आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

दस हंगारी कवि

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ऑलॉदार लास्लोफ़्फ़ी

हाझोंगार्द कब्रिसतान, नं, २६५५

तीन अंश

(कोई)

कोई घूम रहा है कब्रों के बीच इधर से उधर, मानो
तलाशता, गुपचुप नज़र डालता, बाँचता, चीन्हता –
बूझता, सोचता ये-वो, और उसका तीसरा पहर
बीतता जाता है तीसरे पहर में, उसका बरस बीतता
जाता है बरस में, और उसका जीवन भी बीतता
जाता है महा जीवनहीनता के भीतर।
कोई घूम रहा है कतारों के बीच, मानो तलाशता।

(याद)

ऐसी कोई क़ब्रगाह नहीं है जिसमें रिहाइश रही हो
हमेशा। पूछो, कहाँ गये वे सब जो रहते थे यहाँ
इस कस्बे में पाँच सौ बरस पहले – कहाँ गये?
क़ब्रिस्तान में। और वे जो सोते थे इस क़ब्रगाह
में पाँच सौ बरस पहले, कहाँ गये वे सब?
मौत के यहाँ। और कहाँ चले गये वे मौत के यहाँ से?

(ख़ामोशी)

दुनिया के किसी भी क़ब्रिस्तान से अलहदा है यह। काले मक़बरे
के ऊपर एक शाखा पसरा रही है अपना पंख, गोया
समाधि-लेखों पर आ बैठा हो यक उक़ाव। चेहरे नज़र आते हैं,
आकृतियाँ, भीतर, झाड़ियों के पार, एक सलमा-सितारों की,
सुनहरी काया खड़ी है अँधेरे में, पुस्तक या तेग़
को थामे हुए, बिना हिले, बिना चले, आधी रात बीते भी
कोई नहीं घूमता, गोया यहाँ हर एक बस खड़ा है जगा हुआ,
किसी महत, दीर्घ, और हमारे तईं गोया निपट शोक-प्रेरित
अनुशासन में सिर को झुकाए हुए, केवल खड़ा
हुआ दुनिया के इतने इस त्रासद इतिहास पर,
खड़ा है इस दुनिया के अनुद्धार्य जीवन में।

अनुवादः गिरधर राठी / सहयोगः मारगित कोवैश

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4 comments
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  1. बहुत सुंदर और मार्मिक कविता। बहुत गहरे छू गई…

  2. Fine translation into Hindi of a beautiful Hungarian poem,

  3. बेहतरीन अनुवाद

  4. THIS IS ALSO A FINE TRANSLATION

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