आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

पाठक, प्रतिपाठक और पुस्तक की मुक्ति: मदन सोनी

……जुबली सास्त्र नृपति बस नाहीं
– गोस्वामी तुलसीदास

…… हर पवित्र वस्तु जो अपनी पवित्रता बनाये रखना चाहती है, रहस्य में डूबी रहती है
– स्टीफन मलार्मे

अम्बर्टी इको (समकालीन इतालवी आलोचक, दार्शनिक)का उपन्यास द नेम ऑव्‌ द रोज उपन्यास नहीं है। आधुनिक युग में अनेक ऐसे उपन्यास लिखे गये हैं जिनको लेकर ”उपन्यास न होने” (या ‘अनुपन्यास’ होने) के दावे किये गये हैं लेकिन यह उपन्यास उस कोटि का नहीं है। इसे अपनी औपन्यासिकता से वैसा परहेज़ नहीं है; यहाँ तक कि हम इसे यथार्थवादी शैली का उपन्यास तक कह सकते हैं –  उन कुछ युक्तियों के बावजूद जो अनेक उपन्यासों की तरह इसमें भी अपनायी गयी हैं और जिनमें से एक है तथ्य और गल्प को परस्पर भ्रमित करने की युक्तिः उपन्यासकार के अनुसार यह एक दस्तावेज है, एक ‘पाण्डुलिपि’ (”नेचुरली, अ मेन्युस्क्रिप्ट”)। कालक्रमबद्ध एक पक्की कथा, कथा को गति और संघटन प्रदान करती घटनाएँ, रूढ़ कथनशैली और कुछ भी ऐसा उल्लेखनीय नहीं जिसे आख्यान या आख्यानकाल के साथ कौतुक जैसा कुछ कहा जा सके।

चौदहवीं शताब्दी का एक विशाल ईसाई मठ है जो बेनेडिक्टाइन आश्रम-व्यवस्था से संचालित है। मठ में गिरिजाघर है, सभागार है, बगीचे हैं, अस्तबल है, प्राच्य और भव्य वस्तुओं का संग्रहालय है और एक विशाल, प्राचीन और विख्यात पुस्तकालय है जिसमें दुनिया भर की भाषाओं के प्राचीन और दुर्लभ ग्रन्थ और पाण्डुलिपियाँ हैं। अपनी बनावट और व्यवस्था में यह एक रहस्यमय पुस्तकालय है जिसका स्थापत्य एक भूलभुलैया का है, उसमें किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं है, उससे लगा हुआ एक वाचनालय जैसा (स्क्रिप्टोरियम) है जहाँ बैठकर विद्यार्थी शोधार्थी पढ़ते हैं, प्रतिलिपियाँ, अनुवाद, शास्त्रार्थ आदि करते हैं। मठ में सैकड़ो भिक्षु हैं जिनमें मठ की तमाम व्यवस्थाओं की देखरेख करने वालों समेत ये विद्यार्थी,  शोधार्थी और विद्या-विशेषज्ञ शामिल हैं। मठ का वातावरण अत्यन्त अनुशासनात्मक, धार्मिक और जिज्ञासामय है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह यूरोप का ईसाइयत के भीतर गहरी और व्यापक उथल-पुथल का युग है; विभिन्न पन्थ-उपपन्थ सक्रिय हैः राज्य, समाज, धर्म, नैतिकता और यौन आदि के आपसी संबंधों को लेकर व्यापक मतभेद, साम्प्रदायिकता, मुकदमेबाज़ी और हिंसा व्याप्त है। मठ भी इस वातावरण से प्रतिश्रुत है। इसी वातावरण में मठ के एक भिक्षु की रहस्यमय ढंग से मृत्यु होती है। मठाधीश रहस्य का पता लगाने एक अत्यन्त मेधाबी विलियम नाम के रहस्यवेत्ता को आमंत्रित करता है। इस बीच मौतों का सिलसिला जोर पकड़ता है और देखते ही देखते हफ़्ते भर में आधा दर्जन भिक्षुओं की रहस्यमय मौतें हो जाती हैं। विलियम इन मौतों में परस्पर संगति खोजते हुए पाता है कि इनका संबंध पुस्तकालय से संबद्ध किसी रहस्य में निहित है। वह अनुशासन के विरूद्ध गुप्त ढंग से पुस्तकालय में प्रवेश करता है, अपनी विलक्षण सूझ और कौशल से पुस्तकालय के रहस्य को भेदता है और पाता है। कि सारी मौतों (जिनमें से ज्यादातर हत्याएँ हैं) के पीछे पुस्तकालय के एक अत्यन्त अभेद्य कक्ष में छुपाकर रखी गयी एक दुर्लभ पुस्तक है जिसे ज्यार्गी नामक एक अन्धा बुढ़ा भिक्षु इसलिए दुनिया की निग़ाहों से छुपाना चाहता है लेकिन असफल होकर वह उस पुस्तक को नष्ट कर देता है और आत्महत्या कर लेता है। उपन्यास का अंत पुस्तकालय और फिर सम्पूर्ण मठ के जलने से होता है।

फिर भी द नेम ऑव्‌ द रोज़ उपन्यास नहीं है। वह एक ‘पुस्तक’ है-उपन्यास की तरह ‘जिन्दगी के बारे में एक पुस्तक’ नहीं बल्कि ‘पुस्तक के बारे में एक पुस्तक’ – एक विशेष पुस्तक (‘दि बुक’) के बारे में भी। यह विशेष पुस्तक (‘अरस्तू की सेकेण्ड बुक ऑव्‌ पोएटिक्स‘ जो मठ में हो रही हत्याओ के पीछे है) अम्बर्टो इको की इस पुस्तक में एक पात्र है जो पुस्तक मात्र का किरदार अदा करती है – पुस्तक मात्र का जिसमें, ज़ाहिर है, अम्बर्टो इको की यह पुस्तक भी शामिल है। इस विशेष अर्थ में द नेम ऑव्‌ द रोज़ स्वयं के बारे में एक पुस्तक है।

एक पुस्तक का स्वयं के बारेमें होना, ‘होने’ का अपने बारे में होने जैसा है जिसका अर्थ आत्मचेतना के एक ऐसे स्तर पर ‘होना’ है जो एक साथ प्रमाण-निरपेक्ष ‘होना’ है और प्रमाण-वध्य ‘होना’ है। इस द्वैधपूर्ण अस्ति का ही दूसरा नाम ‘पाठक’ हैः पुस्तक और पाठक एक दूसरे के प्रमाण है। पाठक पुस्तक की आत्मचेतना है। द नेम ऑव्‌ द रोज़ इसलिए भी एक उपन्यास नहीं है क्योंकि इसका गल्प (फिक्शन) किसी नायक (या प्रतिनायक) का आवास नहीः इसकी जगह द नेम ऑव्‌ द रोज़ में ‘पाठक’ है जिसके पठन से ही यह पुस्तक जन्म लेती है और साथ ही साथ इस पुस्तक के होने से यह पाठक जन्म लेता है। ‘दि बुक’ और ‘ए बुक’ को ही भाँति इसमें ये पाठक भी दो है- ‘दि रीडर’ और ‘ए रीडर’ (पाठक विशेष और पाठक मात्र)। ब्रदर विलियम वह पाठक विशेष है जो पाठक मात्र का किरदार अदा करता है- पाठक मात्र, जिसमें हम भी शामिल है। इस विशेष अर्थ में यह पुस्तक हमारा अपना पठन हैः

एक पुस्तक का कल्याण उसके पढ़े जाने में निहित है। पुस्तक उन संकेतों की निर्मिति है जो दूसरे संकेतों के बारे में बोलते हैं, जो पलटकर चीज़ो के बारे में बोलते है। इन्हें पढ़ने वाली आँख के बग़ैर एक पुस्तक ऐसे संकेतों को धारण करती है जो किसी अवधारणा को जन्म नहीं दे पाते, और इसीलिए वह गूँगी होती है।

‘हमारा पठन’ कहने में जो बहुवाचकता है वह मेरे कथन का अभीष्ट है क्योंकि एक पुस्तक में वक्तृता तभी पैदा होती है जब वह किसी एकाश्म (मोनोलिथिक) पठन में सिमटी हुई न हो, अर्थात्‌ वह अनेक पाठकों द्वारा पढ़ी जाये। यह अनेकपाठकत्व ही पाठक का गुण है। ब्रदर विलियम इसी अर्थ में एक पाठक है। उसका अनेकपाठकत्व सिर्फ इस बात से प्रमाणित नहीं है कि वह मठ में होने वाली रहस्यमय हत्याओं से सम्बद्ध तथ्यों को अनेक और परस्पर विरोधी अर्थो में पढ़ता है, बल्कि वह उसके स्वभाव की उस मूल बनावट में है जिसमें सत्य के प्रति एक साथ ‘जिज्ञासा’ और ‘सन्देह’ ही उसकी हर गति का प्रस्थान है जिसके चलते वह सत्य और उस तक पहुँचने के हर साधन को परिप्रेक्ष्यात्मक और सापेक्ष मानता है। ‘पाठ’ को परिभाषित करते हुए अम्बर्टो इको के ही एक समकालीन दार्शनिक उसे ‘शक्तियों का रणक्षेत्र’ कहते हैं (”द टेक्स्ट इज आलवेज़ ए फील्ड ऑव्‌ फोर्सेज”-जॉक देरीदा); द नेम ऑव्‌ द रोज़ को पढ़ने के बाद में हम इस परिभाषा में इस तरह का संशोधन प्रस्तावित कर सकते है कि पाठ, पठनशक्तियों का रणक्षेत्र है।

किस तरह ये पठन-शक्तियाँ पाठ का निर्माण करती है और किस तरह एक पाठ पठन-शक्तियों को जन्म देता है – यह पुस्तक इस प्रक्रिया का विलक्षण उदाहरण है। और यह विलक्षणता इस बात में नहीं है कि यह पुस्तक हमें यह प्रक्रिया ‘बताती’ है, विलक्षणता साध्य का गल्पावतार है जहाँ विश्लेषण (या व्याख्याशास्त्र) के साधन और विधि-निषेध ही, बगैर किसी रूपकात्मक भूमि और भूमिका के, संश्लेष के साधन और विधि-निषेध बन जाते हैं: जहाँ अर्थ और सत्य एक दूसरे का विलोपन नहीं, प्रदीपन करते है।

किताब में यह विश्लेषणात्मक साध्य स्वयं यह व्याख्याशास्त्र है जिसे बाइबिलमूलक शब्दावली में ‘हरमेन्युआटिक्स’ कहा जाता है – इस विश्व-व्यवस्था के ज्ञान की बहुविध व्याख्या, उसे समझने, उसके इन्द्रियगोचर संकेतो को पढ़ने की इच्छा, यत्न और विधियों की ही हत्याएँ हैं। दूसरे शब्दों में ये पुस्तकों की हत्याएँ है क्योकि ये भिक्षु किसी-न-किसी रूप में पठन की उस प्रक्रिया से जुड़े है जो एक पुस्तक के मर्म अर्थात्‌ पाठ को जन्म देती है। पुस्तक की हत्या का यह सिलसिला, जैसा कि हम जानते हैं, तब टूटता है जब उस ‘विशिष्ट पुस्तक’ का हत्याकाण्ड सम्पन्न होता है जिसे ज्यार्गी ने पुस्तकालय की रहस्यमय भूलभुलैया के सबसे गुप्त कक्ष में छुपाकर रखा था जो चोरी और हस्तान्तरण की भयावह प्रक्रिया से गुज़रकर ज्यार्गी के ही हिंसक प्रयत्नों से पुनः भूलभुलैया के उस अँधेरे गर्त में वापस आती है।

इस विशिष्ट पुस्तक का हत्यारा कौन है? ज्यार्गी? ऊपरी तौर पर इसका जवाब यही हैः विलियम अनुधावन करता हुआ उस अँधेरे गर्त में पहुँचता है और जैसे ही उस पुस्तक को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करता है वैसे ही ज्यार्गी एक दैत्य की भॉंति इस पुस्तक के ज़हर मढ़े पन्नो को खाना शुरू कर देता है और रही सही पुस्तक को आग के हवाले कर उसे नष्ट कर देता है।

लेकिन यह हमारे प्रश्न काएक सतही जवाब होगा – इको की इस पुस्तक का एक अभिधात्मक पठन। पुस्तक का हत्यारा मनुष्य नहीं हो सकता क्योंकि एक मनुष्य जब तक पाठक के रूप में जन्म नहीं लेता तब तक न तो व पाठ (पुस्तक) को जन्म दे सकता है (जो प्रकारान्तर से पाठक की आत्महत्या करना है)। यह जघन्य कृत्य एक प्रतिपाठक (एण्टीरीडर) ही कर सकता है। इस कथा में ज्यार्गी एक ऐसा ही प्रतिपाठक है। प्रतिपाठक यानी ऐसा पाठक जो इस विश्व-व्यवस्था के अपने एकाश्म पठन को ही एकमात्र पठन मानता है और जो चाहता है कि इसे इससे भिन्न तरह से न पढ़ा जाए, ज्यार्गी कहता हैः

”ईश्वर ने कहा, ‘मैं वह हूँ जो है। मै मार्ग हूँ, सत्य हूँ और जीवन हूँ। समूचा ज्ञान इन दो सत्यों पर एक विस्मय भरी टिप्पणी के सिवा और कुछ नहीं है।” ‘इससे परे कहने के लिए और कुछ नहीं।”

प्रतिपाठक वह है जो किसी भी भिन्न व्याख्या के प्रति अन्धा है (इस अर्थ में ज्यार्गी का अन्धत्व रूपकात्मक कहा जा सकता है), लेकिन जो अपने अन्धत्व के बावजूद शक्तिहीन नही क्योकि वह अपने एकाश्म पठन से उपलब्ध ज्ञान का आगार है (‘ज्ञान संरक्षण की वस्तु है, शोध की नहीं’-ज्यार्गी) और जिसने इस ज्ञान को शक्ति (पॉवर) में रूपान्तरित कर लिया है (ज्यार्गी इस मठ में सर्वशक्तिमान है)। ज्यार्गी प्रतिपाठक है क्योकि वह ज्ञान, सत्य और ईश्वर के प्रति कौतुक का शत्रु है, वह हँसी को पाप और दुराचार मानता है, वह वक्तृता को ज्ञानियों का विशेषाधिकार मानता है और कहता है कि ‘साधारण मनुष्य को बोलना नहीं चाहिए’। जिस पुस्तक को दुनिया की निगाहों से बचाने के लिए ज्यार्गी हत्याएँ करवाता है उसके बारे में वह कहता हैः “यह किताब इस विचार को प्रमाणित करती है कि साधारण मनुष्य भी प्रज्ञा का वाहक हो सकता है”।

यह प्रतिपठन है जो ज्ञान को एक अभेद्य मिथक में बदलता है। मठ का पुस्तकालय ज्ञान का ऐसा ही अभेद्य मिथक है। पुस्तकालय का यह मिथकीकरण ज्यार्गी का अपने उपलब्ध ज्ञान को शक्ति-कवच में बदलकर अपने प्रतिपठन को सुरक्षित करने की उस नीति का ही परिणाम है जिसके चलते पुस्तकालय एक वर्जित क्षेत्र है (उसमें सिर्फ जिज्ञासा शून्य लाइब्रेरियन मेलिची का प्रवेश वैध है)। पठन शक्तियों का रणक्षेत्र मिथकीय नहीं हो सकता क्योंकि वह एक खुले वातावरण में इन शक्तियों के हाथों लगातार टूटता और बनता है। इस पुस्तकालय की हैसियत ऐसे रणक्षेत्र की इसलिए नहीं है क्योकि वह अपनी निर्मिति के लिए एक ही पठन-शक्ति, ज्यार्गी की पठन-शक्ति, के एकाधिकार में है।

लेकिन प्रतिपठन पठन का सम्पूर्ण अंत नहीं है क्योंकि एक प्रतिपाठक दूसरों को भले ही पढ़ने से वंचित करता हो लेकिन चूँकि वह स्वयं पढ़ता है, अतः पठन अपनी एकवचनात्मकता मे, क्षीण-शक्ति रूप में जीवित रहता है, ठीक वैसे ही जैसे कलियुग में धर्म अपनी चरम विकलांगता में – एक पैर पर जीवित रहता है (वैसे भी,  धर्म और क्या है ? अगर ‘धारयति इति धर्मः’ ही धर्म की परिभाषा है तो पाठ और पाठक एक दूसरे को धारण ही तो करते हैं!) यह अनायास नहीं कि ज्यार्गी जैसे दानवीय-शक्ति-सम्पन्न प्रतिपाठक के बावजूद उसके जीते जी मठ का पुस्तकालय (एक वर्जित क्षेत्र के रूप में ही सही) जीवित रहता है। ज्यार्गी अपने पठन के विरूद्ध जाने वाले पठन को भी नष्ट करने की सलाह नही देता, उसे ‘सुरक्षित रखने’ की सलाह देता हैः

”उस हरलेखन का परिरक्षण किया जाना चाहिए जिसमें ‘स्क्रिप्चर’ का वर्णन और स्पष्टीकरण है, क्योकि वह दैवीय लेखन की महिमा को बढ़ाता है, जो (इसका) प्रतिवाद है उसे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इसके परिरक्षण से ही यह संभव होगा कि प्रभु द्वारा नियत विधि और समय के अनुसार सक्षम पुरूष इसका प्रतिवाद कर सके।”

प्रतिवाद और आलोचना के प्रति इस कथन में निहित ‘असाध्य उदारता’ ही पठन की वे अन्तिम सॉंसे है जो एक प्रतिपाठक में निहित होती है और जिनके सहारे पठन जीवित रहता है। जिस दुर्लभ पुस्तक विशेष को ज्यार्गी दुनिया की निग़ाहों से निश्चय ही इस उम्मीद में बचाकर रखे हुए है कि ”एक दिन प्रभु द्वारा नियत विधि और समय के अनुसार सक्षम पुरूष इसका प्रतिवाद कर सकेंगे”, उस पुस्तक का जीवन भी ज्यार्गी नामक इस प्रतिपाठक में निहित पठन की अंतिम साँसो की ही देन हैः अपने एकाश्म पठन के लिए अभिशप्त इस पुस्तक का लगभग अंत तक एकमात्र पाठक ज्यार्गी ही तो है।

कथा के अंतिम दृश्य में वह इस पुस्तक को खाता है, यह जानते हुए कि उसके पन्ने ज़हर से भीगे हुए है। पुस्तक और ज्यार्गी एक साथ मरते हैः एक ही साथ पाठक पुस्तक को खाता है, और पुस्तक पाठक की; दोनों एक साथ एक दूसरे की हत्या करते है; या महज़ एक आत्महत्या – चाहे पाठक की कहें, चाहे पाठ की – उऔर दोनों मरते है क्योंकि दोनों एक दूसरे का प्रमाण थे।

लेकिन कथा यहाँ समाप्त नहीं होती। वह समाप्त होती हैं उस भीषण अग्निकाण्ड से जिसमें सबसे पहले संसार का वह अत्यन्त समृद्ध किन्तु वर्जनाओं की भूलभूलैया में सिमटा पुस्तकालय जलता है। पुस्तकालय का यह विनाश नियतिबद्ध था क्योंकि, जैसा कि हमने आरम्भ में कहा था, वह एक किरदार था, पुस्तक मात्र का एक समुच्चय, जिसे हत्या या आत्महत्या का शिकार हुई वह विशिष्ट पुस्तक अदा कर रही थी। यह तर्कसंगत ही है कि किरदार के इस ध्वंस के साथ ही वह पूरा रणक्षेत्र (मठ) भी नष्ट होता है जहाँ उस चरित्र और उस पात्र का अधिष्ठान था। यहाँ इस कथामें निहित एक सांकेतिकता भी उल्लेखनीय हैः ज्यार्गी मठ में होने वाली रहस्यमय हत्याओं को ‘एण्टीक्राइस्ट’ के आगमन के रहस्योद्धाटन के रूप में पढ़ता (या गढ़ता) है। अगर एण्टीक्राइस्ट का आगमन धर्म का अपनी अन्तिम साँसें छोड़ना है तो (यह ज्यार्गी की विडम्बना कही जागी कि उसके ही इस पठन को सार्थक करती) उसकी मृत्यु (जो श्रृंखला की सातवीं मृत्यु है – एण्टीक्राइस्ट के आगमन का अन्तिम संकेत) के साथ ही व धर्म अपनी अन्तिम साँसें छोड़ता है जिसे हमने ‘पठन’ के नाम से पुकारा है। मठ में विनाश का अवतरण क्या एण्टीक्राइस्ट का अवतरण नहीं है?

लेकिन क्या वाक़ई पुस्तक मरती है? पुस्तकालय जल जाता है, मठ जल जाता है लेकिन, जैसा कि हम जानते हैं, विलियम फिर भी बचा रहता है – विलियम जो पाठक का किरदार अदा करता है, पाठक का यानी स्वयं का भी और हमारा भी। यदि पाठक है तो कोई पाठ भी है जिसका मर्म यह पाठक है। वह कौन सा पाठ है? वस्तुतः यह वही पाठ है जिसका नाम अरस्तू की द सेकेण्ड बुक ऑव्‌ पोएटिक्स है- विशिष्ट पुस्तक। इसका पाठक सिर्फ ज्यार्गी (प्रतिपाठक) नहीं है, विलियम भी है – एक पाठक जिसके पठन से ही हम इस पुस्तक के पाठक होते हैं। विलियम का समूचा अनुधावन, समूचा संघर्ष, समूचा जोखिम इस पाठ को एक प्रतिपाठक से मुक्ति दिलाने का है जिसमें वह अन्ततः सफल होता है क्योकि वह न सिर्फ उसे पढ़ता है बल्कि अपने पठन में अनन्त सम्भाव्य पाठकों को साझीदार बनाता है। भिक्षुओं की हत्याएँ अथवा मौतें निश्चय ही हत्याएँ अथवा मौतें है लेकिन वे एक विशेष अर्थ में उत्सर्ग (सेक्रीफाइस) भी हैं; ज्ञान की अभेद्य और मायावी कारा में कैद एक प्रतिपठनात्मक हिंसा का शिकार बनाये जाते पाठ की मुक्ति के लिए किये गये उत्सर्ग – उत्सर्ग जिसका जोखिम हर पाठक को पाठक होने से पूर्व उठाना पड़ता है। विलियम भी इस पाठ का पाठक होने से पूर्व यह जोखिम उठाता है – ज्ञान के मिथक को डिमिथिसाइज़ करने की प्रज्ञा और उपक्रम से। पुस्तकालय के अभेद्य स्थापत्य और वर्जित क्षेत्र के कौशल, दुस्साहस और उसकी जटिल कूट व्यवस्था के मेधावी कूटानुवाद में हम विलियम के इस उपक्रम को पहचानते हैं। इन उपक्रमों के पीछे ज्ञान के मिथकभजन कीउसकी प्रज्ञा के संकेत इस पुस्तक में भरे पड़े हैः पुस्तकालय में प्रवेश के अपने पहले और लगभग प्राणधातक अनुभव से गुजरने के बाद तारों भरे आकाश के नीचे खुली हवा में साँस लेते हुए विलियम का शिष्य और सहयोगी एड्सो (जो उसके साथ पुस्तकालय में गया था) जब कहता है कि ”दुनिया कितनी सुन्दर है और कितनी असुन्दर है ये भूलभुलैया” तो विलियम जवाब देता है कि ”दुनिया कितनी सुन्दर होती, अगर हमें भूलभुलैया को उत्तीर्ण करने की विधि मालूम होती।” अन्य जगहों पर वह कता हैः ”हम चीजों को ज्ञान की बजाय प्रेम के सहारे बेहतर ढ़ंग से समझते हैं।” ”अनेक स्कॉलर्स की भाँति उसमें ज्ञान के प्रति तृष्णा है।”

विलियम पाठक है क्योकि वह दि सेकेण्ड बुक ऑव्‌ पोएटिक्स की रचना करता है। हम पहले से जानते ही हैं कि अरस्तू इसका रचयिता नहीं है लेकिन यह हम द नेम ऑव्‌ द रोज़ पढ़ते हुए ही जानते हैं कि किस तरह एक पाठ अनस्तित्व में भी अपने अस्तित्व की आसन्नता में रहता है। इस आसन्नता की आहट कथा के मध्य में हमें तब मिलती है जब विलियम एक ग्रीक भाषा के स्कॉलर वेनेण्टियस की हत्या से पूर्व हुए उसके और ज्यार्गी के बीच के उस संवाद का विवरण सुनता है जिसमें वह ग्रीक स्कॉलर ईश्वर और जगत के साथ मनुष्य के कौतुक और हास्य और विद्रूप को उसकी दैव प्रदत्त वृत्तियों के बचाव में ज्यार्गी से बहस करता है और अपनी दलीलों के पक्ष में इस पुस्तक का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। हम चौंकते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि इस तरह की कोई पुस्तक नहीं हैः लेकिन यह अभिधान ही वस्तुतः उस पुस्तक के सम्भवन की शुरूआत है। ज्यार्गी द्वारा वेनेण्टियस को दीगयी यह चुनौती कि ”क्या कभी तुमने इस किताब को पढ़ा है”, ही इस किताब के ‘होने’ की (जैसे कि किसी भी किताब के ‘होने’ की) सम्भावना का वह द्वार है जिसे खोलने की प्रक्रिया का दूसरा नाम रचना-प्रक्रिया है। शायद हर रचयिता इस चुनौती का सामना करता है जो उसके भीतर या बाहर मौजूद प्रतिपाठक उसकी कल्पना के समक्ष प्रस्तुत करता है। यह द्वार विलियम खोलता है (यह बात इस तरह भी प्रमाणित है कि पुस्तकालय के जिस गुप्त कक्ष में यह पुस्तक हमें दिखायी देती है उस कक्ष का द्वार भी विलियम खोलता है!) वेनेण्टियस विलियम की कल्पना है। यह पुस्तक वेनेण्टियस का स्वप्न है। विलियम वह प्रज्ञा है जो एक स्वप्न को समझती और पढ़ती हैः

”स्वप्न प्रायः ऐसे जादुई सन्देश होते है जिनमें ज्ञानी पुरूष स्पष्ट भविष्यवाणियाँ पढ़ सकते हैं।”

”हम पुस्तकों का स्वप्न भी देख सकते हैं – स्वप्नों का स्वप्न।”

”स्वप्न एक धर्मग्रन्थ है और अनेक धर्मग्रन्थ स्वप्न के सिवा और कुछ नहीं हैं।”

द नेम ऑव्‌ द रोज़ भी ऐसा ही एक ग्रन्थ है-स्वप्नों का स्वप्न, पुस्तक के सपने में एक पुस्तक जिसे हम देखते भी हैं और पढ़ते भी हैं – उन तमाम पाठकों के साथ जो  इस पुस्तक के अन्दर भी हैं और बाहर भी। विशेषकर आज जब कि पुस्तक ‘इण्टीरियर डेकोरेशन’ की मध्यवर्गीय भूलभुलैया, धार्मिक मतान्धता और ‘आइडियालॉग्स’ की जड़ता के दुर्ग में कैद है, द नेम ऑव्‌ द रोज़ को पढ़ते हुए हम अपने भीतर और अपने समय की इन पुस्तक विरोधी और प्रतिपठनात्मक शक्तियों को पहचानते हैं – ऐसी पहचान जो पुस्तक की मुक्ति का एकमात्र साधन है।

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