आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

पै तमाशा न हुआ / The Circus That Never Comes

एक विषयांतर के तौर पर (हालाँकि एक साल तक हिन्दी-अंग्रेज़ी में इस पत्रिका के प्रकाशन की पृष्ठभूमि में) इस सम्पादकीय का एक अंश हिन्दी के साहित्यिक पर्यावरण के विषय में है।

हिन्दी साहित्य के बारे में बहुत-सी बुरी ख़बरें, बहुत-से पुराने पूर्वग्रहों के साथ फ़िजा में है उन्हें दोहराये बिना हम कुछ बातें कहना कहना चाहते हैं – उसमें राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की ऐतिहासिक विडंबनाएँ कुछ विरल हुई हैं, और उसी के परिणामस्वरूप राष्ट्र-प्रतिनिधित्व का ‘डिफॉल्ट’ रहै्ट्रिक भी कुछ विरल हुआ है; उसके भीतर हिन्दी भाषा को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पहिया बनाये जाने का प्रतिरोध उससे कहीं अधिक दूरगामी और प्रभावी है जितना समझा जाता है; उसमें साहित्य एक कमॉडिटी या इंटीरियर डेकोरेशन की वस्तु बन जाने से कई पीढ़ियाँ दूर है और एक बेरहम विश्व व्यवस्था और इकॉनामी के तर्कों को आत्मसात करने की स्मार्ट तरकीबें लगभग नहीं हैं – अब तो ‘कल्याणकारी’ राज्य का ‘साया’ भी उसके सिर से उठ गया है।

यहाँ कला, सौन्दर्य, विचारधारा, जाति, वर्ग, प्रतिरोध, नैतिकता जैसे ‘मूल’ प्रत्ययों को लेकर वैसा ही भावमय घमासान मचा हुआ है – लगभग न्यूनतम संभव प्रतिफल पर इस भाषा में रोज़ जीने मरने वाले हज़ारों लेखक हैं जिनका लेखकीय जीवन अनुबंधों, रीडिंग्स और यात्राओं से नहीं छोटी-छोटी पत्रिकाओं, विकट नैतिक प्रतिमानों और अगर इसके महबूब लेखक मुक्तिबोध के शब्दों में कहा जाय तो अनवरत आत्मसंघर्षों से अनुशासित है। हिन्दी में रहना किसी भीड़ भरे हिन्दुस्तानी मुहल्ले में रहना है और उसके सारे भरेपूरेपन से इश्क करना है। यह एक अजनबी होते जा रहे देश में रहना है और रोज़ गाली खाना है।

हिन्दी में कहीं एक ग़ालिबीय लय है – होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे। हिन्दी ने बहुत तमाशे देखे हैं और वे बहुत से लोग जिनके यहाँ अरसे से यह ख़बर गर्म है कि पुर्जे़ उड़ेंगे हिन्दी के वे अक्सर जुट जाते हैं पै कमबख़्त तमाशा है कि होता ही नहीं।

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इन्टरनेट पर संजीदा साहित्य के लिये कैसी रीडरशिप है यह अनुमान कर पाना हमारे लिये बहुत मुश्किल था आज से एक साल पहले। हमारे संदेहों के विपरीत यह एक बहुत सुखद अनुभव रहा है – करीब 100 देशों से पचास हज़ार से अधिक जो पाठक प्रतिलिपि की वेबसाईट पर आये हैं (और जिनमें से करीब तीस प्रतिशत ‘स्थायी’ हो गये हैं) उन्होंने गंभीर शोधपरक पाठों और आलोचनात्मक मज़मूनो को बाकी साहित्यिक विधाओं जितना ही पढ़ा है। जैसा अनुमान था भारत से बाहर सर्वाधिक पाठक अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन और स्केंडेनेवियाई देशों से, इसी क्रम में है। पत्रिका का द्विभाषी/बहुभाषी होना एक मज़बूत पक्ष ही साबित हुआ है। पहले चौदह महीनों की रीडरशिप का एक विश्लेषण जल्द ही आप साईड बार में पढ़ पायेंगे।

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इस अंक की शीर्ष कथा का बीज शब्द ‘मेट्रो’ है – इसे हम अपने दूसरे वार्षिकांक की तैयारी की तरह देख रहे हैं जिसका बीज शब्द ‘गाँव’ होगा। आपसे अनुरोध है थीम स्टेटमेंट या आमंत्रण (जो यथासमय आपको मिलेंगे ही) का इंतज़ार न करें और इस बीज शब्द पर/इसके इर्द-गिर्द अपना पाठ (किसी भी माध्यम में) जब संभव हो हमें भेज दें।

A digression, albeit in context of Pratilipi’s one year as a Hindi-English magazine: a part of this editorial is about the Hindi literary scene.

Many unpleasant rumors about the Hindi scene, many persistent prejudices, abound. Without repeating them, we would just like to say a few things: the historical irony of being the national language and the official language stands much diluted; consequently, the “default” rhetoric of national-representation is also much restrained. There is a deeper and wider resistance to projects that make Hindi a vehicle of cultural-nationalism than is generally assumed. Literature is still a few generations away from being reduced to a commodity or a piece of interior decoration, and there are hardly any “smart” justifications for submitting to the logic of a merciless world-order and economy.

In Hindi, there is still an ongoing, passionate — at times ‘radical’ — battle about such basic concepts as art, aesthetics, ideology, caste, class, resistance, morality. There are thousands of writers living and dying daily in Hindi, on a bare minimum of reward and recognition. Writers whose life is not punctuated by contracts, readings and travel, but by small, obscure magazines, stringent moral expectations and, in the words of its beloved poet Muktibodh, by continuous struggle with the self. Living in Hindi is like living in a crowded Indian neighborhood, and loving it unconditionally. It is like living in country growing increasingly alien, and being cursed everyday.

Yet, there is a Ghalib-ian rhythm to Hindi: “Every day, there is a new circus at my door.” Hindi has had its fair share of circuses and there are too many people, who have long anticipated its collapse, ready to gather and watch at the slightest hint of one. But that
circus will keep eluding them.

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A year earlier, it was very difficult for us to gauge the kind of readership for “serious” literature on the internet. Contrary to our doubts, though, more than 50,000 readers from over a hundred countries have visited our site (of which, about 30% are regular readers) and
they have read serious research-papers and theoretical and critical pieces just as much as they have the rest. As expected, outside India, most of our readers come from the USA, UK, Spain and the Scandinavian countries. Being bi/multilingual has only helped. We will soon have an analysis of the readership stats for the first 14 months in the sidebar.

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The theme for this issue’s lead is “Metro”. We are seeing this as a preparation for, something to lead on to, our second anniversary issue for which the theme will be “Village”. We request our readers and authors not to wait for a formal invitation or theme-statement (which, of course, we will be sending out), but to start sending in any texts that revolve around this theme.

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  1. सेनाओं के साथ, सेनाओं में शामिल होकर योद्धाओं के पिछले और आगामी पराक्रमों का गुणगान करने वाले कवि-गायकों के उद्बोधनों की उपस्थिति यहाँ है, ये प्रेरणाएँ इतनी मायावी हैं कि भविष्य की लड़ाइयों के लिये हैं. युद्ध के रूपक कुछ कम ज़रूरी लग सकते हैं लेकिन युद्ध और शांति को पहचानना-देखना-भोगना अब पहले जैसा कहाँ है और हताहत होने के तरीक़े सर के बल खड़े हो गए हैं. भावमय घमासान को भावबोधमय घमासान की तरह माना जाए और भीड़-भरे मोहल्ले की नागरिकता को उमंग और अभिमान के साथ यों ही लिखा जाए.

  2. प्रतिलिपि को एक बार पहले भी देखा था। लेकिन आज विस्तार से देखा। आपने जो आंकड़े दिए हैं उनसे मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। अगर प्रतिलिपि हिन्दी के सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रचार-प्रसार में इतनी महत्पूर्ण भूमिका निभा रही है तो मैं एक हिन्दी भाषी होने के नाते आपका कृतज्ञ महसूस कर रहा हूँ।

    इसी के साथ आप से निजी स्तर पर एक शिकायत भी करना चाहता हूँ।

    महोदय, मैं आपका ध्यान हिन्दी में बीजगणितीय भाषा के बढ़ते चलन की ओर आकृष्ट कराना चाहता हूँ। इन गद्यांशों को पढ़कर मुझे एमएससी स्तर के बीजगणित के समीकरण भी सहल प्रतीत होने लगते हैं।

    विश्वास करें कि कई बार मेरे पास शब्दकोश और पर्याप्त प्रशिक्षण के अभाव में कई लेखकों को समझना मुश्किल हो जाता है। मेरा हिन्दी ज्ञान सीमित हो सकता है लेकिन कुछ खास हिन्दी विद्धान अपने वाक्य प्रयोग और वाक्य विन्यास के कारण मुझे हिन्दी की महान विभूतियों के बजाय संस्कृत के महान गद्यकारों बाणभट्ट और सुबन्धु की याद दिलाते हैं।

    महोदय चिन्ता की बात यह है कि, इस तरह का गद्य लिखने वालों में युवा माने जाने वाले या सचमुच ही के युवा लोग ही आगे हैं।

    महोदय भारी-भरकम अवधारणाओं तथा राजनीतिक मुहावरों से लैस करने से कोई ठस गद्य विचारवान हो जाता तो क्या बात होती। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वैचारिक लेखन अपनी प्रकृतिबद्ध जरूरतों के कारण दुरूह हो जाता है इस तरह के दुरूहता से किसी बुद्धिजीवी का रोजबरोज ही सामना होता है। लेकिन ऐसी दुरूहता को दास्तानों की तरह पहनकर कलम चलाने वालों ने हिन्दी में कोई वैचारिक निष्पत्तियां की हैं इस पर मुझे गहरा संदेह है। क्या यह सच नहीं है कि हिन्दी विचार क्षेत्र इक्कीसवीं सदी में भी मौलिकता के लिए तरस रहा है ?

    महोदय इस मुद्दे पर मैं अपना सुव्यवस्थित विचार भविष्य में सबके सामने रखने का प्रयास करूँगा। तब तक के लिए, संस्कृतनिष्ठता एवम फारसीनिष्ठता की दाल को मिला कर पकाई खिचड़ी में राजनीतिक मुहावरों के घी का तड़का लगाकर परोसने वालों यानि हिन्दी को अपठनीय बनाने वालों के खिलाफ मेरा यह बौद्धिक प्रतिरोध दर्ज किया जाए।

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