बरायनाम नीलाँज्ना: ज्योत्सना मिलन
गाड़ी की ओर उसका ध्यान गया उस वक़्त गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी थी। रास्ते भर आती और बीच-बीच में उड़ती रहने वाली उसकी नींद, इस समय उड़ी हुई थी। चाय वाले की आवाज़ सुनकर उसने थोड़ा उझकते हुए खिड़की से बाहर झाँका। बाहर इतना कोहरा था कि चायवाला किस दिशा में था, पता नहीं चल पा रहा था। ऐन सामने ही स्टेशन के नाम की तख़्ती थी जो कोहरे से उभर रही थी कि मिट रही थी समझ में नहीं आ रहा था, पढ़ा फिर भी जा रहा था – मंदसौर …
ये मंदसौर …? मंदसौर कैसे आ गया अभी से ?
उसके हिसाब से दिन तो अभी ठीक से निकला भी नहीं था और दिन निकलने से पहले ही घड़ी साढ़े आठ बजा चुकी थी।
सुबह से रात तक और कभी-कभी दूसरी सुबह तक उसके हाथ पर बंधी रहने वाली घड़ी को जिस किसी ने दफ्तर में, मोहल्ले में, घर में, टैम्पो में देखा होगा, ज़रूर सोचा होगा कि उसका हर काम घड़ी देखकर होता होगा, इसलिए समय पर भी होता होगा।
समय का उसका हिसाब-किताब इतना गड़बड़ था कि शायद ही कभी वह कहीं समय पर पहॅुंचती होगी या समय पर उसका कोई काम होता होगा। लगाने को समय का हिसाब वह हमेशा लगाती, कामों की जोड़-बाकी करती, हर काम की समय सीमा सुनिश्चित करती तब जाकर काम शुरू करती। जैसे, अगर उसे तीन कुरतों के किनारे नीचे से काटकर फिर मोड़ने होंगे तो काम शुरू करने से पहले सोचेगी, उसके पास अभी आधे घंटे का समय है और इस काम के लिए आधे घंटे का समय काफी है।
जल्दी से मशीन निकालेगी, झाड़-पोंछकर तेल डालेगी, बेल्ट चढ़ाएगी, बॉबिन, गिट्टी लगाएगी और पाँच मिनट में काम शुरू …
तेज़-तेज़ पैर चलाते हुए वह अचानक पाएगी कि उसके पैरों की रफ्तार के मुकाबले चक्के की रफ्तार को रेंगना कहा जा सकता था। स्लो मोशन वाली रफ्तार में तीन कुरतों के किनारे मोड़ने में आधे घंटे के ढाई-तीन घंटों में फैल जाने की संभावना निकल आ सकती थी। दूसरी सूरत यह हो सकती थी कि बेल्ट को खोलो, काटो, छेद करो, फिर से पिन लगाकर जोड़ो, कसो, इसके लिए औजारों की खोज में जुटो।
औजारों की एक निश्चित जगह होने के बावजूद, उनका अपनी जगह पर मिल जाना क़तई ज़रूरी नहीं था। दोनों सूरत में आधे घंटे के काम को ढाई-तीन घंटे खर्च करके करना सरासर ठगा जाना था और इस तरह अक्सर ही ठगी जाती थी वह, फिर भी इसे कबीर वाली ठगी नहीं कहा जा सकता था।
इस काम को या इस जैसे दूसरे कई सारे कामों को बिना घड़ी देखे किया जा सकता था। बिना घड़ी देखे दिन को न निकला हुआ मान लेने की छूट उसे हो सकती थी और मंदसौर को कोई दूसरा शहर मान लेने की भी। घड़ी देखते ही मंदसौर का मंदसौर होना सुनिश्चित हो चुका था।
खिड़की से बाहर झॉंकते हुए उसने इस स्टेशन को मंदसौर तो बिलकुल भी नहीं सोचा था।
जाने कब से खड़ी थी ट्रेन स्टेशन पर और कभी भी चल दे सकती थी। एक हाथ में कंबल, दूसरे में अटैची, कंधे पर हैंडबैग, चप्पलों में आधे-दूधे पैर … वह दरवाजे़ को लपक ली थी।
नीचे उतरकर सामान सहित सामने खड़े होकर उसने ट्रेन पर नज़र डाली। ट्रेन के भीतर भी कोहरा था। इतना कि लोग नेगेटिव की तरह दिखाई दे रहे थे जैसे वे अपनी-अपनी छायाएँ हों। इतने स्थिर भाव से खड़ी थी ट्रेन जैसे न कहीं जाने में न कहीं से आने में उसकी कोई दिलचस्पी हो।
कोहरा इतना था कि एक बार में पूरा स्टेशन दिखाई नहीं दे रहा था। पुल किस तरफ होगा का पता लगाना आसान नहीं था।
मंदसौर स्टेशन पर उतरकर जाने वाले लोग पहले ही जा चुके थे। इसलिए जिस ओर सब जा रहे हों उस ओर चल देने की सुविधा भी नहीं बची थी। पुल का पता करने के लिये किस ओर बढ़ना चाहिए, अभी वह सोच ही रही थी कि कोहरे से एक कुली प्रकट हो गया मय सामान और यात्री के।
‘हाँ भैया ये पुल किस तरफ होगा?’
कुली ने अपने खाली हाथ को पीठ पीछे बढ़ा दिया। एक बार बस किसी तरह पुल तक पहॅुंच जाए। उसके बाद तो पुल चढ़कर बाएँ को चल देगी, फिर बाएँ को मुड़कर सीढ़ियॉं उतर जाएगी। उसे उम्मीद थी कि सड़क पार रिक्शे तो होंगे ही, दिखाई भले न दे रहे हों। सोच में सब कुछ एकदम आसान था।
कोहरे में हर चीज़, दूसरी के लिए एक छिपी हुई चीज़ की तरह थी। जैसे-जैसे रिक्शा आगे बढ़ता जाता शहर, जादू की तरह खुलता और बिलाता जाता। टुकड़ा-टुकड़ा मकानों और दुकानों के जोड़-तोड़ से बनी मोहल्लों की शक्लें पहचान में आएँ इससे पहले ही बिला जातीं और रिक्शा आगे को बढ़ लेता। उसे पता ही नहीं चल पा रहा था कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे थे अथवा नहीं।
अपने-अपने संदर्भों से विलग घर, आँगन, पेड़, सड़कें, मोहल्ले, पड़ौसी एक दूसरे की गै़र-मौजूदगी में अपनी पहचान खो चुके थे।
बड़े चाचा की इस बगल तिवारी जी और उस बगल ठाकुर सा’ब पड़ौसी थे। जितने दिन वह बड़े चाचा के रहती, वे उसके भी पड़ौसी होते। तिवारी जी का ‘जी’ उनके सम्मान में बढ़ोतरी करता था। तिवारी जी की तर्ज़ पर उसने ठाकुर सा’ब को कभी ठाकुरजी नहीं कहा। ठाकुर के साथ ‘जी’ लगाने के विचार में ही ठाकुरजी के विस्थापन की पूरी संभावना थी। ठाकुर की बगल में आकर सा’ब ऐसे बैठ गया जैसे वह उसी की जगह हो।
उस वक़्त उसकी किसी बगल कोई नहीं था न तिवारी जी, न ठाकुर सा’ब। इसके अलावा बस एक रिक्शे वाला था जो उसके आगे की सीट पर बैठा था। उसके चेहरे को पढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं थी और पीठ एकदम सपाट थी, न सिलवट, न सिहरन। रिक्शे वाला बीच में रास्ता भटक जाए या भटका ले जाए यह हो सकता था। शहर का मगर दिल्ली-बम्बई न होकर मंदसौर होना इन संभावनाओं में अपने आप ही कतर-ब्योंत कर देता था।
केशरमाँ तो कब की जग चुकी होंगी। रात को उनकी आँखें कहानी सुनाते-सुनाते जैसे अपने आप बंद हो जातीं, वैसे ही मॅुंह अंधेरे अपने आप खुल भी जातीं। उनके बिस्तर में जाते ही उनकी नींद को लेकर अम्मा एक न एक मुहावरा जड़ने से कभी न चूकतीं – ‘इ तो घोड़ा वेचीने हुवे बापड़ा! अणा रे कईं? नी माटी नामरा जनावर री चिंता ने नी छोरा-छाबरा री।’ माटी (पति) नाम के जनावर की चिंता से वे मुक्त थीं इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता था। और बकौल अम्मा के यह सबसे बड़ी मुक्ति थी। केशरमाँ के लिए अलग से किसी मोक्ष की आवश्यकता न होने को लेकर अम्मा आश्वस्त थीं। ‘छोरा-छाबरा’ के नाम पर हम आठ के आठ अम्मा से अधिक केशरमाँ के गिर्द डेरा डाले मिलते, समय कोई सा भी क्यों न हो!
दिन के समय तो भूत-प्रेतों, व्यन्तर देवताओं आदि का ख़याल भी शायद ही आता। उस वक़्त तो वह, यह मान लेने को भी तैयार हो जा सकती थी कि ये भूत-प्रेतादि कपोल-कल्पना से अधिक कुछ नहीं हो सकते। मगर रात के गहराने के साथ-साथ हर अंधेरी जगह भूत-प्रेतों, व्यन्तर देवताओं के डेरों में बदल जातीं। एक तो घर इतना बड़ा नहीं था कि ग्यारह लोगों के परिवार में, हर एक के हिस्से एक कमरा आ जाए। दूसरे कोई एक कमरा किसी एक का नहीं था, पूरा घर हर किसी का था। हालाँकि – मेरा अपना कमरा, मेरी अपनी मेज़, मेरी अपनी किताबें, मेरा अपना बिस्तर – का विचार मानू के मन में सुगबुगाना शुरू हो चुका था जबकि उसके पास अभी अपनी किताबों के लिए रैक में एक खाना भर था १५’ x २०’ का और कपड़े की अलमारी में १२’ x १५’ की जगह उसे प्राप्त थी कपड़ों के लिए।
लंबोतरे एक कमरे में पाँच बिस्तर लगते डोरमेटरी की तरह और उन पर सात लोग सोते शुरू में वह और आखिर में केशरमाँ।
सपने वाली उसके पास उसका अपना एक कमरा होता। उसमें दाखिल होकर बाईं तरफ वाली दीवार पर स्विच टटोलते हुए उसे, वैसा डर कभी-कभी लगता जैसा मंदसौर वाला चढ़ाव चढ़ते-उतरते हुए लगता था, अंधेरी बावड़ी में उतरने जैसा कि कहीं कोई भूत-प्रेत हाथ में न आ जाए।
पहली बार जब उस चड़ाव से अकेली नीचे गई और सड़क पार के मकान में रहने वाली रुक्मण मासी के यहाँ सूपा लौटाकर वापस अकेली आई तो चुपचाप जाकर केशरमाँ के पास उनसे सटकर बैठ गई ऐसे जैसे अभी भी अंधेरी बावड़ी में ही हो। न उतरती न चढ़ती हुई, खड़ी हुई आखिरी सीढ़ी पर उसे एक एक सीढ़ी साफ दिखाई दे रही थी।
दे आई सूपा?
हाँ …। उसकी आवाज़ जैसे बावड़ी से आई थी।
केशरमाँ ने उसे देखा, क्या हुआ तुझे?
कुछ नहीं हुआ मुझे। आप तो यह बताओ मुझे कि अगर भूत-प्रेत, व्यंतर देवादि में से कोई कभी कहीं मिल ही जाएँ तो उन्हें पहचानेंगे कैसे? कैसा डील डौल होता होगा इनका आदमी जैसा कि जानवर जैसा कि दोनों का मिला जुला?
जो लोग मरकर भी नहीं मरते, होने न होने के बीच के दायरे में भटकते रहते हैं उनका हूलिया ही उनके प्रेतों का भी होता होगा या उनके कार्टून जैसा कुछ होता होगा?
केशरमाँ का ध्यान भूत-प्रेतादि के इस पहलू की ओर तो अभी तक गया ही नहीं था। बात तो मानू की ठीक थी उनके हूलिये का अता-पता न हो तो उन्हें पहचानेंगे कैसे?
उन्होंने कहा – ‘देखो सा’ब हमको भी इसका पता तो नहीं है हम सुनी हुई घटना तुमको सुनाते हैं तुम भी अगर कोई कभी इनके बारे में पूछपरख करे तो इसी उदाहरण को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर सकते हो। मेरी नानी की दूर की जिठानी के डील में (शरीर में) उनकी सौत आती थी, चाहे जब आ जातीं। जब सौत आती उनके शरीर में तो उनकी बातें बहकी-बहकी सी होने लगतीं और घर में सबको पता चल जाता उनके आने का। आते ही वे अपनी मांगे प्रस्तुत करना शुरू कर देतीं विशेष रूप से खाद्य सामग्री बढ़िया रबड़ी, कलाकंद, गुलाबजामुन जब उनका जो मन करता। वे उनका नाप तौल भी बतातीं आधा किलो रबड़ी, एक किलो कलाकंद। देवरजी उनको छेड़ते ‘मोटा मगरारो भाटो लाऊँ क्या भाभीसा। रूको अभी बताती हूँ वे उठ खड़ी होतीं तो देवरजी भाग निकलते। भाभी चिल्ला कर कहतीं – और खबरदार जो जूठा किया …
डील से सौत के जाने पर फिर अपने में लौट आतीं जिठानी जी– पलने में सोई बच्ची माँ माँ करके खिड़की की तरफ उँगली उठाती। वे देखती रह जाती कि बच्ची नहाई-धोई, काजल-पाउडर की हुई होती।
बच्ची से वे पूछतीं कहाँ हैं माँ? आई थी?
वह फिर रोने लगती और खिड़की के बाहर के टपरे की ओर उँगली दिखाती … माँ … माँ
हाँ लेकिन केशरमाँ आपको कैसे पता कि यह सब हुआ था?
मुझे मेरी माँ ने बताया था उसे मेरी नानी ने बताया था।
हर ने एक दूसरे को ऐसे बताया जैसे उन्होंने खुद देखा हो यह सब होते हुए।
सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर खड़ी केशरमाँ की आवाज़ का तागा पकड़कर वह उतरती जाती सीढ़ियॉं। आँखों का खुला या बंद होना लगभग एक ही बात होती, तब भी वह कसकर आँखें बंद कर लेती, जैसे आँखें बंद कर लेना अदृश्य हो जाना हो। न भूत-प्रेत उसे देखें न वह उन्हें। भूत-प्रेत थे कि नहीं, उसे पता नहीं था। अम्मा की तरह उसने भी उन्हें कभी देखा नहीं था।
अम्मा का कहना था कि प्रतापगढ़ वाले मंदिर की परिक्रमा में रात को जाना असंभव माना जाता था। इसीलिए एक दिन उन्होंने ठान ली कि वे ज़रूर जाएँगी और सबको पता चल जाएगा कि वहाँ कुछ नहीं है और हो भी तो भगवान के घर में वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उस रात वे कूदती-फाँदती परिक्रमा में गईं और चली आईं। उनकी देखादेखी पुखराज ने भी हिम्मत जुटाई मगर परिक्रमा में पीछे पहॅुंचते ही उसकी पायजेब खुल कर छन्न से फिंका गई और वह उसे बिना खोजे ही वापस लौट आई थी।
चारे के गंज पर भी जिन्हें बिस्तर वाली नींद आ सकती हो वे केशरमाँ ज़रूर घोड़े बेचकर सोती होंगी। फिर भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि रात में उसने किसी भी वक़्त आवाज़ दी हो और केशरमाँ ने – क्या मानू? न कहा हो। और आवाज़ देने की नौबत तो हर दूसरे-तीसरे दिन आ जाती, किसी भी वजह से। नींद से उठकर पानी पीने रसोई में या सू सू करने बाहर निकलने से पहले केशरमाँ को आवाज़ देना ज़रूरी होता। उनकी ‘हाँ’ उनके जगे होने का सबूत होती, जो उसे पहराती भी कवच की तरह। एक आवाज़ में टूट जाने वाली उनकी नींद को, नींद माना जाना चाहिए या नहीं, वह कभी तय नहीं कर पाई थी।
केशरमाँ की रात सबसे पहले होती और सवेरा भी सबसे पहले होता, इसलिये उनका सवेरा तो कब का हो चुका होगा। घर में सबका सवेरा अलग-अलग समय पर होता। सवेरे का ताल्लुक न सूरज से था न मुर्गे से। केशरमाँ का सवेरा शुरू से चार बजे होता आया है, लगभग ब्लू आवर में! पहले उसका सवेरा सुबह छह बजे होता था अब सात बजे के आसपास। उम्र के साथ उसकी नींद के कम होने के कोई आसार नहीं थे। कई बार वह चकित होकर सोचती, उसकी नींद घटने के बजाय बढ़ी क्यों होगी?
सवेरा भले ही कब का हो चुका हो, उन्हें मगर बाहर के इस कोहरे की कोई जानकारी न होगी। सवेरे-सवेरे उसे आया देख, उन्हें चमत्कार होने जैसा लगेगा। घर में इस वक़्त कोई भी उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा होगा। केशरमाँ तब भी कह सकती हैं – मुझे लग रहा था, हो न हो तू आ रही है – तभी दिखाई दे गया था उसे वह घर, कोहरे में तैरता हुआ जैसे कोहरे से उतरा आया हो। अकेला एक घर, बिना आसपास के और अपने झरोखेनुमा छज्जे से पहचान लिया गया था।
घर में दाखिल हुई तब केशरमाँ बोल रही थीं–
-ए मने बंगला रा अस्पताल में नाँक्याव … ए मने घूरा पे फेंक्याव …
उनके कमरे में कोई होगा उसने सोचा था, अभी जब वह बैठक में ही थी, था कोई नहीं। वे बोल ऐसे रही थीं जैसे वह व्यक्ति या वे लोग जिनसे वे ये सब कह रही थीं, उनके कमरे में मौजूद हों, ठीक उनके सामने और सदा रहते हों हाजराहुजूर।
उन दिनों उनके हुजूर में हाजि़र तो कोई भी कभी भी हो जा सकता था। जिन्हें वे याद करें वे लोग इस शहर में हों, देस में हों, बिदेस में हों, इस दुनिया में हों या किसी भी दुनिया में न हों इससे कोई फर्क न पड़ता।
उनकी ज़बान पर जिस किसी का नाम आ जाता, उसे जिन्न की तरह तत्क्षण प्रकट होना पड़ जाता।
या फिर केशरमाँ को सदा के लिए इलहाम हो चुका था कि उस कमरे में उनके बोलने को, कोई भी, जहाँ कहीं भी वह हो, रहते हुए सुन सकता है और किसी भी समय सुन सकता है –
– चाहे हज़ारों साल पहले यमराज से तर्क करती सावित्री की आवाज़ हो,
– चाहे साठ साल पहले सार्वजनिक सभा में बोल रहे महात्मा गांधी की आवाज़ हो,
– चाहे आज, इस वक़्त अपने कमरे में, अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे लगातार बोलती रहने वाली केशरमाँ की आवाज़ हो।
उनका कमरा उस घर के ऐन बीचोबीच था। कमरे में उनका बिस्तर था जो सदा बिछा रहता था। झड़ने के लिए दिन में एक बार उठता और फिर बिछ जाता। बिस्तर के अलावा उनका सफेद टीन का बगस, चूने-तंबाकू-सुपाड़ी का डिब्बा, पीकदान, पैन, उनसे मिलने आने वालों के लिए बिछी दरी, दीवार से सटी दो कुर्सियों के अलावा छोटे केतन की अलमारी रखी थी। पोर्चवाली दीवार में दो खिड़कियाँ एक साथ थीं, जिसके एक या दो पल्ले गरमियों में खुले मिल जा सकते थे।
उनके कमरे की एक दीवार से लगा-लिपटा था केतन का संसार और दूसरी दीवार से सटे गलियारे के पार बड़े सुमेर का। उनका कमरा एक बेटे के संसार से दूसरे बेटे के संसार में आने जाने का गलियारा था, या यह कि केशरमाँ का कमरा उन दो संसारों के बीच झूलता ऊर्णनाभ का एक झोला था। देर शाम से देर सुबह तक वह केतन के संसार में शामिल रहता और ढलती सुबह से ढलती शाम तक सुमेर के संसार में। दोनों की रसोई अलग थी, वे दोनों के साथ रहतीं और खातीं थीं। बल्कि रहतीं तो वे किसी के भी साथ नहीं थीं न अपने न किसी दूसरे के।
सुबह की चाय, दूध और खाना उन्हें घर से स्कूल और स्कूल से घर के बीच की भाग-दौड़ में लगी रहने वाली छोटी रत्ना खिलाती।
बिस्तर तक पहॅुंचने से पहले याद आ जाने वाले रत्ना के कामों की कोई न कोई सूरत फिर भी निकल आती। एक बार वह लेट जाए उसके बाद याद आने वाले कामों का कोई भविष्य नहीं हो सकता था। उसका दूसरा दिन, पहले से ही इतना खचाखच भरा होता कि बीते दिन के छूटे कामों को वह पास फटकने भी न देता।
सुबह की उसकी नींद अक्सर पानी आकर चला न गया हो कि चिंता से खुलती। बाकी दिन भी किसी न किसी चिंता के धक्के से आगे बढ़ते-बढ़ते रात में फिसल जाता। रत्ना का दिन दूसरों के बच्चों को पढ़ाने में बीतता और रात अपने बच्चों को पढ़ाने से शुरू होती। बीतती यों तो सोने में तब भी सुबह-सुबह सोकर उठने की ताज़गी के बदले पढ़ाकर लौटे होने की थकान होती।
असली गड्ड-मड्ड का पता तो उसे पहली बार तब चला, जब एक दिन उसने कक्षा में जाकर पढ़ाना शुरू किया। अपने पढ़ाने की शुरूआत वह पिछले दिन पढ़ाई कविता, कहानी या निबंध से संबंधित सवाल पूछने से करती। सवाल पूछने पर जब किसी ने हाथ नहीं उठाया तो उसने पूछा ‘‘क्या हुआ भई? क्या किसी की समझ में नहीं आई कविता?”
उनमें से एकाध किसी का या दो-चार का ध्यान तो भटक जा सकता था। पूरी कक्षा का ध्यान बहकाने के लिए स्कूल में या स्कूल के आसपास किसी हंगामेबाज़ घटना का घटित होना ज़रूरी था और ऐसी कोई घटना उनके पीरियड़ के दौरान नहीं घटी थी। उनका पीरियड़ संपूर्ण शांति का काल था।
उसने नियमित कक्षा में आने वाले और ध्यान से सुनने वाले, कभी भी किसी भी प्रश्न का उत्तर न देने वाले अतुल से पूछा, ‘तुम बताओ, कविता तो तुम पढ़ाने से पहले ही पढ़ लेते हो।’
‘लेकिन मैड़म यह कविता तो आपने अभी पढ़ाई ही कहाँ है?’
अब बारी रत्ना के चकित होने की थी – ऐसा हो कैसे सकता है? इस कविता को मैंने पढ़ाया है! चकित वह चकित कक्षा को देखते-देखते हँस पड़ी। ओह! कल कविता को खुद मेरा पढ़ना पढ़ाने की तरह याद रह गया होगा!
उस वक़्त भी बात बच्चों के गले उतरी हो न उतरी हो, रत्ना के गले कतई नहीं उतरी थी। उसे अच्छी तरह याद था कि उसने कविता को खुद नहीं पढ़ा था, कक्षा में पढ़ाया था। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
असली संकट तो तब उपस्थित हुआ जब रत्ना ने किसी एक दिन केशरमाँ को चाय तो किसी दूसरे दिन खाना नहीं दिया। और उसका नाम लेकर उनके पुकारने को उनका स्थाई भाव मानकर काम में बझी रही। फिर खुद खाकर स्कूल चली गई।
खाना न देने की शाम को बड़ी वाली नीता ने पूछा भी ‘‘क्यों रे आज क्या हुआ तुझको केशरमाँ को खाना क्यों नहीं दिया? अभी चार-पाँच दिन पहले चाय नहीं दी थी।
खाना तो मैंने सबसे पहले उन्हीं को दिया था!
हालाँकि थाली उठाने की याद उसे नहीं आ रही थी।
खाना खाने के बाद केशरमाँ घिसटती हुई आकर थाली दूसरे कमरे के दरवाज़े पर रख जातीं कि भागती-दौड़ती रत्ना को भीतर तक न आना पड़े। शाम को थाली के दरवाज़े पर न होने की ओर उसका ध्यान गया तो था मगर उसने मान लिया था कि बेटे-बेटी में से किसी ने उठा लिया होगा।
थाली तो मैंने खुद लगाकर पहॅुंचाई थी और पतौड़ रखते हुए ध्यान आया था कि ये केशरमाँ को बहुत पसंद है!
क्या कह रही हो? जब इन्होंने घर आसमान पर उठा लिया तो मैं पहॅुंची कि क्या हुआ माँ?
‘रत्ना ने क्या आज अभी तक खाना नहीं बनाया?’ उन्होंने पूछा।
‘पका लिया न कब का! वह तो स्कूल भी चली गई’ … कहते-कहते मैं दूसरे कमरे तक थाली देखने गई कि कहीं केशरमाँ खाकर भूल तो नहीं गईं? थाली न दरवाजे़ पर थी, न आँगन में! खाना अगर इन्होंने खाया होता तो आधे घंटे में दोबारा न माँगतीं!
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या था? स्कूल में बच्चे कहते हैं मैंने कविता पढ़ाई ही नहीं! नीतादीश् कहती हैं कि केशरमाँ को अमुक दिन चाय नहीं दी, आज खाना नहीं दिया। कहीं सपने में तो … ? सपने में? लेकिन पतौड़ तो सच में बनाई थी! केशरमाँ का तो थोड़ी देर को मान भी लॅूं कि वे भूल जा सकती हैं मगर नीतादीश्? बच्चे? यानी क्या कविता भी सपने में पढ़ाई होगी? उसके भीतर अजीब सी गड्ड-मड्ड मची हुई थी। उसने ज़ोर से अपने सिर को झटका दिया जैसे इसी से सारी गड्ड-मड्ड ठीक हो जाने वाली हो।
वहाँ से उठकर पोर्च से होती हुई सीढ़ियॉं चढ़कर वह छत पर पहॅुंच गई जो कि वह गरमियों की दो-चार रातों और जाड़ों की दो-चार छुट्टियों को छोड़कर शायद ही कभी जाती थी। उसे आसपास की बस्ती भी बदली-बदली लगी। मकानों के बीच से पेड़ों के सिर ऊपर को उठ आए थे। बगल के मकान में लगी झाड़ी में सफेद फूलों के छोटे-छोटे गुच्छे थे। हरे और सफेद का खेल खेलती उस झाड़ी ने छोटे-मोटे पेड़ की शक्ल ले ली थी। कितनी अच्छी सुगंध है? कौन सा फूल होगा? उसे किसी फूल या पौधे का नाम पता न होने का पहली बार अफसोस सा हुआ। उसने पूरी बस्ती पर नज़र दौड़ाई थोड़ी-थोड़ी दूरी पर … लाल और हरे और पीले की घटाएँ थीं। उसे खुशी हुई कि वह उन पेड़ों को पहचानती थी–’गुलमोहर, अमलताश’! वह बुदबुदाई।
आसमान में अभी भी पीले और गुलाबी की झाईं थी। इतना अच्छा लगा उसे कि अपने अक्सर छत पर न आने की बात से भारी अचरज और मलाल हुआ। दिन-रात बस वही पढ़ाना-खाना-कपड़े-बरतन! अब तो रात भी नहीं बची थी। पति की भी कोई एक नौकरी नहीं थी, नौकरियॉं थीं एक फुलटाईम एक पार्ट टाईम। सुबह से रात तक रोज़ का वही का वही सिलसिला–’रत्ना… रत्ना…’ की पुकार से टूटा। केशरमाँ के दरबार में पेशी तो होनी ही थी। उसने कान पकड़ लिये अब से ऐसा नहीं होगा। हालाँकि बोलते हुए उसे पक्का भरोसा नहीं था कि आगे ऐसा फिर नहीं होगा।
नीता के साथ ऐसी कोई घटना कभी नहीं घटी। उसका घर था, पति था, बच्चे थे और वह थी। नौकरी पति के हिस्से थी, घर उसके। उसकी रसोई ठीक केशरमाँ वाले कमरे के सामने थी, पतले से गलियारे के पार। यों कामों का सिलसिला तो उसके यहाँ भी था, भाग-दौड़ नहीं थी। कामों के बीच में मध्यांतर भी थे, कभी एक झपकी नींद का, कभी बगल की केतकी से गपशप का, कभी किसी टी.वी. सीरियल का, कभी मंदिर या बाज़ार से लौटते माँ-पिताजी से मुलाकात का। सिलाई-कढ़ाई के काम उसके मन के काम होते इसलिए राहत के भी होते। उसके तो काम भी थरता के और स्वभाव भी थरता का।
पति की नौकरी दस से पाँच की थी, इसलिए पति का साथ रात के अलावा सुबह शाम भी। घर में भी और बाहर भी।
केशरमाँ की पुकार का जवाब भी तत्काल हाजि़र–हाँ माँ क्या चाहिए?
खाना, स्पंज, दोपहर की चाय, पानी, बिस्तार की सफाई सब समय पर। उनके पास बैठने भर का समय किसी के पास न होता।
तीसरे यानी सबसे बड़े बेटे को उसकी चाकरी विष्णुजी की नाभि से निकली कमलनाल की तरह ऊपर दिल्ली तक खींच ले गई थी, किसी ऐसे रास्ते पर जो सिर्फ कहीं ले जा सकता था, जो कहीं से लौटा नहीं सकता था। और इस बात का पता भी उस रास्ते पर चलना शुरू करने से पहले नहीं चलता था, एक बार पार करने के बाद ही चलता था। उत्पल ने भी अपनी तरफ से स्त्रियों की ‘पीहर वाट’ (मायके का रासता) की तर्ज़ पर घर वापस लौटने का रास्ता छोड़ा था। यह एकदम अलग बात है कि लौटा वह कभी नहीं, आता और जाता रहा।
इसी तरह पिता का दिया नाम – सुरेश – उसे कभी अपना नाम नहीं लगा। इसलिए सुरेश कहकर बुलाए जाने पर उसे हमेशा लगता, कोई किसी सुरेश को बुला रहा होगा। सुरेश जब मैं हूँ ही नहीं! हो भी कैसे सकता हूँ?
-क्यों रे सुरेश, सुनाई नहीं देता क्या? कब से बुला रही हूँ। कितनी आवाज़ें दे डाली होंगी इतनी देर में तो- माँ की झिड़की नमूँ हो जाती।
किसी दूसरे के नाम से पुकारे जाने के इस झमेले से स्थाई तौर पर निजात पाने के लिए उसने एक दिन अचानक अपना नाम बदलकर उत्पल रख लिया।
उत्पल बैनर्जी ही नहीं उत्पल मेहता, मेहरा, बक्षी, शुक्त्थंकर या कुछ और भी हो सकता था। उसे अपना गोवाड्या सरनेम भी अपने नाम की तरह ही नापसंद था। मगर नाम की तरह सरनेम को बदल लेना आसान नहीं था। यों उसने अपने नाम के साथ कई सरनेम लगाकर देखे कि कौन सा उस नाम के मेल में हो सकता था? उसने मान लिया था कि गोवाड्या के बदले कुछ और मसलन दवे, महर्षि, मेहता जैसा कुछ हो सकने की कोई संभावना नहीं थी। किसी स्थान विशेष, जाति विशेष, कुल गोत्र विशेष में पैदा अगर आप हुए हैं तो इसमें आप कर भी क्या सकते हैं? इसका सीधा संबंध सरनेम से था। फिर भी अगर वह अपना मनचाहा सरनेम रख ही ले तो उसका कोई क्या बिगाड़ लेगा! जात बाहर कर देने की धमकी कब की अप्रभावी हो चुकी थी। उत्पल ने सरनेम बदलने का विचार त्याग दिया। उसने अंततः अपने सरनेम से छुटकारा पा लेना ही चुना। वह सिर्फ उत्पल हो गया। असली महिमा तो नाम और रूप की ही थी।
‘घाट घडिया पछी नाम-रूप जूजवा
अंते तो हेमनुं हेम होए’
(घाट-आकार गढ़ने के बाद ही अलग पहचान बनती है, नाम रूप से। आखिर में तो सब सोना ही सोना रहता है।)
उसने पाया कि नाम ही काफी था, उससे अधिक की ज़रूरत नहीं थी।
उत्पल बोलना और बुलाया जाना उसे अच्छा लगता। नाम से बुलाये जाने के अवसरों की कमी नहीं थी अपना नाम बोलने का कोई न कोई मौका तो वह खुद भी जुगाड़ ही लेता, ऊपर से पूछता भी – नाम में क्या रखा है उत्पल मेहता?
अगर नाम में कुछ रखा न होता तो तुम क्यों बदलते अपना नाम? सुरेश के सुरेश बने रहते।
इस बात से मानू एकदम सहमत थी। जब कपड़े बदलने तक से (साड़ी के बदले सलवार-कुर्ता पहनने से या जींस शर्ट पहनने से) चाल बदल जा सकती हो तब नाम बदलने से तो जाने क्या-क्या बदल जा सकता था! फिर नाम तो नाम था कपड़ा नहीं था।
उसकी कद-काठी उसका समूचा होना जैसा जो कुछ भी वह था उस होने का नाम अगर उत्पल था तो वह सिर्फ उसका नाम ही नहीं था उसके सुरेश से लगाकर कुछ भी और होने का निषेध भी था।
बात करते हुए कभी भी वह अपने नाम के साथ कोई भी सरनेम जोड़ लेता– उत्पल मेहता, या तो नौकरी का चक्कर चला लो या लिखने-पढ़ने का, दोनों तुम्हारे बस के नहीं।
बस के हों न हों गृहस्थी का चक्कर तो इस बात का पता चलने से पहले ही चला चुके थे, इसलिए नौकरी के चक्कर से कोई छुटकारा नहीं। लिखने-पढ़ने का चक्कर चलाना हो चलाओ वर्ना छोड़ दो, विकल्प अगर कहीं कोई था तो बस इतना ही था।
हालाँकि उत्पल को पता था कि कोई विकल्प नहीं था। पढ़ने-लिखने के चक्कर ठप्प हुए नहीं कि बाकी सारे चक्करों का ठप्प हो जाना भी तय था। यानी बाकी चक्करों के चलते रहने के लिए लिखने पढ़ने के चक्कर का चलना अनिवार्य था।
यों रूका तो आज तक कुछ भी नहीं था उत्पल का, चीज़ों के चलने की रफ्तार बदलती रही थी हर बार।
किसी भी चीज़ के स्मृति बनने का सिलसिला अभी उत्पल के भीतर बनना शुरू हो पाता और उसमें माँ का चेहरा टिक पाता, इससे पहले ही उसके जीवन से माँ अलोप हो गई थीं। वह कुल नौ-दस महीने का रहा होगा। मिलने को तो ऐवज़ में दो-दो माँएँ मिलीं केशरमाँ और चंदनमाँ और वह हाथ ही हाथ में रहा आया। उत्पल के उन दोनों की गोद से धरती पर पैर रखने और चलने, दौड़ने, खेलने के क्षण उसके और धरती के भी सुख के क्षण होते। धरती पर वह अपने पोले-पोले पैरों से ऐसे दौड़ता कि पैर जमीन पर कम हवा में अधिक रहते, धरती को ज़रा सा छूकर उपर को उठ आते।
उसके सुख का एक भी क्षण ऐसा नहीं था, जिसमें माँ के न होने की छाया न पड़ी हो।
केशरमाँ की कहानी के बच्चों की तरह उसका भी मन पूछने को करता–
‘कुवारे कनारे करमदी/
जार्या विचली बोरड़ी/
वाड़ा में री वेल वड़ी/
माँ ए माँ तुं क्याँ गई?’
कहानी की माँ तो जहाँ कहीं जाती हर बार अपना नया अता-पता बताती जाती अपने बच्चों को कि कॅुंए के किनारे करौंदी होऊँगी, कि जाली के बीच-बीच में बेरी का पेड़ होऊॅंगी, कि बाड़े में ककड़ी की बेल होऊँगी, कि राजाजी के घर में बेटी होऊँगी और जब तक तुम आकर मुझे झुला नहीं झूलाओगे तब तक मैं चुप नहीं होऊँगी।
उत्पल की माँ ने तो एक बार भी नहीं बताया था, अपना एक भी पता-ठिकाना। वह ढॅूंढता तो आखिर ढूँढता कहाँ माँ को।
उन दिनों उत्पल के जीवन में यह एक आम बात थी कि सड़क से गुज़रते हुए जो भी स्त्रियॉं उसके आसपास से गुज़र रही होतीं, उनमें से किसी एक को वह अपनी माँ मान लेता और उसके पीछे-पीछे या साथ-साथ चलने लग जाता, निश्चिंत होकर ऐसे जैसे अपनी माँ के साथ चल रहा हो।
इतना निश्चिंत हो जाता कि उसकी बगल में या उसके आगे चल रही वह स्त्री जिसे उसने अपनी माँ मान लिया था, वह कब, कहाँ चली गई, उसे छोड़कर, इसका पता उसे बिलकुल भी न चल पाता। बीच सड़क पर खड़ा होकर वह चारों ओर घूमता हुआ, उसे ढॅूंढने लगता।
उसकी माँ तो शुरू में ही गुम गई थी।
उसके रास्ते में जो भी मंदिर पड़ते उसके पैर उनकी दिशा में मुड़ लेते। सुबह शाम यहाँ तक कि दोपहर भी स्त्रियाँकथा सुनने पहुँच जातीं मंदिर में और वह भी पहुँचता इसी उम्मीद में कि हो सकता है उसकी माँ उसे वहाँ मिल जाए। इसी लालच में वह हाट-बाज़ार के भी चक्कर दिन में कई बार लगाता रहता कि एक दिन वह उसे अचानक मिल जाएगी, सड़क चलते जैसे अभी-अभी कुछ देर पहले मिली थी और अभी अभी फिर खो गई थी।
वह हमेशा सोचता कि कभी अगर माँ मिल गई तो वह उसे पहचानेगा कैसे?
सड़क चलती स्त्रियों में से जब वह किसी को अपनी माँ चुनता तो सबसे पहले यह देखता कि उस स्त्री की साड़ी किनारे वाली (बॉर्डरवाली) है कि नहीं, पल्ला सीधा और बड़ा है कि नहीं और साड़ी खादी हो न हो सूती है कि नहीं?
उसकी माँ की एक तस्वीर थी पिताजी के साथ। माँ बगल में खड़ी थी और पिताजी बैठे थे कुरसी पर। उसमें माँ के नाक नक्श उतने साफ नहीं थे कि अलग से याद रह जाएँ। माँ का पहनावा और शरीर का आकार-प्रकार एकदम पहचान में आ जाता था। एक और खास पहचान थी उसकी ठोड़ी पर गोदने के चार बिंदु थे जो शकरपारे का आकार बनाते थे। जब भी वह माँ की तस्वीर देखता उसे गोदने का यह शकरपारा अलग से दिखता लेकिन उसे अभी तक एक भी ऐसी स्त्री नहीं मिली थी जिसकी ठोड़ी पर ऐसा गोदना हो। हाँ माँ जैसे पहनावे वाली एक न एक स्त्री तो उसे सड़क पर, मंदिर में, हाट-बाज़ार में और कभी-कभी सिनेमा में भी ज़रूर दिख जाती। सिनेमा में की स्त्री को सिर्फ देखा जा सकता था और मन ही मन धीरे से बुदबुदाने की तरह पूछा जा सकता था तुम मेरी माँ हो? सड़क चलती, मंदिरवाली और हाट-बाज़ार में की स्त्री को बिना कुछ पूछे-गाछे उसके साथ हो लेने की सुविधा हो सकती थी–
’केवी हशे न केवी नहीं (कैसी होगी और कैसी नहीं)
माँ मने कोई दी सांभरे नहीं’ (माँ मुझे कभी याद आती नहीं)
अपने नाम की तरह उसे नानी का नाम नाथी और पत्नी का नाम मेना भी पसंद नहीं था। पसंद हो न हो, नानी के नाम का तो वह कुछ नहीं कर सकता था। पत्नी के नाम के साथ कुछ भी कर सकने की छूट उसे थी इसलिए पहली फुर्सत पत्नी का नाम बदलकर उसने नीलाँज्ना रख लिया था। यों उनके यहाँ स्त्री का घर और सरनेम बदलने के साथ उसका पहले का नाम बदलने का चलन नहीं था। कम से कम नाम की निरंतरता आने वाले जीवन में भी बनी रहने की संभावना तो थी। यह अलहदा बात थी कि उसने मेना का नाम नीलाँज्ना उसकी सहमति से रखा था और वह उसे नीलाँज्ना बनाने में जुट गया था यानी उसे पढ़ाने-लिखाने में। इसके लिए समय दिन में तो निकल नहीं सकता था, यानी जो रात उनके पास थी, उसी में से पढ़ाने-लिखाने के लिए भी समय जुगाड़ना था। रात ग्यारह बजे से सुबह साढ़े-चार बजे के बीच ही होती थी रात, बाकी सारा समय दिन में शामिल माना जाता। अब उतनी सी रात में आप जो मरजी कर लो। जबकि वह आए दिन चिल्लाता पाया जा सकता था कि- तीन तीन औरतें हो तुम लोग घर में, आखिर इतना कितना काम होता है कि सुबह साढ़े चार से रात ग्यारह बजे तक खतम ही नहीं होता।’ जब आती है नीलाँज्ना तो मेरे किसी काम की नहीं रह जाती। नीलाँज्ना के लिए तो बोलने की कोई जगह न बचती। सुबह से चक्की पीसे, दो सीढ़ियॉं चढ़कर पानी लाए, कपड़े धोए, बरतन माँजे, घर लीपे-छोपे, खाना पकाए कि पढ़े-लिखे! कुल जमा पंद्रह साल की मेना कितना भी चाहे, कितना भी करे, वह बरायनाम ही नीलाँज्ना हो सकती थी।
बहुत बाद में उत्पल को पता चला कि उसकी पत्नी मेना थी और वह मेना के अलावा कुछ और – मसलन नीलाँज्ना नहीं हो सकती थी। अपने और मेना के आखिरी दौर में तो उसने उसे मेना कहकर बुलाना शुरू कर दिया