आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

किसी सिरफिरे की कोई बिसरी हुई धुनः यतींद्र मिश्र

समय ओपेरा

इतिहास की एक धूल भरी तारीख़ से
उठाता हूँ मैं अनगिनत बार बजायी जा चुकी
एक मार्मिक धुन
छूते ही जिसको हवा में
छिटक जाते हैं चारों ओर
शोकगीतों के ढेरों मिसरे

यह धुन जिसमें कुछ और धुनें भी शामिल हैं
दरअसल सिर्फ संगीत नहीं हैं
वे अमानवीयता के प्रतिकार की ऐसी सिसकियाँ हैं
घुटी और टूटी हुई
पिछली कई शताब्दियों के पन्ने पलटने पर जिनमें से
एक धीमी लय सुनायी देती है

इन बनती बिगड़ती हुई धुनों से हमें आज भी
किसी पीड़ित की आँखें दिखायी पड़ती हैं
आश्वित्ज कैम्प में संत्रास पाये हुए अनेक लोगों के
हिलते हुए काँपते हाथ नज़र आते हैं
और गुजरती है नाज़ियों की एक सैन्य टुकड़ी
इतिहास की नींद में
अपने जूतों की तेज ठक-ठक से कोलाहल भरती हुई

ऐसे में बीथोवन, मोत्जार्ट या शोपेन की
लय में कही कोई बात
सिर्फ संगीत नहीं लगती
बल्कि वह हमारे कष्टों का गीत बन जाती है
और एक धुन की ख़ातिर इस तरह
इतिहास के पास जाना मुझे रोमांचित करता है

यह इतिहास और लय की यात्रा मुझमें
एक तड़प एक सोच एक बेगानापन भरती है
जो हर बार पहले से ज्यादा दुःखी करती है
पहले से ज्यादा निराश भी कि ये सारी चीज़ें
जो आत्मीय व मार्मिक बखान हैं सभ्यता के
हमें कितना सहज बना पाती हैं
कितना आत्मीय कितना करुणा से भरा हुआ

हम धीरे-धीरे यह जान चुके होते हैं
किसी धुन की आग को कुरेदने पर
कोलोसियम में बजने वाले संगीत या कभी
रोम और पोलैण्ड के गिरिजाघरों की घण्टियों में
गूँजने वाली शान्ति प्रार्थनाओं की जगह
युद्धबन्दियों, शरणार्थियों और मृतकों की
गम्भीर चुप्पी ने ले ली है
और आधी दुनिया के इतिहास की रोशनी में
खेले जाने वाले तमाम ओपेरा में
कहीं एक आत्मीय धुन खो गयी है

फिर भी कोई कोशिश करे तो
समय की उस टूटी हुई सिम्फनी पर
आज भी बजायी जा सकती है
किसी सिरफिरे की कोई बिसरी हुई धुन
जो बीथोवन की तरह
अन्धेरे जीवन में शान्ति और प्यार के भरोसे
टिकी रह सकती है देर तक
जो इतिहास की कचहरी में
हलफ़नामा दायर कर सकती है.

नौटंकीवालियाँ

उन्हें लौंडियाँ कहा जाता था
और उनके फन को नौटंकी तमाशा
पता नहीं उनका हुनर
याद रखने लायक था या भूलने लायक
मगर उनके अफसाने बिकते थे बाज़ारों में
पटना, कोल्हापुर, बनारस, सांगली,
मिरज, चिलबिला और कानपुर को छोड़कर
उनके मुहब्बत की सड़क
जुगुनुओं से भरी साँझ से होकर गुज़रती थी

वे रईसजादों की पनीली आँखों से डरकर
शोहदों की नींदों में गिर पड़ती थीं अकसर
पुराने साजों पर उतरे हुए सुर की तरह जवानी थी उनकी
इधर बाजा कसा जाता था
उधर उनके मासूम चेहरों पर परीजाद चेहरा
मंच पर अकसर मिलने वाले उनके शैदाई
अपने फेफड़ों में दम भरकर पूछते थे
‘डार्लिंग सोडा पियोगी या लैमन?’
और वे हँसकर अपने पुरातन प्रेमियों को दुलारतीं
‘राजा! एक फूल ले लो’
पता नहीं उन नाटकों के प्रेमी
उनसे कितना प्रेम करते थे और कितना डरते थे
या उनके अफसानों की गिरफ्त में पड़कर
सचमुच का प्रेम करने लगते थे

वे नौटंकीवालियाँ थीं
अपने पारसी मालिकों का दिल लुभाने वाली
तितलियाँ थीं वे
वे फूल थीं बेले की लतर और प्रेम भरे अफसानों की हूरें
और कुछ लोग उन्हें
ग़ज़लों की बुलबुलें मानते थे

वे पहली बार किसी भी शहर को अपनी आँखों से नहीं
लोगों की हवस भरी निगाहों से देखती थीं
और उन रंग-बिरंगे तंग बाज़ारों के मिज़ाज़ से भी
जहाँ तारों की तरह टिमटिम करती
बिकती थीं बिन्दी चूड़ियाँ सुरमा और परान्दे

वे नौटंकीवालियाँ लगभग पिछली आधी सदी तक
हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मौजूद थीं
लगभग पिछली पूरी सदी बीत जाने के बाद वे नौटंकीवालियाँ
आज भी जीवित हैं हमारी स्मृतियों में

वे जब तक थीं तब तक उनके अन्दर
प्रेम की धधकती गुफा में
रिसता रहता था जमाने भर का बटोरा संत्रास
और बाहर चमकता रहता था उनका गाढ़ा दुःख
इन्द्रधनुष के सतरंगे वितान की तरह

आज जब वे नहीं हैं
तब यह अन्दाजा लगाना बड़ा मुश्किल है
पटना, कोल्हापुर, बनारस, सांगली
मिरज, चिलबिला और कानपुर को छोड़कर
कोई और शहर भी शायद ही होगा
जो उनके काढ़े की तरह गाढ़े आँसुओं को
अपने दुःख से साझा करके याद करता होगा.

रसन पिया*

अचम्भा-सा जगाती लगभग सौ बरस की पकी हुई उम्र में
भरे-पूरे जराजीर्ण बरगद की तरह है तुम्हारा होना
हजारों लोग बैठ सकते जिसकी छाया तले इत्मीनान से
और एक कशिश जैसी कोई चीज़ सुन सकते तुम्हारी आवाज़ में
जहाँ से राख नहीं आज भी बसन्त के पीले फूल झरते हैं

पता नहीं क्या है उस्ताद
ठुमरी और दादरा के अन्तरालों में जादू जैसा
जहाँ बहुत कुछ अभी भी बचा है ऐसा
जिस पर भरोसा किया जा सकता है
और यह बात हमें परेशानी में डालती है
ऐसे अराजक समय में सिर्फ संगीत के सहारे
तुम कैसे अभी तक रहते चले आये अप्रतिहत

यह एक विचित्र बात है उस्ताद
सौ बरस के महाकाव्य-से लगते जीवन में तुम्हें
गायक के साथ-साथ रसन पिया बनने की क्यों सूझी
गोया, कविता कहे बगैर संगीत कुछ कम सुरीला लगता
तुम्हारे सम्पन्न घराने में
या बन्दिश रचते समय तुम आसानी से पकड़ लेते
किसी सुर को उसके सपनों के साथ

उस्ताद! क्या कभी सोचा तुमने
राजदरबारों के दीवानख़ानों से
अक्सर बाहर साँस लेने निकल आयी मौसीकी
ढ़ेरों ऐसे बन्दिश बनाने वालों की खब्त का मामला भी है
जिसमें तुम्हारे जैसा आदमी भी शामिल रहा है चुपचाप

पता नहीं कितनों को इस बात से फर्क पड़ेगा
रागों को शब्दों के कपड़े पहनाने में ढ़ेरों
ललन पिया, सनद पिया और कदर पिया की उम्र निकल गयी
और तुम्हारी तो रसन पिया उँगलियाँ ही गल गयीं सारी
पैर भी सलामत न रहे

फिर भी अपने दुखों से बचते हुए
संगीत के लिये तुमने उम्रभर
सूरज और चन्द्रमा उगाया अपनी बन्दिशों में
और इस वसुधा को थोड़ा आत्मीय बनाया हमारे लिये
वरना क्या फर्क पड़ता इस बाज़ार और शोरगुल वाले समय पर
जहाँ आज भी तुम अपने शब्दों के निष्कपट संसार में
महावर, बिछिया और चुनरी खरीदने निकल पड़ते हो
तुम्हारी जराजीर्ण होती आवाज़ में जहाँ आज भी
गंगा उतनी ही साफ और उज्ज्वल दिखाई देती है.

(*उस्ताद अब्दुल रशीद खाँ, जो रसन पिया के नाम से ठुमरी, दादरा, कजरियाँ और चैती रचते हैं. ग्वालियर घराने के वयोवृद्ध खयाल गायक)

2 comments
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  1. Mind blowing poetry by yatindra g.i am a fan of yatindra g from the time of my schooling.my schooling was from Maharaja Inter college.

  2. Pls upload more poems of yatindra mishra sir pls

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