आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

वियेना में हाथ देखने की दुकान: अशोक पांडे

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मेरे यहाँ पहुँचने के दूसरे दिन साहित्य का नोबेल पुरुस्कार ऑस्ट्रियाई लेखिका एल्फ्रीड येलीनेक को दिये जाने की घोषणा हुई। यह सम्मान प्राप्त करने वाली वे पहली ऑस्ट्रियाई हैं। विश्व-साहित्य के संसार में इस समाचार को बेहद चकित कर देने वाला माना गया। हालांकि अपने देश में वे अतिप्रसिद्ध हैं-अंग्रेजी भाषा समाज में उन्हें बमुश्किल कोई जानता है। उम्मीद की जा रही थी कि इस वर्ष यह पुरुस्कार संभवत: अमरीकी लेखक जॉन अपडाइक या कनाडा की लेखिका मार्गरेट एटवुड को मिलेगा पर अन्तत: स्टॉकहोम में येलीनेक के नाम पर सहमति हुई।

फ्रैंकफर्ट में उन्हीं दिनों चल रहे पुस्तक मेले में एक विख्यात ब्रिटिश प्रकाशक की प्रतिक्रिया थी: “मुझे कतई पता नहीं येलेनिक है कौन? मुझे लग रहा था कि इस बार का नोबेल किसी अल्बानियाई लेखक को मिलेगा पर ऐसा नहीं हुआ। ऐसा कतई मुमकिन है कि अगले साल यह किसी भारतीय को मिले। वैसे भी नोबेल का अब कोई मतलब नहीं रह गयाहै…।”

वियेना में रहने वाली एल्फ्रीड येलेनिक स्वयं अपने देश में खासी नापसंद की जाती हैं। मैं पिछले दिनों करीब दर्जन भर पढ़े-लिखे मित्रों से इस बारे में बात कर चुका हूँ। यह अलग बात है कि उनकी हर पुस्तक यहाँ आस्ट्रिया में एक लाख से ज्यादा बिकती हैं। ज्यादातर पढ़ने-लिखने वाले घरों में उनकी किताबें पाई जाती हैं पर उन्हें पसन्द कोई नहीं करता।

इस एकान्तप्रेमी और बेहद विवादास्पद लेखिका के लेखन से परिचित होने की इच्छा लिये मैं यहाँ के ब्रिटिश बुक स्टोर जाकर उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास द पियानो टीचर खरीद लाया। मूलत: नारीवादी लेखन करने वाली येलेनिक स्वयं को नारीवादी कहलाना पसन्द नहीं करतीं। बेहद वर्जित और विद्रूप माने जाने वाले विषयों पर कलम चलाने वाली येलेनिक के साहित्य के मूल में लिंग भेद, पूंजीवादी और उपभोक्तावाद और इनसे उपजने वाली तमाम कुंठाएँ और निराशाएँ हैं। ऑस्ट्रिया के मध्यवर्ग और दक्षिणपंथी धड़े में येलेनिक को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे अपने लेखन में इन वर्गों का जमकर मज़ाक उड़ाती हैं।

द पियानो टीचर एरिका कोहुट नाम की पियानो-अध्यापिका की कहानी है। एरिका की जिंदगी उसकी माँ के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बचपन से एरिका को विश्वविख्यात पियानो-वादिका बनाना चाहती हैं पर चालीस साल की हो चुकने पर भी एरिका एक अध्यापिका भर है। माँ एरिका की वास्तविक और भावनात्मक दोनों जिन्दगियों पर पूरा नियंत्रण करना चाहती है। लेकिन ऐरिका का एक दूसरा जीवन भी है जिसमें वह अपनी काम-कुण्ठा को बहुत वर्जित तरीके से सन्तुष्ट करने का असफल प्रयास करती रहती है…कुल मिलाकर किताब बहुत निराशापूर्ण और अजीब से माहौल का सृजन करती है।

मुझे किताब बहुत पसन्द तो नहीं आई पर हो सकता है येलेनिक के नाटक और शुरूआती किताबों को पढ़ने पर – जैसा कि डोबेर्सबर्ग में रहने वाली मेरी मित्र कॉर्नेलिया का मानना है – मैं येलेनिक के बारे में कोई ठोस राय बना पाऊँगा।

फिलहाल येलेनिक ने अपना नोबेल-भाषण लिखना तो स्वीकार किया है लेकिन वे इस बात पर अड़ी हैं कि दिसम्बर 11, 2004 को यह पुरुस्कार लेने वे स्वयं नहीं जाएँगी – किसी भी कीमत पर!

कॉर्नेलिया के आग्रह पर हम एक वीकएन्ड के लिये उसके मेहमान हैं-वियेना से करीब सौ किलोमीटर दूर वाल्डफीएर्टेल के इलाके में।वियेना से डोबेर्सबर्ग तक का सफर जैसे पिक्चर-पोस्टकार्डों की अनन्त गैलरी से गुजरना था। शरद का मौसम है-और पेड़ों के रंग बदल रहे हैं-पीले, नारंगी, लाल, गुलाबी, कत्थई और भूरे रंगों के असंख्य शेड्स से रंगी हुई घनी पत्तियों वाले पेड़ सड़क के दोनों तरफ किसी खूबसूरत पेन्टिंग का प्रभाव देते हैं-हर पल बदलती हुई-सिर्फ देवदार, सरो और चीड़ के पेड़ हरें हैं-वे ही बचा पाएँगे अपना हरा रंग सर्दियों भर-जब भीषण बर्फबारी होगी।

वियेना से चलने पर कुछ देर तक डैन्यूब नदी साथ-साथ चलती है फिर जंगल और विशाल खेत आ जाते हैं बहुत कम लोग दिखाई देते हैं – कभी-कभी किसी खेत में घरघराता अत्याधुनिक ट्रैक्टर। खेतों के किनारों पर कहीं-कहीं प्लास्टिक के सफेद-आसमानी-हरे ड्रम जैसे रखे हुए हैं सैकड़ों की तादाद में। पूछने पर पता चलता है कि पिछले तीन-चार वर्षों में एक नई मशीन आई है जो भूसे को सीधे-सीधे पैक कर देती है और उसके बिखरने और सड़ने की सम्भावना ही नहीं बचती। लेकिन प्लास्टिक के ड्रमों में करीने से रखा यह भूसा आस्ट्रिया के अति सुन्दर ग्रामीण लैण्डस्केप को बहुत बदसूरत बनाता है।

यूरोपियन यूनियन के बनने के बाद गरीब यूरोपीय देशों जैसे चेक रिपलिब्क, पोलैण्ड, हंगरी इत्यादि को पर्याप्त समृद्ध बनाने के प्रयास युद्धस्तर पर जारी हैं – बेहद धनवान राष्ट्र होने के नाते आस्ट्रियाई सरकार इस तरह के अनेक कार्यक्रम चला रही है। चैक सीमा से कुछ आठ किलोमीटर दूर कुल एक सौ साठ की आबादी वाले डोबेर्सबर्ग कस्बे से कॉर्नेलिया एक ऐसे ही विकास कार्यक्रम का संचालन करती है।

वाल्डफीएर्टेल का इलाका आस्ट्रिया के ऊपरी पश्चिमी भाग में है और अपने सधन जंगलों के लिये विख्यात है। बहुत छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों वाला यह क्षेत्र बेहद उपजाऊ भी है-आधुनिक कृषि के तमाम प्रयोग यहाँ किये जाते हैं।

पहले कॉर्नेलिया हमें कोल्मीत्ज के खण्डहरों को दिखाने ले जाती है। करीब नौ सौ साल पहले कोल्मीत्ज के विशाल किले का निर्माण किया गया था – विशेषत: चैकोस्लोवाकिया की तरफ से आने वाले आक्रान्ताओं पर निगाह रखने के लिये। फिलहाल दो-तीन वर्षों से यह खण्डहर है और छिटपुट सैलानी यहाँ आया करते हैं। एक बुजुर्ग दम्पत्ति ने एक छोटी सी दुकान खोल रखी है – बीयर, जूस, केक, टॉफी, सैण्डविच वगैरह की।

कॉर्नेलिया इस दम्पत्ति से परिचित हैं और मेरे लिये आडू और अखरोट से बनी शराब का एक छोटा सा गिलास ले आती है – यह घर में बनी बेहद नफीस और दुर्लभ शराब है। जर्मन भाषा में इसे `श्नप्स´ कहा जाता है। कॉर्नेलिया के साथ उसकी एक मित्र भी है – फ्रैदेरिके और उसकी तीन साल की बेटी माग्दालेना। नीली आँखों वाली घबराई सी यह बच्ची अपनी माँ से चिपकी रहती है।

लगातार सिगरेट फूँकने वाली फ्रैदेरिके से मैं तमाम बातें जानना चाहता हूँ पर उसे अंग्रेजी बोलने में झेंप आती है और मुझे बेहद टूटी-फूटी जर्मन भर आती है। अगले दिन तक वह थोड़ा सा खुलती है – माग्दालेना के पिता यानी उसके पूर्व-बॉयफ्रैण्ड का उसे ठिकाना तक नहीं मालूम है। वह एक छोटे से शहर में रेवेन्यू-विभाग में नौकरी करती है। उसके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है और बच्ची की जिम्मेदारी पूरी तरह से उस पर है। वह बहुत कम बोलती है। मैं उसे पूछता हूँ-“कितना मुश्किल होता है इस तरह जीना?”

“बहुत…बहुत मुश्किल।” वह मुझे कहती है और उसकी वीरान आँखें देखकर मैं उदास हो जाता हूँ।

वह एक और सिगरेट जलाती है और मैं खुद ही से जैसे घबराकर तेजी से लाल हो रहे पत्तों वाले एक पेड़ को देखने में मशगूल हो जाता हूँ।

घुड़सवारी की शौकीन कॉर्नेलिया के पास अपना घोड़ा है – रोमियो। वह जिस घुड़साल में रहता है, उसका प्रबन्धन सरकार करती है – अलबत्ता आपको उसके लिये अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ती है। डोबेर्सबर्ग से करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर कार्लिश्टफ्ट नाम के नन्हे से कस्बे में कॉर्नेलिया हमें अपने रोमियो से मिलवाने ले जाती है।

घुड़साल में करीब बीस घोड़ों के रहने की व्यवस्था है – हर घोड़े का अपना अलग केबिन-बाहर से बाकायदा नेमप्लेट के साथ। एक बड़े से कमरे में हर घोड़े की जीन इत्यादि के लिये अलग सी अल्मारियाँ हैं, और ढेर सारा खाने का सामान। बगल में लगी हुई करीब दस एकड़ जमीन इन घोड़ों की चरागाह है।

कॉर्नेलिया बहुत तल्लनीता और प्यार के साथ रोमियो का अनुष्ठान पूरा करती है – इसमें वह कतई जल्दबाजी नहीं करती। वह कहती है कि कायदे से उसे हर रोज यहाँ आना चाहिये पर काम के दबाव के कारण नहीं आ पाती। फिलहाल वह हर शनिवार और इतवार को रोमियो की देखरेख करने आती है। बाकी के दिन रोमियो की देखभाल और प्रशिक्षण का कार्य एक स्थानीय लड़की करती है। मैंने पाया कि यहाँ लोग अपनी चीजों की चिन्ता करते हैं और उनकी देखभाल बहुत ईमानदारी से करना जानते हैं।

कार्लिश्टफ्ट भी डोबेसबर्ग जैसा ही छोटा सा कस्बा है – आबादी करीब तीन सौ। बढ़िया साफ सड़कें, नक्काशीदार मेहराबों-छज्जों वाले नये-पुराने मकान, करीने से छांटी गई बाड़ों वाला कब्रिस्तान और सड़कों पर बमुश्किल लोग बाग। वियेना की चहल-पहल भरी सड़कों पर चलते रहने के बाद यहाँ काफी अजीब लगता है।

सुपर मार्केट यहाँ भी है-`बिल्ला´, `बीपा´, यूरोस्पार´, `कीका´ जैसी तमाम सुपरमार्केट-श्रृंखलाएँ पूरे आस्ट्रिया में फैली हुई है जहाँ आपको सब कुछ मिल जाता है – कार्लिश्टफ्ट के बिल्ला सुपर स्टोर में बीयर खरीदते वक्त मैं एक रैक में हल्दीराम की आलू भूजिया का पैकेट देख कर हैरान हो जाता हूँ –  पलटकर कीमत देखता हूँ-पाँच यूरो निन्यानवे सैन्ट यानी करीब सवा तीन सौ रुपये। रहूँगा तो हिन्दुस्तानी ही!

दोपहर के खाने का कार्यक्रम एक दूसरे कस्बे ड्रोसेनडोर्फ में तय किया जा चुका है। रास्ते भर ताया नदी बगल में बहती जाती है। यह छोटी सी शान्त नदी काफी कुछ गरमपानी से अल्मोड़ा के रास्ते की याद दिलाती है। वाल्डफीएर्टेल को इस नदी के नाम पर तायालान्द भी कहा जाता है।

ड्रोसेनडोर्फ एक मध्यकालीन कस्बा है और यहाँ कोई भी नया मकान नहीं बनाया गया है यानी सारे मकान कम से कम चार सौ बरस पुराने हैं – सड़कें भी वैसी ही हैं। कस्बे के मुख्य चौराहे पर एक पार्क है – पार्क के बीचोंबीच एक फव्वारा, एक बड़ी मूर्ति और पेड़ों से गिरते हुए रंग-बिरंगे पत्ते।

यहाँ की गलियों में चलना बेहद दिलचस्प है। रासते से दोनों तरफ मकानों की कतारें हैं और हर मकान की निर्माण शैली अपने में अद्वितीय है – हर घर का अपना शिल्प-हर घर जैसे मध्यकालीन कला का नमूना। एक पुराना हस्पताल है, उससे लगा हुआ चर्च और चर्च के ऐन बगल में एक जर्जर संग्रहालय। संग्रहालय के बाहर ताला लगा है और गेट पर एक नोटिस, जिसमें बताया गया है कि यदि आप भीतर जाने में उत्सुक हैं तो चाभी दीवार में बने आले में रखी हुई और यह भी कि कृपा कर के चाभी को इस्तेमाल के बाद वापस वहीं रख दिया जाय।

संग्रहालय के भीतर पुराने कृषि उपकरण, हथियार इत्यादि प्रदर्शित किये गये हैं। एक मेज पर तमाम ब्रोशर, फोल्डर इत्यादि रखे हुए हैं जिन्हें आप अपने साथ ले जा सकते हैं और चारों तरफ बहुत सफाई है – पता नहीं कौन इन सारी जगहों को साफ-सुथरा बनाये रखता है।

पिछले दो दिनों से मैं इन मनुष्यहीन गलियों, सड़कों के विचित्र एकान्त से परिचित हो चला हूँ। कभी-कभार कोई गाड़ी की आवाज, या किसी घर के भीतर से संगीत सुनाई देता है। डोसेनडोर्फ में जो पुराना किला है उसे एक होटल में तब्दील कर दिया गया है लेकिन आप चाहे तो किले की दीवार के साथ-साथ टहलते हुए जा सकते हैं और दूरदराज के गाँवों, खेतों का विहंगम दृश्य देख सकते हैं।

ड्रोसेनडोर्फ के मुख्य चौराहे पर ही रातहाउस है-`रातहाउस´ माने एक तरह से नगरपालिका का दफ्तर। हर शहर-कस्बे के रातहाउस अपने शानदार वास्तुशिल्प के कारण दर्शनीय होते हैं। भीतर जाने पर कोई नहीं मिलता-पर आप जब तक चाहें चीजों को देख सकते हैं और अपने साथ तमाम ब्रोशर, फोल्डर ले जा सकते हैं। इसी मकान के बगल में एक पुरान पब है जिसकी खुली बालकनी नाव की शक्ल में बनाई गई है – अगर मौसम इतना ठण्डा न होता और हवा इतनी तेज न चल रही होती तो यहाँ बाहर बैठकर कॉफी पीना अच्छा लगता।

रात कॉर्नेलिया के धर पर मुझे मुख्य रसोइये का जिम्मा सौंपा गया है भारतीय भोजन तैयार करने के लिये – भारतीय मसाले मैं वियेना से लाना भूल गया था पर यहाँ सुपर स्टोर में धनिया, हल्दी और करी-पाउडर मिल गया-मिर्च की जरूरत नहीं क्योंकि यूरोप के लोग मिर्च बरदाश्त नहीं कर पाते। मैं तीन-चार चीजें बना रहा हूँ – प्याज, टमाटर, लहसुन, आलू काटने के लिये कॉर्नेलिया, फ्रैदेरिके और सबीने के रूप में मेरे पास तीन सुन्दर सहायिकाएँ हैं और इस सुविधापूर्ण कार्य को बेहतर बनाने के लिए पीने को शानदार रैड वाइन।

खाने के बाद लिक्योर पीने की बारी है और कॉर्नेलिया अपने खजाने से श्वप्स की दसियों बोलतें निकाल लाती है –  खुमानी की शराब, सेब, आडू, आलू बुखारे, बादाम की शराब-और शहद से बनी हुई बेहद मीठी शराब भी-मुझसे एक-एक कर हर एक का स्वाद लेने को कहा जाता है।

डोबेसबर्ग कस्बा कोहरे में डूबी रात में सोयाह हुआ है – कॉर्नेलिया के घर से टहलते हुए वापस अपने गैस्टहाउस जाते हुए नीयोन की चमक से सराबोर वीरान गलियों सड़कों पर गिरे पत्तों पर चलना भला लगता है। एक छोटा सा मकान बेहद दिलचस्प है।

कुछ साल पहले डोबेर्सबर्ग की नगरपालिका ने एक `विचित्र´ अभियान चलाया था। डोबेर्सबर्ग में अधिक लोगों को बसाने के लिए मुफ्त मकान और जमीन देने का प्रावधान बनाया गया पर कोई नहीं आया। नगरपालिका ने इस वीरान से दिखने वाले कस्बे को थोड़ा भीड़ भाड़दार दिखने के लिये नागरिकों से अपील की कि वे अपने घरों के बाहर आदमकद कठपुतलियाँ सजाएँ ताकि कुल एक सौ साठ की आबादी के लिये इतनी ही कठपुतलियाँ कस्बे को थोड़ा भीड़ भरा बनाएँ। इस विचित्र प्रस्ताव को प्रकटत: केवल एक ही गृहवामी ने स्वीकार किया। सो हमारे गैस्टहाउस की गली के कोने पर यह छोटा सा घर अच्छा लगता है – हरे लॉन पर विभिन्न मुद्राओं में पाँच-छ: आदमकद कठपुतलियाँ सजी हुई हैं। मकान के बाहर बैन्च पर पसरा हुआ एक शराबी बूढ़ा भी उन्हीं कठपुतलियों जैसा दिखाई देता है।

हमारे गैस्टहाउस की मालकिन एक बेहद बातूनी बुढ़िया है। सुबह नाश्ता हम उसके साफ सुथरे घर के डाइनिंग-रूम में करते हैं। उसका पालतू कुत्ता घुंघराले भूरे बालों वाला एक पूडल है और फर्श पर उसके चलने से कट-कट की आवाज आती है। असल में वह कुत्ता कम खिलौना अधिक नजर आता है – नाम है आर्थर।

बुढ़िया अपने आर्थर की वंशावली और उसके जीवन के बारे में करीब पन्द्रह मिनट तक धाराप्रवाह बोलती है-कुत्ता मेरे पैरों पर पसरा हुआ है डबलरोटी के एक टुकड़ें की प्रतीक्षा में। फिर पूछने पर वह हमें कॉनेलिया के घर जाने का दूसरा रास्ता बताती है – डोबेर्सबर्ग नेचरपार्क से होकर जाने वाला। तीन-चार किलोमीटर के इलाके में फैला हुआ डोबेर्सबर्ग नेचरपार्क बेहद हरा-भरा है – पतझड़ के बावजूद देवदार और चीड़ के पेड़ों की बहुतायत के कारण। भीतर एक ऊँची बाड़ के भीतर, हिरन, बारहसिंघे और भेड़-बकरियाँ हैं – सामान्य से काफी बड़े आकार वाले ये जानवर हमें देखकर बिल्कुल नजदीक आ जाते हैं सिवाय एक छौने के जो पागलों की तरफ सिर्फ दौड़ रहा है।

नेचरपार्क में बच्चों के खेलने को झूले वगैरह हैं ओर पेड़ों के खोखलों से बनी नावें-पर बच्चे कहीं नजर नहीं आते। मुझे अचानक भान होता है कि डोबेर्सबर्ग, कार्लिश्टफ्ट, डोसेनडोर्फ, राब्स और तमाम छोटे कस्बों में हर दूसरे घर के बाहर बच्चों के झूले टंगे हुए हैं पर मैंने कहीं किसी बच्चे को खेलते हुए नहीं देखा-खेलते हुए क्या मैंने तो कोई बच्चा ही नहीं देखा – और यह वीकएण्ड का समय है जब दफ्तर-स्कूल बन्द रहते हैं बाकी दिन पता नहीं क्या होता होगा।

नेचरपार्क के बाहर गेट पर एक नन्हा सा म्यूजियम है –शहद बनाने के उपकरणों का संग्रह – हम अभी भी कच्चे रास्ते पर हैं और थाया नदी हमारे दाईं तरफ शान्त बह रही है। सामने पुराने गिरजाघर की मीनार नजर आती है-यही से हमें कच्चा रास्ता छोड़कर ताया नदी के पुल पर से होकर मुख्य स़क पर पहुँचना है।

कॉर्नेलिया बहुत दिलचस्प महिला है – वह दर्जन भर से अधिक तरह की नौकरियाँ कर चुकी है-बीस साल तक वियेना में रहने के बाद वह अन्तत: यहाँ आ बसी है। उसके दो सपने हैं-कुछ बैस्टसैलर उपन्यास लिखना और डोबेर्सबर्ग से तीसेक किलोमीटर दूर में एक बड़ा मकान खरीदना। उसने एक बड़ा मकान देख लिया है और वह हमें वहाँ ले जाती है।

राइन्गेर्स नाम के इस कस्बे (या गाँव) से चैक सीमा मात्र डेढ़ किलोमीटर दूर है-आबादी कुल चौवन। पर यहाँ भी चर्च है, सुपर मार्केट है, गैस्टहाउस हैं, पब हैं और संग्रहालय भी – संग्रहालय की चाभी पब-मालिक से ली जा सकती है मगर पता नहीं लोग कहाँ हैं?

टहलते हुए एक बड़े पोस्टर पर निगाह अटकती है। पोस्टर के कोनों पर भंग की पत्तियों का डिज़ाइन है और पहला ही शब्द मुझे आकृष्ट करता है-`लॉर्ड कृष्णा´। पोस्टर में बताया गया है कि कृष्ण भगवान ने किसी जगह भंग (भांग) औषधि के रूप में इस्तेमाल के बारे में क्या कहा है? असल में यह कस्बा पिछले पाँच सालों से भांग की पत्तियों से विभिन्न उत्पाद बना रहा है। पूरे कस्बे में कई जगह वैसे ही बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए हैं और बताया गया है कि भंग के पौधे से यहाँ फर्नीचर, कपड़े, कागज, एयरकंडीशनर, कार और हवाई जहाज का तापमान नियंत्रित करने की फिलिंग, दवाइयाँ, शरबत और बीयर और अनेक उत्पाद बनाये जाते हैं।

एक पब में बैठकर भंग की बनी दुर्लभ बीयर पीता हुआ मैं अपने पहाड़ों में उगने वाली भंग की बहुतायत पर काफी देर तक विचार करता रहता हूँ – हमारे यहाँ लोग अब भी उसके परम्परागत उपयोग? पर ही अधिक विश्वास करते हैं।

कॉर्नेलिया जिस मकान को खरीदना चाहती है वह काफी बड़ा है और उसके पिछवाड़े करीब तीस एकड़ का खेत हैं जहाँ उसका रोमियो मजे से रह सकता है। खेत में सेब के पेड़ लदे हुए हैं। सेब के फलों से लदे हुए असंख्य पेड़ मैं देख चुका हूँ – वे घरों के बगीचों में हैं, जंगलों में हैं, रास्तों के किनारे पर हैं, खेतों में हैं-पके हुए सेब पेड़ों से टपकते रहे हैं और कोई भी उन्हें तोड़ने या खाने में दिलचस्पी लेता नजर नहीं आता-हो सकता है उनका उपयोग शराब बनाने में किया जायेगा या शायद वे ऐसे ही पेड़ों के तले गिरते सड़ते रहेंगे-लोग कहाँ हैं!

लौटते हुए हम वापस कार्लिश्टफ्ट जाते हैं रोमियो से मिलने। रास्ते में एक हवाई पट्टी नजर आती है – यह वाल्डफीएर्टेल का फ्लाइंग-क्लब है। पता नहीं कौन जहाज उड़ाता होगा यहाँ, कौन इन खेतों में काम करता होगा!

रोमियो की घुड़साल में आज थोड़ी भीड़ है, तीन और घोड़ों के मालिक अपने-अपने घोड़ों की तीमारदारी में व्यस्त हैं। मुँह में गेंद दबाये एक विशालकाय लेकिन मासूम अल्सेशन कुत्ता मेरे पास आता है, शैतानी और शरारत उसकी आँखों में छपी हुई हैं।मैं बहुत देर तक उसके साथ खेलता रहता हूँ। रोमियो के तैयार हो चुकने के बाद हम गाँव के कच्चे रास्तों पर तीन-चार घण्टे टहलते रहते हैं, बीच मे एक जगह चैक सीमा की बाड़ भी नजर आती है। कॉर्नेलिया, रोमियो की लगाम थामे बच्चों को बारी-बारी घुड़सवारी करवाने में व्यस्त हैं।

अब हमारे वापस वियेना लौटने का समय है। हमें हरमन लिफ़्ट देने वाला है। हरमन यानी कॉर्नेलिया का पूर्व-प्रेमी जिससे उसके सम्बन्ध टूटे हुए बस दो-तीन हफ्ते भर हुए हैं।

हरमन वियेना से आया है अपनी गाड़ी के टायर बदलने के लिये। यहाँ सर्दियों के लिये गाड़ियों के टायर अलग तरह के होते हैं ताकि बर्फभरी रपटीली सड़कों पर कार पर बेहतर नियंत्रण हो सके। चूँकि कॉर्नेलिया और हरमन पिछले आठ सालों से साथ रह रहे थे-ये टायर भी यहाँ रखे हुए थे। इधर कॉर्नेलिया ने नया प्रेमी तलाश लिया है और हरमन बेहद जटिल मानसिक त्रास से गुजर रहा है – यह सारी सूचनाएँ मुझे सबीने से पहले ही मिल चुकी हैं।

बच्चों के स्कूल में धर्म की किताबें पढ़ाने वाले हरमन से मिलने को मैं उत्सुक हूँ। वह एक लम्बा, चौड़ा, निश्छल आँखों वाला पैंतीस पार का आदमी है। हम हाथ मिलाते हैं और बातचीत का सिलसिला रूक-रूक कर चलने लगता है। एक दूसरे की उपस्थिति से कॉर्नेलिया और हरमन दोनों को प्रकट रूप से बहुत परेशानी और उलझन हो रही है। हालांकि वे भरसक ऐसा प्रदर्शित न होने देने की कोशिश करते हैं।

कॉफी बनाई जाती है, व्हिप्ड क्रीम के साथ-केक बिस्कुट खाये जाते हैं। थोड़ी श्नप्स पी जाती है और एक विचित्र से माहौल में हम विदा लेते हैं – कॉर्नेलिया बहुत देर तक हाथ हिलाती रहती है।

शाम गहरी हो चुकी है और हमें वियेना पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने हैं। गाड़ी के भीतर कुछ असुविधापूर्ण शान्ति रहती है – हरमन की आँखों से मियाँ मोमिन कहने नजर आते हैं-

“मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला तुम्हें याद हो कि ना याद हो…”

हरमन की मन:स्थिति किसी क्लासिक प्रेमी की है जिसे अचानक बिना पूर्व दिये त्याग दिया गया हो। मैं संगीत चला देता हूँ और इत्तफाक से एक रेडियो चैनल पर हूलियो इग्लेशियस का `उन ओम्ब्रे सोलो´ बज रहा है।

अब हरमन और मैं इग्लेशियस के बारे में, फिर संगीत के बारे में बात करते हैं – वह स्वयं अच्छा संगीतकार है और दरअसल आज ही रात उसे अपने बैण्ड के साथ एक क्लब में जाना है।

मुझे अच्छा लगता है हरमन से बात करना-हम तमाम संगीत, कला, साहित्य के बारे में चर्चा करते रहते हैं-वह मुझे कुछ विख्यात आस्ट्रियाई लेखकों के बारे में बताता है और अपने पसन्दीदा उपन्यासों के बारे में भी। जाहिर है हम एल्फ्रीड येलीनेक के बारे में भी बातें करते हैं। येलीनेक का नाम आते ही हरमन के चेहरे पर वही परिचित भाव आ जाते हैं जिन्हें मैं कई लोगों के चेहरों पर पहले देख चुका हूँ। हरमन को भी यह बहुत अटपटा लगता है कि येलीनेक को नोबेल पुरूस्कार दिया गया। जबकि दुनिया में तमाम बड़े साहित्यकार मौजूद हैं। उसने वी.एस. नायपॉल को भी पढ़ रखा है और वह कहता है कि नायपॉल को नोबेल दिये जाने के पीछे राजनीतिक कारण हो सकते हैं पर येलीनेक, जिसका राजनीतिक इतिहास अधिसंख्य यूरोपियनों को पसन्द नहीं आ सकता, को नोबेल कैसे दिया जा सकता है। स्पष्टत: उसका इशारा इस तथ्य की तरफ है कि येलीनेक 1974 से 1991 तक आस्ट्रियाई कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य रही थी।

मैं उससे अर्नेस्ट फिशर के बारे में पूछता हूँ जिसकी पुस्तक कला की जरूरत का हिन्दी तर्ज़ुमा भी उपलब्ध है। पर मुझे घोर आश्चर्य होता है कि बाकी आस्ट्रियाइयों की तरह हरमन भी अपने ही देश के इस विख्यात और जीनियर कलाशास्त्री के नाम से परिचित नहीं है।

जाते-जाते हरमन वादा करता है कि वह अपने परिचित मित्र लेखकों की मदद से कोशिश करेगा कि कम से कम कुछ मिनटों को ही सही, वह येलीनेक से मेरी मुलाकात करवाने में सफल हो पाये।

बेहद प्रभावित हूँ मैं हरमन से।

रात को पता लगता है कि मेरा सिगरेट कोटा खत्म हो चुका है। दस बज चुका है और दुकानें बन्द हो चुकी होंगी पर मैं फिर भी नायलेरखेनफेल्डरश्ट्रासे में उतरने का फैसला करता हूँ। थोड़ा आगे एक छोटा सा पब है जहाँ मैं दो-तीन बार जा चुका हूँ। पब के भीतर से बारगर्ल मुझे हाथ हिलाकर भीतर बुलाती है। वह मुझे एक तरह से जानती है। कुल पाँच-छह मेजों वाली इस छोटी सी बार में ऑस्ट्रियाई बहुत कम आते हैं, ज्यादातर तुर्की, हंगरी और बल्गारियाई आते हैं।

एक मेज पर उसका अलसाई आँखों वाला ब्वॉयफ्रैण्ड बैठा हुआ है – मुझे देखकर वह मुझे अपनी मेज  पर बुलाता है। उसके साथ माइक टाइसन जैसा दिखने वला एक पहलवान छाप नीग्रो बैठा हुआ है। वह मुझे हाथ मिलाकर अपना नाम बताता है – माइकेल। माइकेल टूटी-फूटी अंग्रेजी बोल सकता है और आज वह मेरा दुभाषिया होगा। संभवत: बीयर मंगाई जाती है। बारगर्ल का प्रेमी मेरे लिये कहीं से मार्लबरो के दो डिब्बे ले आता है।

अब मैं नोयलरखेनफेल्डश्ट्रासे की पोर्ट नोइये बार में हस्तरेखाशास्त्री होने का नाटक कर रहा हूँ। ऐसा मैं बारगर्ल के अनुरोध पर कर रहा हूँ। पिछली बार जब मैं यहाँ आया था-यह जानने पर कि मैं भारतीय हूँ उस लड़की ने अपना हाथ मेरे सामने रख दिया था – मैंने कुछ बातें ऐसे ही कह दी थीं जो बिल्कुल सही थीं-मसलन लोग आपको सही नहीं समझते, आपको आपकी मेहनत का उचित फल नहीं मिलता, बचपन में बीमारी हुई थी वगैरह-वगैरह।

धीरे-धीरे बाकी मेजों से मुझे बुलावा आता है; एक मेज पर तीन मकदूनियाई नौजवान बैठे हैं-बकरा-दाढ़ी वाला एक नौजवान मेरे सामने अपना हाथ रखता है – मैं उसकी आँखों में देखकर पूछता हूँ-“आर्टिस्ट?”, वाह, वह सचमुच ही कलाकार निकला-चित्रकला का छात्र। मेरा प्रभाव बहुत बढ़ जाता है।

पब से बाहर आते-आते डेढ़ बज चुका है-न मुझसे बीयर के पैसे लिये जाते हैं न सिगरेट के-उल्टे दस-बारह लोगों का जुलूस मुझे मेरे ठिकाने तक विदा करने आता है।

पोर्ट नोइये बार में मेरा इस तरह का परिचय मैक्सिम की वजह से मुमकिन हो पाया। पर उससे भी पहले यह मेरा अज़ीज़ दोस्त ज़ुबैर था जिसके कारण मैक्सिम से परिचय हुआ।

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ज़ुबैर से मेरा पहला परिचय 1992 में नैनीताल में हुआ था – ढाका से आया अठारह साल का ज़ुबैर नैनीताल डिग्री कॉलेज से बी.ए. कर रहा था-उसके भीतर संगीत की अपार प्रतिभा नजर आती थी। वह अब तीस का है और पिछले बारह सालों में उसके संगीत के अलावा कुछ नहीं किया है। फिलहाल वह स्टॉकहोम के रॉयल कॉलेज ऑफ म्यूज़िक में पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत का छात्र है – वह इस प्रतिष्ठित संस्थान में छात्रवृत्ति पाने वाला पहला दक्षिण एशियाई है। यह कदाचित् संभव है कि आने वाले बरसों में वह दुनिया का इकलौता संगीतकार बन जाये जिसके पास भारतीय और पाश्चात्य दोनों तरह के शास्त्रीय संगीतों पर बाकायदा महारत हासिल हो। इंशाअल्लाह।

संगीत और वियेना जैसे एक-दूसरे के पर्यायवाची माने जाते रहे हैं- मोत्ज़ार्ट, बाख, बीथोवन और ब्राह्म जैसे महान संगीतशिल्पियों का शहर वियेना विश्व संगीत की राजधानी के रूप में विख्यात है।

जब मैंने ज़ुबैर को अपने वियेना जाने के बारे में बताया था तो उसने वादा किया था कि वह मुझसे मिलने ज़रूर आयेगा और साथ ही यह कि वह वियेना सिर्फ तफरीह के लिये ही नहीं आयेगा। यह उसके लिये तीर्थयात्रा करने जैसा होगा।

मैं यहाँ 6 अक्टूबर को पहुँचा और ज़ुबैर 11 को। सबीने और मैं उसे लेने एयरपोर्ट जाते हैं। दोपहर का वक्त है और एयरपोर्ट पर बहुत भीड़ है। ज़ुबैर ने फोन पर पहले से बता रखा है कि वियेना में उसके एकाध परिचित बांग्लादेशी भी रहते हैं। भीड़ में दो व्यक्ति अलग नजर आते हैं और मैं सबीने को बताता हूँ कि वे दोनों ज़ुबैर को लेने आये हुए बांग्लादेशी हो सकते हैं। आखिरकार ज़ुबैर बाहर आता है और मेरा अनुमान सही निकलता है।

करीब पन्द्रह सालों से यहाँ रह रहे बाबूभाई की मर्सिडीज में हम वापस वियेना शहर लौट रहे हैं। ज़ुबैर से वियेना में इस तरह मिलना उत्तेजनापूर्ण है। हमने एक दूसरे का हाथ कस कर थामा हुआ है और ज़ुबैर बार-बार पुर्तगाली कवि फर्नान्दो पेसोआ की एक पंक्ति दोहरा है-“Deeds cannot dream what dreams can do!”

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बाबूभाई के घर जाना अच्छा लगता है। उनके दो बच्चे हैं जो बांग्ला और जर्मन के अलावा और कोई भाषा नहीं जानते। असल में बाबूभाई के घर में बोली जाने वाली भाषा इन दो महान भाषाओं के मीठे शरबत जैसी है।

खुद बाबूभाई और उनकी पत्नी शोभा दोनों संगीतकार हैं और कुछ भारतीयों और पाकिस्तानियों के साथ मिलकर उन्होंने एक ग्रुप जैसा बना रखा है।

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ज़ुबैर वियेना में कुछ काम भी पूरा करना चाहता है वह यहाँ सप्ताह भर रहेगा और यहाँ के महान संगीतकारों खासकर बीथोवन के स्मारकों की वीडियोग्राफी करेगा। इस फुटेज का इस्तमाल वह एक लघु फिल्म के निर्माण में करेगा।

सो अगले दिन हम सबसे पहले टूरिस्ट ब्यूरो जाते हैं – बाबूभाई, जिनका असली नाम मुहम्मद बारी है, ने पूरे हफ्ते की छुट्टी ले ली है। टूरिस्ट ब्यूरो में रिसेप्शन पर एक परिचारिका हमें वियेना का सघन नक्शा थमाती है जिस पर उसने कलम से हमारी दिलचस्पी की जगहों पर निशान बना दिये हैं।

ज़ुबैर चाहता है कि वियेना के किसी फिल्म संस्थान से किसी प्रशिक्षु कैमरामैन की सेवाएँ ले सके ताकि वीडियोग्राफी में थोड़ी बहुत पेशेवर गुणवत्ता आये। टूरिस्ट ब्यूरो के ठीक सामने वियेना फिल्म म्यूज़ियम है। संभवत: हमें वहाँ से कोई मदद मिल पाये।

फिल्म म्यूज़ियम के भीतर पहले हमें एक ब्रोशर थमाया जाता है। यह यूरोप के सबसे बड़े फिल्म संग्रहालयों में से एक है-यहाँ करीब बीस हजार फिल्में और सोलह हजार फिल्म-सम्बन्धी किताबें संग्रहीत हैं। सन् 1965 से यहाँ लगातार फिल्मों के शो होते रहे हैं – हर रोज। रिसेप्शन पर बैठी लड़की हमें थोड़ा और इन्तजार करने के लिये कहती है।

करीब दस मिनट बाद एक गम्भीर सी दिखने वाली महिला आती है और हमारी जरूरत के बारे में जानने के बाद तीन-चार फोन घुमाती है, “माफ कीजिये, मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकती” वह कहती है। “पर आप चाहें तो पास ही के फिल्म इंस्टीट्यूट में जाकर पता कर सकते हैं।” वह एक कागज पर पता लिखकर देती है।

फिल्म इंस्टीट्यूट के भीतर पहले तो सिर्फ एक सफाईकर्मी नजर आया। उसने हमें तीसरी मंजिल पर भेजा। एक केबिन के भीतर एक दाढ़ीवाला आदमी बैठा कम्प्यूटर पर काम कर रहा था और उसके पास ही सोफे पर दो नवयुवतियाँ सिगरेट पी रही थीं। केबिन धुएं से भरा हुआ था जबकि दरवाजे पर `नो स्मोकिंग´ का बड़ा सा स्टीकर चिपका हुआ है। दाढीवाला हमारी बात सुनने के बाद एक फोन करता है और कहता है कि अभी तो कोई भी ऐसा प्रशिक्षु उपलब्ध नहीं हो सकता क्योंकि सत्र बस शुरू ही हुआ है। हम चाहें तो उन्हें ई-मेल कर सकते हैं और फिर उनके जवाब की प्रतीक्षा।

सुबह से भागते-भागते हमें दो बज चुका है और कुछ भी काम नहीं हुआ है। ऊपर से जिस बेढंगे तरीके से वे सिगरेट पीती हुई लड़कियाँ हमें घूर रही थीं, हम तय करते हैं कि सबसे पहले वियेना की सैन्ट्रल सीमेट्री जाना चाहिये और संगीत के उस्तादों की कब्रों के दर्शन करने चाहिये।

वियेना शहर के एक छोर पर स्थित मुख्य कब्रिस्तान बहुत बड़े भू-भाग में फैला हुआ है। हमें बीथोवन की कब्र देखनी है पर बताने वाला कोई नहीं है। हम सीधे आगे चलते जाते हैं – रास्ते के दोनों तरफ कब्रें हैं-हरेक अपने शिल्प और संरचना में अद्वितीय-उनमें कुछ तो बहुत सुन्दर भी हैं। हर कब्र के ऊपर, दाएँ-बाएँ फूल उगे हुए हैं। कुछ ताज़ा कब्रों पर काम चल रहा है।

कोई हमें बताता है कि बीथोवन की कब्र तो बिल्कुल प्रवेशद्वार के पास ही है अलबत्ता हम इतनी दूर आ चुके हैं तो हमें आगे जाकर दूसरे विश्वयुद्ध में शहीद हुए सैनिकों का स्मारक देखना चाहिये। स्मारक क्या है बस एक बड़ा सा खेत है जिसमें नन्हें पत्थर धरे हुए हैं-हर पत्थर पर शहीद सैनिक का नाम और उसकी तारीखें। एक कब्र पर दो नाम हैं – सैनिक का और उसकी पत्नी का। इसे देखकर मन में कुछ सवाल उठते हैं, कुछ दिलचस्पी भी होती है पर बताने वाला कोई नहीं है। और आगे जाने पर एक खाली खेत है और फिर तारबाड़ – यह आने वाले मृतकों के लिये आरक्षित है।

लौटते में बीथोवन की कब्र की तरफ जाते हुए हम तीनों पता नहीं किसी बात पर जोर-जोर से हँसते हैं। एक कब्र के सामने फूलों के पौधों को छाँटती एक बुढ़िया हमें अजीब निगाह से देखती है; हमारा झेंपना लाज़िमी है।

प्रवेशद्वार थोड़ा ही सामने नजर आत रहा है पर अभी तक हम अपनी मंजिल पर नहीं पहुँचे हैं,मन में शंका होतगी है कहीं हम पीछे तो नहीं छोड़ आये उसे। पर अचानक निगाह एक मार्गनिर्देशक बोर्ड पर पड़ती है-`संगीतकार´।

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अपने प्रियतम संगीतकारों में से एक की कब्र के सामने खड़े होकर अचानक मुझे अपना कलेजा गले तक आ गया लगता है – आँखों में शायद थोड़ी नमी भी। यह एक तरह से तीर्थयात्रा है। पाँच मिनट आँखें बन्द कर मैं बीथोवन के पियानो की कुछ ध्वनियाँ याद करता हूँ-और बाकायदा उस्ताद की मूर्ति को सलाम भी। योहान स्ट्राउस, शूबेर्ट और ब्राह्मस् की कब्रें बिल्कुल आसपास ही हैं।

जापानी पर्यटकों का एक झुण्ड चिड़ियों की तरह कब्रिस्तान में प्रवेश कर रहा है – उनकी आवाजें भी चिड़ियों जैसी दबी-दबी और मुलायम हैं पर बीथोवन की कब्र के सामने खड़े होने का अनुभव रोमांचक और थर्रा देने वाला है। आप बहुत देर तक वहाँ खड़े रह ही नहीं सकते।

ज़ुबैर वहीं से अपने घर फोन लगाता है और अपने यहाँ होने की इत्तला देता है – उत्साह और उत्तेजना उसकी आवाज से टपक रहे हैं। इसके बाद बरेली फोन लगाया जाता है। और किसे? – वीरेनदा को।

बाहर आकर लग रहा है कि कुछ काम की शुरूआत हो गई हालांकि ज़ुबैर फिर से कहता है कि यह काम कम है तीर्थयात्रा ज्यादा।

हमारे पास अब भी समय है और हम बीथोवन की कर्मस्थलियों में से एक पास्कालाटी हाउस देखने जा सकते हैं।

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कई मायनों में लडविग फान बीथोवन (1770-1827) एक अद्भुत रोमांटिक जीनियस थे जिन्होंने बाहरी तथ्यों और तर्कों से जरा भी प्रभावित हुए बिना अपनी रचनात्मक ऊर्जा और अन्दरूनी ताकत पर निर्भर रहना बेहतर समझा। `पवित्र´ समझी जानी वाली अपनी नौ सिम्फनियों के बूते पर वे अपने जीवनकाल में ही बहुत लोकप्रिय हो चुके थे। सही मायनों में वे पश्चिमी संगीत के पहले महानायक थे।

अपने संगीत को तराशने का उद्यम उनके जीवन का प्रथम उद्देश्य था पर वे बहुत बेचैन व्यक्ति थे। इसका प्रमाण है कि वे करीब तीस (या ज्यादा) घरों/मकानों में रहे। इन्हीं में से एक है पास्कालाटी हाउस। इस घर में उनहोंने अपनी तमाम महान सिम्फनियों पर काम किया-अपनी चौथी, पाँचवीं और छठी सिम्फ़नी उन्होंने यहीं पर पूरी कीं। वे सन् 1806 से 1808 तक इस घर में रहे। अपने इकलौते ऑपेरा `लियोनोरे´ (जिसे बाद में `फिडेलियो´ के नाम से ख्याति मिली) का सृजन भी उन्होंने यहीं किया।

इस घर में रहत हुए ही वे धीरे-धीरे अपने स्वास्थ्य, साफ-सफाई और कपड़ों को लेकर बहुत लापरवाह हो चले थे और सनकी और चिड़चिड़े।

मोइलेकरबास्तेई-8 पर पाँचवीं मंजिल पर तीन छोटे-छोटे कमरों वाला यह घर पाश्चात्य संगीत के मील के पत्थरों में गिना जा सकता है। बिल्कुल वीरान सी एक गली में घुसकर आप तीनेक सौ साल पुराना ज़ीना चढ़कर यहाँ पहुँचते हैं। यह एक राजकीय संग्रहालय बना दिया गया है अब। टिकट लेकर हम पहले कमरे में घुसते हैं। लकड़ी के फर्श वाले इस छोटे से कमरे के बीचोंबीच बीथोवन का पियानो रखा हुआ है।

ज़ुबैर उस पियानो को हौले से छूता है और साथ चल रही संग्रहालय की एक रिसेप्शनिस्ट से बार-बार पूछता है-“क्या यही वो पियानो है जिस पर बैठकर बीथोवन ने अपने संगीत की रचना की थी?” वह बार-बार सकारात्मक उत्तर देती है – उसकी आवाज में विचित्र सी ऊब भी है। मुझे अच्छा नहीं लगता मैं बाकी कमरों में चला जाता हूँ – ये रही बीथोवन के हाथ की लिखावट, ये उसकी छठी सिम्फनी का छठा ड्राफ्ट, ये कुर्सी, ये मेज… दीवारों पर तस्वीरें हैं। एक तस्वीर बीथोवन की शवयात्रा की है। शवयात्रा के समय जैसे समूचा संगीतप्रेमी वियेना उमड़ आया था। भीड़ को नियंत्रित करने के लिये पुलिस और सेना की मदद लेनी पड़ी थी।

लकड़ी के पुराने फर्श पर चलने से जूतों की चर्रमर्र होती है। दूसरे वाले कमरे की खिड़की से बाहर वियेना विश्वविद्यालय की पुरानी भव्य इमारत दिखाई देती है और दूर एक बड़े गिरजाघर का शिखर।

पाँच मंजिल उतरकर हम वापस सड़क पर आते हैं और एक संकरी गली का रूख करते हैं जहाँ से तीखी ढाल वाली कोई चालीस सीढ़ियाँ उतरकर बीथोवन शाम को टहलने जाया करते थे। तेज ठण्डी हवा चल रही है और पेड़ों से गिरे हुए पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं। ज़ुबैर कहता है उसे थर्राहट हो रही है इतने बड़े संगीतकार के इतने पास जाकर।

मुझे इन सीढ़ियों पर उतरते हुए बार-बार मीर तकी मीर का शेर याद आ रहा है-

“इस दश्त में अय सैल, सम्हल ही के कदम रख,

यां दफ़्न हर कदम पे मेरी तिश्नालबी है।”

बीथोवन अगर उर्दू शायरी करते होते तो शायद ज़ुबैर से यही शेर कहते।

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डोएबलिन्गर हॉप्टश्ट्रासे 92, पर एक छोटा सा मकान है जिसे अब एरोइका हाउस के नाम से जाना जाता है। सन् 1803 में बीथोवन ने ई-फ्लैट मेजर में यहाँ अपनी तीसरी सिम्फनी रची थी जिसे `एरोइका´ के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस सिम्फनी ने बीथोवन को पश्चिमी संगीत में एक क्रान्तिकारी के रूप में स्थापित किया। शुरू में बीथोवन ने इसे नेपोलियन बोनापार्ट को समर्पित किया था पर 1804 में यह जानने के बाद कि नेपोलियन को फ्रांस का सम्राट घोषित किया गया है बीथोवन ने यह समर्पण वापस ले लिया।

इस बार हम वीडियो कैमरा लेकर आये हैं। संग्रहालय के रिसेप्शन पर बैठे सज्जन दबी ज़ुबान में हमें उसके इस्तेमाल की इजाजत दे देते हैं।

दो कमरों के इस छोटे से अपार्टमेन्ट के बाहर एक छोटा सा बगीचा है। बगीचे में लगे एक पेड़ की तरफ इशारा करके संग्रहालय वाले सज्जन बताते हैं कि चार सौ साल पुराने इस पेड़ की छाँह में बीथोवन ने गर्मियों की कई दोपहरें गुजारी थीं। अपार्टमेन्ट के भीतर कुछ फर्नीचर, कुछ तस्वीरें और बीथोवन की हस्तलिपि के चन्द नमूने हैं-बहुत ज्यादा कुछ नहीं। बाहर एक बेहद बूढ़ा आदमी लाल टोपी और सुर्ख लाल जैकेट पहले पत्रों को झाड़ कर इकट्ठा कर रहा है। ठीक बगल के अपार्टमेन्ट से एक महिला अपने कुत्ते के साथ बाहर निकलती है और हम पर एक उचटती हुई निगाह डालकर चल देती है। जो भी हो वह बीथोवन के एरोइका हाउस की पड़ोसन तो है ही।

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एरोइका हाउस में जी भर फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी के बाद हम रूख करते हैं प्रोबूसगासे 7 की तरफ जहाँ एक और घर है जहाँ बीथोवन ने अपने जीवन का एक अपेक्षाकृत निराशापूर्ण समय बिताया था। यहाँ उन्होंने अपने भाइयों को एक पत्र लिखा था जिसे हेलीगेनस्टेटर टेस्टामेन्ट के नाम से जाना जाता है। यह बात अलहदा है कि यह पत्र कभी भेजा नहीं गया।

हेलीगेनश्टाट एक छोटा गाँव हुआ करता था जहाँ के पानी के स्रोतों में कई औषधीय गुण थे। अपने सार्वजनिक स्नानागारों के लिये विख्यात इस गाँव में 1750 के आसपास वियेना के धनाढ्य वर्ग ने छुट्टियाँ मनाने का प्रचलन चलाया। अपने बहरेपन का इलाज कर पाने की उम्मीद में बीथोवन यहाँ रहे थे। जब यहाँ आकर उन्हें निराशा ही मिली तो अपने घनघोर विषाद में उन्होंने अपने भाइयों को एक भावनात्मक पत्र लिखा। आज यह गाँव वियेना के उन्नीसवें डिस्ट्रिक्ट का हिस्सा है।

प्रोबूसगासे का यह छोटा सा दुमंजिला मकान बीथोवन की निराशा और अंधेरे भरे समय का गवाह है। बीथोवन अपने बहरेपन से जूझ रहे थे और संगीत रचना करने वाले का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि वह खुद अपने बनाये संगीत को न सुन सके।

यहाँ बीथोवन के व्यक्तिगत इस्तेमाल की कुछ वस्तुएँ, मृत्यु के बाद बनाया गया उनका मुखौटा और उनके बालों की एक लट सुरक्षित हैं – संगीत से सम्बन्धित कुछ तस्वीरें, कागजात और उपकरण भी प्रदर्शित किये गये हैं।

यहाँ एक बहुत जबरदस्त आदमी से मुलाकात हुई – जमील साहब करीब सत्तर साल के हैं और बीथोवन के इस घर के केयरटेकर हैं-यानी संग्रहालय के कर्मचारी।

हमें देखकर वे पहले पूछते हैं-“इण्डियन?”-हम लोग हाँ कहते हैं हालांकि ज़ुबैर और बाबूभाई भारतीय नहीं हैं। फिर अपनी जर्मन में ही वे कहते हैं-“इण्डियन म्यूजिक?”-हम हामी भरते हैं। अपनी करीब-करीब शरारती आँखों से वे हमें देख्तो हुए कहते हैं-“मुकेश…रफी…” बीथोवन के घर में रफ़ी और मुकेश का नाम! फिर वे कहते हैं कि एक और गायक था पुराना-साइगेल। “सहगल!” मैं पूछता हूँ, “हाँ, हाँ, सहगल…।”

फिर अचानक वे कहते हैं-“अच्छा, चलो बाई-अन्दर चलो” मैं उनको लेकर अब भी असमंजस में हूँ। भीतर एक जापानी लड़की हैडफोन लगाकर संगीत सुन रही है। हमारे पीछे-पीछे वे भी आ जाते हैं और खिड़की से बाहर नीचे एक छोटे से बगीचे की तरफ इशारा करके वह कुँआ दिखाते हैं जिसमें औषधीय गुणों से परिपूर्ण पानी सामने के पहाड़ों से आया करता था। कैमरा चलाना है तो कोई दिक्कत नहीं – जमील साहब को कोई आपत्ति नहीं।

बदकिस्मती से कैमरे की बैटरी खत्म हो गई है, हम उसे चार्ज करने की जुगत के बारे में सोचते हैं और बाबूभाई कहते हैं कि शायद जमील साहब इजाजत दे दें – उन्हें कोई आपत्ति नहीं। हमें उनसे थोड़ी देर बात करने का समय और मिल जाता है।

जमील साहब अफगानिस्तान से चालीस साल पहले यहाँ आकर बस गये थे। अब वे चौहत्तर साल के हैं और अकेले रहते हैं। जीवन-यापन के लिये यह नौकरी करना उनकी मजबूरी है। रोज सुबह नौ बजे यहाँ पहुँचने के लिये वे छ: बजे तड़के अपना घर छोड़ देते हैं – फिर बस, ट्राम और अंडरग्राउण्ड बदलते-बदलते यहाँ आकर ताला खोलना, साफ-सफाई वगैरह। शाम छ: बजे यहाँ से छुट्टी होती है फिर वही ढाई-तीन घंटे का वापस घर का सफर। हर रोज। यह सब बताते हुए उनकी आँखों में जरा भी आत्मदया नहीं है, वे अपने प्रकट खिलंदड़ेपन का आनन्द लेते हैं।

मैं उनके परिवार के बारे में जानना चाहता हूँ पर वे उसका जवाब देने के बजाय संगीत को लेकर एक लतीफा छोड़ते हैं। लतीफा इस तथ्य को जानने के बाद छेड़ा जाता है कि मेरे साथी बांग्लादेशी हैं। जमील साहब का लतीफा क्या है एक मज़ाकिया वक्तव्य भर है। वे कहते हैं-“संगीत बंगाल में पैदा हुआ, हिन्दुस्तान में बड़ा हुआ, पाकिस्तान में बूढ़ा हुआ और अफगानिस्तान में जाकर उसकी मौत हो गई!” फिर वे एक भरपूर ठहाका लगाते हैं और कहते हैं-अच्चा, चलो बाई! कैमरा!”

फुरसत के क्षणों में मुगल-ए-आजम देखने और के. एल. सहगल सुनने वाले जमील साहब को हिन्दी के कुछेक जुमले याद आते हैं और आज उन्हें हमारे रूप में बढ़िया श्रोता मिले हैं। वे हमसे पोस्टरों के पैसे नहीं लेते और कहते हैं-“हम सब भाई हैं…ओ.के….खुदा हाफि़ज।”

जमील साहब के भरपूर हाथों का स्पर्श अपने हाथों में लिये हम वापस वियेना के जंगल की तरफ चल देते हैं।

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मैक्सिम से नोएलरख़ेनफेल्डरश्ट्रासे के पोर्ट नोइये बार में मुलाकात उसी दिन हुई जिस दिन जमील साहब ने हमें बताया था कि वे कुन्दनलाल सहगल के गीतों के मुरीद हैं। पर मैक्सिम से यह मुलाकात आधी रात के बाद हुई थी।

बीथोवन के उस छोटे से अंधेरे से आशियाने से निकलने के बाद हमें भान होता है कि शाम के पाँच बज चुके हैं और कुछ खाना भी खाया जाना चाहिये। बाबूभाई घर फोन करते हैं और जब आधे घंटे बाद हम वहाँ पहुँचते हैं तो पता लगता है कि शोभा आपा ने बेहतरीन माछी-भात तैयार कर दिया है।

करीब साढ़े छह पर बाबूभाई और ज़ुबैर मुझे वापस ठिकाने छोड़ने को निकलते हैं। हमारी गाड़ी डैन्यूब के पुल पर से गुजर रही है जब अचानक ज़ुबैर कहता है, “चलो, आज रात आवारागर्दी करते हैं! लम्बी ड्राइव…खूब सारी बीयर…और गाना वगैरह!” हम में से किसी को एतराज नहीं, अलबत्ता एकाध फोन जरूर करने होंगे।

सबसे पहले गाड़ी में तेल भराया जाना है। पेट्रोल पम्प पर ही हमें बीयर मिल जाती है और बाबूभाई हमें बादेन शहर दिखाने वाले हैं।

वियेना से करीब तीस किलोमीटर दूर बादेन एक लोकप्रिय पर्यटक केन्द्र है खासतौर पर अपने कैसीनो के कारण जो आस्ट्रिया का सबसे बड़ा जुआघर है। इसके अलावा यह मध्यकालीन कस्बा धीरे-धीरे एक `शॉपिंग सेन्टर´ के रूप में भी विकसित हुआ है।

वीनेरवाल्ड (वियेनीज वुड्स) के पूर्वी सिरे पर मौजूद बादेन रोमन काल से ही अपने गन्धक के चश्मों के लिये जाना जाता रहा है, जिनका पानी तमाम बीमारियों के उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है। बादेन बीथोवन को बहुत पसन्द था-1804 से 1825 के बीच वे यहाँ सत्रह बार आये और कम से कम सात घरों में रहे। वे यहाँ अपने बहरेपन का इलाज करने की आशा में आया करते थे। 1823 की गर्मियों में उन्होंने बगादेन ही में अपनी नवीं सिम्फनी पूरी की थी। जिस घर में रहकर उन्होंने यह कार्य किया था, उसे देखना भी हमारे लिये एक बड़ा आकर्षण है।

यहाँ एक गिरजाघर है जो केवल महिलाओं के लिए है। इसके ठीक सामने एक छोटी सी दुकान है जहाँ सिलाई मशीन और घड़ी इत्यादि की मरम्मत होती है। इस दुकान के बगल में एन्टीक की दुकान है, जिसकी दूसरी मंजिल में बीथोवन अक्सर रहा करते थे-अब इसे एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है।

संभवत: इसी मकान में रहते हुए अपनी निराशा के बीच बीथोवन ने अपनी अनाम प्रेमिका को लिखा था: “…तुम्हारे प्रेम ने मुझे एक ही समय में दुनिया का सबसे खुश और सबसे दुखी आदमी बना दिया है। मेरी इस उम्र की जरूरत है कि मैं ज्यादा स्थिर और नियमित जीवन बिताऊँ। क्या हमारे सम्बन्ध में यह मुमकिन है?…कैसे आँसूभरी आँखों से मैं तुम्हारा इन्तज़ार करता हूँ…मुझे प्यार करना बन्द मत करना…हमेशा तुम्हारा, हमेशा मेरा, हमेशा हमारा…।”

बदकिस्मती से रात हो चुकी है और हम भीतर नहीं जा सकते, काफी देर तक हम बाहर से ही इस ऐतिहासिक घर को देखते रहते हैं।

बादेन की गलियों में इस तरह टहलना सुखद है – कोहरा डड़ रहा है और जुबैर अपनी मीठी आवाज में गा रहा है-“नीला! केनो चोख टूटी आँखी भोरेछे दीये…रूपोशी नीला!..”

बादेन नगर मोत्ज़ार्ट को भी अतिप्रिय था और यहाँ आने वालों में नेपोलियन, शूबर्ट और तमाम विख्यात लोग थे। 1812 में यह ऐतिहासिक नगर एक भीषण अग्निकाण्ड का शिकार हुआ जिसमें इसके अधिकतर भवन जल गये थे। बाद में इसका पुनर्निर्माण बीडेरमेयर वास्तुशैली में किया गया और अनेक बगीचों और कॉफी हाउसों वाला यह नगर सचमुच बहुत आकर्षक है।

वापस वियेना पहुँचने से पहले बाबूभाई गाड़ी को एक तीखी ऊँचाई वाले रास्ते पर डाल देते हैं, हालांकि रात काफी हो गई है पर वे हमें एक पहाड़ी की चोटी पर ले जाना चाहते हैं जहाँ से वियेना शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।

ज़ुबैर पूरे रास्ते भर गाता रहा है और कई सालों बाद इस तरह उसके साथ आवारागर्दी करना बहुत सारा `नोस्टैलजिया´ साथ लेकर आता है।

आखिरकार हम चोटी पर हैं। संकरी सड़क अब एक बहुत चौड़े प्लेटफार्म में तब्दील हो गई है जिसके बीचोंबीच एक मूर्ति नीयोन की रोशनी में चमक रही है। कालेनबर्ग से वियेना का बेहतरीन नज़ारा दिखाई देता है – जगमग रोशनियों का जंगल।

हवा बहुत तेज चल रही है और बहुत देर तक बाहर नहीं रहा जा सकता। फिर भी हम दूरबीन में सिक्का डालकर थोड़ी देर ज्यादा करीब से इन रोशनियों को देखते हैं।

शहर पहुँचने के बाद बाबूभाई हमें काफ़ी आगे तक ड्राइव पर ले जाते हैं। बेहद मृदृभाषी और विनम्र बाबूभाई पूरी मस्ती के मूड में हैं – यह बात दूसरी है कि वे बीयर को हाथ भी नहीं लगाते। हमारे कई बार आग्रह करने पर वे आखिरकार एक गीत गाना मंजूर कर लेते हैं, “बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है…” गाते हुए बाबूभाई प्यारे लग रहे हैं।

रात का ढाई बज चुका है और घर वापस जाने का समय है, मेरा घर नजदीक ही है जब ज़ुबैर `टकीला शॉट´ की इच्छा जाहिर करता है। मेरे घर के सामने का वियतनामी बार बन्द हो चुका है। हमें थोड़ा और आगे जाने पर एक छोटा सा बार खुला मिल जाता है – यही है पोर्ट नोइये बार। यहाँ हमें मैक्सिम मिल जाता है – वह भी बांग्लादेशी! – यह बहुत बड़ा संयोग है कि मैक्सिम ग्राफिक डिज़ाइनर भी है और कैमरामैन भी। ज़ुबैर की जरूरत का आदमी आखिरकार एक बार में मिलता है-वह भी रात के तीन बजे। मैक्सिम वादा करता है कि वह ज़ुबैर के लिए वीडियोग्राफी करेगा, जब तक वह वह वियेना में है। इस दौरान मेरी हाथ देखने की दुकान खुल जाती है – पहले मैं बार गर्ल का हाथ देखता हूँ, फिर उसके ब्वॉयफ्रैण्ड का, फिर वहाँ मौजूद हर किसी का।

4 comments
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  1. achchha likha hai.

  2. achchha vivran hai.

  3. quite interesting.would like to read it again once more to know more about Vienna,minute observations make it very readable.

  4. The article is filled up with exaggerations .

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