आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

गाँधी एवं पर्यावरण आन्दोलन: रामचन्द्र गुहा

पुणे के साथ आलोचनात्मक एवं सामाजिक सुधार की एक परम्परा जुड़ी हुई है। एक ऐसी अद्वितीय परम्परा जो शायद ही किसी भारतीय शहर के साथ जुड़ी हुई हो। यद्यपि मैं एक दशक से अधिक समय के बाद पुणे वापस आया हूँ, फिर भी इस बीच के समय में मेरी जिन्दगी के हर क्षण ने इस परम्परा को महसूस किया है। पिछले १० वर्षों से मेरा घनिष्ठ बौद्धिक रिश्ता नागरिक चेतना से जुड़े पर्यावरणवादी माधव गाड़गिल के साथ रहा है। यह छवि इनके वृहद् अध्ययन से मेल खाती है। माधव ने १९८२ के परिसर व्याख्यान का उद्घाटन संबोधन दिया था। वह भारतीय पुनर्जागरण के अद्वितीय व्यक्तित्व डी.आर.गाडगिल के पुत्र है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी का अधिकांश समय इसी शहर में बिताया। वरिष्ठ गाडगिल की पीढ़ी के दो विद्वान बुद्धिजीवियों में डी.डी. कौसाम्बी एवं इरावर्ती कर्वे थे, जिन्हें उनके कार्यों और सम्मान के लिए मैंने और माधव ने हमारा पारिस्थितिकीय इतिहास द फिशर लैण्ड समर्पित किया है। वेरियर एल्विन वह तीसरे सज्जन थे, जिन्हें यह पुस्तक समर्पित थी। एल्विन पर मेरा आजकल का शोध कार्य आधारित है। एल्विन के भी पुणे के साथ घनिष्ठ संबंध थे। वे यहाँ भारत के अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान थे। उनका बाद का काम आदिवासियों के बीच था जो प्रमुख रूप से भारत सेवक संघ के ए.वी.ठक्कर से प्रभावित था।

हमारे मेजबानों ने इस अवसर पर पूना की इस महान परम्परा का ताजा उदाहरण प्रस्तुत किया है। परिसर जैसे समूह अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन को परिपक्व बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए मैं यहाँ आकर १९८३ के लिए परिसर व्याख्यान देने में सम्मानित महसूस करता हूँ।

व्याख्यान इस प्रश्न का उतर पूछता और खोजता है कि –

क्या महात्मा गाँधी प्रारम्भिक पर्यावरणवादी थे?

गाँधी का जीवन व कार्य भारत में समकालीन पर्यावरणीय आंदोलन पर विशेष प्रभाव रखता है। वास्तव में यह आंदोलन अप्रैल, १९७३ को चिपको आंदोलन के साथ शुरू हुआ। चिपको के शुरूआती छपे लेखों में एक प्रतिबद्ध पत्रकार ने घोषित किया कि गाँधी के भूत ने हिमालय के वृक्षों को बचाया है। तब से महात्मा गाँधी पर्यावरणीय आंदोलन के संरक्षक संत की भांति माने जाते हैं, कभी कभी नहीं भी। चिपको आंदोलन से नर्मदा बचाओ आंदोलन तक पर्यावरणीय कार्यकर्ता अहिंसक प्रतिरोध की गाँधीवादी तकनीकों पर बहुत अधिक निर्भर हैं तथा भारी औद्योगिकरण के खिलाफ गाँधी के विचारों से इन्होंने काफी कुछ लिया है। पुनः आन्दोलन के कुछ प्रसिद्ध चेहरे उदाहरण के लिए – चण्डी प्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, बाबा आम्टे और मेधा पाटकर बारम्बार गाँधी के प्रति ऋण को रेखांकित करते हैं।

कोई भी व्यक्ति इसके अलावा अन्य प्रभावों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन की विशाल छत के नीचे अनेक समूह हैं जो गाँधी के साथ छोटा-सा जुड़ाव रखते हैं। मार्क्सवाद की पृष्ठभूमि से उभर कर आए केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसे संगठन के उदाहरण के बारे में सोचिए, धर्मविज्ञानी मुक्ति तथा आत्मनिर्भरता या स्वयं-सहायता की परम्पराओं से अलग-अलग प्रभावित है। फिर भी यह कहना शायद ही उचित प्रतीत होता है कि पर्यावरणीय आंदोलन पर सर्वाधिक एकमात्र महत्वपूर्ण प्रभाव गाँधी के जीवन और व्यवहार का है।

मुझे आज के दो असाधारण गाँधीवादी पर्यावरणविदों – चण्डी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के कार्य का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। भट्ट और बहुगुणा के बारे में मेरी व्यक्तिगत जानकारी बहुत कम है लेकिन मैं उनके जीवन और कार्य के बारे में कुछ अधिक जानकारी चिपको आंदोलन पर अपने शोध के दौरान प्राप्त कर सका, जिस आंदोलन से यह लोग जुडे़ हुए थे। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक द अनव्हाइट वुड में तर्क दिया है कि चिपको आंदोलन अपने आप में एक गाँधीवादी आंदोलन है – यह सोचना भ्रामक है। इस आंदोलन की जड़ें किसानों के अपने वन अधिकारों की रक्षा हेतु किए गए विरोधों में मजबूती से जमी हुई है। तथापि आंदोलन के प्रसिद्ध नेताओं भट्ट और बहुगुणा ने स्वयं गाँधीवादी रचनात्मक कार्यों की श्रेष्ठ परम्परा का उदाहरण प्रस्तुत किया हे।

चिपको के शहरी समर्थक प्रायः चण्डी प्रसाद भट्ट या सुंदरलाल बहुगुणा, किसी के भी समर्थक रूप में पहचाने जा सकते हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों व्यक्तियों की प्रसिद्धि के अन्य बहुत कारण है। भट्ट और उनका संगठन दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल ने चिपको के उद्भव में शुरूआती भूमिका निभायी थी। इसकी तकनीकें स्वयं भट्ट ने मंडल के ग्रामवासियों को बतलायी थी। व्यावसायिक फैक्ट्रियों के विरूद्ध प्रदर्शन को समन्वित करने से लेकर डीजीएसएम ने पर्यावरणीय पुनरूद्धार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसने अलकनंदा के गाँवों में वृक्षारोपण कार्य के लिए महिलाओं को संगठित करने में पहल की। जहाँ इसके वृक्षारोपण एवं संरक्षण कार्यक्रमों ने वन विभाग की खर्चीली योजनाओं की तुलना में ज्यादा बेहतरी से कार्य किया है। चूंकि चण्डी प्रसाद भट्ट की गिनती चिपको के अगुआ के रूप में होनी चाहिए अगर हम उपाधि किसी एक व्यक्ति को देना चाहे सुंदरलाल बहुगुणा के सामाजिक कार्यों का भी इतिहास है और यह इतिहास चिपको से भी पीछे जाता है।

वह और उनकी पत्नी विमला सरला देवी कैथरीन मैरी हैलमैन द्वारा पहाड़ियों में प्रशिक्षित किए गए पहले सर्वोदय कार्यकर्ताओं के समूह में से थे। सरला देवी महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध शिष्या थी जो १९४० के दशक में कुमायूं की ओर आ गयी। बहुगुणा ने उनके घर भागीरथी घटी में १९७७ और १९८० के मध्य अनेक महत्वपूर्ण चिपको आंदोलन के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए। जब से भट्ट और उनके सहकर्मी अपना ध्यान हिमालय के पारिस्थितिकीय पुनरूद्धार पर केन्द्रित कर चुके हैं, बहुगुणा भी चिपको आंदोलन के संदेश को पहाड़ियों से आगे ले जाने का निश्चय कर चुके हैं। एक अथक पदयात्री के रूप वह अपनी से आधी उम्र के लोगों के जोश के साथ भारत और विदेशों में व्यापक भ्रमण कर चुके हैं। वह एक आकर्षक वक्ता भी है, अपनी इस क्षमता के सहारे वह शहरी प्रबुद्ध वर्ग को अनियंत्रित भौतिकवाद के खतरों के प्रति सचेत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं ।ये दोनों चिपको आंदोलन के नेता मेरी पुस्तक में हर तरह से आज भारत के जागृत लोगों में से है। गाँधी का उदाहरण दोनों व्यक्तियों के जीवन को प्रणवायु देता है लकिेन मैं सोचता हूँ कि हर एक ने गाँधी से कुछ अलग ग्रहण किया है। बहुगुणा औद्योगिक समाज की गंभीर आलोचना करते समय गाँधी की हिन्द स्वराज के अनुसरण के करीब होते हैं। इस छोटी सी पुस्तक हिन्द स्वराज में आधुनिक सभ्यता की आलोचना की गयी है। जैसा कि बहुगुणा के भ्रमण दौरों एवं व्याख्यानों से अभिव्यक्त होता है कि बहुगुणा व्यक्तियों की चेतना को एक सारमय अपील कर रहे हैं, उन्हें उपभोक्तावाद के सशपथ त्याग एवं सादे जीवन की ओर लौटने के लिए तर्क देते हैं। इनके मुकाबले भट्ट और उनका समूह केन्द्रीकृत विकास के स्थानापन्न टिकाउ विकास को व्यवहार रूप में लाने के लिए कार्य कर रहे हैं। इस दृष्टिकोण से वह गाँधी के साबरमती एवं वर्धा आश्रमों की श्रेणी की ओर उन्मुख दिखाई देते हैं। चण्डी प्रसाद के कार्यों ने महात्मा गाँधी के आदर्श ग्राम स्वराज्य या ग्राम निर्भरता को एक नया पारिस्थितिकीय अर्थ देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मैं चण्डी प्रसाद और सुंदरलाल के बारे में केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा चिपको आंदोलन का अध्ययन मुझे इनके कार्यों के ज्यादा करीब लाया। आप में से कोई भी जो नर्मदा बचाओं आंदोलन से जुड़ा रह चुका है, वह इन नेताओं के जीवन और कार्यों में गाँधी की भावना का कुछ हिस्सा अवश्य देख चुका होगा। चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन किसी भी तरह गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण नहीं है क्योंकि यह भावना समकालीन पर्यावरण आंदोलन में निहित है।

फिर भी आज के पर्यावरणवादी यह दावा नहीं करते हैं कि वे गाँधी के उदाहरण का अनुसरण कर रहे हैं वे तर्क देते हैं  कि महात्मा ने खुदी ही आधुनिक औद्योगिक समाज के पारिस्थितकीय संकट का अनुमान लगा लिया था। यह प्रश्न  कि क्या गाँधी प्रारंभिक पर्यावरणवादी थे, इसका उतर गाँधी के अनुयायी प्रायः सकारात्मक रूप से देते है लेकिन उनके पास समर्थन के लिए बहुत कम सबूत होते हैं। ऐसा मान लिया गया है कि गाँधी हमारे पर्यावरणीय संबंधी मुद्दों को गंभीरता से ले रहे थे लेकिन उनके सम्पूर्ण लेखन में से केवल हिंद स्वराज ऐसा है जिसमें उनके पर्यावरणविद वाले रूप को देखा जा सकता है। आज के एक प्रतिष्ठित गाँधीवादी ने यह दावा किया है कि गाँधी विकास की वर्तमान पद्धति कैसे पुरूष द्वारा प्रकृति का शोषण है। इसे समझाते हुए विकास पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण देते हैं। हिंद स्वराज के अभी हाल ही के अपने अध्ययन के बाद मैंने खुद को इस निर्णय से असहमत पाया। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की निपुणतापूर्वक निंदा के बावजूद यह पुस्तक प्रकृति के प्रति पुरूष के रिश्तों के बारे में कुछ भी नहीं कहती। फिर भी यह विकास के वैकल्पिक दृष्टिकोण पर थोड़ा बहुत प्रकाश डालती है।

लेकिन शायद हिंद स्वराज इन बातों को तलाशने के लिए उचित जगह नहीं है। यह किताब वास्तव में तब लिखी गई थी जब गाँधी दक्षिणी अफ्रीका में थे। १९१४ में अपने भारत आगमन पर गाँधी ने अपने आप को तत्काल गाँवों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का प्रत्यक्ष परिचय पाने में लगा दिया। भारतीय गाँवों में उनकी यात्राओं के द्वारा तथा चंपारण व खेड़ा, १९१७ व १९१८ में, किसानों द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रहों के दौरान गाँधी ने उपनिवेशवाद को एक आर्थिक शोषण और जातीय विभेद की व्यवस्था की तरह स्पष्ट रूप से देखा। इनका अनुभव वह दक्षिणी अफ्रीका में कर चुके थे।

भारतीय गाँवों में अपनी तल्लीनता तथा उपनिवेशवाद की इस गहरी समझ के द्वारा गाँधी ने यह देखा कि औद्योगिक विकास के पश्चिमी नमूने के साथ बराबरी करना भारत के लिए असंभव होगा। एक साथ यह भी याद रखना चाहिए कि वे कहीं भारत के लिए विकास का वैकल्पिक नमूना पेश नहीं करते है। एक तो उनका चिंतन व्यवस्थित नहीं था और दूसरा वह राजनैतिक गोलबंदी व सामाजिक सुधारों के ज्यादा जटिल सवालों के साथ चिंतामग्न थे। फिर भी,, वैकल्पिक रास्ते के कुछ साक्ष्य उनके १९२०, ३०, ४० के लेखन में बिखरे रूप में है। अब मैं इसी लेखन की ओर आ रहा हूँ।

गाँधी का भारत को अंधाधुन औद्योगिकरण से बचाना प्रायः नैतिक आधारों के नाम पर था, मुख्य तौर पर आधुनिक समाज की स्वार्थता और प्रतिस्पर्धा से। परन्तु उनमें स्पष्टतया पारिस्थितिकीय धीमा स्वर मौजूद था। यंग इंडिया के २० दिसम्बर १९२८ के इस प्रसिद्ध उद्धरण को लेते है-

ईश्वर न करे कि भारत भी कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे से द्वीप (इंग्लैण्ड) का आर्थिक सामा्रज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। तब ३० करोड़ आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भाँति छाकर उसे तबाह कर देगा।

दो वर्ष पूर्व, गाँधी ने दावा किया था कि-

भारत को इंग्लेण्ड और अमेरिका जैसा बनाना धरती के कुछ स्थानों एवं नस्लों को शोषण के लिए खोजने जैसा होगा। जैसा कि यह प्रतीत होता है कि पश्चिमी राष्ट्र यूरोप से बाहर सभी ज्ञात नस्लों को शोषण के लिए बाँट चुके है तथा अब बाँटने के लिए कोई नई दुनिया नहीं है।

गाँधी ने यह मर्मस्पर्शी सवाल पूछा-

पश्चिम की नकल करने के प्रयास में भारत का भविष्य क्या हो सकता है?

(यंग इंडिया, ०७-१०-१९२६)

इस प्रश्न का उत्तर अब स्पष्टतः कष्टप्रद है। पिछले कुछ दशकों में हम असंदिग्ध रूप से ‘भारत को इंग्लैण्ड और अमेरिका की तरह बनाने’ का प्रयास कर चुके है। संसाधनों एवं बाजारों पर पहुँच का जो आनंद इन दोनों राष्ट्रों ने अपने आप को औद्योगीकृत करते समय शुरूआती समय में उठाया था, इस पहुँच के बिना भारत आज मजबूर होकर अपने लोगों एवं पर्यावरण के शोषण पर निर्भर हो चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों के संसाधनों को शहरी वनों, जल के परिवर्तन ने पर्यावरणीय अवनति की प्रकिया को तेज किया है। इस संदर्भ में चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण किसी भी तरीके से नहीं है जैसा कि इसने समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के रूप में ग्रहण किया है। साथ ही यह सम्भ्रांत लोग ग्रामीणों और आदिवासी समुदायों को उनके संसाधनों तक उनकी पहुँच और प्रयोग के परम्परागत अधिकार से वंचित कर चुके है। इस बीच यह आधुनिक क्षेत्र भारत की शेष संसाधन सीमाओं- उत्तर पूर्व और अंडमान निकोबार द्वीप समूहों- में आकामक रूप से जा चुका है।

शायद गाँधी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा। जैसा कि उन्होंने पहचाना था कि शहरी – औद्योगिक विकास के प्रति आग्रह भीतरी प्रदेश के एकतरफा शोषण का ही परिणाम दे सकेगा। गाँधी १९४६ में इसे अपने चिर परिचित अंदाज के साथ प्रकट कर चुके थे :

ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है जिससे शहरों की इमारतें बनती है।

(हरिजन, २३-०६-१९४६)

इससे पूर्व एक अवसर पर गाँधी अपने चरित्र के अनुसार सभ्य किंतु सबल तरीके से इंदौर में एक सभा को संसाधनों के केन्द्रीकरण की चेतावनी दे चुके थे जिस पर शहरी जीवन आधारित हो चुका था। उन्होंने टिप्पणी की-

हम इस सुंदर पंडाल में बिजली की रोशनी की चकाचौंध में बैठे हैं लेकिन हम नहीं जानते कि हम इस रोशनी को गरीबों की कीमत पर जला रहे है।

(हरिजन, ११-०५-१९३५)

गाँधी ने औद्योगीकरण द्वारा उत्पन्न बुराईयों के निदान की तुलना में उपचार को प्राथमिकता दी, जिसमें आर्थिक विकास गाँवों पर केन्द्रित होगा। उनकी अभिलाषा यह देखने की थी कि-

वह रक्त जो आज शहरों की धमनियों में प्रवाहित हो रहा है, वह एक बार फिर गाँवों की रक्त- शिराओं में प्रवाहित हो।

यहाँ आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण की विशिष्टता थी ताकि वे अपने खुद के मामलों पर नियंत्रण कर सकें। जब गाँधी पर बिजली सहित महान वैज्ञानिक अविष्कारों से पीछे लौटने का दोष लगाया गया तो उनकी टिप्पणी थी (शाब्दिक रूप से विकेन्द्रीकृत ऊर्जा व्यवस्था के सभी तत्वों को प्रेरित करने के लिए):

अगर हम प्रत्येक गाँव के घर में बिजली पहुँचा सकें तो मुझे ग्रामीणों द्वारा अपने कार्यों एवं यंत्रों को बिजली की सहायता से करने में कोई आपति नहीं होगी। लेकिन तब ग्रामीण समुदायों या राज्य का अपना बिजलीघर होग, जिस तरह वे अपना घास का चारागाह रखते हैं।

(हरिजन, २२-०६-१९३५)

१९३७ में वर्धा आने के बाद ग्रामपुनर्रचना के प्रति खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से गाँधी ने अपने आदर्श भारतीय गाँव को इस तरह परिभाषित किया –

गाँव में पर्याप्त रोशनी एवं हवादार घर होंगें। इनको बनाने की सामग्री ५ मील के दायरे के भीतर से ही आएगी। घरों में आंगन होगा जिसमें परिवार के लोग घरेलू उपयोग के लिए सब्जियाँ एवं पशुओं के लिए चारा उगाएंगे। गाँव की नालियाँ व गलियाँ साफ सुथरी होगी। सभी लोगों की आवश्यकताओं एवं पहुँच के अनुकूल कुएं होगें। सभी के प्रवेश के लिए खुले पूजा स्थल होगें।, साथ ही एक सार्वजनिक स्थान होगा, जहाँ लोग आपस में मिल सकें, सहकारी डेयरी (दुग्धशाला) होगी, प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय होगें, जिसमें रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाएगी, तथा विवाद निपटारे के लिए पंचायत होगी। यह गाँव अपनी आवश्यकता का अन्न, फल, सब्जियाँ, खुद उपजाएगा। यही मेरे आदर्श गाँव का चित्र है …..

(हरिजन, ०९-०१-१९३७)

इस चित्र में अनेक ऐसे तत्व है जो पर्यावरणवादी के यूटोपिया में बिल्कुल सही बैठते हैं। स्थानीय आत्मनिर्भरता, एक साफ़ व स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण, मानवीय जीवन के लिए अत्यावश्यक इन प्राकृतिक उपहारों का सामूहिक प्रबंधन एवं उपयोग, जल और चारागाह।

लेकिन गाँधी में अपने यूटोपियन सपनों को व्यवहार में कर दिखाने का गजब कौशल था। इस संबंध में मृदा उर्वरकता की महत्वपूर्ण समस्या के प्रति उनकी सजगता देखने योग्य है। उनके जीवन के अंतिम समय में, उन्होंने कृषि के तीव्र मशीनीकरण के प्रति आगाह किया था कि –

जल्दी लाभ पाने के लिए मृदा उर्वरकता में व्यापक भयानक व अदूरदर्शी नीति सिद्ध होगा। इसका परिणाम मृदा के सामान्य रिक्तिकरण के रूप में होगा।

(हरिजन, २५-०८-१९४६)

वह खाद के उत्साही समर्थक थे जो मृदा को समृद्ध करती है, कचरे के प्रभावी प्रबंधन के द्वारा गाँव के स्वास्थ्य में वृद्धि करती है, विदेशी विनिमय बचाती है तथा फसल उत्पादन को बढ़ाती है – यही सभी कुछ जो हम जानते हैं। यह सभी आधुनिक रासायनिक तकनीकों के कारण संसाधनों के होने वाले निकास तथा सहवर्ती प्रदूषण के बिना होता है। गाँधी  इंदौर में अपने प्लांट इण्डस्ट्रीज संस्थान में जैविक खेती के तरीकों का मार्ग प्रशस्त करने वाले एल्बर्ट हॉवर्ड के कार्य का हार्दिक सम्मान करते थे। अपने हरिजन में गाँधीजी ने अनुमोदन करते हुए विस्तार से हॉवर्ड और उनके सहयोगियों द्वारा विकसित किए गए तरीकों का वर्णन किया जिसमें गोबर, खेत का कचरा, लकड़ी की राख तथा मूत्र के मिश्रण को महत्वपूर्ण खाद में बदला जाता था। (हरिजन, १७-८ व २४-०८-१९३५)

अंत में, आधुनिक सभ्यता की गाँधी द्वारा दार्शनिक आलोचना हमारी जीवन शैली और आज के दूसरे पर्यावरण जुड़ाव के लिए गहन निहितार्थ रखती है। उनके लिए –

इधर आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान लक्षण है मनुष्य का अपनी आवश्यकताओं को अंधाधुंध बढ़ाते जाना, तो प्राचीन पूर्वीय सभ्यता का मुख्य लक्षण है इन आवश्यकताओं या कामनाओं पर कठोर नियंत्रण लगाना और उनको सख्ती से मर्यादित करना।

(यंग इण्डिया, ०२-०६-१९२७)

अपने अंदाज के ठीक उल्टे कड़े शब्दों में कहा कि –

काल और देश की दूरी मिटा देने और पाशविक वृतियों को बढ़ाने और उनकी तृप्ति की खातिर ज़मीन आसमान के कुलाबे एक कर देने की इस विवेकहीन आकांक्षा को मैं पूरी तरह से नापसंद करता हूँ। आधुनिक सभ्यता यदि इन्हीं सब बातों के समर्थन को अपना लक्ष्य मानती है, और मैं तो समझता हूँ कि मानती है, तो मैं उसे हैवानियत कहता हूँ। (यंग इण्डिया, १७-०३-१९२७)

व्यक्तिगत स्तर पर गाँधी की स्वैच्छिक सादगी की आचार संहिता आधुनिक जीवन शैली का एक टिकाऊ विकल्प प्रस्तुत करती है। उनकी एक प्रसिद्ध सूक्ति यह है कि –

संसार में इतने संसाधन है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ है किन्तु यह एक व्यक्ति के लालच के लिए भी पर्याप्त नहीं है।

वास्तव में यह गूढ़ पंक्ति पर्यावरणीय लोकाचार है। ऐसा लोकाचार जिसका प्रयोग उन्होंने खुद संसाधन पुनर्भरण तथा आवश्यकताओं के न्यूनीकरण के लिए किया। यह सभी उनकी जिंदगी से जुड़े हुए थे।

आर्थिक विकास की व्यापक प्रक्रिया के उनके विशेषण, ग्राम पुनर्रचना के उनके निर्देशन, जीवन के लिए उनके लोकाचार इन सभी स्तरों पर गाँधी का लेखन जब समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित किया गया तो यह पर्यावरणीय संकटों की सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि प्रदान करता है। उनके जीवन काल में यह आर्थिक दर्शन उनके एक निकटस्थ शिष्य जे.सी. कुमारप्पा द्वारा विस्तृत एवं समृद्ध किया गया। कुमारप्पा प्रथम गाँधीवादी पर्यावरणवादी के रूप में विचारित कियए जाने का प्रबल दावा रखते हैं। हालाँकि आजकल उनके कार्य को व्यापक रूप से विस्मृत व उपेक्षित किया जा रहा है। अतः यहाँ पर एक संक्षिप्त मूल्यांकन करना अप्रासंगिक नहीं होगा।

कुमारप्पा तमिल ईसाई थे। लंदन से अकाउटेंसी पढ़ कर आए थे। बम्बई में ऑडिटर के रूप में उनकी प्रैक्टिस अच्छी खासी चल रही थी, जिसे उन्होंने न्यूयार्क में कोलम्बिया विश्वविद्यालय से स्नातकोतर उपाधि लेने के लिए अस्थायी रूप से छोड़ दिया। वह वहाँ सार्वजनिक वित्त के अध्ययन में लगे। उसमें उन्होनें भारतीय अर्थव्यवस्था के उपनिवेशी शोषण का व्यवस्थित रूप से पर्दाफाश किया। १९२९ में वह एक राष्ट्रवादी के रूप में भारत लौट आए। जल्द ही गाँधी के संपर्क में आए। सार्वजनिक वित पर उनका शोध यंग इंडिया में धारावाहिक रूप में छपा। कुमारप्पा ने स्वयं ही अपनी प्रैक्टिस को स्थगित किया ताकि साबरमती आश्रम से जुड़ सकें। वह गाँधी की ग्राम पुनर्रचना की योजना में लगाए गए तथा अगले दशक तक कृषि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण सर्वेक्षण का संचालन किया। अखिल भारतीय चरखा संघ और अखिल भारतीय ग्रामोद्योग – इन दो प्रमुख गाँधीवादी संस्थाओं को चलाने में सहायता की।

१९३० व १९४० में लिखी पुस्तकों में कुमारप्पा ने गाँधीवादी अर्थशास्त्र को औपचारिक रूप देने की कोशिश की। गाँधी जैसे बुद्धिमान परामर्शदाता की तरह ही, कुमारप्पा के लेखन में भी गहन पारिस्थितिकीय संदर्भों के साथ सर्वेक्षण यहाँ वहाँ बिखरे हुए है। मसलन यह टिप्पणी पारिस्थितिकीय उतरदायित्व के लिए मूलमंत्र का कार्य करेगी –

हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय स्तर पर वस्तुएँ उत्पन्न करके करते ही हैं तो इस स्थिति में होते हैं कि उत्पादन के तरीकों का निरीक्षण कर सकें। इसी बीच अगर हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति धरती के दूसरे कोने से मंगा कर करें तो फिर उन जगहों पर हो रहे उत्पादन की परिस्थितियों, प्रक्रियाओं पर कुछ नहीं किया जा सकता।

अपने गुरू की भांति जे.सी.कुमारप्पा प्रबलता से औद्योगिक सभ्यता की निंदा करते हैं-

विनाश के बिना कहीं भी औद्योगीकरण संभव नहीं हो सकता है।

वे कहते हैं कि उस अवस्था में आजीविका हेतु कृषि सर्वश्रेष्ठ है और होनी चाहिए जिसमें पुरूष प्रकृति को तथा अने पर्यावरण को इस तरीके से नियंत्रित करने का प्रयास करता है ताकि बेहतर नतीजे प्राप्त हो सकें। यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने कृषि और उद्योग के मध्य इस विरोध को प्राकृतिक जगत पर उनके प्रभाव के संदर्भ में बताया है। वह इसे इस प्रकार बताते हैं –

कृषि अर्थव्यवस्था में व्यवस्था प्रकृति से विहित होती है। जिसमें असीमित रूप से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। अगर इनमें विभिन्नता है तो यह प्राकृतिक उत्परिवर्तन का अनुसरण करता है। कृषक प्रकृति को सहयोग देता है या एक लंबी अवधि में होने वाली परिघटना को कम समय में होने का अवसर प्रदान करता है। आर्थिक व्यवस्था (औद्योगिक समाज) के भीतर हम पाते हैं कि प्रकृति द्वारा परिवर्तन हिंसक होते हैं, माँग का विचार किए बिना वस्तुओं की व्यापक पूर्ति उत्पन्न की जाती है तथा चतुर विज्ञापनों के साधनों द्वारा कृत्रिम रूप से वस्तुओं की मांग निर्मित की जाती है।

फिर भी अपनी पीढ़ी के अधिकांश गाँधीवादियों की भाँति कुमारप्पा सैद्धान्तिक चिंतन में प्रमुख रूप से रूचि नहीं लेते थे। उनकी रूचि भारतीय किसान और कारीगर की दुर्दशा को सुधारने में थी। कृषि अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक संसाधनों की सजग व्यवस्था ही वह मुख्य प्रतिपाद्य विषय है जो उनके अधिकांश कार्यों में दिखाई देता है। इस प्रकार उन्होंने मल को खाद की भाँति उपयोग करने की आवश्यकता, जातिगत रूकावटों को जीतने के माध्यम के रूप में मानवीय मल तथा गाँव के कचरे को जैविक खाद में बदलने के लिए लोगों को व्यक्तिगत अनुदान देने पर बल दिया। इसी समय कुमारप्पा ने मृदा की गुणवता को मृदा क्षरण और जल स्तर की जाँच के माध्यम से बनाए रखने की महता पर बल दिया।

संभवतः जल और जंगल दो ऐसे संसाधन क्षेत्र हैं जिनके लिए वर्तमान वर्षों में भारतीय पर्यावरणीय आंदोलनों में सर्वाधिक प्रयास हुए हैं। इस संबंध में कुमारप्पा ब्रिटिश शासन के भीतर सिंचाई जलाशयों की दुर्व्यवस्था की आलोचना करने में कमजोर नहीं है साथ ही वह भूमिजल स्तर में वृद्धि के लिए जल संरक्षण तथा खारेपन को कम करने का तर्क भी देते हैं वन प्रबंधन के वास्तविक और पसंदीदा नमूनों पर सारगर्भित टिप्पणी में वह कहते हैं –

सरकार को अपनी वन प्रबंधन की नीति को आमूलचूल रूप से पुनर्विचारित करना होगा। वन प्रबंधन आज के उद्देश्य के द्वारा नहीं बल्कि लोगों की जरूरत के अनुसार निर्देशित होना चाहिए …….. वन योजनाएँ ग्रामीणों की आवश्यकताओं पर आधारित होनी ही चाहिए। वनों को दो मुख्य भागों में बांट देना चाहिए।

१. वे जो दीर्घकालीन सीमा को ध्यान में रखते हुए इमारती लकड़ी की पूर्ति करते हो।

२.वे जो घास और इर्ंधन की पूर्ति करते हो, इन्हें लोगों को मुफ्त या फिर नाममात्र की दरों पर उपलब्ध करवाना होगा।

गुड़, कागज़ निर्माण, कुम्हारी आदि ग्रामोद्योग तभी उन्नति कर सकते हैं जबकि घास और ईंधन उन्हें अत्यन्त सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाए जाए।

कुमारप्पा की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जैवमण्डल (बायोमॉस) की संभाव्य कमी पर टिप्पणियाँ दूरदर्शितापूर्ण हैं। वह विशेष रूप से चारे की उपलब्धता के बारे में दिलचस्पी लेते थे। उन्होंने इस ओर भी इशारा किया था कि जूट, तम्बाकू, गन्ने की नकद फसलें मनुष्यों एवं उनके घरेलू जानवरों के लिए खाद्य उपलब्धता में कमी लाती है। उन्होंने किसानों की पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं होने की व्यापक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया। कुमारप्पा उपनिवेशी सरकार से बिना भुगतान के पशुओं को चराने की अनुमति देने की हिचकिचाहट के बारे में बात करने को कहते हैं।

मृदापोषण तथा उर्वरकता, जल संरक्षण पुनर्भरण, ग्रामीण वन अधिकार, जैवमंडल यह ग्रामीण पर्यावरणीय समस्याओं का कार्यक्रम है जिससे आज भी हमारा गहरा संबंध है। कृषि को इसकी प्राकृतिक स्थितियों में दृढ़ता से स्थापित कर कुमारप्पा यह कह सकते हैं कि वह गाँधीवादी मार्ग पर एक पारिस्थितिकीय कार्यक्रम के निर्माण की शुरूआत कर चुके थे। यद्यपि आज के पर्यावरणवादी केवल वहीं से उस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं जहाँ कुमारप्पा ने उस कार्य को छोड़ा था।

महात्मा गाँधी की एक अन्य सहयोगी मीराबेन (मेडॅलीन स्लेड) पर्यावरणीय विचारकों अपने समय से काफी आगे थीं। वह अंग्रेज एडमिरल की पुत्री थी जो १९२५ में साबरमती आश्रम में आयी थी। जे.सी.कुमारप्पा की तरह मीराबेन भी गाँधी के घनिष्ठ लोगों के समूह का हिस्सा थीं। तमिल अर्थशास्त्री की तरह उन्होंने भी अनेक वर्ष ग्रामीण पुर्नरचना के  कार्य हेतु तथा अपने गुरू के निर्देशों को व्यवहार में लागू करने में बिताए। 1947 में हिमालय की पहाड़ियों में ऋषिकेश के नज़दीक एक आश्रम स्थापित किया। कुछ वर्षों के बाद वह अपना स्थान बदलकर  भीतरी पहाड़ियों में भीलंगना घाटी में चली गई थीं। मीराबेन ने उस समय लिखे एक लेख में हिमालय के वनक्षरण, मृदाक्षरण व बाढ़ों के बीच घनिष्ठ संबंध की ओर नीति निर्माताओं का ध्यान खींचा था। चिपको आंदोलन से सालों पहले ऐसी आलोचनाओं को व्यापक बल देने के लिये उन्होंने वन प्रबंधन में निम्न कमियाँ बतायी थीं –

पहली-ग्रामीणों की भागीदारी का अभाव

दूसरी-अनेक क्षेत्रों में चीड़ के वद्यक्षों के स्थान पर ओक के वद्यक्षों को लगाना-ओक ऐसी प्रजाति है जिसमें बरसात के पानी को धारण करने व सोखने की कम क्षमता है।

उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी। नेहरू ने उसे संबंधित वन अधिकारियों की ओर बढ़ा दिया लेकिन (जैसा कि मीराबेन ने कई वर्षों बाद नाराज़गी के साथ लिखा) – ‘वन विभाग के लिए काम संबंधी आवश्यक परिवर्तन बहुत आधारभूत थे।’

ग्रामीण उत्तर प्रदेश में अपने वर्षों में मीराबेन ने भारतीय कृषि की प्रमुख पारिस्थितिकीय समस्याओं पर कुछ उपयोगी टिप्पणियाँ की थी। यह समस्याएँ आज भी हमारे सामने मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि नहर द्वारा सिंचाई की योजना में जल संचय अनिवार्य रूप से ज़रूरी है, धरती की जुताई पशुओं के चारे के लिए व मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए ज्यादा उपयुक्त है। मीराबेन के लिए पारिस्थितिकीय परिवर्तन और संकट की तीव्रता आज के आधुनिक जीवन की विशिष्ट पहचान थी। उत्तरी अमेरिका और मध्यपूर्व में प्राचीन सभ्यताएँ प्राकृतिक पर्यावरण के दुरूपयोग के कारण ढह चुकी थीं। उन्होंने ५ जून, १९५० के हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा था- ‘जो बात उन दिनों में हजारों सालों में होती है आज आधुनिक मशीनों व विज्ञान के युग में वह १०० सालों में हो जाती है।’

गाँधी और कुमारप्पा की तरह मीराबेन का प्राथमिक संबंध भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठित करना था। प्राकृतिक पर्यावरण में उनकी रूचि मात्र याँत्रिक नहीं थी। अनेक समयों पर उन्होंने वर्ड्सवर्थ की पक्की यूरोपियन रोमांसवादी परम्परा के साथ एक आध्यात्मिक बंधुता को भी अभिव्यक्त किया है। वह अपने आप को ‘आदियुगीन धरती माता की भक्तिन’ कहती थी। जैसा कि अप्रेल, १९४९ में उन्होंने लिखाः

आज सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि शिक्षित और धनी वर्ग ने अस्तित्व के जीवनप्रद मूल तत्वों – हमारी धरती माँ, उसके द्वारा धारित प्राणी व अन्नजगत –  के साथ अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया है। प्रकृति की योजना का यह संसार मनुष्य द्वारा जब कभी भी अवसर मिलने पर बेरहमी से लुटा, छिना व छिन्न-भिन्न किया गया। विज्ञान व मशीन के द्वारा वह एक समय के लिए व्यापक लाभ प्राप्त कर सकेगा परंतु अंततः उदास ही होगा। अगर हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ और नैतिक रूप से सभ्य प्रजाति के रूप में बने रहना है तो हमें प्रकृति के संतुलन का अध्यन करना होगा तथा इसके नियमो के मुताबिक अपनी जिंदगी विकसित करनी होगी।

मैंने अपनी बात भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन पर महात्मा गाँधी के स्पष्ट प्रभावों की पहचान व टिप्पणी के साथ शुरू की थी। तब मैंने अतीत में जा कर यह जाँचने का प्रयास किया कि किस सीमा तक गाँधी खुद वर्तमान की पारिस्थितिकीय समस्याओं का स्पष्ट पूर्वानुमान लगा चुके थे। इस संबंध में साक्ष्यों ने इस बात को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया है कि गाँधी और जे.सी. कुमारप्पा तथा मीराबेन जैसे उनके अनुयायियों के विचारों ने भी पर्यावरणीय आंदोलन के लिए उत्कृष्ट लाभदायक अतीत निर्मित किया है।

अब समय है कि हम अपना ध्यान एक व्यापक, प्रचलित मिथक पर केन्द्रित करते है जिसका  स्त्रोत महात्मा गाँधी के पर्यावरणीय योगदानों की पुनर्प्रतिष्ठा में है। प्रमुखतः आंदोलन के रेडिकल पक्ष के बीच खास किसी व्यक्ति के साथ अच्छाई-बुराई तसदीक करने की खेदजनक प्रवृति प्रचलित है। रेडिकल पर्यावरणवादी के लिए गाँधी उसी अनुपात में अच्छे हैं जिस अनुपात में नेहरू बुरे हैं। गाँधी को सम्मान व अनुसरण करने के प्रतीक रूप में अपनाते समय एक साथ उनकी अच्छा जवाहर लाल नेहरू के प्रेतीकरण की होती है। जिसके ऊपर वह भारतीय समाज के पारिस्थितिकीय संकट के लिए दोषारोपण करते है। अनेक पर्यावरणवादी यहाँ तक विश्वास करते है कि गाँधी पारिस्थितिकीय रूप से सुदृढ़ विकास की रूपरेखा खुद ही बना चुके थे। यह गाँधीवादी विकल्प नेहरू द्वारा कचरे के ढ़ेर में डाल दिया गया। नेहरू ने तब स्वतंत्र भरत पर अपना खुद का पूँजीगहन, पर्यावरणीय रूप से विध्वसंक, आर्थिक विकास थोप दिया। इस बात पर प्रकाश डालने के लिए एक कहानी देश छोड़कर अभी ब्रिटेन में रह रहे भारतीय पर्यावरणवादी ने मुझे अभी हाल ही में बतायी थी। गाँधी नेहरू के साथ इलाहबाद में नेहरू के घर ठहरे हुए थे। गाँधी ने सुबह-हाथ मुँह धोने के लिए एक बाल्टी पानी के लिए कहा। नेहरू ने दो बाल्टियॉं भेजी जिस पर गाँधी ने एक वापस भेज दी।

जवाहर ने विरोध जताया, ‘क्यों गाँधीजी, यह वह शहर है जहाँ गंगा, यमुना का संगम होता है, यहाँ पानी की कमी नहीं हो सकती।‘

इस घटना का अभिप्राय गाँधी की दूरदर्शिता तथा उनके मेजबान के अपव्ययी तरीकों को बताना है। इन्हीं तरीकों ने १९४७ के बाद नए राष्ट्र द्वारा अपनाए गए विध्वंसक विकास के रास्ते में सुदृढ़ अभिव्यक्ति प्राप्त करने का विश्वास हासिल कर लिया था। कहानी का कोई स्त्रोत नहीं दिया गया है। लगभग निश्चित रूप से यह पर्यावरणवादी की मनगढ़त बात है। आज भी गाँधीवादी पर्यावरणवादियों ने इस कहानी में व्याप्त विश्वास को व्यापक रूप से अपना रखा है। इस बात को बताने के लिए मैं कई उदाहरणों  में से एक को चुन कर आपको बताता हॅूं। कुछ वर्षों पहले प्रकाशित एक निबंध में एक प्रमुख भारतीय पर्यावरणीय लेखक एवं कार्यकर्ता ने दावा किया कि ‘महात्मा गाँधी द्वारा जवाहरलाल नेहरू को भारत को अतिउपयोग के रास्ते की ओर न ले जाने के बारे में समझाने-बुझाने के सारे प्रयास व्यर्थ हुए।’

संक्षिप्त रूप में यह कथन मिथक के दो प्रमुख तत्वों को बताता है-

पहला – पर्यावरणीय दृष्टिकोण से कहा जाए तो नेहरू अपव्वयी और गाँधी दूरदर्शी थे।

दूसरा – गाँधी के पास भारत के लिए विकास का अपना वैकल्पिक प्रारूप था जिसे नेहरू ने अपने दर्प में बिना विचारे अस्वीकृत कर दिया।

अतः बात यह है कि आज के पर्यावरणीय वाद-विवाद गाँधी और नेहरू के मरणोपरांत उन्हें उग्र जन प्रतिस्पर्धा में ला चुके हैं जो भावनात्मक रूप से हिंसक हैं तथा इन दोनों के बीच विद्यमान घनिष्ठ संबंधों को नजरअंदाज करता है।

गाँधी का नेहरू से पर्यावरणवादी विरोध अंशतः एक स्वयंसिद्ध पहेली को समझने की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ है कि स्वतंत्र भारत का विकास अनुभव पारिस्थितिकीय सरोकारों के प्रति गंभीर संवेदनशून्यता को प्रकट कर चुका है । हम जो कुछ अभी तक प्रमुख रूप से बता चुके है, इसके बावजूद ‘राष्ट्रपिता’ प्रबल रूप से ‘प्रारंभिक पर्यावरणवादी’ थे। दूरदर्शी गाँधी को अभिजात नेहरू के साथ विरोध में खड़ा करके इस पहेली को सरलता से बताया जा सकता है तथा एक षडयंत्र सिद्धांत को पेश करके भी, जिसमें नेहरू तख्तापलट के रूप में पहले कांग्रेस को अपने अधीन लेते है तथा बाद में तेजी से कांग्रेस को गाँधीवादी विरासत से छुटकारा दिला देते है।

यह पहेली अस्तित्व में है, इस पर मेरा विवाद नहीं है। लेकिन जिस तरह और जिस रूप में यह पर्यावरणीय आंदोलन में मेरे मित्रों द्वारा प्रायः व्याख्यायित की जाती है, मैं इसकी जाँच करना चाहता हूँ और यहाँ तक की शायद चुनौती भी देना चाहता हॅूं। गाँधी व नेहरू की उनकी श्वेत-श्याम छवियों को चुनौती देने का मतलब इन दोनों व्यक्तियों की गंभीर दार्शनिक विभिन्नताओं की अवहेलना करना नहीं है। स्वतंत्र भारत का गाँधीवादी दृष्टिकोण ग्रामीण पुनरूद्धार पर केन्द्रित था जबकि उसी दृढ़ता से नेहरू का दृष्टिकोण तीव्र औद्योगिक विकास पर केन्द्रित थ। गाँधी ने परिवर्तन की तुलना में स्थिरता को प्राथमिकता दी लेकिन अधीर नेहरू ने स्थिरता की तुलना में परिवर्तन को प्राथमिकता दी। इन दोनों के बीच यह मतभेद अक्टूबर, १९४५ में एक दूसरे को लिखे पत्रों में साफ तौर पर उभर कर सामने आते है। स्वतंत्रता पश्चात् सामाजिक व आर्थिक उद्देश्यों पर कार्यसमिति की सभा के बाद गाँधी ने नेहरू को अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा कि-

भारत ग्रामीण जीवन की सरलता में ही सत्य और अहिंसा को अनुभव कर पायेगा।

उन्होंने औद्योगिक समाज की तुलना पतंगे से की जो रोशनी के इर्द-गिर्द तेजी से घूमता है और खुद को समाप्त कर देता है। इसके जवाब में नेहरू ने इस बात का प्रतिवाद किया कि गाँव सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को मूर्त रूप दे सकेगें। नेहरू के लिए गाँव बौद्धिक एवं सांस्कृतिक दोनों रूपों से पिछड़ी स्थिति थे। आर्थिक नियोजन के मुख्य उद्देश्य के रूप में नेहरू ने ‘अतिउपभोग’ (जैसाकि पर्यावरणवादी जताना चाहते है) को नहीं बल्कि ‘हर भारतीय के लिए भोजन, कपड़े, आवास, षिक्ष, स्वास्थ्य की समुचित पर्याप्तता’ को निर्धारित किया। इस उद्देश्य को लेकर दोनों में सहमति थी मगर नेहरू अपने समय के अन्य बौद्धिकों की तरह इस बात के कायल थे कि इस तथ्य को केवल तीव्र औद्योगीकरण एवं आधुनिक तकनीक के उपयोग से प्राप्त किया जा सकता है।

इन मत विभिन्नताओं के साथ-साथ हमें गाँधी व नेहरू के बीच गहरे व चिर स्थायी स्नेह को ध्यान में रखना ही होगा। गाँधी ने जुलाई, १९३६ में लिखाः

मैं खुद को नेहरू के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में नहीं देख सकता और न ही नेहरू को मेरे।

आगे वह लिखते है किः

और न ही हम हैं। एक सामान्य लक्ष्य की तलाश में एक दूसरे का स्नेह जीतने में प्रतिद्वन्द्वी हैं और यदि उद्देश्य तक पहुँचने के संयुक्त कार्य में हम एक समय अलग-अलग रास्ते अपनाते हुए प्रतीत होते है तो मुझे आशा है कि दुनिया यह पाएगी कि हम एक क्षण के लिए लेकिन बेहतर पारस्परिक आकर्षण व स्नेह से पुनः मिलने के लिए एक दूसरे की दृष्टि से ओझल हो गए।

मैं नहीं जानता कि पर्यावरणवादी इस बात का तालमेल गाँधी-नेहरू ध्रुवता के साथ कैसे बिठायेंगे? जिसे वे इतनी गर्मजोशी के साथ थामे हुए थे। वास्तव में पर्यावरणवादी १९३० के शुरू में महात्मा गाँधी की नेहरू को उनके उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकारने की सार्वजनिक घोषणा की उपेक्षा कैसे कर सकते है; एक उत्तराधिकार जिसकी पुष्टि गाँधी बाद के वर्षों में बार-बार करते है। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता से पहले के महत्वपूर्ण वर्षों की पर्यावरणवादियों की व्याख्या इस बात को समझने में असफल रही है कि १९४० और उसके आसपास गाँधी के आर्थिक विचारों को राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा निश्चित रूप से अस्वीकृत किया जा चुका था। उस समय राजनीतिज्ञों एवं बौद्धिकों के बीच यह जबर्दस्त चेतना व्याप्त थी कि स्वतंत्र भारत में तीव्र औद्योगीकरण ही उचित आर्थिक रणनीति थी। इस रणनीति के समर्थकों का विश्वास था कि यह आगे चल कर गरीबी और बेरोजगारी को घटाएगी तथा एक मजबूत, आत्मनिर्भर एवं वास्तविक स्वतंत्र समाज बनाएगी। नेहरू ने इस चेतना को कुशल रीति से, विस्तार से अभिव्यक्त किया लेकिन नेहरू के पीछे गहरे राष्ट्रवादी लोगों एवं सच्चे वक्ताओं का एक संगठित दल था।

असल में, अगर १९४७ की आर्थिक नीति के आधार के रूप में गाँधीवादी प्रतिरूप वास्तव में अपना लिया गया होता तो देश के मजबूत और बहुसंख्यक लोगों के मत के सामने एक अलोकतांत्रिक स्थिति होती। ‘गाँधीवादी विकल्प’ का वास्तविक हाशियाकरण (marginalization) जैसा कि वास्तव में था, जे.सी. कुमारप्पा के कार्यकाल में ही स्पष्ट हो चुका था। १९३७ में वह कांग्रेस की राष्ट्रीय योजना समिति के लिए अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किए गए लेकिन जब राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य साथियों ने योजना के केन्द्र में गाँव को रखना अस्वीकार किया तो इन्होंने इस्तीफा दे दिया। आज़ादी के बाद सर्व सेवासंघ द्वारा कुमारप्पा योजना आयोग की सलाहकार सभा में प्रतिनिधित्व करने हेतु नियुक्त किए गए। पुनः गाँधीवादी अर्थशास्त्री ने जल्द ही यह ताड़ लिया कि वह अल्पसंख्यकों में से एक है और समिति को छोड दिया। हमारे लाभ की दृष्टि से पर्यावरणवाद के समय से पहले महात्मा और उसके शिष्यों को पर्यावरणवादियों की तरह प्रसिद्ध करना संभव है। इसके विपरीत, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आंदोलन के बहुसंख्यक बौद्धिक मत का प्रतिनिधित्व करते थे जिसकी सोच थी कि भारत का पुनर्जीवनीकरण व्यापक औद्योगिक द्वारा ही हो सकता है। कोई भी गाँधी और कुमारप्पा के अपने समय से आगे होने या कहना चाहिए दूरदर्शी होने पर गर्व कर सकता है लेकिन नेहरू के समकालीन होने की निंदा करना पूर्णतया अ-ऐतिहासिक साथ  ही साथ अनुचित भी होगा।

महान ब्रिटिशसमाजवादी एडवर्ड कारपेंटर ने एक बार टिप्पणी की थी कि एक युग के निर्वासित दूसरे युग के नायक हैं। शायद यह बात कि एक युग के नायक दूसरे युग के निर्वासित होते है, उतनी ही सत्य है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवनकाल में इतना पसंद नहीं किया गया जितना कि जवाहरलाल नेहरू; साथ ही कोई भी व्यक्ति उसकी मृत्यु के बाद इतना कुप्रचारित नहीं हुआ जितने कि नेहरू। यह प्रतीत होता है कि आज भारत की जो भी समस्याएं है उसके लिए नेहरू उत्तरदायी है। जहाँ दक्षिणपंथी नेहरू की छद्य धर्मनिरपेक्षता तथ राज्य नियोजन की नीतियों को पकड़े हुए हैं जो कि साम्प्रदायिक निष्कर्षों एवं आर्थिक स्थरीकरण के लिए स्पष्टतया उत्तरदायी है। वहीं वामपंथी निष्क्रिय होकर इस व्यक्ति के छद्म समाजवाद और पारिस्थितिकीय अहंकार के क्रिया-व्यवहारों में आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय अवनति के अवशेष खोज रहे हैं।

पर्यावरणीय आंदोलन के बाहर और भीतर नेहरू का प्रेतीकरण इस संभावना को कोई जगह नहीं देता कि समय के अनुसार व्यक्ति और विचार भी बदलते है। उदाहरण के लिए सरदार सरोवर परियोजना के विवाद को लेते है, जिसे पर्यावरणवादी नेहरू-गाँधी विरोध के संदर्भ में प्रस्तुत करने में सरलता अनुभव करते है। परियोजना की एक आलोचना अभी हाल ही में एक पुराने ऐतिहासिक मंदिर के बांध के बढ़ते पानी की वजह से डूबने के कारण लिखी गयी जिसमें लेखक द्वारा उसे ‘जवाहरलाल नेहरू के आधुनिक भारत के मंदिर’ की तरह बताया गया है। यहाँ ३० साल पहले गुजरे हुए इंसान को आज बांध के निर्माण के लिए दोषी ठहराया जा रहा है केवल एक सूक्ति के आधार पर जो स्वतंत्रता के शुरूआती वर्षों में एक अन्य बांध बनने को वर्णित करने हेतु उसने प्रयुक्त की। लेकिन कोई भी कैसे विश्वास कर सकता है कि नेहरू जैसा उदार एवं खुले विचारों का आदमी अपने विरोध में सबूतों के भंडार के बावजूद एक दृष्टि पर इतना दृढ़ रहा होगा? मुझे थोड़ा संदेह है कि अगर गाँधी और नेहरू आज जिंदा होते तो सरदार सरोवर विवाद पर वे अपने आपको एक पक्ष में पाते।

नेहरू के प्रेतीकरण का आग्रह अमेरिका और इतिहास की भारतीय दृष्टि से आता है जिसमें विशेषतः विश्व निष्क्रिय रूप से अच्छे और बुरे लोगों में बँटा रहता है। ये श्वेत-श्याम चित्र विशेषतः सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुकूल हैं –  एक समय यह मार्क्सवादियों का लक्षण था तथा अब यह खेदपूर्वक रेडिकल पर्यावरणवादियों के लक्षणों के रूप में प्रतीत होते है। व्यक्तियों के विचारों और कार्यों को संदर्भों में देखना चाहिए, यह इतिहासकार का काम है। ऐसा करते हुए वह अपने आप को कम या ज्यादा अंशों में कार्यकर्ता के विश्वास का परीक्षण करता हुआ पाता है। यह इस भावना में है कि मैं पर्यावरणवादियों की नेहरू की कृष्ण छवि का विरोध कर चुका हूँ और साथ ही इसी जोश के साथ गाँधी को पाक साफ़ बता देना, इन दोनों का मैं विरोध करता हूँ। जैसा मैंने कहा है कि गाँधी की जो ऐतिहासिक छवि है वह विचारों का एक पुँज है और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति विद्रोह तो है ही साथ ही पर्यावरणवादी दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। बहुत कुछ अविवादित है लेकिन शायद यह पूछने का समय है किः

‘क्या ऐसे तरीके हैं जिससे गाँधी की विरासत आंदोलन को वास्तव में सीमित कर सकती है? या ज्यादा स्पष्ट रूप से रखा जाए तो क्या गाँधी आज के सामाजिक व पर्यावरणीय पुनरूद्धार में लगे लोगों के सभी प्रश्नों के उत्तर दे सकते है?’

कुछ पर्यावरणवादी सुनिश्चित हैं कि – हाँ, वह दे सकते हैं। वास्तव में एक मित्र ने हाल में ही एक दावा किया कि ‘हर पर्यावरणीय घटना/संकट/चुनौती के लिए कोई भी गाँधी में दिशा निर्देष एवं प्रेरणा ढूँढ सकता है।’ इस सर्वाधिक प्रबल कथन के होते हुए भी मैं सोचता हॅूं कि गाँधी सभी उत्तर उपलब्ध नहीं करा सकते, कुछ समय तो वह सही प्रश्न भी नहीं पूछते ।

मुझे स्पष्ट करने दें। मैं विश्वास करता हूँ कि महात्मा गाँधी की घरोहर पर्यावरणीय आंदोलन की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण पहलुओं को सीमित कर चुकी है-

पहला- अधिकांश पर्यावरणवादियों का गाँवों पर अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करना गौरतलब है। गाँधी की भाँति उनके आज के अनुयायी शहरी संदर्भ और उसकी विशिष्ट सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याओं के बारे में अल्प समझ रखते हुए प्रतीत होते है। भारतीय पर्यावरणवादी शहरी औद्योगिक जीवन शैली की अपनी क्रोधपूर्ण भर्त्सना करने मे इस तथ्य को जान चुके है कि इस सदी के अंत तक भारत में विश्व की सर्वाधिक शहरी जनसंख्या होगी। परिसर जैसे समूह हमें इन प्रश्नों के बारे में सचेत करने में बहुत कुछ कर चुके हैं। इस शहर में बोलते हुए मैं इस तीव्र और अनियंत्रित शहरीकरण के साथ जुड़ी पारिस्थितिकीय समस्याओं को ज्यादा खोलकर प्रस्तुत नहीं करूंगा-

व्यापक प्रदूषण, अधिक भीड़-भाड़ तथा इससे जुड़ी बीमारियाँ, शुद्ध पेयजल संकट, अपर्याप्त आवास एवं स्वास्थ्य सुरक्षा तथा ऊर्जा संरक्षण एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से पूरी तरह अकुशल एक परिवहन व्यवस्था।

पर्यावरणवादी इन समस्याओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़े रहने और हमारे शहरों और कस्बों को रहने लायक बनाने के प्रयास में गाँधी से सहायता प्राप्त नहीं कर सकते है। जिन्होंने अपने जीवन एवं कार्य में शहरों से साधारणतया अपना मुँह मोड़ लिया।

शहरों की तरह वनक्षेत्र भी गाँधी के लिए आकर्षक नहीं है। गत वर्ष परिसर व्याख्यान में बिट्ट सहगल ने अपने अनुभव से यह स्पष्ट किया कि कुछ पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के पास प्रकृति संरक्षण का समय नहीं है। उन्होंने इसे अभिजात्य सनक का नाम दे रखा है। गाँधी किसी भी हाल में इसके प्रति उदासीन थे। यह सत्य है कि शाकाहारवाद का उनका प्रयास और अहिंसक गाँधी सभी के जीवन के प्रति सम्मान रखते थे। फिर भी सभी तरह से वह अविकृत प्रकृति की छटा को देखने शायद ही कभी गए हो। हो सकता है कि शायद यह उनके संयमित व्यावहारिक मिज़ाज का हिस्सा है जिसके कारण गाँधी में कोई रूमानियत नहीं थी। यह भी रोचक है कि दोनों व्यक्तियों में से नेहरू ज्यादा रूमानी थे तथ भारतीय प्राकृतिक सुंदरता के गहरे प्रशंसक थे। नेहरू की अंतिम इच्छा एवं वसीयत में उनकी भारत की मिट्टी, पहाड़ों और नदियों के प्रति उनकी प्रार्थना में एक रहस्यात्मक विशेषता निकट प्रतीत होती है।

गाँधी और नेहरू-दोनों के निकट मित्र ब्रिटिश शिक्षाविद् एवं लेखक एडवर्ड थाम्पसन ने इस वैषम्य को दिखाने के लिए एक किस्सा बताया। १९३७ में ब्रिटिष सरकार के विभिन्न प्रदेशों में जब कांग्रेस मंत्रिमंडलों को बनाया गया तब थाम्पसन ने राष्ट्रवादी नेताओं को भारत के लगातार लुप्त हो रहे जानवरों के प्रति रूचि दिखाने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने बताया ‘जानवर लगातार या तो लुप्त हो रहे थे या खतरे की सूची में थे’। जब उन्होंने इस समस्या को गाँधी के सामने रखा तो महात्मा ने मज़ाकिया लहज़े में कहाः

हमारे पास हमेशा ब्रिटिश शेर रहेंगे।

उसके बाद थाम्पसन की उदासी को महसूस करते हुए गाँधीजी ने उन्हें जवाहरलाल से इस बारे में कहने के लिए कहा,’ एक वे हैं जो इसमें रूचि दिखायेगें।’ वास्तव में नेहरू ने ऐसा ही किया, उन्होंने कांग्रेसशासित प्रदेशों के प्रधानमंत्रियों (जैसा उस समय इन्हें पुकारा जाता था) से इस मुद्दे के बारे में अपनी बात रखी। बाद में नेहरू थोड़े गर्व के साथ थाम्पसन को सूचित करने में समर्थ हुए कि मद्रास के प्रधानमंत्री के नाते सी. राजगोपालाचारी का अंतिम अधिनियम पेरियार प्रकृति संरक्षण को स्थापित करने वाला था।

इसलिए प्रकृतिप्रेमी और वे लोग जो शहरी पर्यावरण पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते है महात्मा गाँधी से कुछ हद तक ही सीधी मदद की गुंजाइश कर सकते है। लेकिन वन क्षेत्र और शहरों के मध्य एक व्यापक भू-भाग ७,००,००० गाँवों का घर है, जिसके बारे में गाँधी प्रायः और भावपूर्ण तरीके से बोलते थे। पर्यावरणीय रूप से विध्वंसक प्रोजेक्ट के विरोध में या कृषि अर्थव्यवस्था तथा इसके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संबंधों की पुनर्प्रतिष्ठा करने में गाँधी के जीवन और संदेश के प्रत्यक्ष क्रियान्वयन की गुंजाइश ज़्यादा है। चाहे शहर में, देश में या वन में रहें हम भी बिना अपवाद के प्रयास कर सकते हैं और अपनी जीवन शैली को व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप संभव्य सीमा तक सादगीपूर्ण बना सकते हैं। साथ ही उस व्यक्ति से सीख सकते हैं जिसने अपनी जिदंगी धरती पर अपनी कुछ आवश्यकताओं के साथ गुज़ारी तथा अपने लिए कुछ ही आवश्यकताएँ रखी। यह भी सीख सकते हैं कि पर्यावरणीय आंदोलन हमेशा महात्मा गाँधी की ओर लौटता है और ठीक उसी समय उनसे आगे भी जाता है।

(अंग्रेज़ी से अनुवादः शम्भू जोशी)

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  1. a very fine traslation

  2. achchha laga padna.

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