के बारे में बता रही थी और तुम लोगों ने बात ही बदल दी।
– हाँ हाँ, बता ना। हम तो एक हफ़्ते से इंतज़ार कर रहे हैं। फ़ोन पर भी तू कुछ नहीं बताती थी। हँसती रहती थी बस।
हाँ, वह हँसती रहती थी उन दिनों और मैं उसे ऐसे देखता था जैसे किसी संकरी अँधेरी सुरंग में बैठकर रोशनी का सपना देखता हूँ। अचानक उसकी दुनिया बदल गई थी। वह अमीर और ख़ुश हो गई थी। उस दिन से मैं यह तय तौर पर मानता रहा हूँ कि प्यार जो भी है (है भी या नहीं?), वह एक तरह की आत्महत्या है, एक किस्म का धीमा ज़हर और वह अनुभव जो दीदी ने नया नया भोगा था, पल्स पोलियो की दवा की बूँदों की तरह मृत्यु के विरुद्ध हमारे सतत संघर्ष में ‘ज़िन्दगी’ है।
दीदी ने बताया- हमारा जो कमरा है, इतना बड़ा है कि स्कूल के किसी क्लासरूम जैसा लगता है। बड़े रोमांटिक हैं अतुल। जानती हो…पहली रात मुझे बोले कि तुम स्कर्ट पहनोगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। मैं और स्कर्ट भला? यहाँ पहनती तो मार डालते पापा। छठी के बाद कभी नहीं पहनी। लेकिन उन्होंने मेरे लिए तीन चार स्कर्ट खरीदकर रखी थी। छोटी छोटी। – हँसी का एक गुब्बारा मेरे कानों को हल्के से छूता है – वैसे वे कहते हैं कि जब वे अकेले थे…मतलब शादी से पहले मेरे बिना…तो फ़्रॉक वाली लड़कियाँ उनकी फेंटेसी थी। उन्होंने कहा है कि स्कर्ट से ऊब जाएँगे तो फ़्रॉक पे आएँगे। इतने क्रिएटिव हैं…और ये है प्यार शालू, जो ख़ुशी ही ख़ुशी देता है। कभी ख़त्म न होने वाला सुख। मधु अपनी ज़गह ठीक होगा लेकिन अब मुझे समझ में आया है कि अपने आप को जलाते रहना, मारते रहना कहाँ की समझदारी है?….हाँ, पूरी बात तो सुनो। फिर उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ बाहर चलूँ। दूसरी मंजिल पर है हमारा कमरा और बाहर भी कोई नहीं था लेकिन इस तरह स्कूल की लड़कियों जैसी स्कर्ट में नई दुल्हन मैं कैसे बाहर जाती भला? लेकिन वे मुझे खींच कर ले गए..ज़बर्दस्ती अपनी बाँहों में उठाकर…तुमने तो देखा ही है कितने तगड़े हैं अतुल! मुझ जैसी तो दो लड़कियों को एक साथ उठा सकते हैं। पहले मैं सोचती थी कि यह जो सलमान ख़ान है, किसी कैमरा ट्रिक से ऐसा दिखता है…सच्ची मैं ऐसा ही सोचती थी लेकिन पहली बार मैंने किसी आदमी को इतने क़रीब से देखा और वो भी अतुल को। उन्होंने जब फूल की तरह मुझे उठा रखा था तो मेरा चेहरा उनके कन्धे के पास था…और मैंने उनकी बाँह में उभरी हुई मछलियों पर काट लिया। उन्होंने मेरे कान पर इतनी ज़ोर से काटा कि क्या बताऊँ…देख रश्मि..निशान होगा अब भी इस कान पर। – दीदी रुकी। रश्मि ने शायद देखा हो। मैं गर्मी में बेहाल हो रहा था। पंखा चलाता तो उन लोगों को पता चल जाता कि दूसरे कमरे में कोई है। – फिर उन्होंने कहा कि हम रोल प्ले करेंग़े…
दीदी चुप हो गई।
– अब ये रोल प्ले कौनसा खेल है दुल्हनिया जी?
शालू का स्वर बहुत अधीर था। सच कहूँ तो मैं भाग जाना चाहता था। सुहागरात के किस्से जानने के लिए बाज़ार में बीस रुपए में तीन किताबें आ जाती थीं और उसके लिए मुझे छिपकर अपनी बहन की कहानी सुनने की कोई ज़रूरत नहीं थी, लेकिन मैं भाग भी नहीं पाया। जो लोग शरीर को निकृष्ट मानते हैं और दुनियावी प्रेम को पतित, दरअसल वे संसार से आँख मूँदकर भागे हुए लोग हैं। वे उस गहरे अँधेरे गड्ढ़े को नहीं देखना चाहते जिसमें दिन रात जीवन का व्यापार चलता है और लोग एक दूसरे की पत्नियों के साथ सोते हैं। अपने बच्चों को सुलाकर उन्हीं के पास लेटे हुए सीडी प्लेयर पर ब्लू फ़िल्में देखते हैं। औरतें अपने बेटों की उम्र के लड़कों का सान्निध्य पाने के लिए उनके सामने अश्लील बातें फुसफुसाती हैं, शराब पीती हैं, अपनी महंगी गाड़ियों में घुमाती हैं और कामुक लाड से उन्हें छाती में भींच लेती हैं। पन्द्रह सौ रुपए और डिप्लोमेट की एक बोतल में अठारह अठारह साल के लड़के किसी की भी हत्या करने को तैयार बैठे हैं। ज़िन्दगी एक पल्प फ़िक्शन ही है, फुटपाथ पर बिकने वाला सस्ता साहित्य।
– रोल प्ले माने एक तरह का नाटक, जिसमें दोनों लोग कुछ देर के लिए कुछ और होने का नाटक करते हैं, जो वे नहीं हैं।
– ऐसा क्यों भला और क्या बने तुम दोनों?
– बहुत मज़ा आता है उसमें। आपके दिल में जो भी बात दबी हो, वो कह सकते हो…जो करना हो, कर सकते हो…
– अरे वाह! और क्या बनी तू?
– उन्होंने कहा कि मैं छोटी बच्ची बनूँ, स्कूल जाने वाली और सब बातों से अनजान।
– और तेरे वे?
– वे वे ही रहे।
– और फिर?
शालू और रश्मि आगे की कहानी सुनने के लिए पागल हुई जा रही थी। मैं आगे नहीं सुन पाया और बाहर आ गया।
बचपन में एक सुबह मैं और शिप्पी खेलने के लिए निकले थे। अगले दिन शिप्पी का परिवार हमेशा के लिए गाँव छोड़कर चला जाने वाला था। वह बहुत ख़ुश लग रही थी। बेरी के उस झाड़ के पास, जहाँ हम अक्सर बेर तोड़ने जाते थे, वह अचानक रुककर रोने लगी थी।
– क्या हुआ?
मैंने घबराकर पूछा था। उसने रोते रोते ही गर्दन हिलाकर मुझे अपने पास बुलाया। मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। उसने मेरा हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिया।
– मेरी कसम खा कि तू उस दिन की बात कभी किसी से नहीं कहेगा। मुझसे भी नहीं। हम हमेशा के लिए वह दिन भूल जाएँगे।
लड़कियाँ बहुत कम उम्र में समझदार हो जाती हैं। मैं हैरान-सा उसके सिर पर हाथ रखकर खड़ा रहा और मुझे बोलने के लिए कोई बात न सूझी। फिर वह रोते रोते ही मेरे गले लग गई और देर तक सुबकती रही। जब हम वहाँ से चले, बिना बेर तोड़े, तो वह सचमुच सब कुछ भूल चुकी थी, कुछ देर पहले का अपना रोना भी। हमने एक भैंस की पीठ पर एक के ऊपर एक, दो कौए बैठे हुए देखे और वह खिलखिलाकर हँसी। उसके इस भूल जाने से मैं डर भी गया था। इस तरह तो वह किसी दिन मुझे भी भूल सकती थी। इस तरह तो किसी दिन बाज़ार में माँ मुझे भूलकर आ सकती थी और फिर लता का कोई गीत गुनगुनाते हुए आराम से आलू मटर बना सकती थी। उन दिनों मुझे माँ के बिना कहीं भी अकेला छूट जाने के ख़याल से ही बहुत भय लगता था और अपने बचपन में मैं बार बार अकेला छूटा। किसी दिन माँ ताला लगाकर बाहर चली जाती थी और मुझे अन्दर ही छोड़ जाती थी। मुझे लगता था कि वह मुझे भूल गई है। मैं बदहवास सा होकर घर में इधर उधर दौड़ता था, अपने छोटे छोटे हाथों से दरवाज़ा तोड़ देने की कोशिश करता था, किसी तरह दीवार पर चढ़कर उस पार कूद जाने की सोचता था और आख़िर में हारकर रोने लगता था। उसके लौटकर आने तक मैं थककर सो चुका होता था और वह सोचती होगी कि मैं पूरे समय सोता ही रहा हूँ। वह स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरती थी और मेरा मन करता था कि मैं किसी तरह उसके गर्भ में फिर से चला जाऊँ, ताकि वह मुझे छोड़कर कहीं न जा सके।
जिन स्त्रियों को मैंने अपना संसार माना, वे मुझे अक्सर भूल जाती रहीं।
उसने कहा था…
उसने कहा था – तुम इस तरह लगातार आसमान को मत देखा करो…
मैंने कहा था – क्यों?
उसने कहा था – वह तुमसे आँखें नहीं मिला पाता होगा।
मैंने कहा था – उसका हुक ढीला थोड़े ही है…जो पलकें झुका लेगा तो खुलकर गिर जाएगा…
उसने कहा था – तुम्हारी आँखों में कुछ है..
मैंने कहा था – क्या?
उसने कहा था – कुछ है कि तुम्हें देख कर बेचैनी होती है…
मैंने कहा था – झूठ मत बोलो।
उसने कहा था – मैं तुमसे कभी झूठ नहीं बोलती…
मैंने कहा था – मैं जानता हूँ मगर कितने भी सुन्दर साल बीत जाएँ और बीच में कितने भी आधुनिक महानगर हमारे घर बनें, मगर तुम वह स्पर्श कैसे भूल सकती हो नीलाक्षी? माना कि भूल जाना ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी है पर जब वह तुम्हें छूता है तो डर नहीं लगता तुम्हें? घिन नहीं आती ज़रा भी? क्या वह एक चेहरा इतने बरसों से अक्सर तुम्हारे सपनों में आकर डराता नहीं रहा था?
वह चुप है। दरअसल वह है ही नहीं और इसी तरह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। मेरी कविताओं की पंक्तियों में डॉट बढ़ते जा रहे हैं और उनके शीर्षकों के अंत में प्रश्नचिह्न। सर्दियाँ आ गई हैं, लेकिन माँ ने बुनना छोड़ दिया है। दीदी अपनी ससुराल लौट गई है। माँ अब खिली-खिली-सी रहती है। मेरी ज़्यादा फ़िक्र करने लगी है। सुबह शाम मेरी पसंद का ही खाना बनाती है। मैं नहीं खाता तो उसने भी करेला खाना छोड़ दिया है। पिछले हफ़्ते माँ ने पहली बार मेरी किसी कविता की प्रशंसा की थी। आजकल वह मेरी कविताएँ पढ़ती है और उन पर बातें भी करती है। मेरा नाम होने लगा है। देश के हर कोने में ऐसे लोग हैं जो मुझे जानते हैं और मेरे लिखे की प्रशंसा करते हैं। माँ में अचानक एक नई ऊर्जा आ गई है। घर के सब गद्दे लिहाफ़ वह फिर से भरवा रही है। रोज बाज़ार जाती है और घर को सजाने के लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है।
– संदीप का लेटर आया है।
माँ बाहर से चिल्लाकर कहती है और मैं अनसुना कर देता हूँ।
माँ ख़त लेकर अन्दर आ गई है और उसने फाड़कर ख़त खोल लिया है। मैं माँ से कहना चाहता हूँ कि दूसरों की चिट्ठियाँ नहीं पढ़नी चाहिए लेकिन नहीं कहता। माँ कुछ पढ़कर मुस्कुराती है और सोचती है कि मैं उससे पूछूंगा कि क्यों मुस्कुरा रही हो, लेकिन मैं नहीं पूछता।
रात हो गई है। मैं नए भरे लिहाफ़ में माँ के साथ बैठा हूँ। अँधेरे में रहने वाली माँ अब कमरे में अँधेरा नहीं रहने देती। मैं मुँह ढककर लेट जाता हूँ। माँ ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया है। माँ कहती है कि अब मुझे कुछ काम-धाम करने की सोचनी चाहिए और नीलाक्षी को भूल जाना चाहिए। अचानक एक पल के लिए मुझे लगता है कि नीलाक्षी कभी थी ही नहीं।
मैं ठहरे से स्वर में कहता हूँ – मेरे पास नीलाक्षी की कोई तस्वीर भी नहीं है माँ….कि ढूँढ़ सकूं उसे।
माँ नहीं बताती कि उसके पास शिप्पी की एक तस्वीर है।
एक सौ अस्सी रुपए में मुझे अपना पहले वाला सेल नम्बर वापस मिल गया है। सुबह मैं अपने मोबाइल से पापा को एस एम एस करना सिखा रहा हूँ। तभी मोबाइल बजता है। मोबाइल पापा के हाथ में है और वे नहीं जानते कि उन्होंने मैसेज डिलीट करने वाला बटन दबा दिया है। उस आधे सेकण्ड के अंतराल में मुझे मैसेज में कहीं NEEL दिखाई देता है। मैं जब तक पापा के हाथ से फ़ोन लेता हूँ, वह मैसेज डिलीट हो चुका है।
मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ जाता हूँ। पापा हकबकाकर मुझे देखते रहते हैं। वे नहीं जानते कि क्या हुआ है।
अन्दर से माँ कहती है – कल से पछुआ चल रही है….और इस साल जितनी सर्दी तो कभी नहीं पड़ी।
मैं टुकुर टुकुर आसमान को देखता रहता हूँ।
पुनश्च:- यूँ एकटक आसमान को देखते रहना हताशा भरा-सा लगता है लेकिन विश्वास कीजिए, यह उम्मीदों भरा अंत है। ऐसा सोचने की कोई वज़ह नहीं है कि वह फिर से मैसेज नहीं करेगी। वह लौट आई है। वह अकेली है और उसे मेरी ज़रूरत होगी। फिर से ऐसे दिन आएँगे, जब हम भोली भाली प्यार भरी बातें करेंगे और बच्चों की ज़ुबान में हँसेंगे। जब हम एक दूसरे के शरीर को चोरी छिपे कौतुक से निहारेंगे और फिर पा लेंगे। इसके कुछ महीनों बाद फिर कोई और बीच में आएगा, नए नाम का कोई पुरुष – आप जानते ही हैं कि आकर्षक लड़कियों पर वे सब कैसे कुत्तों की तरह झपटते हैं – और हम झगड़ेंगे या बिना झगड़े ही बिछुड़ जाएँगे। फिर महीनों तक एक दूसरे को कोसेंगे और जब फिर से अकेले होंगे तो आ मिलेंगे। ऐसा बार बार हुआ है और ऐसा बार बार होगा। इस पूरी प्रक्रिया में मुझे बेचैन होकर लम्बी असहाय रातों में जागना है और अपने जैसे कुछ और लोगों के साथ दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से नष्ट होते जाना है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि ज़िन्दगी एक पल्प फ़िक्शन है और जो भी इसे उच्च आदर्शों वाले साहित्य में बदलने की कोशिश करेगा, उसे चारों तरफ से घेरकर मार डाला जाएगा। हमें ज़िन्दा रहना है इसलिए हम कोशिश करेंगे कि अश्लील चुटकुलों पर हँसते रहें और अपने हिस्से की रोटी खाकर चुपचाप सो जाएँ।
hmmm……………gret job gaurav ji….u write really well…….keep it up..!!!!!!
मैंने इस कहानी का एक हिस्सा पहले कहीं पढ़ा है शायद …!
‘ तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?’ शीर्षक से. और तब इसे पढ़कर एक कविता पढ़ने का अहसास हुआ था . पुरी कहानी पढ़ना एक अलग अनुभव रहा. सचमुच सुन्दर कहानी है.
waah kya khoob kahani hai, aisi aur kahaniyan likhiye aur hum jaise pathakon ko liye kuch naya pesh kate rahiya.
Bahut hi sundar rachna hai. Atyant rachnatmak evam man ko tript kar dene wali.
apki kahani bahut ache hai kahi kahi yeh humare ya hum sab ke jivan se milti hai mujhe yeh rachna bahut sundar or sarthak lagi bahut sundar kahani hai good
bahut marmik!
bahut hi sonch kar likhi gayi kahani hai. jo tulnayen ki gayin hain sunder hain.badhai.
कहानी बेहद कलात्मक है, यानि शिल्प कथ्य पर हावी है. हां, एक सत्य को जरूर प्रस्तुत किया गौरव जी आपने. बधाई, अच्छी रचना के लिए. कहानी आपकी कविता के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है. हालाँकि मैं कोई आलोचक नहीं.
Touching. Discloses suspense at right moment. What is that memac that is responsible for women’s forgetfulness ?
Good work. Keep it up.
Gaurav Solanki is one of my fav writers, but I find it difficult to go thru the story online. Can I get the hardcopy of PRATILIPI somehow? I am ready to send any amount of subscritpion, like I get HANS, PAKHI, NAYA GYANODAY and others….Plz someone guide me!
Gaurav,
Story is nice, but NEELAKSHI is a Hindu name, isn’t it? Sikh girls’ names append with KAUR. They do not cut, trim or shingle their tresses, nor do make eyebrows, not even armpit waxing etc.? You might have these points in mind. Why not to change her name to Neel Preet Kaur?
Wonderful !!!
aaj fir padhi aur aaj yah aur bhi marmik lagi!
bohot khub likha h sir……….
multi layered story yet simple to understand. old theme but presented in a new way with practical insights.Really good story.