आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सिमिट सिमिट जल

पीयूषः

बिना अवकाश के न हमारा अस्तित्व सम्भव है न कला का. माध्यमों के फ़र्क़ को अवकाश के सन्दर्भ में आप कैसे लेते-देखते-बरतते-समझते हैं? आप परस्पर भिन्न माध्यमों में सक्रिय रहे हैं. मसलन, भौतिक मायने में कैनवास का आकार व सतह ही कैनवास का अवकाश है जिसे चित्र बनाते समय आप असंख्य रीतियों से बरत सकते हैं–आकार-सतह-अवकाश में, अनन्त-अवकाश का भाव प्रकट कर सकते हैं. दूसरे शब्दों में, आप कैनवास के आकार-सतह-अवकाश को चित्रावकाश में कायान्तरित करते हैं जबकि एक शिल्प-निर्मिति में शिल्पाकाश, आकार-अवकाश का कायान्तरण नहीं है. वहाँ आकार ही ठोस रूप में प्रदत्त नहीं है. जाहिर है वहाँ अवकाश का मसला व प्रक्रिया बिलकुल भिन्न है. क्या ऐसा है ?

दूसरा, माध्यमों के सन्दर्भ में उस अवस्था को लेकर आप क्या सोचते हैं जब रचनाकार की आँखें स्पर्श करने लगती है तो शब्द देखने.

सीरजः

मिट्टी में अनन्त आकार छुपे हुए हैं. अब यह मिट्टी में काम करने वाले की दृष्टि पर निर्भर है कि वह अपने लिए कितने आकार उस में से खोज पाता है. कोई भी माध्यम अपने आप में सीमित नहीं है. उस माध्यम में काम करने वाले कलाकार ही उस माध्यम को सीमित करते या एक भूगोल में बांधते हैं. माध्यम व्यापक हैं, अनन्त हैं. आकाश या समुद्र की तरह. और उतना ही उसका अवकाश है. भले एक चित्र का आकार छोटा हो या बड़ा हो, अवकाश का उससे कोई लेना-देना नहीं है. छोटे आकार का चित्र भी बेहद तक ले जा सकता है, उसमें वह सम्भावना होती है. आप देखेंगे कि महान कलाकृतियों में उनके आकार का कोई लेना-देना नहीं है. अवकाश का चित्र के भौतिक आकार से एक स्तर पर ताल्लुक़ बनता नहीं दीखता. जैसे शिल्प. शिल्प का आकार/फ्रेम भले दो इंच का हो या तीस इंच का, लेकिन वह किस अवकाश तक ले जाता है, बात यह है. उस नियत अवकाश/आकार में वह अवकाश की कितनी गहराई तक पहुंच पाया है, सृजन-प्रक्रिया-चिन्तन सहित एक टोटल कलाकृति, जो उस आकार में बनी है, वह भीतरी अवकाश के कितने क़रीब या कितनी दूर तक छलांग लगा सकी है, यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. इसमें माध्यम का बन्धन नहीं है, यह कलाकार पर है कि वह उसको कहाँ तक ले जा सकता है. जहाँ तक रीति की बात है तो उसमें अनन्त रीतियां हैं. जितने चित्रकार, उतनी विधियाँ. जितने कवि, उतनी तरह की कविताएँ. जितने गले, उतनी तरह से गाना गाया जा सकता है. मेरे लिए चित्र में अवकाश से पहले एक ब्लैंक कैनवास है. यह एक ऐसी गुफ़ा की तरह है जो अनन्त की ओर जाती है या यह सागर में डुबकी लगाने जैसा है या सागर की वह सतह है जिसके क़िनारे पर खड़ा हो कर मैं उसको देखता हूँ–ब्लैंक कैनवास की अनमोल सफ़ेदी को. क़िनारे से खड़ा हो कर उस समुद्र को देखने पर, समुद्र के ऊपर पड़ती सूरज की रोशनी से पानी की वह सतह, प्रकाश के प्रतिबिम्ब से चौंधियां देती है. मैं सीधा समुद्र की सतह नहीं देख पाता, प्रकाश उलट कर आँखों पर आता है. एक तरह की इतनी रोशनी हो जाती है कि उससे कुछ दिख नहीं पाता है. उसकी गहराई तो क्या, उसकी सतह भी ठीक तरह से नहीं देख पाता हूँ.

मैं कैनवास के समुद्र के अन्दर देखने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन जिस प्रकाश-व्यवस्था में मैं देख रहा हूँ वह इतनी प्रखर है कि उलट कर आँखों पर आ जाती है. प्रकाश का स्त्रोत. इसलिए मैं पहले सतह पर एक रंग-सतह बिछाता हूँ ताकि वह प्रकाश मद्धिम पड़े और मैं ठीक से देख सकूं. उस अन्धकार को देख सकूं. चित्र बनाना उस अन्धकार में डुबकी लगाने जैसा है. पानी के भीतर छिपा अन्धकार. रंग के जरिये थोड़ा नीचे जाते हैं. फिर रंगों के प्रभाव, अनेकानेक रंगान्वयों के सहारे और पैठते हैं. कुछ आकार नज़र आने लगते हैं, फिर उनसे आगे जाते हैं. इसी रहस्य-रोमांच में चित्र पूरा हो जाता है. अगले चित्र में डुबकी लगाते हैं. कभी डुबकी गहरी होती है, कभी थोड़ा ऊपरी. अगले चित्र की प्रेरणा का स्त्रोत ही यही है कि चित्र पाने के लिए आपने डुबकी लगाई और चित्र पूरा हुआ उसी दौरान आपको साक्षात्‌ दिखा कि यह अनन्त की तरफ़ जा रहे हैं. लगता है, पहली ही डुबकी में चले जाएंगे, पर ऐसा होता नहीं. हम एक अनन्य/विशिष्ट आकार से बंधे हुए हैं, भले चित्र हो या शिल्प. देखा जाय, तो एक चित्र अनेक चित्रों का विस्तार ही है. देखा जाय, तो मैंने अभी तक के जीवन में एक ही शिल्प बनाया है. या जो चित्र मैं बना रहा हूँ, वह एक ही चित्र का विस्तार है. अलग अलग चित्रों में यह हो रहा है. अवकाश बहुत गहरा है. पहुंचने का तरीक़ा ज़रूर है. अनेकानेक माध्यमों के जरिये अवकाश को छू कर आते हैं, गोता लगाते हैं. आख़िरी छोर तक जाने की सम्भावना नज़र आती है. दिखता है वह, छोर का अन्तिम सिरा–कि वो रहा. लगता है लीला को भेद देंगे. मगर शरीर जवाब दे जाता है. शरीर से अभिप्राय है कैनवास या शिल्प. इसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रक्रियाएं एक साथ संलग्न है. एकमेक है. चित्र का अवकाश बेहद्द का मैदान है. कबीर याद आते हैः: पासा पकड़े प्रेम का ….. सद्गुरू दांव बता…खेले दास कबीर. यह ऐसी जगह है जहाँ पूरी तरह से स्वाधीन महसूस करता हूँ. यहाँ अन्य नहीं है. यह निजी कर्म है.

मुझे लगता है कि चित्र में ऐसी ताक़त होनी चाहिए जैसे कि एक सुन्दर स्त्री देख, कोई पलट कर देखता है. ठीक वैसे ही कोई चित्र के सामने से गुज़रने पर ठिठक जाए. उस को निहारे. जैसे किसी सुन्दर फूल को देखकर लोग मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं. वह बात आनी चाहिए चित्र में. अब उसका रास्ता पता करना होगा कि ऐसा होने के लिए उसका रास्ता क्या है. रचना-प्रक्रिया में रस आता है, अनुभूति होती है, प्रसन्नता होती है. यह ऐसा है जैसे हम अपने से किसी चीज़ को विसर्जित करते हैं. कैनवास पर. और शान्ति मिलती है. उसी तरह की शान्ति शायद सम्भोग में भी है. सम्भोग में देह का होना और दैहिक सुख की प्राप्ति. वह किसी हद तक आत्मा को भी तृप्त करती है. मन को भी. सारे रोगों से छुटकारा देती है, भले कुछ देर के लिए. उससे कहीं गहरा अनुभव मुझे चित्र-प्रक्रिया में मिलता है.

पीयूषः

आपका रचनात्म किस स्त्रोत/गोमुख से आता है?

और एक माध्यम से यह स्वयं को किन रीतियों से प्रतिकृत करता है? आप विभिन्न माध्यमों में काम करते रहे हैं — इन माध्यमों के स्वायत्त फ़र्क़ों के बावजूद हो सकता है इनमें किन्हीं तरह के मूलगामी सापेक्ष साम्य भी मौजूद हो. विभिन्न माध्यमों में, अपनी आवाजाही में, आप स्वयं को किस तरह से अवलोकते हैं? दो या दो से अधिक माध्यमों के बीच तुलना करना शायद बेठीक हो लेकिन उनके बीच के सम्बन्धों की व्याख्या या कि उन्हें समझना शायद ज़रूर चाहिए. आपके विचार?

दूसरे शब्दों में, आप एक माध्यम को कैसे समझते व उसकी रचनात्मक सम्भावनाओं को कैसे अपने लिए उत्खनित करते व विस्तार देते हैं?

सीरजः

मुझे लगता है कि हर कलाकार अपने आप को एक से अधिक माध्यमों में प्रकट करने की दक्षता रखता है पर कुछ ही कलाकार हैं जो एकाधिक माध्यमों में गम्भीरता से काम कर पाते हैं. मेरे लिए विभिन्न माध्यमों में काम करना एक ऐसे घर में रहना है जिसमें एकाधिक कमरे हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने से आप घर नहीं छोड़ देते बल्कि अपने आपको ही वृहद् करते हैं. विस्तार देते हैं. मैं सिरेमिक में काम करने के अलावा उतनी ही गम्भीरता और जोश से चित्र भी बनाता हूँ. रचना भी, गाना भी, बजाना भी, घूमना भी, मित्र बनाना भी, पढ़ना भी और अब कुछ कुछ लिखना भी. पर किसी-किसी कर्म में ही पूर्णता आ पाती है. यह अभ्यास किसी भी पूर्णता के लिए अनिवार्य है. कैनवास पर भी शून्य सतह पर अनगिनत चित्र पहले से ही बसे होते हैं. बस, हम अपनी नज़र, प्रेम व कर्म से उसे बाहर निकालते हैं या शायद ब्लैंक कैनवास एक नक़ाब की तरह है जिसके पीछे कई आकार व चित्र छिपे हैं. चित्रकार अपनी पैनी नज़र व श्रम से उनमें से कुछ को अपने लिए चुनता है.

पीयूषः

जहाँ तब मुझे पता है या आपकी जो मृत्तिका-कृतियां मैंने देखी हैं, उनमें एक तरह के काम में आपने घड़ियाँ बनाई हैं तो दूसरी तरह का वह काम है जिसमें कुछ छोटे टुकड़े परस्पर इस ढंग से एकत्र हैं कि इन पीसेज़ के संयोजन से कृति-रूप प्रकट होता है. यहाँ न केवल संयोजन प्रमुख है बल्कि मृत्तिका-कृति को दो तरह से तो खास तौर से देखा/अनुभूत किया जा सकता है. एक स्तर पर इन पीसेज़ को स्वतन्त्र व स्वायत्त ढंग से लिया जा सकता है, दूसरे स्तर पर उस ढंग से जिसमें कि इनके परस्पर संयोजन से प्रकट होता रूप है. वैद के अनुपन्यास काला कोलाज की तरह जिसमें प्रत्येक शीर्षक को स्वतन्त्र तरह से भी बांच सकते हैं और फिर सभी शीर्षकों को एकत्र कर बाक़ायदा एक उपन्यास के रूप में भी. या एक काव्य-पुस्तक की तरह जिसमें हम हर कविता का, स्वतन्त्र कविता के बतौर भी आस्वाद ले सकते हैं और बाक़ायदा संग्रह के तौर पर भी. तीसरी तरह की आपकी वे मृत्तिका-कृतियां हैं जिनकी तासीर में कुछ ऐसा गाम्भीर्य, आदिमता व अभेद्य गहराई है मानो इन्हें मोहनजोदडो की खुदाई से बरामद किया हो!

इससे पहले कि हम उपर्युक्त दोनों/तीनों काम के प्रकारों के स्वतन्त्र विस्तार में जाय, मैं यह जानना चाहूँगा कि इन सभी कामों को कुछ काव्य-पंक्तियों पर आधारित करने के पीछे किस तरह की रचनात्मक प्रेरणाएं सक्रिय रहीं हैं? क्या हम यह कह सकते हैं कि सम्बन्धित काव्य-पंक्तियाँ इन मृत्तिका-कृतियों के रूप हैं? इन कविताओं के चयन का आधार व मापदण्ड क्या रहे हैं? मुझे याद आता है कि आप रामचरितमानस को अपनी प्रिय कृति मानते हैं जबकि इन मृत्तिका-कृतियों में आधुनिक हिन्दी के कुछ कवियों को लिया गया है या फिर आपने यहूदा अमिखाई को लिया है.

और आपकी वे मृत्तिका-कृतियाँ जो काव्याधारित है उनकी सतह पर आपने बाक़ायदा हिन्दी भाषा में काव्य-पंक्तियाँ भी उत्कीर्णित की हैं. मृत्तिका-कृति के रूप-विधान व अर्थ के आशय में यह अतिरिक्त आग्रह क्यों? कोई कह सकता है कि यह करना कुछ वैसा ही है जैसे कि एक कवि अपनी कविता में शब्दों के अलावा रेखांकन को भी शामिल करने लगे? मृत्तिका-कृति में इन पंक्तियों का होना आप किस तरह से प्रस्तावित करते हैं? एक स्तर पर यह रचनाभिव्यक्ति के दो माध्यमों के परस्पर संवाद के रूप में लिया जा सकता है जिससे दोनों माध्यम समृद्ध होते हैं. और दूसरे स्तर पर यह कृति के रूप का एक अनुषंग हो सकता है लेकिन जिसमें ये पंक्तियाँ रूपाकारों के तौर पर हो, भाषा के बतौर नहीं. तीसरे में यह भाषा व लिपि के बतौर भी हो सकती है लेकिन उस स्थिति में वह दर्शक जो हिन्दी भाषा नहीं जानता उसके लिए यह पंक्तियाँ किन मायनों में सार्थक हो सकती है? वग़ैरह.

आपका प्रस्ताव क्या है?

सीरजः

कविता का मेरे जीवन में देर से प्रवेश हुआ. जब काव्य-संसार में गोते लगाने लगा तब उतनी ही प्रसन्नता हुई जितनी चित्र बनाते समय मिलती है. एक तरह की मुक्ति का अहसास होता है मानो भीतर का भार उतर गया हो. हल्का लगने लगता है. शब्द और रंग में माध्यम का ही तो अन्तर है. अशोक जी की एक अद्भुत काव्य-पंक्ति है : ”आँखें सिर्फ़ सच ही नहीं, सपना भी देखती हैं.” यह पंक्ति सच को भी यथार्थ ले रही है, सपने को भी. दोनों को एक प्लेटफार्म पर रख दिया है. सच और सपना, दोनों कविता में यथार्थ हो गए हैं. छुआ जा सकने वाला सत्य हो गया है, सपना भी वहां. निमित्त आँख से सच और सपने को एकाकार करना, यह अद्भुत है. आँख सच देखती है, खुली आँख से; बन्द कर लें, तो सपना देखने लगती है. आँख खुली हो या बन्द, दोनों ही प्रामाणिक है. मुझे यह पंक्ति जादू की तरह लगती है. मैं इस पर भरोसा करता हूँ.

कविता के साथ मैंने अपने माध्यम में जो भी काम किये हैं जैसे सिरेमिक्स में घड़ियाँ बनाई हैं, कुछ शिल्प बने हैं, कुछ कोलाजों के साथ भी कविता है. चित्रों के साथ भी हैं. इन सभी में चित्र या शिल्प कविता पर आधारित नहीं है. वह कृतियाँ कविताओं के इलस्ट्रेशन्स नहीं हैं. उन्हें साथ में रखा है, बस. कविता की अपनी स्वतन्त्र हस्ती है और इन कृतियों की अपनी.

कविता पढ़ना मैंने इसी दौरान शुरू किया था और उसका महत्व व जादू मुझ पर छा गया. अपने पसन्दीदा कुछ कवियों की कविताएँ मैंने चुनी और मिट्टी की घड़ी का डायल बनाकर उस पर ये कविताएँ लिख डाली, पका डाला और देखा- अच्छा प्रयोग रहा. काफ़ी लोगों को यह काम पसन्द आया. फिर बाद में भी कविताओं के साथ कुछ दृश्य प्रयोग किए हैं. कविता का अपना एक निजी अस्तित्व होता है. कविताओं के साथ किये गये मेरे प्रयोगों में, कविता, स्वतन्त्रता से मिट्टी के शिल्प पर विचरती है. उस पर आधारित नहीं है. हाँ, आधार ज़रूर मिट्टी है जिस पर कविताएँ लिखी गयी हैं.

हर भाषा का अपना भूगोल होता है. हाँ, यह ज़रूर है कि हिन्दी भाषी उस कविता व शिल्प दोनों का रस ले सकता है, पर जिसे हिन्दी नहीं आती वह सिर्फ़ यह भर जान पाएगा कि इस शिल्प पर कुछ कवितानुमा लिखा है.

हस्तलिखित कविता के चाक्षुष रूप में, उस सतह पर लिखी कविता उसी तरह से उसका हिस्सा है जिस तरह से उसमें और अन्य फॉर्म हैं. वे फॉर्म अपने अलग अर्थ खोलते हैं और लिखा शब्द एक अलग अर्थ खोलता है. दोनों साथ साथ में हैं. यह संयोग मुझे अद्भुत व शुभ लगता है. अर्थ के स्तर पर दोनों सम्भावनाओं से गर्भित हैं. चार पंक्तियों की व्याख्या तो चार किताबों में की जा सकती है तब भी शायद वह पर्याप्त नहीं कही जा सकती. पूर्ण विराम न चित्र लगाता है न कविता. यह बात दोनों में समान नज़र आती है. दोनों को साथ रख कर मैं कविता को भी अलग ढंग से पढ़ने की कोशिश करता हूँ. या चित्र में उसकी उपस्थिति को अलग तरह से महसूस करता हूँ. कविता को चित्र, शिल्प या दर्पण में देखना एक अलग तरीक़े से पढ़ना भी है. चित्र को भी, कविता को भी. इसका अनुभूत्यात्मक प्रयास भी भिन्न है. वह अलग तरह से आत्सात्‌ होती है.

और रामचरित मानस पर एक चित्र-श्रृंखला बनाने का मन बरसों से है. दो साल पहले धु्रव शुक्ल से भी इस बाबत चर्चा हुई थी. यह एक ऐसा अमूर्त काव्य है जिसको चित्रित करने की सम्भावनाओं में फ़िलहाल विचर रहा हूँ. मुझे उन सम्भावनाओं की खिड़कियां खोजनी है. कि न जाने किस खिड़की से रामचरित मानस प्रवेश करे. यह इतनी बड़ी चुनौती है कि मैं अभी इसे ठीक तरह से समझ-पकड़ नहीं पा रहा हूँ. जिन तरीक़ो पर अभी विचार कर पा रहा हूँ, उनसे सन्तुष्ट नहीं हूँ. अभी विचार व कर्म के बीच फ़ासला है. देखें, कब पटता है. बीज-वपन हो गया है. वह बीज अभी अण्ड बन रहा है. रामचरित मानस और मेरे चित्रों का व्यवहार बहुत भिन्न है. या मुझे भिन्न लग रहा है क्योंकि मैं दोनों को परस्पर नज़दीक नहीं देख पा रहा हूँ. अपने चित्रों में मुझे देखना होगा कि रामचरित मानस कौन सी खिड़की से दस्तक दे रहा है. वह खिड़की मुझे खोलनी पड़ेगी. ऐसी सैंकड़ों खिड़कियां हैं, अभी आवाज़ नहीं सुन पा रहा हूँ.

पीयूषः

मेरी जिज्ञासा के बहुस्तरों में से एक यह है कि एक ओर आपने काव्य-दर्पण के लिए कविताएँ ली, दूसरी ओर रेखांकन के साथ कविताओं को कवि की हस्तलिपि में साथ रखा, तीसरी ओर आपके शिल्प हैं. यह तीन अलग अलग रूप-माध्यम हमारे सामने हैं. इन सभी कामों को करते समय आप तीनों में आवाजाही कर रहे होंगे या तीनों के लिए आपकी एप्रोच अलग रही? मृत्तिका-कृतियों में आप अपनी हस्तलिपि में कविताएँ लिखते हैं और उन रेखांकन-कोलाजों में, मूल कवि की हस्तलिपि में कविता है, और काव्य-दर्पण में फिर आप अपनी हस्तलिपि में लिखते हैं. तब किन तत्वों के प्रति आप सजग थे? इन कृतियों को आप किस तरह से प्रस्तावित करना चाहेंगे ?

सीरजः

मिट्टी के शिल्प पर कविता लिखना, सम्पूर्ण मिट्टी के चित्र को गढ़ने की प्रक्रिया का एक हिस्सा था. आप कह सकते हैं कि वहां कविता रेखांकन की तरह लिखी गई है. इसको लिखने के दौरान हुआ यह कि उस स्पेस में, जिसमें कि वह सृजन घटेगा या कि घट चुका है या घट रहा है, उस कविता पंक्ति को दाख़िला मिला और लिखा भी हाथ से ही, ताकि वह शिल्प में एक रेखांकन की तरह भी नज़र आए.

कविता का चित्र में प्रवेश या दोनों की परस्परता में, दोनों का साथ होना अपनी स्वतन्त्र इयत्ता में, एक दूसरे को डिस्टर्ब किए बग़ैर, पड़ोस की तरह है. कविता और चित्र बहुत अच्छा पड़ोस है. हो सकता है कभी दोनों अपनी अपनी छत पर आ कर एक दूसरे से गपिया सकें. जब कविता लेता हूँ तब यह लेना उस कविता के साथ मेरे अपने सम्बन्ध की वजह से होता है. कविता अगर चित्र-सतह पर आती है तब इसका एक मतलब यह है कि मैं कविता के संसार में दाख़िल हो रहा हूँ. उसकी सुन्दरता को हर कोण व लिहाज़ से देखना-अनुभूत करना चाहता हूँ. यह अनुगूंजें अद्भुत हैं. कविता से मैं ख़ुश होता हूँ. वह एक आदमी को उसकी चारदीवारी से बाहर आने के लिए एक द्वार खोल देती है. अन्दर ही अन्दर आप एक नदी बहती देख सकते हैं.

मेरे जीवन में कविता का आना अनहोनी घटना की तरह है. कविता में भाषा के रूप देख-पढ़ कर अचरज में आ जाता हूँ. मैं हमेशा कविता के साथ रहना चाहता हूँ और शायद इसीलिए वह मेरी कृतियों में आती रहती है जैसे हवा के ताज़े झोंके या सांस. यह मेरी निजी ज़रूरत है. दर्शक जब दर्पण में अपनी छवि देखेगा तो उस कविता को भी देखेगा/पढ़ेगा जो वहां अंकित है.

पीयूषः

क्या यह प्रवेश, काव्य-पंक्ति को बतौर एक काव्य-पंक्ति की तरह प्रवेश करवाना है? कविता को देखना क्या उस कृति को देखना है या पहले उसे बांचना है और फिर पढ़त से जगती अनुभूतियों के मार्फ़त वह देखना घटता है? और तब चाक्षुष रूप?

यह पड़ोस क्या एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य में इस तरह अवस्थित होना है कि दोनों एक दूसरे को आलोकित करें?

वह अनुभूति जो आपके कांच-काम से जगती है, वही अनुभूति नहीं है जो मृत्तिका-कृति को देखने से जगती है. यद्यपि ऐन मुमकिन है कि इन सब मसलों से एक कलाकार के नाते आपका कोई सीधा सरोकार न हो, या यूँ कहें कि यह आपका अभीष्ट न हो.

कोलाज वाले काम में आपने बाक़ायदा पूरी कविता ली है, इसके पीछे आधार क्या था? काव्य-दर्पण में पूरी कविता नहीं ले कर, कविता-पंक्ति है. इन कविताओं या काव्य-पंक्तियों के पीछे चयन का आधार क्या रहा? या हो सकता है उन्होंने आपको इतना आलोडित-प्रेरित किया हो कि वे बरबस आपके चित्रों में प्रकट होने लगीं?

जिज्ञासा यह भी है कि जब दोनों एक दूसरे के पड़ोस में है तब आपके लिए चित्र कविता के पड़ोस में है या कविता चित्र के पड़ोस में? दोनों के एक दूसरे के पड़ोस में होने से वहां क्या स्पन्दन घटते हैं?

सीरजः

यह सुविचारित था कि कहां पर एक पूरी कविता लेनी है और कहां पर एक काव्य-पंक्ति लेनी है. या कि इनका चुनाव.

मैंने कविताओं का चुनाव दो बार किया है. पहले में वे घड़ियां हैं जिन्हें मैंने मिट्टी में बनाया था. इसके लिए सात कवियों की कुछ छोटी व मुझे प्रिय लगने वाली कविताओं का मैंने चुनाव किया था. दूसरी बार में रेखांकन-कोलाजों के लिए मैंने कविताओं का चुनाव किया था. तीन कवि थे, तीन चित्रकार. त्रयी. अपने द्वारा चयनित इन कविताओं के लिए मैंने कवियों से अनुरोध किया था कि वे इन्हें अपनी हस्तलिपि में इन्हें दें. स्वयं कवि द्वारा हाथ से लिखी कविता, स्वयं में एक रेखांकन की मानिन्द है और रेखांकन की रेखांकन से अच्छी दोस्ती व तालमेल है. चाक्षुष-बोध.

कविता का अर्थ और उसका महत्व और उसका आलोक और उसका अस्तित्व: यह भीतर है ही. इसकी जगह.

पीयूषः

क्या आपका ध्यान इस ओर गया कि यह कविताएँ हिन्दी भाषा में लिखी गयी हैं और इसलिए यह उस व्यक्ति को समझ में नहीं आ सकती जो हिन्दी नहीं जानता. जबकि चित्र का हर मनुष्य आनन्द ले सकता है.

सीरजः

यह कविताएँ जिस भाषा में लिखी गयी हैं, वह मेरी भाषा है. इस भाषा में मैं जीता हूँ और यह मुझे अर्थो के गहरे समुद्र में ले भी जाती हैं.

हर माध्यम का अपना एक सीमित खिंचाव तो होता ही है. हिन्दी की कविता है, शायद जर्मन व्यक्ति इसे नहीं समझ पाएगा. लेकिन यह कविता पर आरोप नहीं है. न इस तरह कविता के साथ खिलवाड़ करना चाहिए.

पीयूषः

हम कल्पना करते हैं कि आपके रेखांकन-कोलाज को दर्शक देख रहे हैं. एक वह दर्शक है जो बहुत अच्छे से न केवल देवनागरी लिपि व हिन्दी भाषा जानता है बल्कि कविता का गुणी भी है. लेकिन आप के रेखांकन का वह आस्वाद नहीं ले पाता. उसके प्रति लगभग असाक्षर है. मगर कविता का आनन्द ले पाता है. दूसरा दर्शक, चित्र–आपके रेखांकन–का पारखी है मगर वह उस हिन्दी भाषा को नहीं जानता जिसमें कि कविता लिखी गयी है. चित्र को देखने के दोनों के मतलब अलग हो गये. एक दर्शक चित्र के एक हिस्से का प्रशंसक है, दूसरा दूसरे हिस्से का. एक कविता का आस्वाद ले पा रहा है और दूसरा उस लिपि व भाषा को समझ नहीं पाने के कारण उससे वंचित है. एक और कोण हो सकता है, देखने का. वह यह कि चित्र में कविता महज़ कविता नहीं है. वहां उसका रूप चाक्षुष है, वह एक रूपाकार है जैसे कि आपका रेखांकन. इस स्थिति में चित्र को उसके समूचे चित्र-रूप में ग्रहण किया जा सकता है, खण्डित अंशों की तरह नहीं. मतलब फिर बदल गये. क्या वह चित्र स्वयं से अपनी सीमाओं की चौहद्दी बान्ध रहा है? जाहिर है चित्र को कई कोणों से देखा जा सकता है. आपका प्रस्ताव क्या है ?

सीरजः

रेखांकन और कविता साथ साथ हैं. दो दर्शक देख रहे हैं. एक रेखांकन का पारखी है, दूसरा कविता का. लेकिन यहाँ चित्र-रूप में रेखांकन और कविता, एक ही समय में, सभी के लिए बराबर से खुले हुए हैं. यह दर्शक पर निर्भर है कि वह चित्र को कहाँ तक व किस तरह से देखता या देख सकता है.

मुझे याद आता है कि चित्र और काव्य का पड़ोस कोई नया प्रयोग नहीं है. हमारी परम्पराओं में हम यह देखते-पाते रहे हैं. लघुचित्र शैलियों में हम यह बराबर से पाते हैं. मेरे भीतर भी परम्परा से ही आया है.

पीयूषः

अभी आपने चित्र-शैली का उल्लेख किया. आपने बहुत कम समय में अपनी निजी शैली व पद्धति विकसित कर ली है: अगर यह अपनी आवाज़ पाने के यत्न में अमूर्तन की एक भाषा व चित्र-व्याकरण तब पहुंचने की साधना है तब सहज ही यह जिज्ञासा जन्म लेती है कि इसके केन्द्र में क्या है? आपकी चित्र-कृतियों के सन्दर्भ में अखिलेश का वाक्य याद आता है: ”अपनी पीढ़ी के अन्य सारे चित्रकारों से उनकी एप्रोच भिन्न है.”

सीरजः

शैली का विकसित हो जाना बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात है चित्र बनाने की तड़प. उसके माध्यम से आप स्वयं को कहीं न कहीं मुक्त करते हैं. वह है सृजन. दिमाग़ में तो ढेरों बातें चलती रहती हैं. पूरे वजूद में. इन्हें हम न जाने कितनी तरह से व्यक्त करते हैं. भाषा में, व्यवहार में, काम में, मुद्राओं में, हंसी-दुख में. लेकिन चित्र में जो आने वाला है, वह चित्र बनाने से ही आने वाला है. ऐसा करते करते एक शैली विकसित हो जाती है. शैली का विकसित होना मेरे लिए अधिक महत्व नहीं रखता. यह मेरा ढंग से चित्रांकन का प्रकटन है. और इसे एक सिम्पलीफाइड तरीक़े से लेने-देखने का नाम है शैली. कि यह इस तरह से चित्र बनाते हैं, यह उनकी शैली है. इसको इसी तरह से कह सकते हैं कि यह सीरज है और इसके काम करने का यह तरीक़ा है. हर चित्रकार का अपने चित्र से सम्बन्ध होता है. यह सम्बन्ध सब का अलग अलग होता है इसलिए सब की शैलियाँ अलग होती हैं. चित्रकार के लिए शैली अपने आप को कैनवास पर खोलने का एक तरीक़ा है.

शैली, चित्र और चित्रकार के बीच का वह गहरा सम्बन्ध है जो कैनवास पर साक्षात् प्रकट है. ”शैली” शब्द का अर्थ बृहद् है. शैली अपनी आवाज़ पाने का यत्न है.

पीयूष:

सम्भवतः कला में शैलियाँ अर्थों को अभिव्यक्त करती हैं; अर्थ शैलियों द्वारा अभिव्यक्त होते हैं. जब रोथको ने नवोन्मेष शैली में काम करते हुए, रंग के **large scale, fuzzy, floating rectangles”–जिसे उन्होंने १९४७ में रचा था–अपने अलग अलग चित्रों में नये रंग-सम्बन्धों को उद्घाटित किया तब यह कथ्य में मूल्यवान सौन्दर्यात्मक वैभिन्य के वक्तव्य अधिक हैं बजाय शैलीगत परिवर्तन के. बल्कि उनके बाद के कामों को तो कुछ आलोचकों ने मौलिक इसीलिए नहीं माना क्योंकि वे उसी एक शैली में स्वयं को बरतते रहे. या जैसा कि कहा जाता है कि लियोनार्दो का चित्र मोनालिसा उनके चित्र द लास्ट सपर की शैली में किया गया था तब भी वह उसकी नक़ल नहीं है बल्कि अर्थ का एक नये ढंग से उद्घाटन है. सौन्दर्यात्मक रूप से मूल्यवान चारित्रिकता — जो इस चित्र को मौलिक बनाती है वह — कथ्य/अन्तर्वस्तु है, शैली नहीं. क्या आपको लगता है कि एक ही शैली के भीतर आजीवन रहते हुए भी शायद एक कलाकार मौलिक कृतियों की रचना करता रह सकता है? और यह एक भिन्न तरह की साधना का साक्ष्य भी हो सकता है जिसमें आप एक ही जगह अनवरत खुदाई करते रहते हैं ताकि जल मिल सके? शैली भीतरी खुदाई भी हो सकती है, जो निरन्तर चलनी चाहिए. या कि इसका उलट भी कई बार सच हो सकता है जैसे अखिलेश कहते है: ”मैंने हमेशा बचने की पूरी कोशिश की कि मैं ऐसी जगह न जाऊं जहाँ पर मैं एक शैली में बंध कर काम करने लगूं और फिर आप उसी की नक़ल करने लगे जो आप बना रहे हैं…”

शैली पर आपका सोच क्या बनता है?

मुझे लगता है कि आपके चित्र एक ही कैनवास का विस्तार है. शैली-सन्दर्भ में आपके चित्रों में जो अन्तःसूत्र बरामद होता है, वह मेरी नाक़िस नज़र में, वेरियेशन्स का है, डिफरेन्स का नहीं. एक से दूसरा चित्र आपके यहाँ बहुत महत्वपूर्ण है. क्या आप इस ख़तरे के प्रति सावचेत हैं कि ये वेरियेशन्स्‌ कहीं मैनरिज्म में न बदल जाए? ये वेरियेशन्स्‌ आपकी कला-साधना के चरितार्थन का अनुषंग हैं. यह भीतरी खुदाई है. एक ही स्थल पर कि जल का सोता फूट सके?

सीरजः

शैली को मैं ठीक वैसे ही लेता हूँ जैसे कि मेरी या आपकी आवाज़. हर आदमी की आवाज़ भिन्न होती ही है. शैली तो जन्मजात है और हर असल चित्रकार के भीतर यह शैली विद्यमान रहती है. चित्र भी आवाज़ की तरह जैसे कुछ कहता है. यहाँ स्वामी का वह वाक्य मुझे याद आता है, जब उन्होंने कहा कि चित्र तो भीतर होता है. सतह पर बाहर आने के लिए उसे सीखना नहीं पड़ता. पिक्चर मेकिंग ज़रूर सीखी जा सकती है. जो पिक्चर बनाते हैं, वे शैली को लेकर खासे चिन्तित पाए जाते हैं. वे बाहर से ही शैली खोजते हैं, जबकि वह भीतर ही होती है. अखिलेश इसको देखें तो मेरा मानना है कि हर चित्रकार की. एप्रोच भिन्न होती ही है. यह कोई नया उद्घाटन नहीं है.

जैसाकि मैं मानता हूँ – जैसे मेरी आवाज़ मैं नहीं बदल सकता, वैसे ही अपना चित्रकर्म भी मैं नही बदल सकता-अब शैली को यदि आवाज़ की संज्ञा दें तो मुझे नहीं लगता कि ताउम्र एक ही आवाज़ में बोलना, मनुष्य या उसे सुन रहे अन्य मनुष्य कभी बोर होते होंगे या कभी इसमें एकरसता आती हो. किसी भी चित्रकार के कर्म पर यह कहने से पहले कि वह एक ही शैली में बँध गया है या ख़ुद को ही दोहरा रहा है, यह ज़रूरी है कि उसके १०-१० सालों के कार्यों का अध्ययन करें. मस्तिष्क की गति, मन की गति, समय की गति, किसी विशेष स्थान की गति अलग-अलग होती है. वैसे ही हर चित्रकर्म की गति भी अलग होती है-जब तक स्वयं चित्रों को ये न लगे कि वे आपस में दोहराए जा रहे हैं. जब तक वे नहीं बदलते या करवट लेते है. यह ख़ुद को दोहराने का संशय हर चित्रकार की कहानी है और अखिलेश की तरह मैं या कोई भी चित्रकार सजग होकर यही कोशिश करते रहते हैं कि किसी एक शैली में न बँधे या ख़ुद को दोहराए नहीं.

मेरी कला-यात्रा में तीन चरण आए हैं. अभी तीसरे चरण में हूँ. पहले दो चरणों से तीसरा चरण भिन्न है. कई क़िस्म के बदलाव मेरे काम में आते-जाते रहे और उन्हीं प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए यहाँ तक पहुंचा हूँ. चित्रारम्भ के दौर में, इन्दौर में मेरी कुछ चित्र-प्रदशर्नियां आयोजित हुई थीं. वे मेरे आकृतिमूलक काम थे. भोपाल में सिरेमिक्स में मैंने अमूर्तन में काम करना शुरू किया. दिल्ली आने के बाद अमूर्तन में ही काम कर रहा हूँ. मुझे लगता है कि मैं उतना ही चौकन्ना कलाकार हूँ जितना कि एक आदिवासी चित्रकार होता है. नागर-कला का मेरे जीवन में ज़्यादा महत्व व प्रासंगिकता नहीं है. मैं स्वयं को एक आदिवासी चित्रकार ही मानता हूँ.

चित्ररत होने का अर्थ ही स्वयं को जोख़िम में पाना है. जहाँ रोमांच है, वहाँ ख़तरा है.

जब मेरी बुनावट व सोच में यह शामिल है तब मैनेरिज़्म में फंसने का तो सवाल ही नहीं है. मेरे लिए यह एक प्रायोगिक क्षेत्र है. जो जितना करेगा उतना पाएगा. अखिलेश जी से एक दफ़ा मैंने अपने कुछ संशयों व समस्याओं पर चर्चा की. उन्होंने कहा–”मेरे पिता कहते थे, जो करे सो गुरू.” यह अद्भुत वाक्य है. चित्रकार के लिए सीख है. जो करे सो गुरू. इसमें करना प्रमुख है. यह वाक्य मेरे वजूद में छप गया है. अमिट तरह से. इसलिए मैं निरन्तर करता रहा हूँ. मेरा इस बात पर भरोसा नहीं है कि चार महीने पहले लगातार सोचते-विचारते रहो और फिर एक चित्र बनाओ, इस भ्रम में कि वह एक महान चित्र बन सकेगा. मेरा भरोसा कर्म पर है, लगातार करने पर. यह नैरन्तर्य मेरी चित्र-सम्पदा की स्थायी निधि है. रामचरित मानस की एक पंक्ति है : सिमिट सिमिट जल….

मान लीजिए कि हर चित्र एक सीख है. ऐसे थोड़ी थोड़ी सीख जमा करते करते आख़िर में एक बड़ा तालाब बन जाता है. कर्म केन्द्र में है. पण्ड़ित जी (मुकुल शिवपुत्र) से भी यही सीख मिली. जबकि अखिलेश और मुकुल दोनों का तरीक़ा बिलकुल अलग है. एक ओर एक अनुशासित कलाकार है और अपने कलाकार होने को लेकर पूरी तरह से सचेत है, दूसरी तरफ़ मुकुल शिवपुत्र हैं. उन्हें अपने को कभी यह याद नहीं दिलाना पड़ता कि वे गायक है. गान उनके भीतर है. जैसे आदिवासी चित्रकार जब चित्र बनाता है तब बना लेता है वरना कहीं खेत पर चला गया या जंगल की ओर निकल गया. बाक़ी कर्म में उसे यह ध्यान नहीं होता कि वह एक चित्रकार है. वह सामान्य मनुष्य की तरह ही रहता-जीता-व्यवहार करता है. शहरी सीख कहती है कि तुम सबकुछ भूल जाओ, बस, यह याद रखो कि तुम चित्रकार हो. तुम चित्रकार हो..मुकुल जी गीता का पाठ करते थे. समझाते थे. कर्म-दर्शन.

पीयूषः

मृत्तिका-घड़ियों की निर्मिति के पीछे किस तरह के मूल्य व दृष्टि काम कर रही थी? ”घड़ी” शब्द अपने में एक बहुलार्थी रूपक में बदल जा सकता है.

आपका वह काम भी मुझे बहुत दिलचस्प लगता है जिसमें मृत्तिका-रूपों का संयोजन है. मेरी इस जिज्ञासा के पीछे दो प्रमुख स्तर हैं. पहले का सम्बन्ध इन मृत्तिका टुकड़ों/रूपों के आकार से है और दूसरे में यह जानना कि इन कृतियों में संयोजन की रीतियां व दृष्टि क्या रही?

क्या आप इन मृत्तिका-कृतियों की रचना-प्रक्रिया तथा पद्धति/विधि का साझा करना चाहेंगे? इस माध्यम को स्वायत्त करने के आपके ढंग क्या रहे हैं?

क्या आपको ऐसा लगता है कि इस माध्यम में तकनीक का स्वरूप व आकस्मिकता-तत्व, वांछित कृति-रूप प्राप्त करने में, अपनी महती भूमिका निभाता है?

इन कृतियों की निर्मिति में आपका मुख्य जोर किन तत्वों पर रहा है?

सीरजः

यह वह दौर, वह घड़ी थी जब मेरा शब्द संसार से परिचय हुआ ही था. घड़ी तो चलती रहती है पर असल घड़ी वह है जब हमने जन्म लिया, हम संभले, हमें ज्ञान हुआ. हमने अपनी जीवन शैली कब चुनी, कर्म किया व अन्त में एक घड़ी में लीन हो गए. घड़ी शब्द एक संयोग का नाम है शायद ?

‘सिमिर सिमिर जल भरहिं तलाबा’ बिन्दु-बिन्दु से एक लम्बी लकीर व छोटे-छोटे टुकड़ों से एक वृहद आकृति बनती है. हमारी कला परम्पराओं में छोटे-छोटे टुकडों से बना है. रामचरित मानस भी दोहों, अनेकों चौपाइयों व छन्दों का एक ग्रन्थ है और  हर छन्द, दोहा, चौपाई स्वयं में व्याकरण व अर्थ विस्तार के सन्दर्भ में परिपूर्ण है. यह छोटे आकारों, रूपों का संयोजन जब इकठ्ठा होता है, एक घाट में काम करता है तो एक वृहद संयुक्तनुमा मानस या कविता तैयार होती है.

गाँव या क़स्बे की छत पर बारिश और गर्मी से बचने के लिए कवेलुओं का प्रयोग होता है. कवेलुओं का यह जमाव, सूखती बड़ी व पापड पर किसी चारपाई पर, हाथों से कोयलों के लड्डुओं को सुखाने के लिए एक साथ ज़मीन पर रखना, यह सब मुझे बहुत आकर्षित करता रहा है. यह सब चीज़ें नितान्त उपयोग के लिए की जाती हैं पर इनके संयोजन में एक कलात्मकता होती है. सौन्दर्य होता है जो मुझे आकर्षित करता रहा है. शायद यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि मैं जो भी सिरेमिक में करता हूँ वह इसी परम्परा का ही विस्तार है. मेरा काम चूंकि नितान्त कला के सरोकार से है तो उसमें सौन्दर्यबोध का दिखना सहज ही है, पर कलावीथिका के बाहर भी मेरी सिरेमिक कला को आम लोग, जिनका तथाकथित कला से कम से कम सीधा-सीधा सरोकार नहीं है, वे भी बड़े आनन्द और विनोद के साथ देखते हैं और उन्हें यह कोई बिरली नहीं जान पड़ती. शायद तभी वे इसे सीधे, स्वयं से जोड़ लेते हैं. कहने का मतलब है कि यह संयोजन हमारे लोगों के मन में बैठा स्मृति का एक हिस्सा है.

आधुनिकता व आधुनिक कला का भी हिस्सा है, चूंकि इसमें तथाकथित कला व्याकरण व वाद का स्पष्ट दोहराव नहीं है. एक स्वच्छन्द कला की तरह यह काम आधुनिक व समकालीन कला का भी अह्‌म हिस्सा माना जाता है.

रचना प्रक्रिया व पद्धति कोई खास नहीं है. शुरू के तीन-चार सालों तक इस माध्यम को गहराई से सीखा व इसके भिन्न -भिन्न पहलुओं के विस्तार व सीमाओं को भी नज़दीक से परखा है. मसलन, इस माध्यम से काम करने वाले बहुतायत कलाकार ‘स्टुडियो पॉटर’ कहे जाते हैं. जो व्हील पर तरह-तरह के पात्र बनाते हैं. चाक पर काम करना मैंने भी सीखा. यह सचमुच एक रोमांचक अनुभव है जैसे पतंग उडाना, तैरना, स्केटिंग करना, बाईक चलाना आदि की तरह. व्हील पर काम करना दिखता सरल है, पर मिट्टी रखने की व्हील किसी जि़द्दी घोडे की तरह मिट्टी को अपने ऊपर बैठे घुड़सवार की तरह फेंक देता है. धीरे-धीरे ही व्हील की गति व उस पर मिट्टी की स्थिरता सधती है. चाक पर काम करना एक तरह से ध्यान में बैठना है. किसी असंयमी मानस के बस की बात नहीं है. मैं मानता हूँ कि जो चाक पर काम करते हैं, वे बड़े आत्मविच्च्वासी होते हैं. घूमती हुई चाक पर मिट्टी रखना, उसे घूमते हुए चाक पर मध्य में रखकर स्थिर करना, फिर उठाना, उंगलियों और हथेलियों से एक मात्र पकड़ना ठीक वैसा ही है जैसे आकाश में उड़ते पक्षियों या पानी में तैरती मछलियों का तीर से शिकार करना. चाक पर सिर्फ़ गोल बर्तन ही बन सकते हैं और यह काम सदियों से हो रहा है. पर आज भी घूमते हुए चाक पर रखी मिट्टी में अनगिनत नए-नए पात्र छिपे हुए हैं. धीरे-धीरे ही सही, पर अब अपने देश में भी स्टुडियो पॉटरी का इस्तेमाल युवा दम्पत्तियों ने आरम्भ किया हैं. मिट्टी में काम करने का यह रास्ता मेरे लिए नहीं है.

मैं मिट्टी में छिपे अनगिनत आकारों को अपनी उंगलियों से प्रकट होते देख ख़ुश होता हूँ. मिट्टी में हर तरह का आकार छुपा है.

जाकी रही भावना जैसी. प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.

यह बात यहाँ सटीक बैठती है. मुझे देखे हुए आकार देखने व दिखाने में मज़ा नहीं आता. स्मृति के वीराने से कुछ अजीब-अटपटे आकारों को चुनना मुझे पसन्द है. शायद यह अजीब और अटपटापन ही मुझे अपने काम की नवीनता लगता है.

म्यूरल बनाते समय मुझे दीवार और ज़मीन दोनों सतह की तरह दिखते हैं. मेरे कामों को ज़मीन पर मीलों तक बिछाया भी जा सकता है और दीवारों में भी लगाया जा सकता है. मेरा मुख्य जोर छोटे-छोटे विचारों से एक वृहद दृष्टि परिपक्व करने पर अधिक रहता है.

पीयूषः

भौतिक अभिप्राय में कैनवास का अवकाश व सतह कैनवास के आकार से अलग नहीं है–चित्र इस आकार के भीतर ही घटता है. लेकिन आमतौर पर एक मृत्तिकाशिल्प के लिए मसला इससे भिन्न है. आकार के सन्दर्भ में इन दो परस्पर भिन्न माध्यमों के इस मूलभूत फ़र्क़ को लेकर आपका रचनानुभव व सोच क्या बनता है कि चित्र पहले से प्रदत्त आकार/फ्रेम के भीतर रूपायित होता है जबकि मृत्तिकाशिल्प की निर्मिति में आकार प्रदत्त नहीं है? चित्र बनाने के लिए आप एक खास आकार के कैनवास या फलक का चुनाव करते है और हो सकता है कि एक शिल्प बनाते समय आप यह पहले से तय कर लें कि आप फलां आकार का/में शिल्प बनाएंगे. पहली स्थिति में आकार प्रदत्त है जबकि दूसरी स्थिति में यह अभी भौतिक मायने में अदृश्य है.

आप कविताएँ भी लिखते हैं.

आप जानते हैं कि एक कविता लिखते समय आपको पहले से यह पता नहीं होता कि कितने शब्दों में एक कविता बनने वाली है. कविता पूरी होने के बाद ही इस ओर ध्यान जा सकता है कि यह कविता कितने शब्दों से बनी है. यानी कविता अपने बनने में ही अपना आकार गढ़ लेती है और अलग से यह आकार महज़ एक जड़ ब्यौरा-भर है कि कविता कितने शब्दों से बनी है क्योंकि असल में तो कविता का तथाकथित प्राणप्रतिष्ठित आकार उस कविता के शब्दों से बने कविता-रूप के अलावा नहीं है.

अब यह दिलचस्प है कि चित्र के मसले में हमेशा आकार व सतह पहले से मौजूद है जिसमें कि चित्र-रूप प्रकट होता है जबकि शिल्प के सन्दर्भ में आकार पूर्वसंकल्पित होने के बावजूद ठोस तरह से प्रदत्त नहीं है और तीसरा धरातल कविता का है जहाँ दरअसल आकार का मसला ही नहीं उठता.

हालांकि इन तीनों ही माध्यमों में असली बात रूप-रचना की है, आकार की नहीं.

सीरजः

एक शिल्प मिट्टी में छुपा होता है, जैसे कि हवा में, एक महा-अवकाश में, हवा में उंगलियां लहरा कर यह शिल्प, यह आकार जो (आपके द्वारा प्रकट होगा) पकड़ा जाता है. चित्र, कैनवास के कौमार्य में छिपा होता है. उसे भेद कर ही चित्र बनना शुरू होता है और फिर ख़त्म भी. एक सहवास की तरह, जो एक कैनवास और चित्रकार के बीच होता है. यह सहवास कर्म/सृजन एक प्रदत्त सतह पर या चित्रकार द्वारा चुनी हुई सीमाओं के बीच घटता है. सीमा, उस सृजन को रोके रखने, कुछ देर तक ठहराने का काम करती है. सृजन एक विराट सम्भवतः अनन्य रूप है. उसे राग की एक बन्दिश में, नृत्य में, कविता में, शब्दों में, चित्र में आकार, शिल्प में भी आकार में ही देखा जा सकता है. चित्र, कविता, कहानी, गीत, संगीत, शिल्प के माध्यम से ही हम उस विराट सृजन सम्भावनाओं की कल्पना कर पाते या मज़ा ले पाते हैं. फिर यह आश्चर्य की तरह चित्र या शिल्प आपके सामने खड़ा होता है कि कैसे इस आकार पर यह चित्र या शिल्प उभर सका? सचमुच कमाल है.

अनेकों छोटे-छोटे अनन्त नए नए चमत्कारिक आकार मिट्टी में छुपे हैं और विश्वभर के तमाम शिल्पकार बरसों से मिट्टी में, पत्थर में, लकड़ी में, इन आकारों को अपनी-अपनी समझ व नज़र से खोजते चले आ रहे हैं. कलाकार चुक जाता है पर एक कैनवास या पत्थर या लकड़ी का टुकड़ा, अनंत सम्भावनाओं के साथ, तब भी वैसे ही खड़ा था और अब भी वैसे ही खड़ा है.

मुझे लगता है कि कविता और चित्र में सतह को लेकर कोई भेद नहीं है. एक कवि अपने काग़ज़ पर अपनी कविता के जिस अनिश्चित रूप के सामने खड़ा होता है, ठीक वैसे ही एक चित्रकार, एक शिल्पकार अपने कैनवास या अपनी मिट्टी के सामने खड़ा होता है. कविता कितने शब्दों में बनेगी या चित्र कितने रंगों, रेखाओं से व शिल्प कितनी ऊंचाई, उभार या मोटाई का होगा, यह अनिश्चित होता है. रूप रचना ही महत्वपूर्ण है. तकनीक या भौतिक चीज़ नहीं.

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  1. kya bat hai seeraj bhai – shailendra

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