आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

दस हंगारी कवि

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यानोश पिलिंस्की

क्षेपक

१.

क्योंकि बिसराया पड़ा होगा तब अग-जग।

चुप्पियां तब होंगी अलग-अलग -गगन की,
दुनिया के हश्र पर पस्त चरागाहों की,
और उनसे भी अलग-कुतों के बाड़ों की।
भागते परिन्दों का झुण्ड उड़ा जा रहा।
और हम देखेंगे पूरब उठता सूरज
जो है अवाक् जैसे पगलाई आंख,
और निर्विकार जैसे घुन्न्ना बनैला।

लेकिन मैं पहरे पर अपने निर्वासन में,
क्योंकि मुझे सोना नहीं है उस रात,
लेता करवट मानो हजार पतों से
और बोलता हूँ गर्झिन रात में दरख्त-सा
याद है भटकन उन बरसों की? –
परतदार खेतों में बरसों की भटकन?
और, चीन्हते हो मेरा लुंज-पुंज हाथ?
याद है झुर्रियां नश्वर होने की?
और, जानते हो, क्या नाम है यतीमी का?
और, क्या पता है, कैसी पीड़ा –
झिल्ली के पंजों, फटे खुरों वाली –
चौकड़ी यहाँ भरती, अनश्वर अंधियारे में ?
एकाकी रात, ठण्ड, खंदक,
बन्दी का सिर धीरे-धीरे लुढ़कता हुआ,
याद है पत्थर हुए नाले? यन्त्रणाएं
अतल की – याद हैं तुम्हें ये सब?

उग आया सूरज। बिरवे उठे तिलमिलाते
क्रोधी गगन के अवरक्त के ख़िलाफ़।

मैं चला। वीराने में नजर आता है
एक जन एकाकी, नपे तुले डग भरता।
कुछ नहीं उसका, परछाईं है।
लाठी है। बंदी का बाना है।

२.

कितना अच्छा है जो सीख लिया चलना।
शायद इन्हीं ठिठके, कसैले डगों के लिए।

घिर आयी शाम, और फिर रात
जड़ देगी अपना कीचड़ मुझ पर, पलक भींच
चलते रहना है मुझे, वे झुरझुराते
नाजुक दरख्त, नाजुक उनकी शाखें।
एक-एक पत्ते में खौलता, महीन वन।
किसी समय इसी जगह होता था स्वर्गलोक।
अधनींदे बार-बार उठती है कसक
वे विशालवृक्ष मुझे अब तक पुकार रहे।

अन्ततः घर पहुँचूँ, यही थी कामना।
वैसी ही, जैसी उसकी थी, इंजील में।

मेरी विकराल परछाईं पड़ी आँगन में आर-पार।
तहदार ख़ामोशी, सो रहे भीतर बूढ़े माँ-बाप।
लो वे भी आ रहे, मुझको पुकारते, बेचारे।
मुझको अंकवारने, डगमग, बिसूरते।
मुझे लिवा ले जाती रीत वह पुरातन।
कुहनी टिकाता मैं झिलमिल सितारों पर –

काश मैं कुछ भी कह पाता इस वक्त,
तुमसे, जिन्हें मैंने प्यार किया इतना! बरस दर बरस,
ओने-कोने में कलपते शिशु की तरह
मैनें उचारी है यही एक आस
मुरझाई, रूंधी आस- लौटूंगा घर अपने
और तुम मिलोगे मुझे अन्ततः इसी ठौर!
भरभरा उठा है गला तुम्हारी नजदीकी से।
डर गया हूँ जैसे बनैला डर जाता है।

तुम्हारे ये शब्द, ये बोली इंसान की
मैं नहीं बोलता। हैं कुछ परिन्दे
अब जिनके टूटे दिल, खोजनते पनाह
गगन के तले, दहकते गगन-तले।
चिलकते मैदानों में धंसी शहतीरें अनाथ।
बेरहम हुजूम में जलते हुए दड़बे।
मैं नहीं जानता इंसानी भाषा।
और नहीं बोलता तुम्हारी ये बोली।
शब्द से भी ज्यादा बेघर है मेरा शब्द,
शब्द तो है ही नहीं।
उसका भयावह बोझ
भहरा रहा है हवा के नीचे
बुर्ज के बदन से निकलती हैं आवाजें।
तुम कहीं नहीं हो। रीता पड़ा है हमारा संसार।
एक बगीची कुर्सी। बाहर पड़ी एक आराम कुर्सी।
नुकीले पत्थरों पर खड़खड़ाती मेरी छाया।
थक गया बेहद। उझक उझक पड़ता जमीन से।

३.

देख रहा है प्रभु, खड़ा हूँ मैं धूप में।
देख रहा मेरी परछाई वह, पत्थर पर, द्वार पर।
साँस के बगैर खड़ी परछाईं – देख रहा
मेरी परछाईं इस हवाबन्द कोल्हू में।

तब तक तो लेकिन मैं पत्थर हो जाऊँगा,
मरी हुई परत, एक ही बनत के खाँचे हज़ार,
तब तक तो मुट्ठी भर मलबा
हो जाएगें जीवों के मुखड़े।

और, अश्रु नहीं मुखड़ों पर झुर्रियां ढरकती हैं
ढरक रही है, रीती खंदक ढरक रही है।

अनुवादः गिरधर राठी / सहयोगः मारगित कोवैश

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4 comments
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  1. बहुत सुंदर और मार्मिक कविता। बहुत गहरे छू गई…

  2. Fine translation into Hindi of a beautiful Hungarian poem,

  3. बेहतरीन अनुवाद

  4. THIS IS ALSO A FINE TRANSLATION

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