आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

यहीं कहीं हूँ अभी निकल रहा हूँ..: प्रमोद सिंह

दो महीने पहले मनु ने मानो हारकर कहा था यहीं से टिकट निकलवा के कुरियर करवा दूं? मैंने बरजा था ड्रामा मत करो, मैं खुद कोई इंतज़ाम कर लूंगा. नहीं हुआ इंतज़ाम. सबकुछ धकेलकर शहर से बाहर निकल जाने, पहचाने-अजाने दुनियों में हो आने का ख़्याल हर वक़्त में मन में टंगा रहता है वास्तविकता में निकल सकूं एक फंसे हुए थ्रिलर की कहानी की तरह अटकी रहती है..

झोली में चार जोड़ी कपड़े होंगे, चार किताबें, टॉयलेटरिज़, निपटाने के सारे काम किसी ताक पर रखकर शहर सोया होगा भोर की रेल पकड़कर धीरे-धीरे इस दुनिया से चुपचाप बाहर दूर निकल जाऊंगा, लेकिन फिर रह जाता हूँ, निकलना हो नहीं पाता.. जैसे शहर में लम्बौ क़ैद मिली हो! समुंदर में छोड़ दी गई बड़ी विकराल नाव हो मैं हड़बड़ डेक पर इस छोर से उस छोर भागता होऊं किनारा पकड़ने की गुंजाइश न बनती हो!

रोज़ लगता है चार-पाँच दिनों में इनसे मुलाक़ात हो जाये उनसे बात तो तस्वीर साफ़ हो जाएगी, निकलने का जुगाड़ बन जाएगा.. लेकिन चार-पाँच दिन बीतते हैं, उनके पीछे और कितने सारे, किसी से मिलना निकल आता है, किन्हीं से पहले मिले थे उनकी छूटी अधूरी बात शायद इस बार पूरी हो जाये का एक अकेला तागा चेहरे के आगे झूलने लगता है, एक सज्जन हैं तारीफ़ कर रहे थे उनसे वह किताब उठा लेंगे का मोह, एक अर्जेंटिनी फ़ि‍ल्म का बहुत सुन रखा था वह एक दोस्त के यहां देखने को मिल जाये शायद..? इंतज़ार खिंचा चलता है निकल रहे हैं की ख़बर अनसॉर्टेड रहती है, चुप पड़ा-पड़ा फ़ोन बजता है गेटिंग अवे का गेटवे हाथ आता है, फिर असमंजस के अंधेरों में खोया रहता है.

मटमैले दिन और मटमैली तंग दीवारों में देह अंड़सी रहती है. फ़ोन पर मनु का नंबर दिखते ही तपाक से पहले का सोचा जवाब दोहराते हैं- यहाँ नेटवर्क कमज़ोर है, तुम्‍हें बाद में फ़ोन करता हूँ! बाद में. बाद में?

सबकुछ बाद में. कितने बाद के बाद?..

बारिश की पहली बौछार में हवा की महक बदलती है, एकदम से मन उमगता है, फिर सोचता है उमग रहा है? इसी तरह का उमगना जियेगा?..

कुछ सड़कें और कुछ इमारतों के जाल में बहलते-टहलते दिन बझती और खत्‍म होती रहती है काम हो गया जैसा काम चलता रहता है. सांझ के मटियाये-सियाह धुंधलके में कुछ सवाल भीतर खलबल होते हैं तो इस व्‍यसन और उस जैज़-कीर्त्तन में मन उनपर कपड़ा खींच लेती है. देर रात के सन्‍नाटे में इस पहचानी दुनिया के पार शहर का कांपता शोर टेढ़ी-मेढ़ी आवाज़ों में गूंजता है, किसी अजाने डेरे पर अन्‍यमनस्‍क रात गुज़ारनी पड़ रही हो की घबराहट में मन सिहरता है गिनती गिनता है- इसी शहर में इतने वर्ष गुज़ार दिये?..

सबकुछ ठेलकर निकल भागने की तड़प होती है और फिर पाववाले की आवाज़ या एक नये वेबसाइट की साज में चोटखाया बच्‍चा हाथ में नया खिलौना पाकर अपना रोना कुछ देर को भूल जाये की सहजता में भूल भी जाती है..

प्रताप कहता है छोटे थे हमलोग कितनी दिक़्क़त थी अब सब आसान हो गया है. मन करे फ़ोन पर जितनी बात करो, वीडियो कॉंफरेंसिंग, नेट पर रेल-टिकट बुकिंग! लेकिन मुझसे फ़ोन हाथ में उठाकर नंबर घुमाते नहीं बनता वीडियो कॉंफरेंसिंग नहीं सूझती. नेट पर टिकट बुक करते-करते कैंसल करता हूँ फिर बुक फिर कैंसल फिर..

जयदीप फ़ोन पर पूछता है क्‍या हो रहा है? हंसकर जवाब देता हूँ तुम्‍हीं बताओ क्‍या हो रहा है क्‍योंकि मुझे तो सचमुच आइडिया नहीं मेरी ज़ि‍न्‍दगी में क्‍या हो रहा है? दोपहर बहुत बिजी था दो स्‍लाइस और आधे पपीते का लंच किया अब ये मत पूछना किस चीज़ में बिजी था! वही वज़ह होगी बाहर नहीं निकल पा रहा मगर बिजी किसके पीछे था, आज ही नहीं- कल, परसों, तरसों, उसके पहले?

भन्‍नाया सिर काम करना बंद कर दे ऐसे ट्रैफिक से फूले दम के साथ बाहर आकर एक भरा पेड़ दीखता है सोचता हूँ शायद पहचानता हूँ, मन में ख़्याल घूमता रहता है पेड़ पीछे छूट जाता है.

मन पर लदर-बदर जाने क्‍या, किस-किस तरह के खुराफात चढ़ते रहते हैं जो छूटता जाता है किस उम्‍मीद में छूटता जाता है.. कि सपने अवचेतन में उसे सहेजकर रखेंगे?

दीवारों के बीच किसी तरह काम निकल जाये की पिटी हुई कामचलाऊ जगह होती है घर नहीं होता. घर लगता है होगा आनेवाले किसी समय में होगा, ज़रूर हो जाएगा, अगले साल, या उसके अगले, अधम उम्‍मीद बनी रहती है. घर में फंसा मन बेघर नक़्शे और अख़बारों में आवारा शहर तकता है..

अबकी मनु पूछेगा टिकट कटवा के कूरियर करवा दूं तो कह दूं करवा दे? या फिर सोचता उसे कहूँगा ठहर, बेसब्री की ज़रूरत नहीं, अभी चार-पांच दिन देख लूं यहां क्‍या सीन है?..

One comment
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  1. बहुत पसंद आया। प्रमोद जी का गद्य पसंद आता रहा है। लय का बनना, फिर टूटना और टूट कर फिर बनना। टूटी हुई बिखरी हुई और यह अहसास देती हुई कि कुछ संवर रही है बन रही है। मजा आया।

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