आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सावन आये या न आये: भूतनाथ

(रफी, शकील, और नौशाद की स्मृति में)

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हर साल की ही तरह चहल पहल थी. नया सत्र शुरू हो रहा था. नए लड़के लड़कियाँ इतने बड़े कैम्पस में आ कर चकित पुलकित से इधर-उधर देख रहे थे, जैसे फूटे अण्डों से निकले नन्ही चिड़ियाँ के नए बच्चे. पुराने विद्यार्थी, प्रोफेसर, हॉस्टल के महाराज, यूनिवर्सिटी के चपरासी, बाकी लोग इन नवागन्तुकों पर कैसे हँसते थे! लेकिन मन ही मन सब जानते थे कि जल्दी ही से सब भी उन के ही रंग में ढल जायेंगे. कुछ ही दिनों में अल्ल्हड़ से जूते पहन के घूमने वाले लड़के कैसे यूँ ही चप्पलों में न ठन के जूते पहन कर विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर स्थित लंका की किसी छोटी सी दुकान पर चाय पीते नज़र आयेंगे. ये नई शर्मीली लड़कियाँ न जाने किन-किन लड़कों के साथ गंगा दर्शन करती नज़र आयेंगी. सब को ये बातें पता थी, शायद देवयानी भी जानती होगी. आख़िर ये भी कोई नई कहानी थोड़े ही थी न!
इन से अनजान यमुना छात्रावास में शर्मिष्ठा और विदिशा अपने सामान को सजा रहीं थी. रूममेट से बातें हुई. पता चला कि शर्मिष्ठा धनबाद में सबसे ज्यादा नंबरों से पास हुई थी. विदिशा ने देखा शर्मिष्ठा बिल्कुल सीधी साधी सी दिखती है. फीके रंग का सलवार सूट, सीधी मांग और एक सीधी सी चोटी. शर्मिष्ठा ने देखा विदिशा घुंघराले खुले बालों वाली, पटना की तेज़ तर्रार, स्कर्ट पहनने वाली, महंगी लिपस्टिक लगाने वाली, गोरी सुंदर और शायद नाजुक सी लड़की है.

एक तरफ़ सादगी थी दूसरी तरफ़ ऐश्वर्य.  ऐश्वर्य सबों को खीच कर अपने दरवाज़े पर ले आता है. शाम होते होते तक किसी ने दरवाज़े पे दस्तक दी. एक छोटे कद की सांवली सलोनी लड़की खड़ी थी जिसके कौतुहल भरे चेहरे पे दौड़ रहा था- हो रहेगा मिलन ये हमारा, हो हमारा तुम्हारा रहेगा मिलन, ये हमारा तुम्हारा.

“हमसे भी बातें कर लो विदिशा.” उसने कहा और कनखियों से शर्मिष्ठा को देखा. पल भर के मूल्यांकन के बाद उसने शर्मिष्ठा को टोकना उचित नहीं समझा.

फ़िर ऐसे ही बातें शुरू हुई. देवयानी ख़ुद चल कर आयी थी अब ये बात तो बड़ी थी. दूसरे शब्दों में ये बतला दिया गया कि देवयानी को राँची की राजकुमारी समझी जाए. देखो कितना कुछ उसने पढ़ रखा था- तोल्स्तोय, दोस्तोएव्स्की, रुश्दी, दोनों एलियट.. टैगोर और शरतचंद्र तो सब पढ़ते हैं, किसी ने ‘सर्वान्तेस’ पढ़ा है? अब देखने वाली बात ये है कि देवयानी सब की दोस्त है, पढ़ाई लिखाई से ले कर हर दिक्कत में बुला लो, बस दौड़ी चली आएगी.

बार-बार बातों में देवयानी मुड़-मुड़ कर देखा पर शर्मिष्ठा ने उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया. थोड़ी देर में शर्मिष्ठा ने अपनी कॉपी में लिखा- हे भगवान! ये ‘चाट’ कब जायेगी?

भगवान् ने उसकी बात सुन ली. देवयानी जब जाने लगी तब दरवाज़े के पास जा कर इतने ज़ोर से चीखी कि अगल बगल की सारी लड़कियाँ निकल आयीं.

बस एक तिलचट्टा था!

शर्मिष्ठा ने मन ही मन कहा- शायद नौटंकीबाज़ है ये बालिका.

विदिशा को देवयानी बड़ी भोली लगी. शर्मिष्ठा ने पहले कह दिया- शायद मुझसे इसकी नहीं बनेगी. मैं दूर ही रहूँगी इससे.

देवयानी ने ना केवल काफ़ी कुछ पढ़ रखा था वरना काफी होशियार भी थी. ऐसा विदिशा मानने लगी कि देवयानी किस्से कहानियो में पली-बढ़ी समझदार लड़की है. अब शर्मिष्ठा को भी विदिशा की बातें सुननी पड़ती थी- देवयानी ऐसी है, वैसी है. पूरे खानदान में अकेली लड़की है. उसकी चाचा-चाची, मामा- मामी, बुआ-फूफा, मौसी-मौसा किसी को कोई लड़की नहीं. तुम्हे पता है शर्मिष्ठा?- एक बार जब देवयानी छोटी थी, तब उसके पापा ने- मैंने बताया?- उसके पापा लाइब्रेरियन हैं. उसके पापा को बहुत सारी कहानियाँ पता थी. देवयानी को उन्होंने सुनाया थम्बेलिना की कहानी. एन्डरसन वाली थम्बेलिना! तबसे ले कर आज तक अपने घर के पास वाले छोटे से तालाब में वो थम्बेलिना ढूँढती है. और देखो न, उसे मिलता है क्या वो मेढक? और वो दुष्ट मछलियाँ? तुम ऐसे कैसे सोचती हो! वैसे तुम्हारे बारे में पूछ रही थी. बताओ तुम हमेशा अदरख क्यों खाती रहती हो?

शर्मिष्ठा किसी बात को सुनने के लिए सुनती है. काम कितना है! पढ़ना है, लिखना है, किसको फुरसत है जो “वार एंड पीस” पढे. देवयानी चंचल थी. चंचल कन्या, चितवन भरी मतवाली हिरनी, किस शिकारी की नज़रों से बच सकती है? जल्दी ही सीनियरों से उसकी मुलाकात हुई.

भरी महफिल में उस खूबसूरत नौजवान ने पूछा, “तुम देवयानी हो?”

“और आप कच हैं?”

सब आश्चर्यचकित से देखने लगे. उस विशाल प्रस्तर प्रतिमा जैसे युवक ने पूछा- “तुम मुझे जानती हो?”

“पूरे काशी में कौन ऐसा होगा जो आपको नहीं जानता होगा.” देवयानी शरमायी. फ़िर कहना शुरू किया, “जब मैं रेलवे स्टेशन से उतरी, मैं बिल्कुल अकेली थी. बिल्कुल अकेली. चारो तरफ़ भिखारी ही भिखारी. मुझे देख कर हाथ फैला देते थे. मैं डर गयी. एक बूढा भिखारी मेरे पास आया. काफी बूढा था, कमर झुक गए थे. मुझे देख कर अपने सूखे होठों को बड़ी मुश्किल से खोल कर आह भरी और अपना कटोरा फैला दिया. मैं डर गयी. इधर उधर देखा. कैसे-कैसे लोग थे- मोटे काले, पतले लंबे, नाटे डरावने, गंजे शैतान. सब मुझे ही देख रहे थे. मैं झट से बाहर निकली, और मैंने एक ऑटो रिक्शेवाले से पूछा- काशी विश्वविद्यालय चलोगे? उसे नहीं समझ में आया. फ़िर मैंने पूछा ‘बी एच यू’ चलोगे? आप जानते हैं उसने क्या कहा- कहने लगा, जहाँ कच पढ़ते हैं वहीं न?”

मैंने पूछा, “कौन कच?”

कहने लगा- “जिसके बल पर तेजोमय है अम्बर, धरती है स्थापित स्थिर, स्वर्ग और सूरज भी स्थिर….

सब हँसने लगे. रैगिंग खत्म हो गई और सब चले गए.

कच पास आया. अपनी विराट अस्तित्व से थोड़ा झुक कर उस ने धीमे से कहा- “बहुत जल्दी कहानियाँ गढ़ लेती हो तुम?”

देवयानी ने उसकी आँखों में देखा, क्या तुम भी नहीं समझते?, चुपके से बोली- ‘बहुत जल्दी दिल चुरा लेते हैं आप!’

वो पल देवयानी के लिए बस वहीं थम गया. मुँह से बात निकली भी न थी और न जाने क्यों कच वहाँ से चला गया. कितना अभद्र, असभ्य, और दुस्स्चरित्र पुरूष है. जाते हो तो जाओ. जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना.

देवयानी २ घंटे तक विदिशा के पास रोती रही. शर्मिष्ठा उसके दुःख से बिल्कुल अनजान- मशरूफ अपनी टेबल पर पढाई करती रही. उसने अपनी कॉपी पर फ़िर लिखा- ये चाट कब जायेगी?

लेकिन देवयानी और विदिशा की दोस्ती बढ़ती गई.

क्रॉसवर्ड!

क्रॉसवर्ड काफ़ी अच्छा कर लेती थी. हर रोज़ सुबह-सुबह अखबार निकाल कर दोनों गप्पे मारती और साथ में खेलती भी जाती. विदिशा, जिसे अपने सुन्दरता और बुद्धि पर इतना नाज़ था जल्दी ही पानी-पानी हो गयी. देवयानी उससे कहीं पहले क्रॉसवर्ड खत्म कर देती.

एक दिन विदिशा ने आह भरी- देवयानी ने काफी ज्यादा पढ़ रखा है, वरना अंग्रेज़ी में इतनी अच्छी पकड़ किसकी होती है?

शर्मिष्ठा मुस्कुरायी और कहने लगी- शायद बीएचयू के बाहर लंका पर रात के आठ बजे बहुत सी गाडियाँ आती हैं. शायद अगले दिन का पेपर भी आ जाता है. तुम खरीद भी सकती. उत्तर देख कर शायद अगले दिन ख़ुद बना भी सकती हो!

विदिशा चिढ गई- तुम देवयानी से जलती हो. तुम इतना घटिया सोच भी कैसे सकती हो?

शर्मिष्ठा ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप पढ़ती रही. अपनी कॉपी में उसने लिखा- शायद ये सच है. शायद ये सच नहीं. शायद ये सच भी है, शायद ये सच नहीं भी. शायद हम इसे नहीं जान सकते. शायद ये ऐसा ही है और हम इसे नहीं जान सकते. शायद ये नहीं है और हम इसे नहीं जान सकते. शायद ये है भी और नहीं भी और साथ में हम इसे जान भी नहीं सकते.

अगले दिन विदिशा दूसरा न्यूज़ पेपर उठा कर अपने रूम में बैठ हुई थी. जब देवयानी अपने अखबार का पन्ना ले कर आयी तो विदिशा ने साफ-साफ कह दिया कि इस पेपर की क्वालिटी गिरी हुई है. कोई हमारे पेपर का क्रॉसवर्ड को हल करे तब कोई बात है. देवयानी को बात चुभ गई. मुकाबला शुरू हुआ. ७ बजे से ९ बज गए- दोनों पक्की सहेलियों से आधी क्रॉसवर्ड भी हल नहीं हुई. और दोनों ही चिढ गई.

देवयानी इसलिए क्यूंकि आज उसका सिक्का नहीं चला. विदिशा इसलिए क्यूंकि उसने अपने सामने अब तक किसी और को बुद्धिमान कैसे मान लिया था.

देवयानी को थोड़ा शक भी हुआ वो भी इसलिए क्योंकि बीएचयू के श्रेष्ठ गायिका शर्मिष्ठा मुस्कुरा-मुस्कुरा कर आज गाना गुनगुना रही थी- वो कदम कदम पे जीतें, मैं कदम कदम पे हारा, रहा गर्दिशों में हरदम… जब अंत में दोनों कन्याओं को अपनी स्थिति का पता चल गया था तब दोनों ही उठ खड़ी हुई इस संकल्प के साथ के अब बात नहीं की जायेगी,  जब तक कि सामने वाला पानी ना पी ले.

विदिशा इस बात से सदमे में पड़ गई. शर्मिष्ठा बस अपने गानों को गुनगुनाती रही- कोई सागर दिल को बहलाता नहीं, बेखुदी में भी करार आता नहीं. देवयानी अपने अभिमान को ताक पर रख कर उनके रूम में आयी.

“विदिशा, क्या कर रही हो ऐसे अकेली बैठी हुई? चलो हम गदोलिया चौक चलते हैं? देखो न हमको चूड़ी लेना है. तुम्हारे बिना कैसे जायेंगे?”

विदिशा ने रूखेपन से कहा- अभी बहुत पढ़ना है. कभी बाद में चलेंगे.  देवयानी ने शर्मिष्ठा का गुनगुनाना सुना और गुस्से में चली गई.

थोड़ी देर बाद रूम के बाहर से चीखें सुनायी पड़ी- “आह.. विदिशा.. ओह्ह.. विदिशा.. हेल्प ..विदिशा…”

विदिशा के रोंगटे खड़े हो गए. झट से अपनी किताबें फेंक कर वो बाहर दौड़ी. बगल से रूपा, मनीषा, रेवती सभी बाहर दौड़ कर आयी. सीढियों के पास वाले टॉयलेट से आवाज़ आ रही थी.

विदिशा ने देखा देवयानी कराह रही थी. सब लोग उसके पास दौड़ के पास पहुंचे. देवयानी बिल्कुल आधी मूर्छा की हालत में थी.

शर्मिष्ठा वहाँ पहुँची. उसने रेवती के कानो में फुसफुसाया- अच्छा, ये बताओ ये ‘सेफ्टी पिन’ अचानक पीठ पर कैसे चुभ गया?

रेवती चिढ कर ज़ोर से बोली- नाटक करती है देवयानी! चलो रूपा. ये सुन कर देवयानी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी.

विदिशा ने रात में शर्मिष्ठा को कहा- अब मैं उससे कभी कभी बात नहीं करुँगी.

“क्यों? अभी न जाने कितने सालों का साथ है! दुनिया में हम आयें हैं तो जीना ही पड़ेगा. जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा.

“नहीं. अब शायद तुमसे भी बात न हो पाये. मुझे फ्रांस की यूनिवर्सिटी में स्कोलरशिप मिल गई है. मैं यहाँ से जाने वाली हूँ.” विदिशा ये कह कर खामोश हो गई. शर्मिष्ठा ने उसकी तरफ़ देख कर राग कल्याण गुनगुनाना शुरू कर दिया, “शायद तुम जा रही हो या शायद नहीं. शायद तुम यहीं रहोगी और शायद तुम चली भी जाओ. शायद हमें याद आओगी और नहीं भी…”

विदिशा अपनी बात की पक्की निकली. वहाँ पर कोई शायद नहीं था, वरन एक नितांत कर्म. जाते जाते तक उसने फ्रांस जाने के बारे में किसी को नहीं बताया और देवयानी से बात नहीं की.

विदिशा चली गई. शर्मिष्ठा का कमरा खाली हो गया. देवयानी चुपके से आयी. शर्मिष्ठा को घूर कर देखा. फ़िर दो मिनट के लिए खड़ी रहीं. आँखे लाल हो गई. फ़िर वो अपने रूम पर चली गई.

‘ऍफ़ एम’ पर ये गाना बजता रहा –तूने वो दे दिया ग़म, बेमौत मर गये हम, दिल उठ गया जहाँ से, ले चल हमें यहाँ से, ले चल हमें यहाँ से…

लोग कहते हैं उसका पाँव फिसल गया था.

कुछ लोगों का कहना है वो जान बूझ कर गिर गयी थी. कुछ का ये मानना था कि बाकी सब हरकतों की तरह ये भी सुहानुभूति लूटने का तरीका है. जितने मुँह उतनी बातें!

किंतु ये सच है कि देवयानी सीढ़ियों के नीचे कराहती पायी गयी थी. वो होश में भी नहीं थी. यमुना छात्रावास से सारी लड़कियाँ उससे मिलने गयी. लेकिन… लेकिन देवयानी ने किसी को नहीं पहचाना.  हॉस्पिटल ले जाया गया. देवयानी ने वहाँ मैडम को भी नहीं पहचाना. सारी लड़कियाँ उसकी मदद के लिए आती रही है. लेकिन देवयानी की याददाश्त नहीं लौटी. माँ-पिता जी को बुलाया गया. देवयानी उनको भी नहीं पहचान पायी.

“आप कौन हैं मैडम? ऐसे क्यों रो रहीं हैं? आपको पहले तो कभी नहीं देखें? आप यहाँ नई आई हैं?”

माँ रोने लगी. पिताजी की आँखें भर आई.

देवयानी की माँ वहीं रुक गई. १५-२० दिन हो गए कोई सुधार नहीं आया. परीक्षाएँ नजदीक आ गयीं. रेवती ने बताया कि देवयानी एक दिन अपनी माँ को माँ-डम कह कर पुकारा, लेकिन जैसे ही लोगो ने उसे देखा तो फ़िर ऐसे करने लगी कि किसी को नहीं पहचानती है.  मनीषा के हिसाब से विदिशा का गम था. रूपा कच का नाम ले कर चटखारे लेती रही. कोई कहता परीक्षाओं से बचने का बहाना है. देवयानी परीक्षा नहीं दे पायी. और अपने घर चली गई. शर्मिष्ठा ने ठंडी साँस ले कर कहा- “अब तो एक साल बरबाद हो गया उसका. शायद लोग अस्तित्ववाद समझते होंगे! जब ‘कामुस’ को पढ़ा होगा तो ये भी जानती होगी.. शायद जानती है और नहीं जानना चाहती है. या फ़िर शायद नहीं जानती है और नहीं जानना चाहती है. शायद हम ये बात नहीं जान पायेंगे.”

2

ययाति ठीक-ठाक गुनगुना लेता था. रेल के सफर में रियाज़ करना सबसे अच्छा लगता था उसे. “तार मिले जब दिल से दिल के वही समय मनभावन है…” हलके हलके गुनगुनाते हुए ययाति ने रांची के प्लेटफॉर्म को निहारा. गाड़ी थोड़ी देर में खुलने ही वाली थी.

“वही शोर-शराबा, वैसे ही लोग- जैसे वो बचपन से देखता आ रहा हूँ. कुछ भी तो नहीं बदलता है कहीं भी. रांची भी जमशेदपुर जैसा ही है. लेकिन फ़िर भी मैं अजनबी सा क्यों हूँ?”

रे म प प नि सा…मौसम आया सुख पावन का, दुखों की जावन जावन है…

तभी सामने एक सांवली सलोनी लड़की सामने वाले बर्थ पर सामान रखने लगी. “पापा. आप जाईये. हम चले जायेंगे.”

बस इतना ही कहना था और फ़िर उसकी नज़रें जाती हुई कदमों को देखने लगी. ययाति देखता रहा कि कैसे उस युवती के आँखों से आँसू निकलने लगे. गला रूंध गया. “पापा….”

गीली आँखों को कभी पोछती, कभी मुँह बंद करती, कभी खिड़की के बाहर खड़े पिताजी को देखती, उनकी उंगलियाँ पकड़ कर फ़िर से रोने लगती. कभी वो बूढे सज्जन पुरूष रोने लगते, फ़िर चुप हो जाते. लेकिन बेटी रोती जाती. एक बार उनके होठों से निकला- “मेरी थम्बेलिना…!”

इतने देर में उसने ययाति को एक बार भी नहीं देखा.

गाड़ी खुलने लगी… देवयानी की उंगलियाँ उसके पिताजी के हाथों से छूट गई. आस पास के लोगों के नज़रों के बीच ययाति ने पूछा- “आपको कहाँ जाना है?”

“बनारस!”

“वहाँ पढ़ती हैं?”

“हाँ. बी एच यू में..”

“आहा… कभी देखा नहीं आपको!”

“हमने भी आपको कहीं नहीं देखा.” देवयानी हलके से मुस्कुरायी.

“वैसे आपकी हिन्दी बहुत अच्छी है.

“और आप बहुत अच्छा गा लेते हैं.”

इस पर ययाति मुस्कुरा भर दिया. लड़को का ईमानदारी से मुस्कुराना और शर्माना लड़कियों की तुलना में काफी बड़ी बात है. ये बात शायद देवयानी को पता थी.

“आप मुझे “ब्रदर्स कारामाजोव” की “कैटरीना इवानोवा” जैसी लगती हैं…” ययाति ने झट से कहा और फ़िर शर्मा गया. फ़िर सोचने लगा कि इसने शायद ही दोस्तोएव्स्की का नाम सुना हो. “क्या आपने पढ़ा है ब्रदर्स….”

“जी हाँ. हम ‘क्राईम एंड पनिशमेंट’ भी पढ़ चुके हैं.”

‘मिडिलमार्च?”

“हाँ!”

“वार एंड पीस?”

“जी हाँ!”

“लोलिता?”

“यस.”

फ़िर ययाति को बात चुभ गई. वो पूछता गया, देवयानी हाँ में जवाब देती गई. ययाति ने अब ऐसी किताबों के नाम लेने शुरू किए जो उसने नहीं पढे थे. लेकिन देवयानी भी लाखों में एक थी. सब पढ़ रखा था – “ जेन ऑसटेन, डिकेन्स, पो, वर्जीनिया वूल्फ़, ज्वाय्स.” ययाति ने हार मान ली लेकिन जब पता चला कि उसके ये नन्हीं सी थम्बेलिना, जोकि मोटे ताजे ययाति के अंगूठे से भी ज्यादा लम्बी नहीं है, किताबों के बीच पली बढ़ी है तब उसे कोई आश्चर्य या अफ़सोस नहीं हुआ.

देवयानी ने चुप्पी को तोड़ा, “आप भी तो अच्छा गा लेते हैं.” और अपना हाथ दिखलाना बंद किया. ययाति ने कहा- आपका शनि ख़राब है और बृहस्पति भी.”

“आप बात बदल रहे हैं.”

“बस गुनगुनाना आता है थोड़ा बहुत.”

“आपको पता है ये गाना हमको कितना पसंद है. जब से पिया तू नैनों में आया, प्रेम के रंग में रच गयी काया.”

ययाति खिलखिलाती चाँदनी में, जो कि तेज़ भागती रेलगाड़ी की खिड़की से छिटक कर बेरोक टोक अन्दर आती जा रही थी,  इस मतवाली लड़की को देख कर अजब सी मदमाती खुशी में भरा गया था. ययाति ने गाना शुरू किया- ‘बागों में, वन में, नील गगन में, सब में है तेरे रूप की छाया..’

“कितना मधुर संगीत है. सब में है तेरे रूप की छाया. कितना अच्छा लाइन है…” देवयानी ने गाना शुरू किया- “सावन आये या न आये, जिया जब झूमें सावन है….” ययाति मुस्कुराता रहा.

“हम सच बोलें तो सबसे अच्छी बात यही है- जिया जब झूमे सावन है. आप शायद हमारी बात नहीं समझेंगे लेकिन..” देवयानी हँसती रही.

बहुत देर तक रेल के साथ ये स्वर लहरी चलती रही- ‘जिया जब झूमें सावन है..

3

स्पंदन.

बी एच यू का वार्षिकोत्सव.

काशी का प्रतिष्ठित कार्यक्रम. आखिरी दिन है.

पुरु के कन्धों पर पूरे कार्यक्रम का सारा दारोमदार था. सचिव है. बहुत सारे काम किए हैं और बहुत काम बाकी भी पड़ा है. आयोजन करना है- प्रायोजकों को बिठाना है. प्राध्यापक, प्रतिभागायिओं से ले कर दर्शकों की सारी व्यवस्था उसे ही करानी थी. कहने को काफी लोग थे पर पुरु के बिना कोई बात नहीं बनती थी. सबसे शरारती , सबों के दोपहर का टिफिन खा जाने वाला, सबको तंग करने वाला, और देवयानी के साथ पढ़ने वाला.

देवयानी के लिए वो था- ‘बेचैन आत्मा’ और पुरु के हिसाब से देवयानी थी ‘भटकती आत्मा’, वो इसलिए क्यूंकि इधर कुछ दिनों से बस उनके पिता समान ‘ययाति भइया’ के लिए भटकती रहती थी. लंका पे है? फैकल्टी में हैं? लाइब्रेरी गया है? उसके बिना तो दिन ही नहीं गुजरेगा. अब पुरु के हिसाब से ययाति भइया को भी वो पसंद थी और भटकती आत्मा को भी भइया पसंद आ गए थे लेकिन देवयानी जी उन्हें ‘कुत्ता’ कहके बुलाती थी. कहना था इससे तो अच्छा है मैं किसी कुत्ते से शादी कर लूँ. इससे बेहतर तो हमारा ‘सार्वज़निक पति’ है.

आज इन बातों को अच्छे से विचारने का अवकाश नहीं है. आज पुरु बहुत व्यस्त है. सर न जाने कौन से दर्द से फटा जा रहा है. कई दिनों से है, कई बार सोचा कि आज डॉक्टर को दिखा ले, लेकिन फ़िर समय नहीं मिला. साथी संगी मजाक उड़ाते हैं, पुरु नाटक कर रहा है. देवयानी माता की संगति का असर है. देवयानी माता के ‘सार्वजनिक पति’ ने बहुत खिंचाई की, पूछा किस लड़की को देख कर सर में चक्कर आता है. अभी जब इतना महत्वपूर्ण समय है क्या करे? कौन संभालेगा उसका काम? ऐसे तो नहीं ही छोड़ा जा सकता. उसके आदर्श ययाति भइया क्या बोलेंगे? उन्हीं से सिखा है हर दुःख दर्द में भी कर्तव्य पर लगे रहना. लो ययाति भइया आ गए.

“क्या रे बालक? कैसा चल रहा है प्रबंधन?” ययाति ने झिड़की दी.

“सर में थोड़ा दर्द है.” पुरु ने बेमन से जवाब दिया.

“धत्… ठीक है. इसके बाद दिखा लेना. और इस बार क्या लग रहा है? कौन बनेगा सर्वश्रेष्ठ छात्र? तुझे तो सब पता होगा! बता न.”

“ययाति भइया, देवयानी माता के लिए पूछ रहे हो न? भले ही हो वो बेहद चतुर हों लेकिन शर्मिष्ठा से मुकाबला नहीं हैं.”

“पिछली बार देवयानी नहीं थी इसलिए शर्मिष्ठा जीत गई. माना बेहद तेज़ है लेकिन…”

“देखो ययाति भइया, तुम ये लो मेरे से १० रुपये और दाढी बना लो. ऐसे डाकू मंगल सिंह लगोगे तो फ़िर ‘भटकती आत्मा’ भी पूछना बंद कर देगी.” पुरु ने पर्स से पैसे निकाल कर दिए.

पैसे ले कर अपनी जेब में डालते हुए स्थूलकाय ययाति ने कहा- “ठीक है. लेकिन तुम बताओ तो… तुम्हे क्या लगता है.”

“बाकी सारे कार्यक्रमों के नतीजे करीब करीब आ चुके है. कुल १२ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में ६ में शर्मिष्ठा को स्वर्ण पदक मिला था. प्रमुख तौर पर – ‘गायन’, ‘युगल गायन’, ‘ललित कला’,  और ‘वादन.’ देवयानी को “वाद-विवाद” और “भाषण” में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है. एक मात्र कार्यक्रम जिसमें दोनों साथ है वो है ‘नृत्य’. जानते हो भइया, हमारी ज्यादा बातचीत नहीं है शर्मिष्ठा जी से. लेकिन एक अन्तर बताऊँ, वो हमेशा साड़ी में होती हैं और देवयानी सूट में. शर्मिष्ठा के लिए दिल में देखते ही आदर आ जाता है. पता नहीं क्यों? खैर, अब आप ये बात हटाओ.. आपको अन्दर की बात बता रहा हूँ, इस बार सर्वश्रेष्ठ छात्र जैसा कोई पुरस्कार नहीं है.”

“क्या?”

“अब चुप भी हो. मुझे नहीं पता क्यों हटा दिया गया. प्रोफेसर की मरजी!” पुरु ने पल्ला झाड़ा.

“पुरु… अब तो कल पूरा दिन वो रोती रहेगी. हर १० मिनट पे रोना. एक साल हो गए हैं अभी तक नहीं समझ पाया मैं इसको.”

“अब समझना छोड़ो और दाढी बना लो. कुछ ही देरी में नृत्य समारोह होने वाला है. देवयानी और शर्मिष्ठा आने वाली हैं.”

नृत्य समारोह शुरू हो चुका था.

देवयानी का मोबाइल फ़ोन बजने लगा- “अरे तुमने भी फ़ोन कर दिया. देखो बाबू, अभी मेरा परफोर्मेंस है. इसके बाद तुमसे बातें करते हैं.” मोबाइल रखते ही उसने कहा- “तुम आ गए ययाति. कैसे लग रहें हैं हम?”

ययाति ने रुखेपन से कहा- “ये क्या पहन रखा है? कुछ शरम है या नहीं?”

देवयानी के तन बदन में आग लग गई- “नाचना है, सर पे पल्लू रख के नहीं नाचा जाता. तुमको शरम आ रहा है तो तुम डूब मरो. क्या बुराई है इसमें? बोलो? बोलो?”

ययाति चिढ़ कर बोला- “अगर तुम्हे ये भी शब्दों में समझाना पड़े तो मैं इससे पहले आत्महत्या करना पसंद करूँगा.” कह कर पाँव पटकते हुए वहाँ से चला गया. देवयानी की आँखों में आँसू आ गए.

शर्मिष्ठा की परफोर्मेंस चल रही थी. लोग तालियाँ बजा रहें थे. उन तालियों की गड़गड़ाहट के बीच देवयानी गुस्से से उबलती रही. देवयानी के स्टेज पे आते ही सीटियाँ बजने लगी. लोग फिकरे कसने लगे. ये देख कर पुरु और ययाति ने सर पकड़ लिया. लेकिन देवयानी मुस्कुराती रही. थोड़ी देर में देवयानी को एहसास हुआ कोई उसका नाच नहीं बल्कि सब उसे देख कर हँस रहे हैं. इससे पहले कि अश्रुधारा बह पड़े, अंगूठे जितनी लम्बी थम्बेलिना झट से स्टेज से उतर आई और फूट-फूट कर रोने लगी.

दो दिन बीत गए. पुरु सर के दर्द से परेशान क्लास के बाहर पड़ा हुआ था. देवयानी ने पूछा, “क्या हुआ बेचैन आत्मा? ऐसे क्यों सर पकड़े हुए हो?” पुरु के बताने पर देवयानी ने शुरू हो गई- “हाय, हमको पहले क्यों नहीं बताये? कितने शर्म की बात है कि तुम सर दर्द से परेशान हो और हम यहाँ आराम से सोते हैं? धिक्कार है हम पर. तुम्हारी माँ जब पिछली बार आयीं थी तो हम वचन दिए थे कि हम तुम्हारा देख भाल करेंगे. आज क्या हम वो वचन भूल जायेंगे? चलो तुम मेरे साथ अभी!”

डॉक्टर के पास लम्बी लाइन थी. देवयानी और पुरु दोनों ही चुपचाप खड़े थे. देवयानी को कोई फ़ोन आ गया- “हेल्लो, हाँ बाबू, कैसे हो? नहीं नहीं.. तुम कब किए थे फ़ोन? हमको मिस्ड कॉल मिला ही नहीं. अच्छा? देखो कल तो हम इलाहाबाद से आयें हैं. हाँ, और जानते हो रास्ते में क्या हुआ, रास्ते में एक लड़का मिला उसे भी तुम्हारी तरह बुक पढ़ने का बड़ा शौक था. हाँ हाँ, हम जल्दी से ‘कैच-२२’ पढ़ लेंगे. वैसे आज मेरा सर दर्द इतना कर रहा है कि हम डॉक्टर को दिखाने आयें हैं. सच में, जल्दी ही लगता है भगवान् को प्यारे होंगे. अच्छा तुम इधर से आ रहे हो? बनारस से ट्रेन गुज़रेगी? देखो हम ज़रूर आयेंगे तुमसे मिलने प्लेटफोर्म पर. अपने हाथों से खाना बना कर लायेंगे. अरे, पाँच मिनट रुकेगी न, उसी में हम तुमको अपने हाथों से खिला देंगे. थम्बेलिना तुमसे मिलने ज़रूर आएगी. अच्छा, अब हम तुम्हारा ज्यादा बिल नहीं बनायेंगे. अभी रखते हैं. तुम कल फ़ोन करना.”

पुरु ने सुन कर कहा- “कल तो तुम यहीं थी. इलाहाबाद कब गई? और तुम्हारा सर दर्द?”

देवयानी हँसने लगी- “क्या है न कि कुछ काम बस करने पड़ते हैं.”

“ऐसे तो तुम हमसे कितना बार झूठ बोली होगी?”

देवयानी सकपका गई- “बस इतना ही विश्वास है हम पर?”

पुरु ने उत्तर नहीं दिया. देवयानी ने कहा, “अभी मुझे कुछ काम है. तुम डॉक्टर को दिखा लो. कल हमको ये चिटठा दिखाना. हम तुम्हारे लिए दवाई ले कर आ जायेंगे.”

पुरु ने पूछा- “यहाँ से कहाँ जाओगी.”

“गदोलिया चौक पे कुछ काम है.”

देवयानी के जाने के बाद पुरु डॉक्टर को बिना दिखाए वहाँ से निकल आया. शाम हो चली थी. बी एच यू घुसते के साथ ऐसे चक्कर आया कि सड़क किनारे बैठना पड़ा. जब आँखें खुली तो सामने शर्मिष्ठा थी- “क्या हुआ पुरु?”

पुरु से कुछ कहा नहीं गया.

शर्मिष्ठा ने रिक्शा किया और उसे डॉक्टर के पास ले गई.

4

“आपने जो पुरु के लिए किया है, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ.”

धत्.. इतने बड़े पुस्तकालय में, इतनी ऊंची इमारत में, इन मोटी मोटी दर्शन की किताबों के बीच में बस यही एक छोटी सी बात कहने के लिए श्रीमान आए हैं? उनसे पूछा जाए? क्या सोचेंगे? शायद बुरा मानेंगे? शायद नहीं मानेंगे? शायद बुरा भी होगा और नहीं भी. पूछ लूँ?

“अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ?”

“जी?” ययाति ने कहा.

“आप पुरु के क्या लगते हैं?” स्यादवाद की माता ने पूछ ही लिया.

“कोई नहीं.”

“जब कोई नहीं लगते तो फ़िर ये पूछने का अधिकार किसने दिया आपको?”

ययाति चुप रहा.

“क्या मेरी जगह आप होते तो ऐसा नहीं करते?”

“लेकिन सब मेरी तरह तो नहीं होते. सबसे ऐसी आकांक्षा भी नहीं है.”

“क्यों? क्यों कि अब हम मानव मानव नहीं रहें?”

यौवन का आकर्षण था या उसका तेज़? ययाति स्तम्भित, चकित, स्तब्ध सा उस रूपवती को देखता जा रहा था. मौन का श्रेष्ठ उत्तर मौन नहीं होता, अतः शर्मिष्ठा ने कहा, “अगर मैं कहूं, आप जो गरीब बच्चों को पढाते हैं, छोटे बड़े सभी लोगों का ख्याल रखते हैं, मैं आपकी कृतज्ञ हूँ, आप क्या कहेंगे?”

“आप मुझे शर्मिंदा कर रहीं हैं!” ययाति ने झिझकते हुए कहा.

शर्मिष्ठा- “हम सब सबके सामने सारी बातों के लिए दोषी हैं. ऐसा कहना चाहते हैं?”

“वाह.. आपकी बातें सुन कर अच्छा लग रहा है. कितने लोगों ने ये पढ़ रखा है, लेकिन समझते शायद कोई भी नहीं.”

शर्मिष्ठा- “स्यादवाद से मेरा गहरा लगाव है.”

“मेरा भी. लेकिन इतने बड़े पुस्तकालय में ऐसे बातचीत अच्छी नहीं लगती. क्या हम बाहर चल कर बातें करें?”

शर्मिष्ठा मुस्कुरा कर बाहर चली आई. “आप मुझसे बातें कर रहें हैं, अगर देवयानी ने देख लिया तो आपकी शामत आ जायेगी.”

“शायद…”

“शायद…”

सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे–  बाहर आ कर ययाति गुनगुनाने लगा- “देवयानी की बात छेड़ दी आपने. बहुत सुना था आपके बारे में शर्मिष्ठा जी ”

“केवल शर्मिष्ठा…”

“शर्मिष्ठा, देखो न. अगर आपकी जगह देवयानी को कहता तो वो कभी लाइब्रेरी से बाहर नहीं आती. उसका जिया वहीं झूमता है, किन्ही पुरानी पीली पड़ी कहानियों की किताबों में. और फ़िर जिया जब झूमे सावन है.”

“अपनी प्रेमिका की बुराई नहीं करते.” शर्मिष्ठा बोल पड़ी.

“न प्रेम है न प्रेमिका. मैं परिभाषा में नहीं पड़ना चाहता.”

“अच्छी बात है न? सावन आये या न आये जिया जब झूमें सावन है…”

“शर्मिष्ठा जी, न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि देवयानी को कोई मनोरोग है.

“क्या मतलब?”
“जहाँ तक मैंने पढ़ा है, जहाँ तक मेरी मति काम करती है मेरे ख्याल से उसे एक खास तरह का मनोरोग है.”

शर्मिष्ठा ठिठक कर रुक गई- “क्या?”

“इस प्रकार के मानसिक रोग में लोग हमेशा सबके आकर्षण का केन्द्र बनना चाहते हैं. काफी नाटक करते हैं. कई बार ऐसे ऐसे वाक्य बोलते हैं जो केवल किसी नाटक में शोभा दे. किसी की आलोचना बर्दाश्त नहीं होती. हमेशा किसी न किसी का समर्थन चाहिए होता है. सारे लक्षण हैं, लेकिन इसे बताये कौन? और तो और, आपको पता है इसका इलाज बहुत मुश्किल है. क्यूंकि जब रोगी को पता चलेगा कि लोग उस पर ध्यान दे रहे हैं तो वो और भी ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर अपने आप को सुकुमार बना लेते हैं.”

“शायद एक दिन सब ठीक हो जायेगा.”

ययाति ने फीकी सी हँसी से शर्मिष्ठा का दिल बुझा दिया.

पुरु ने उन दोनों को जब साथ देखा तो ईश्वर की महिमा पर उसका विश्वास सुदृढ़ हो गया. धीरे-धीरे वो दोनों धुंधलके में ओझल हो गए.

5

देवयानी रो रही थी. ययाति गंभीर सा शांत बैठा था.

देवयानी के आँसू थोड़े अंतराल पर निकल रहे हैं. कभी कभी अस्फुट रोने का स्वर भी आ रहा है. ययाति समुन्दर सा शांत है. ना जाने कितनी लहरें उमड़ घुमड़ को किस-किस किनारे सर धुन रही हैं. रोना कभी उन्माद बन जाता है और ययाति के हाथों में लंबे नाखून गड़ा दिए जाते हैं. बहती आंसुओं के धार के बीच देवयानी सिसक कर कहती है- “कुत्ता!”

दो निशब्द प्राण कुछ कहने लगें लेकिन ऐसे कि किसी की बातें किसी ने भी नहीं सुनी.

हम में क्या कमीं है, बोलो तुम! ऐसा क्या है जो हम में नहीं है?

तुम सोच रही होगी कि तुम में क्या कमी है? किसी में कोई कमी नहीं होती. शायद सब अधूरे होते हैं. लेकिन क्या तुम ये समझ सकोगी?

तुम भी वैसे ही निकले?

तुम वैसी कभी थी ही नहीं!

देवयानी कभी दोनों हाथों से ययाति का चेहरा पकड़ती कभी फफक कर रोने लगती. ययाति इससे अन्मयस्क सा बैठा रहा. देवयानी ययाति को अपने दोनों हाथ दिखाती है. “देखो, देखो और क्या क्या खोना है हमको ज़िंदगी में? तुम तो भाग्य पढ़ते हो न? फ़िर तुमको ये अधिकार किसने दिया? बोलो तुम?”

क्या मैं तुम्हें छोड़ के जा रहा हूँ? नहीं, दुःख तो ये है कि नहीं. तुम पूछोगी किसलिए? नहीं, शायद तुम पसंद हो! नहीं, शायद अपने वचन से बंधा हूँ! नहीं, शायद मुझे तुम्हारी आदत हो गई है!

ऐसे एहसान किस बात का? तुम्हें वो चुड़ैल पसंद है तो जाओ! हमने किसी को रोका? विदिशा चली गई. तुम्हारा बेटा पुरु, वो भी उसके पल्लू बंधा रहता है. हम तुमको कभी कुछ बोलें? कच भी चला गया. हम बस रो कर रह गए. इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है. हम अकेले ही आयें थे, और अब अकेली ही रह जायेगी थम्बेलिना!

शायद मैं तुम्हें पसंद करता हूँ या शायद नहीं. लेकिन ये सत्य है कि मैं असहज हूँ. जब तुम्हारा जिया झूमता है तो सावन आ जाता है, लेकिन मेरे लिए तो ये भयानक गर्मी हैं. झुलसाने वाली गर्मी. लू के थपेडे पड़ रहे हैं. लेकिन तुम तो नाच उठती हो.

तुम हमको छोड़ के जा सकोगे?

देवयानी रोती रही. बिना कुछ बोले रोती रही. ययाति कड़वाहट से बैठा रहा.

तुम हमको भूल जाओगे? सोचे थे हम जीवन के अंत तक हम साथ रहेंगे. हम भी बूढे हो जायेंगे. तुम भी बुड्ढे हो जाओगे. लेकिन तुम जाना चाहते हो? मेरा श्राप लगेगा तुमको. जिस पे तुम्हें नाज़ है, वो सब तुमसे छीन जाए.

मैं तो आज भी तुम्हारे लिए अच्छा ही चाहता हूँ. हमेशा से अच्छा ही चाहूँगा. अगर तुम मुझे इसके लिए अपराधी समझती हो मैं अपराधी हूँ. मेरा अपराध ये है कि मैं तुमसे जुड़ गया. संभवतः जिसकी तुम लायक नहीं हो.

तुम बुड्ढे हो जाओ. तुम में इतनी भी ताकत नहीं बचे के तुम ख़ुद उठ कर खा सको. लोगों की दया पर तुम पलोगे. कोई आ कर दो-चार टुकड़ी फेंक देगा तब तुम खाओगे. नहीं तो अकेले रोते रहोगे. किसी के सहारे के बिना चल नहीं पाओगे. लेकिन तब भी हम तुम्हें सहारा देने आयेंगे. तब भी हम तुम्हें अपने हाथों से खिलाएंगे. तुम मेरे सामने भीख मांगोगे, हम तुमको भगाएंगे नहीं, धूप में खड़ा कर के दाल रोटी खिलाएंगे. फ़िर हम तुमको देख कर रोयेंगे. अरे, तुम रोने लायक भी नहीं रहोगे.

मैं किसको कुछ कहूँ? कौन सुनेगा? और सुन भी लेगा तो कौन समझेगा? तुम्हारे संग-संग मैंने भी झूठी कहानियाँ गढ़नी शुरू कर दी है? तुम बोलोगी हर कहानी झूठी होती है. ठीक है तो सुनो- सुन सकोगी तो सुनो-

“जानती हो, यहाँ आने से पहले मुझे रास्ते में एक भिखारी मिला. बहुत बूढा भिखारी. पहले रेलवे स्टेशन पर भीख मांगता था. लेकिन जब से उसने एक अंगूठे जितनी लम्बी लड़की को बनारस में आते देखा, तब से उसका जीवन बदल गया. मुझे ग़लत न समझना, वो राजा नहीं बन गया. केवल भीख मांगने की जगह और दान देने वाले बदल गए. पहले हर एक से भीख मांग लेता था. अब केवल तुमसे भीख माँगना चाहता है. तुमने भी देख होगा, बी एच यू में आज कल घूमता है. शायद तुम कभी उससे मिली नहीं. उसकी पहचान है उसकी बढ़ी सी दाढी. बूढा है और बूढा होने ही वाला है. वो भिखारी मुझे फटेहाल मिल गया. मैंने बरबस कह दिया- मेरे पास पैसे नहीं हैं. अपनी झुर्रियों से भरे चेहरे पे ज़ोर डाल कर बूढा ठहठहा कर हँस पड़ा. एकदम से खड़ा हो गया. उसकी कमर सीधी हो गई. और उसने मुझे झट से गले लगा लिया. कहने लगा कि वो देवयानी से यानी तुमसे और सिर्फ़ तुमसे भीख ले सकता है. मैं पूछा फ़िर मेरे गले क्यों लग रहे हो? बूढा एकदम से रोने लगा- अपने साथी को नहीं पहचानोगे?”

ययाति ने अब देवयानी को देखा. देवयानी का रोना थम चुका था. देवयानी शून्य में देखने लगी. शाम हो चली थी. विश्वनाथ मन्दिर में लोग आ जा रहे थे. ययाति लाल हो गए सूरज को बैगनी आकाश में डूबते देखता रहा. देवयानी खामोश बैठी रही.

6

संध्या हो चली थी. वर्षा सम्भव थी. पुरु देवयानी के सामने अपराधी सा खड़ा था.

“पिछले छः महीने से उस डायन ने ना जाने क्या जादू कर दिया है तुम पर? तुम किसी की सुनते ही नहीं.” देवयानी ने अपनी आँखें पोछी फ़िर कहना शुरू किया, “कुतिया है वो. चुड़ैल है चुड़ैल. अदरख की तरह चूस के खा जायेगी तुमको! सुन रहे हो तुम पुरु. उस हरामजादी ने सब कुछ हमसे छीन लिया. कोई नहीं है मेरा. कुत्ता भी नहीं. डायन ने उसे भी पटा लिया है. और तुम क्या उसकी तरफदारी करने आए हो? क्या कहा उसने? ये लेटर दिया है? कुत्ता कहीं का. अब हम एक बात नहीं सुनेंगे उसका. तुम भी जाओ यहाँ से.”

पुरु देखता रहा. लेकिन इस बार उसकी निगाह कुछ और तलाश रही थी.

“ऐसे क्या देख रहे हो तुम? लाओ लेटर दो हमको! पढ़ने दो हमको!”

देवयानी रो रही थी. फूट-फूट के रो रही थी. पुरु से उसे चुप भी नहीं कराया जा रहा था. पुरु ने कहा, “ययाति भइया को एक मौका दीजिये. उनके लिए मैं आया हूँ यहाँ पे. देखिये, आपको उनके जैसा कोई नहीं मिलेगा. पूरे घर की जिम्मेदारी उठाते हैं. नन्हें मुन्ने बच्चों को पढ़ाते है. ख़ुद पढ़ते हैं. अब आखिरी बार जिस कोचिंग में थे, उन लोगो ने तो भइया के पैसे भी नहीं दिए. लेकिन फ़िर भी भइया पढ़ाते रहें ताकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो. ऐसे सज्जन पुरूष कहाँ मिलेंगे!”

“हम जानते हैं पुरु. वो बात नहीं है. वो डायन, हमसे छीन ली है उसको.”

“ऐसा नहीं है. अगर ऐसा होता तो हमको नहीं भेजते. ”

“तुमको क्या पता क्या लिखा है इसमें? इसमें लिखा है कि हम पागल हो गयें हैं. हमको कोई पर्सनालिटी डिसॉडर्र हो गया है. हमको पागल खाने भेज दो! सब उस हरामजादी का पढ़ाया लिखाया गया है.” देवयानी रोती रही. “और तुम मेरा क्या मुँह देख रहे हो. चले जाओ, यहाँ से चले जाओ.”

पुरु मैदान के सामने वाली बेंच पर बैठ कर देवयानी का बिसूरता देखता रहा. पिछले ६ महीनों में शर्मिष्ठा और ययाति की घनिष्ठता और उन दोनों का बिछोह किसी से छुपी नहीं थी. पुरु अब देवयानी से दूर भागता था लेकिन आज जब ययाति ने बताया देवयानी से मिलने वो दौड़ा चला आया. देवयानी को मनोरोग था या नहीं- ये किसी को पता नहीं था, लेकिन इसका संदेह काफ़ी उत्कृष्ट था. लेकिन ययाति? पिछले महीने से उन्हें कौन सा रोग हो गया है? ये जो बातें देवयानी को बतायीं जा रहीं थी वो सारी पुरानी हो गयीं हैं. अब ययाति को केवल पैसे से मतलब है. अगर पैसे अडवांस में नहीं मिले तो पढ़ाया ही नहीं जायेगा. किसी की मदद तभी करेंगे जब उनका कोई फायदा नज़र आएगा. दाढी बढ़ा कर इधर उधर घूमते रहेंगे. किसी से बातें नहीं होती. शर्मिष्ठा से बिल्कुल भी नहीं. न जाने क्यों दश्वाश्मेध घाट पर अकेले बैठे रहते हैं. ना ही पुरु से मिलना है, न ही देवयानी से. शर्मिष्ठा की बात छेड़ दो तो ऐसा लगता है उन्होंने सुना ही नहीं. शर्मिष्ठा चुप-चुप रहती है. किसी से कुछ कहती नहीं. बहुत पूछो तो कहती है शायद हमें भ्रम हुआ है, या शायद नहीं. शायद वो हमेशा से चुप ही रहती थी, या शायद कभी चुप थी ही नहीं.

अगर अपने गुरुजनों का मार्ग दर्शन करना पड़े, इससे बड़ा दुःख और क्या हो सकता है?

पुरु बेंच पर ययाति के भेजे हुए ख़त को निकाल कर फ़िर से पढ़ने लगा.

….. तुम्हे ये सोच कर बहुत अचंभित होगे कि आखिर मैंने तुम्हे ये ख़त पहले अधूरा पढ़ने को कहा. आशा है अब तुम देवयानी को मेरी चिट्ठी दे चुके होगे. अब मेरी बाकी बातें पढ़ सकते हो.

पुरु, कभी तुमने देखा है शीशम के पत्तों को? वो भी जब पीले-पीले हो जाते हैं? अपनी शाख को छोड़ कर गिरने लगते हैं. गिर कर फ़िर शीशम के पास ही पड़े रहते हैं. हवा चलती है, नए पत्ते हिलते हैं, इठलाते हैं. पेड़ की डाल पर नाच-नाच कर, ताली बजा-बजा कर कैसे खुश होते हैं. बारिश होती है. मोटी-मोटी बूँदें पड़ती ही रहती हैं. सन्नाटा है. सियार बोलता है. बया आ कर घर बनाती है. कौवे चीखते हैं. शीशम खामोश खड़ा रहता है. पत्ते इठलाते रह जाते हैं. सर्दी आती है. घना कोहरा होता है. साँप-मेढक सब सो जाते हैं. गीली लकडियाँ सिली-सिली जलती हैं. ठंड में सब ठिठुरते हैं. पत्ते फ़िर भी इठलाते हैं. फ़िर बसंती बयार चलती है. सुबह सुबह कहीं दूर से आ कर एक तोता बैठता है. पत्ते खुश हो जाते हैं. हवा के संग-संग फ़िर नाचते हैं. इठलाते हैं. कैसी गर्मी आई है. भयंकर गर्मी है. सब सूख रहा है. आसमान आग उगल रहा है. पत्ते सहम जाते हैं. शीशम खड़ा रहता है. देवयानी अकेली है. शीशम के पत्ते पीले पड़ जाते हैं. फ़िर एक कोयल आती है. कोयल बहुत अच्छा गाती है. तुमने देखा है न?. कोयल गीत सुनाती है. पत्ते इठलाते हैं. पत्ते इतराते हैं….”

देवयानी आ कर पुरु की तंद्रा तोड़ती है. “हलकी बारिश हो रही है.”

पुरु ने देख कर कहा- “हूँ..”

“वहाँ पानी ज़मा है. देखो वहाँ पर.”

“हूँ.”

“वाटर डांस करते हैं. चलो?”

“क्या मतलब?” पुरु होश में नहीं है. बस घूर रहा है. कौन होश में है और कौन नहीं, किसी को पता नहीं!

“मुझे उस पानी में नाचना है. चलो मेरे साथ!”

पुरु देखता रहा. जब देवयानी ने उसका हाथ छोड़ा वो पानी के जमावड़े के पास खड़ा था. देवयानी ने पानी में पाँव डाला और कहा- “छप्प.. छप्प..”

हलकी-हलकी बारिश हो रही थी. देवयानी एक बार पानी में खड़ी पूरी घूम कर जोरों से कूदी, दोनों पाँव ज़मीन पर पड़े और- छप्प!!!

अगल बगल लोग देख रहें थे. देवयानी के हाथों से ययाति का ख़त छूट कर कहीं गिर गया. पुरु ने उस बून्दनियों में अपना अधूरा ख़त पढ़ना शुरू किया.

“निर्जन संध्या में कोई युवती आ कर दीपक जला जाती है. अँधेरा हो गया है. दीपक जल रहा है. पत्ते इठलाते हैं…”

“छप्प…”

“पत्ते बूढ़े हो गए हैं. शीशम खड़ा है. पत्ते इठलाते हैं. दीपक जल रहा है. दीपक की लौ कम है. तेल कम है. आयु बहुत है पर यौवन कम है. तृष्णा कम नहीं है, जीवन कम है. पुरु, आज मैं मुझे प्रतीत हो रहा है, मैं नितांत वृद्ध हो गया हूँ. मेरे विचार ख़त्म हो चुके हैं. मेरी गति समाप्त हो गई है. मैं जड़ खड़ा हूँ. पत्ते पीले पड़ चुके हैं. उनमें अब रस नहीं, यौवन नहीं, जीवन नहीं…”

‘छप्प’…

“देखो न पुरु… कितना मज़ा आ रहा है!”
‘छप्प… छप्प…’ देवयानी ने पांवों से पानी को उछाला. छीटें पुरु के हाथों पर भी पड़ी. ख़त पर लिखी स्याही थोड़ी फ़ैल गई.

“पत्ते निर्धन हैं. शीशम खड़ा है. रस रहित है, प्रेम रहित, ज्ञान रहित, विचार रहित. दीपक बुझने वाला है. पुरु, जब ऐसे प्रश्न हो तो मानव क्या करे? एक तरफ़ स्यादवाद है, एक तरफ़ चंचल निर्झरनी जैसा संकुचित जीवन. चित्त को चंचलता और संयम का आदर्श. तुम क्या चुन सकोगे? पत्तों का जीवन शेष है. वो अभी गिरे नहीं है. शीशम खड़ा है. अमरत्व को कामना नहीं है. पुरु, कभी देखा है वृद्ध लोग कैसे हो जातें? ज्ञान से परे.. संकुचित और निर्वासित. निर्बल और निकृष्ट. अपूर्ण जीवन और घृणित ज़रत्व.

पुरु, मुझे मेरा यौवन लौटा दो!”

सावन की बूँदें, ठंडी बयार, अब तेज़ होती बारिश…

‘छप्प….’

One comment
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  1. अति सुंदर! ऐतिहासिक पात्रों को आधुनिक परिवेश में समायोजित करना अच्छा है. प्रेम शास्वत होता है. काल से परे होता है.
    आपकी लिखने की कला सराहनीय है. आपकी तुलना जयशंकर प्रसाद के समकक्ष हो सकती है.

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