आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

एक घर था और एक सिनेमाघरः जितेंद्र श्रीवास्तव

कला

आज दिन भर भटका
घूमता रहा बाज़ारों में
ढूँढ़ता रहा एक अदद दीया ऐसा
जिस पर कर सके कारीगरी मेरी बेटी

मैं दिन भर ढूँढ़ता रहा
एक दीया ऐसा
जिसमें कम हो कारीगरी कुम्हार की
शायद हो किसी दुकान पर ऐसा
जिसे रचने में कम मन लगा हो कुम्हार का
पर मैं लौट आया असफल हताश
मुझे नहीं मिला अभीष्ट दीया
और अब जो कहने जा रहा हूँ मैं
उस पर शायद यकीन न आये आपको
पर मैं कहूँगा यकीन मानिये
कि ज्यों ही उठता था मैं किसी दीये को
थोडा कम कलात्मक मानकर
त्यों ही बदल जाता था वह दीया
स्वप्न भरी दो आँखों में
और मैं हतप्रभ-सा बढ़ जाता था आगे.

नींद

एक अकेले कमरे में
नींद अकेली दिखती है अक्सर
पर
कितनी चीज़ें और वहाँ होती हैं
भीतर-बाहर
मन के तन के

देखो तो नींद
वस्त्र है झीना-सा
दीखता है
पार दृश्य भी उसके

देखो तो कैसे मन
नींद में धीरे-धीरे
अर्जित करता है ऊष्मा
धीरे-धीरे हटाती हैं सलवटें आत्मा की

धीरे धीरे नींद करती है मुक्त
प्रेम-सी.

मन की पृथ्वी

एक दोस्त था
या कहूँ एक था दोस्त
या किसी और तरह से कहूँ
या सीधे-सीधे कहूँ
एक था जो घंटों बातें करता था
फोन कट जाए तो दुबारा-तिबारा मिलाता था
छल छल छलकता था उसका प्रेम
उसके शब्दों में

वह बोलता तो लगता
जैसे झरने गिर रहे हों प्रीती के अटूट
जैसे नदी बह रही हों कलकल कलकल अनवरत अविराम
वह देखता इस तरह निर्निमेष
लगता इतना निष्कलुष
कि शक की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती

वह लगता इतना अच्छा
कि उसके मन के अलावा
कहीं और मन खोलने का मन ही नहीं करता था

धीरे-धीरे मैंने बताए अपने बहुत से सच
धीरे धीरे उसने खडा किया झूठ का पहाड़
और एक दिन भहराकर गिरा भरोसे का घर तो काँप गयी मन की पृथ्वी
जैसे कभी-कभी भ्राते हैं पहाड़ तो काँप जाते है धरती

रात अनायास आ गई
संबंधों के बीच
मैंने अकबकाकर देखा
चारों ओर
अँधेरा ही अँधेरा था

जो जानना था पहले ही पल
उसे तब जाना
जब कुछ बचा ही न था

अब दूर-दूर तक
खँडहर थे अनुभूतियों के

साथियो, यह बाजीगरी भी कमाल की चीज़ है
झूठ का चेहरा सच से सुन्दर बना देती है
और प्यार और भरोसे को एक आदिम मूर्खता
या फूहड़ मज़ाक में बदल देती है

एक घर था और एक सिनेमाघर

एक कमरा था जो
महीनों
घर था मेरा

सिनेमाघर के पिछवाडे
एक भरा-पूरा उजाड़ था वह
जब फिल्में दिखाई जाती थीं वहाँ
तो महज आवाज़ ही नहीं आती थी
महसूस होती थी दर्शकों की धड़कन भी

मध्यांतर में
पैरों की धमक और पेशाब की गमक से
भर जाता था वातावरण
लेकिन रात में
जब अंतिम शो के बाद
जा चुके होते थे दर्शक कर्मचारी सब
तब भी नहीं सो पता था सिनेमाघर

ज्यों ही झपकती थी उसकी आँख चिहुँककर बैठ जाता था वह
कभी-कभी उठती थीं सिसकने की आवाज़ें भी

जब न रहा गया मुझसे
तब कहा एक दिन मैंने अपने घर से
घर ने कहा वह भी चिंतित है
लेकिन क्या करे कैसे पूछे
फिर भी मेरे बार-बार कहने पर
पूछा एक दिन घर ने संकोच भरे स्वर में
हालचाल
उस भव्य दिव्या पर दुखी पड़ोसी का

उन नितांत शांत पलों में
जब नीरवता गहरी थी
तब पाकर किसी सहचर का कंधा
फफक पड़ा वह सिनेमाघर
कहने लगा अब बात नहीं रही पहले जैसी
अब कम आते हैं लोग यहाँ
अब बहुत-बहुत दिनों में
कभी-कभी भरता है पूरा घर
और कभी जब भर जाता है
तब भी लोग न जाने क्यों खोए-खोए से रहते हैं
कुछ हाल हमारा भी ठीक नहीं
कुछ पता नहीं है आने वाले कल का

कुछ समझा कुछ नहीं समझा
मेरे घर ने
मैंने भी
फिर चला गया उस शहर से

धीरे धीरे बीत गए कई साल
नहीं मिला कोई हालचाल
पर पिछले दिनों अचानक जाना हुआ उस शहर
तो हतप्रभ रह गया मैं
अब न वहाँ वह कमरा था
जो घर था कभी मेरा
और न था वह सिनेमाघर
जिसने कभी छाँटी थी थी उदासियाँ मेरी
और बताकर दुख अपना
चिंतित भी किया था मुझे

मैंने पूछा सामने के पानवाले मनोहर भाई से
क्यों क्या हुआ
क्यों गिरा दिया सिनेमाघर मालिकों ने
आपको तो मालूम होगा कुछ-कुछ?

मनोहर भाई चुप रहे थोड़ी देर
धीरे-धीरे एक पान लगाया मेरे लिए
बिलकुल वही पहले जैसा सादा
खुश हुआ कि मैं याद हूँ और मेरी आदतें भी उनको
मैंने मुँह में दबाते हुए पान
फिर देखा उनकी ओर

तब धीरे से बोले वे
कोई साल भर हुआ बंद हुए सिनेमाघर
मेरी रोजी भी मारी गई इसी के साथ
अब तो घर चलाना भी भारी हुआ जाता है
सुना है कुछ और खुलेगा यहाँ
जगमगायेगी ईमारत
मुनाफा उगलेगी मालिकों की जेब में
लेकिन भाई साब, पता नहीं
आने वाले साहब लोग पान खाएंगे कि नहीं !

मुझे लगा जैसे लड़खड़ा रही है उनकी आवाज़
और लगा जैसे उसमें
वही उदासी
वही कम्पन, वही भय है
जो वर्षों पहले था
उस रात
सिनेमाघर की आवाज़ में

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