कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा: मनोज कुमार झा
औसत अंधेरे से सुलह
पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक
सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ
समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह
सभय झाँकती बच्ची नहानघर में
कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश –
कहते उतर गई उस धुँवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे का सारा परिमल
शेष पंखड़ियाँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर ।
बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष
नृत्यलीन बली देह
सधन तम को मथ रही थी
व्योम शिल्पित, धरा शब्दित ।
मैंने आँखें मूँद ली
लथित पतित औसत अंधेरे के कुँए में
नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में
जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूंढ़नी थी।
यात्रा
मैं कहीं और जाना चाहता था
मगर मेरे होने के कपास में
साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल ।
इतनी लपट तो हो साँस में
कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा
कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल
मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था
नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना
बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ ।
पुर्नजन्म के पार
कट कट जुड़ता रहा नेहनाल
अकेला न होने दिया
कभी बारिश तो कभी धूप ।
धरती देती रही छाया उगने भर भूमि
तुम्हारे पंख खोलने का स्वर बादलों में अब भी बजता है
धूप में अब भी दिपता है बसंत को दिया तुम्हारा कंगन ।
कभी बादल हो रहा समुद्र हुआ
तो कभी समुद्र हो रहा बादल
समय के हिलते हाथ में दिखते रहे सूख गई नदियों के शंख-पद्म।
पीयरा रहे पत्तों के धीरज से भी हरा हमारा धीरज
मगर कब तक ढ़ोते रहें पिछले जन्मों के मुकुट
आओ गल जाएं इस हिमालय में।
तटभ्रंश
आँगन में हरसिंगार मह मह
नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर
पिता निकल गए रात धाँगते
नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप
पानी ढ़हा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाये आया मइटुअर सरंगी लिए
माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का और ताकने लगी मेरा मुँह
ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का
पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा होगा साँसों का जाल
उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह
जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर
सजल कहा माँ ने – यों निष्कम्प न कहो रणछोड़
उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से ।
स्वदेश
टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढहे स्कूल से लाई गई मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर
कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा, पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के
बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना
नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ, कुछ भी नहीं उठाने के काबिल
कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित घर ढूँढ़ता है थोड़ी सी ललाई
अभी तक खाली रही रात, सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिन्ती
मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी
मगर भीतर भी तो वही आधा सेर चूड़ा दो कौर गुड़ कुछ गुठलियाँ इमली की
सबको पता ही तो है कि किसके चूल्हे में कितनी राख
एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की दीवार की नोनी
एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी-उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे, उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे
जिसने भगाया मटर से साँड़, वहीं तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा
माटी के ढ़ूंह से उठते रंग बदल के सिर- कभी घरढ़ुक्का, कभी धरैत
चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी,दो जने नोत दिया हो गया भोजैत
जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू वो सूँघ रहा है बरातियों के जूठे पत्तल
एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी
फिर लौटना होगा खाली हाथ- भीगी साड़ी से पोछता है माथा
सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा
मुनिया की माई का भी था उपास, रखी होगी अमरूद की एक फाँक
या उसी का है घर जिसे डँसा विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते
नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी किसी सिनूरिया की आखिरी पहिरन, पहली उतरन किसी मसोमात की
इतना गफ सनाटा — धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस
कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़, चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोवन
कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी
किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा
चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ तो क्या यही अब प्रेतों का चरोखर
लौट जाता हूँ घर, लौट जाता हूँ मगर किस रस्ते – ये पगडंडियाँ प्रेतो की छायाएँ तो नहीं।
Manoj Jee
Apke his Shabdon mein Kahoon to Kavita ki arthawatta kholni parti hai, kavitai to wahi hai. Main apni baat fir se duhara doon, jo ki apki kucch kaviaon ko padhakar maine kaha tha ki unme lokpriyata ke jyada tatav the, isliye padahi Yaad tatha quote ki jayengi.
Bhai waise bhi Durutar Samay ko Kavita kahegi kaise, waise hi jaise apki kavita kahti hai. Main Kavitaon ka bahut bada pathak to Nahin Hoon lakin Mujhe we Kavitayein Jyada Appeal Karti Hain Ya kahein Samajh mein Aati Hain Jinme Katha Ho. Isiliye Tatbhransh aur Swadesh Ko main punah Punah Padhunga jab bhi Pratilipi Visit karta hoon.
Phir Main Jitna Kavita padhta hoon, Jitna uske Barre mein Sudhi Jano se sunata hoon us Adhar par main Kah sakta Hoo,’ Aap Hamare Samay Ke pratinidhi Kavi Hain.
sanjeev bhai,
shukriyra.tatbhransa me maine is samay ki kathaheenta se joojhne ki koshish ki hi,jankar khushi hui ki isme apke kathakar ko katha dikha.punah shukriya.
भारतभूषण पुरस्कार के लिए बधाई
gaawon ki sahaj bhasha aur ghar ,aangan,khet-khalihan ke we sare shabd jise pad-sun kr antarman ullsit ho jaye ……………..aapki kavya-shailiki ko ek khas aayam de rahe hain…aur kavita ko bhi.
samkalin kavitaon se jo kuchh chhutataa ja rha tha use puri sookshamataa se pakdne ki jaddojahd hai aapki kavita .badhai…….bahut bahut badhai.
manish,wardha.
बस एतवे कहब अहाँक साधना अगम-अपार अछि हम माथे टा निहुँरा सकैत छी….