आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अस्तु का तु: प्रत्यक्षा

अस्तु को एक ऐसा घर चाहिये, जो जब वो चाहे,हो, जब न चाहे, न हो
उसे तो आसमान भी होना है और चिड़िया भी,पानी भी होना है और मछली भी
आसमान और संति में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है.ये दोनों साथ साथ हो सकते हैं

अगर किसी किताब से मोहब्बत न हो तो ये पंक्तियाँ बड़े उदास बेमतलबपने में आप तक आती हैं ।

अ अस्तु का… उपन्यास है जिसका शिल्प बँधे बँधाये लीक को अनावश्यक करता एक सरल प्रवाह में बहता है. इसका फॉर्म कहानी और पात्र के परे है, घटनाओं और  संवाद के परे है. पात्र अगर हैं तो अपने सांकेतिक उपस्थिति में हैं, घटनाये हैं तो संदर्भ के तौर पर हैं, संवाद है तो एकालाप के रूप में है और उन सब को लेकर एक कैनवस रंगा गया है. छोटी रोज़मर्रा की घटनाओं और अनूठे बिम्ब की उँगली पकड़  मन के बीहड़ गहरे अतल में उतर जाने की कथा है, जहाँ कभी आसमान है, घर है, चिडिया है, कभी अँधेरा है, बेचैनी और हाहाकार है, दुख है तकलीफ है..तो बस ये कहें कि यह किताब एक पूरा मन है, भरा पूरा, उतना ही खाली जितना कि होना चाहिये और उतना भरा जिससे कि खाली का खालीपन ढनढन बोले,उसके बोल गूँजे..शरीर के भीतर अनुगूँज ऐसे विचरे जैसे आसमान में चक्कर काटता कोई बाज़,गोल गोल लगातार ।

अस्तु कौन है ? एक स्त्री से ज़्यादा उसका मन है, स्त्रियों का सामूहिक मन.उस अर्थ में फीमेल इमोशनल जेंडर का प्रतिनिधित्व करता हुआ,बाहरी से ज़्यादा भीतरी.उसकी वर्जनायें,उसकी सोच,उसका मन सब किसी कंडीशनिंग के भीतर कैद मन है.जो कई बार स्थूल होता है,मूर्त होता है.फिर बाज़ वक्त किसी ऐसी खिड़की से खट बाहर निकल जाता है,इतना फैल जाता है कि निस्सीम हो जाता है..ऐसा है अस्तु का मन,उसकी दुनिया.ऐसी है औरत की अंतरंग दुनिया ।

ज्योत्सना मिलन का यह उपन्यास उस मायने में अ-कहानी है.जैसे उन्होंने तय किया हो कि इस किताब में  वो पारंपरिक  तत्व नहीं होंगे.फिर सब बँधन को तोड़ देने के बाद उन्होंने ऐसे लिखा जैसे कि मन सोचता है,यहाँ से उड़ कर वहाँ ,फिर कहाँ कहाँ.शुरुआत में ऐसा लगता है कि कोई साहजिक बहाव है,बिना किसी तैयारी के,फिर क्रमश: ये बात अंदर पैठती है कि इस सेमल के बीज के से जंगली बहाव में भी एक बीहड़ और महीन किस्म का नियंत्रण है. एक ऐसा रियाज़ है इसके पीछे जो अपनी सहज सरलता में उसके पीछे के काम को अद्र्श्य बना देता है.

साधारण रोज़मर्रा की घटनाओं में असाधारण तत्वों से एक ऐसी बुनावट है जिसकी कारीगरी बहुत पास से देखी नहीं जा सकती.उसे देखने के लिये कुछ दूरी ज़रूरी है.उस दूरी से तस्वीर का पूरापन अपने समूचे मायने में दिखता है.लेकिन जब तक ये दूरी नहीं आती,अस्तु अपने साधारण पने में,अपने दिमागी उलझावों में एक अजीब किस्म के भोलेपन से ग्रसित दिखती है.सब कुछ इतना सरल है और इतने उलझाव भरा फैलाव लिये है कि कथ्य की रोचकता गायब हो जाती है.ये सच है कि ज़रूरी नहीं कि सिर्फ बाह्य कहन की कथा ही हो,ये भी ज़रूरी नहीं कि पात्र किसी घटना से बँधे कोई व्यवहार करें,या ये कि भावों के रस से डूबा सराबोर कोई प्रसंग हो..लेकिन ये तो सच है कि भीतरी गूढ़ रहस्यों की यात्रा में कोई तार,कोई तरंग का स्पर्श हो.अस्तु के साथ ऐसा होता है,कई कई बार होता है,लेकिन हर बार पकड़ में आने के पहले ही छूट छूट भी जाता है,भीतर गहरे हृदय को छूने के ठीक पहले कहीं और चला जाता है.जैसे ही हैरानी भरी खुशी होती है,लगता है कोई साझा तार झनझना उठा या फिर कोई शार्प इंसाईट चमत्कृत करे, एकदम से शब्द किसी गौरैये सा फुदक कर किसी और ठौर बैठ जाते हैं और ऐसे में किसी अधूरे छूटे स्वाद सा कुछ अनकहा अन छुआ रह जाता है ।

बहरहाल इतने सब अधूरेपन के बावज़ूद,अस्तु जो नहीं कहती और नहीं सोचती या जिसे ज्योत्सना मिलन ने नहीं लिखा कहा,उस सब अनकहे की भी एक कहानी है जो बेहद महत्त्वपूर्ण है.तस्वीर में जो नहीं दिखा उसकी अहमियत उसका भाव भी एक तरीके से सिलसिलेवार ठोस तरीके से उभरता है.जैसे अस्तु का तैरने वक्त कपड़े न उतार पाने की विवशता,और इसके बरक्स आजी का ये कहना कि औरत इसलिये मोक्ष नहीं पा सकती क्योंकि वह अंतिम कपड़ा नहीं फेंक सकती.अस्तु का मन इस बात को कितने भी मोलभाव करके न स्वीकारे,कहीं ऐसी बात संस्कारगत बीज के रूप में उसके अंतरतम में गहरे धँसा है.

“औरत औरत ही है और अधिक से अधिक एक पुरुष हो जाने की कामना कर सकती है “.अस्तु का मन इस बात को नकार दे लेकिन उसकी परिस्थिति उसे ठीक ऐसे ही परिवेश में कैद रखती है.उसके मन की उड़ान किसी ठोस भाव में परिवर्तित हो ऐसा नहीं होता.मानसिक जद्दोज़हद की एक बेहद अमूर्त वायवीय कहानी बन कर रह जाता है यह उपन्यास.साँस,घर,मोक्ष,शुरुआत..ऐसे आत्मालाप कोई विहंगम दृश्य फिर कहाँ रच पाते हैं.हो सकता है ये एक औरत,हर औरत की भावात्मक कहानी हो लेकिन इस मन की नियति फिर कहाँ है ? “सबकुछ खत्म हो जाने के बाद भी आसमान तो बचा ही रहता था “ यही नियति है और यही आशा है,तो इतना काफी नहीं.शुरुआत कहाँ है ये तो पता है,“अ” अस्तु का,लेकिन इसका अंत किन दिशाओं में जायेगा ये न तो अस्तु को पता है न उन सारी औरतों को जो अस्तु हैं,जिनका मन ऐसे ही भटकता है,किसी बेचैन बँधन में,किसी चारदीवारी के भीतर,जो आसमान और बादल और चाँद और हवा से दोस्ती करती हैं इसलिये कि वास्तविक दुनिया में उनका कोई संगी नहीं,कि उन्हें आभासी बन्धुओं की खोज है,कि सच यही है और इसलिये तमाम उड़ान के बावज़ूद बेहद त्रासदायक है.त्रासदायी इसलिये भी है कि अस्तु की आश्वस्तियों के बाद भी इतना साफ है कि ये आश्वस्तियाँ ऐसी औरत की हैं जो उन नियमों के भीतर ट्रैप्ड है और उसकी सारी कामनायें उन दायरों के भीतर बँधी हुई चाहतें हैं.

ज्योत्सना मिलन की भाषा में तरलता है.उनके वाक्य छोटे छोटे बनते हुये एक सिरे से दूसरे सिरे तक खूबसूरत चक्करघिन्नियों में घूमते हैं.इस घुमाई में ताज़गी है,भोलापन है.इतना कि अस्तु के मन पतंग की उड़ान संग संग बहा ले जाती है.उनके शब्द बेहद अलग बिम्ब रचते हैं और कुछ ऐसे प्रवाह से रचते हैं कि सब सहज स्फूर्त बहता है बिना हड़बड़ी के,एक नादान भोलेपन से जैसे बच्चे के हाथ में चरखी.ये इस भाषा का कमाल है कि लगभग डेढ़ सौ पन्ने का यह उपन्यास पहली पढ़ाई में पानी की तरह फिसल जाता है.और इसके भाव सतह पर फूलों जैसे तैरते हैं.लेकिन शायद यही चीज़ उसको कमज़ोर भी बनाती है.उसकी गहराई को छिछला करती है.उसकी बुनावट ही कुछ ऐसी है कि ठहर कर इंट्रोस्पेक्शन के बजाय आगे बह जाने को बाध्य करती है.जबकि उपन्यास की संरचना ऐसी होनी थी कि ठहर कर डूबने का एहसास लगातार होता रहे.

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अठारह साल बाद ये किताब दोबारा छपी है.महत्वपूर्ण ये कि इतने वर्षों बाद अस्तित्व की पड़ताल उतनी ही सामयिक है, शायद हमेशा रहेगी.मन के परतों को प्याज़ के छिलके सा उतारने पर,आँसू निकलेंगे ही,फिर हर परत उघड़ने के बाद नीचे क्या निकला का चमत्कार भी है.लेकिन किसी तीखे अवसाद का स्वाद नहीं है, किसी आह्लाद का इन्द्रधनुष नहीं है.किसी और के मन की कहानी ही बना रहता है,सबके मन की कहानी बनने से बस रह जाता है.

किताब के छपने के समाजशात्रीय पहलू भी गौरतलब हैं.ऐसी किताब जो हिन्दी साहित्य समाज के बँधे बँधाये परिपाटी से अलग चले,जिसमें शिल्प की संरचना ऐसी हो जो विस्तार ही विस्तार दे,जो हर नियम के विरुद्ध हो,जो पूरे तौर से डीफॉर्मटेड हो वैसी किसी भी चीज़ के स्वागत में उमगने की  परिपाटी हमारी भाषा में कहाँ है.उस लिहाज़ से यही बात बेहद उत्साहजनक है कि इस किताब की छपाई इतने वर्षों बाद फिर हुई है.किताब को दोबारा रीइन्वेंट करना इसलिये भी रेखांकित करना चाहिये कि इस तरीके से शिल्प और कथ्य की तोड़ फोड़,कहन विधा को जीवंत बनाती है और उसका स्वागत होना ही चाहिये.हार्पर कॉलिंस इसके लिये बधाई का पात्र है ।

मन रमने रमाने का संसार हमेशा हमारे साहित्य में पेरीफेरल रहा है.तथाकथित आलोचक समय और समाज का एजेंडा तय करते हैं और जो चीज़ें इन तयशुदा दायरे के ईर्दगिर्द घूमती हैं वे स्वीकृत होती हैं बाकी उनसे इतर जितनी भी दुनिया है उसकी उपस्थिति नोक भर होती है.किसी भी भाषा के साहित्य की ज़रूरत अपने समय के अंतरलोक और बाह्यलोक के बीच एक सिम्फनी पैदा करने की होती है.ऐसे समय में अ अस्तु का का एक अंतराल बाद फिर आना एक विश्वास पैदा करता है.और ये उम्मीद भी जगाता है कि इसी तरह कई और किताबें जो अब विलुप्तप्राय हैं..शानी का शालवनों का द्वीप या फिर कुर्तुल एन हैदर की गर्दिशे रंगे चमन,राही मासूम रज़ा की छोटे आदमी की बड़ी कहानी..दोबारा सर्कुलेशन में आयेगी.

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और अंत में एक ताज़्ज़ुब भरा सवाल ये भी कि ज्योत्सना मिलन ने इसके आगे कोई उपन्यास क्यों नहीं लिखा?

One comment
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  1. poore pathan me doosre hisse ka antim paragraph khasa generalized hai…alag-alag anek pustaken padhte hue yh shikayat log karte hain…uska yh siddh nahi ho jata ki paath ke baad ki unki shikayat zayaz hai…iski ek ulatwansi yah ho sakti hai ki achhi kitaben ya rachnayen आलोचक naam ke jeew ki mohtaz hi nahi hoti…kyon…?…bahrahal…a astu ka k bare me meri rai ulatwnasi likhne k poorw k ishare k vipreet samjhi jaye…

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