आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

भूमण्डलीय की हिंसा: ज्याँ बाँद्रिला

आज का आतंकवाद अराजकतावाद, निषेधवाद या मतान्धता के परम्परागत इतिहास की पैदाईश नहीं है. इसकी बजाय वह भूमण्डलीकरण (Globalization) का समकालीन जोड़ीदार है. इसके मुख्य लक्षणों को पहचानने के लिए भूमण्डलीकरण, खासतौर से विशिष्ट (Singular) और वैश्विक (Universal) के साथ इसके रिश्ते की समकालीन वंशावली को सामने लाना जरूरी होगा.

‘भूमण्डलीय’ ‘वैश्विक’ के बीच समानता देखना भ्रामक है. वैश्वीकरण का ताल्लुक मानवाधिकारों से, स्वतंत्रता, संस्कृति और लोकतंत्र से है. भूमण्डलीकरण, इसके विपरीत, प्रौद्योगिक, बाजार, पर्यटन और सूचना से ताल्लुक रखता है. भूमण्डलीकरण अप्रतिवर्तनीय प्रतीत होता है, जबकि वैश्वीकरण फैशन के बाहर होता जा रहा लगता है. कम से कम, वह उस मूल्यव्यवस्था के रूप में तो अपने कदम वापस ले रहा प्रतीत हो ही रहा है जो पश्चिमी आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुई थी और जो किसी भी दूसरी संस्कृति से मेल नही नहीं खाती थी. जब कोई संस्कृति वैश्विक हो जानी है तो वह अपनी विषिष्टता खो देती है, और मर जाती है. उन तमाम संस्कृतियों के साथ यही हुआ है जिन्हें हमने अपने जैसा बनाने की प्रक्रिया में नष्ट कर दिया है. लेकिन यही बात हमारी अपनी संस्कृति के संदर्भ में भी सही है, इसके बावजूद कि वह अपने सार्वभौमिक रूप से वैध होने का दावा करती है. फर्क सिर्फ़ यह है कि वे दूसरी संस्कृतियां इसलिए मरी हैं क्योंकि वे विशिष्ट थीं, जो कि अपने में एक सुन्दर मृत्यु है. हम इसलिए मर रहे हैं क्योंकि हम अपनी विशिष्टता खो रहे हैं और अपने तमाम मूल्यों को नष्ट कर रहे है. और यह कहीं ज्यादा बदसूरत मौत है.

हमारा ऐसा विश्वास है कि वैश्विक हो जाना किसी भी मूल्य का आदर्श लक्ष्य हैं. लेकिन हमें दरअसल इस किस्म की तलाश में निहित घातक खतरे का अनुमान नहीं हैं. यह किसी भी तरह से ऊपर उठाने वाली चेष्टा नहीं हैं, इसके विपरीत यह तमाम मूल्यों को शून्य के स्तर पर ले आने वाली पतनशील प्रवृति हैं. ज्ञानोदय के दौरान वैश्वीकरण को चरम उन्नति और प्रगति के रूप में देखा गया था. आज, इसके विपरीत, वैश्वीकरण का अस्तित्व एक ऐसी स्थिति के रूप में रह गया है जिसका कोई विकल्प नहीं हैं, और उसे एक ऐसे पुरोगामी पलायन के रूप में व्यक्त किया जाता है जिसका लक्ष्य न्यूनतम रूप से सर्वनिष्ठ मूल्य हासिल करना हैं. मानवाधिकार, लोकतंत्र और स्वतंत्रता की नियति आज ठीक यही हैं. उनका विस्तार सच्चे अर्थों में उनकी सबसे कमजोर अभिव्यक्ति हैं.

भूमण्डलीकरण के कारण वैश्वीकरण दृष्य से गायब हो रहा हैं. विनिमय का भूमण्डलीकरण मूल्यों के वैश्वीकरण का अंत कर रहा हैं. यह चीज़ वैश्विक चिंतन-पद्धति पर समरूप चिंतन-पद्धति की विजय को दर्शाती है. जो भूमण्डलीकृत हैं वह प्रथमतः और मुख्यतः बाजार है -विनिमय की और तमाम तरह के उत्पादनों की प्रचुरता, धन का अविच्छिन्न प्रवाह. सांस्कृतिक तौर पर भूमण्डलीकरण प्रतीकों और मूल्यों के असंयमित कामाचार, जो कि एक किस्म की पोर्नोग्राफी हैं, का मार्ग प्रशस्त करता हैं. नेटवर्कों के माध्यम से सब कुछ और न कुछ का भूमण्डलीय प्रसार दरअसल पोर्नोग्राफी ही हैं. अब यौनपरक अश्लीललता जरूरी नहीं हैं. अब तो सब कुछ ही भूमण्डलीय स्तर का परस्पर संसर्ग हैं. जो वैश्विक था वह भूमण्डलीकृत हो चुका हैं, और मानवाधिकार का प्रसार किसी भी दूसरे भूमण्डलीय उत्पादन (जैसे कि तेल या पूँजी) की भाँति हो रहा है.

वैश्विक से भूमण्डलीय तक की इस यात्रा ने निरंतर समरूपीकरण के साथ-साथ एक अंतहीन विखण्डन को भी जन्म दिया हैं. केन्द्रीकरण की जगह स्थानीयीकरण ने नहीं बल्कि विस्थापन ने ले ली हैं. जो जगह कभी संकेन्द्रण की हुआ करती थी उस पर अब विकेन्द्रण ने नहीं बल्कि उत्केन्द्रण ने कब्जा कर लिया हैं. इसी तरह भेदभाव और निषेध की प्रवृतियाँ भी भूमण्डलीकरण के संयोगपरक नतीजे नहीं बल्कि भूमण्डलीकरण की तार्किक फलश्रुतियाँ हैं. सच तो यह है कि भूमण्डलीकरण की उपस्थिति हमें इस अटकल के लिए मजबूर करती है कि क्या वैश्वीकरण खुद अपनी ही संकटगस्त विपुलता के हाथों पहले ही नष्ट नहीं हो चुका हैं. वह हमें इस अटकल की ओर भी ले जाती है कि क्या वैश्विकता और आधुनिकता का कोई अस्तित्व मुट्ठी भर विशेषज्ञों के विमर्श और थोड़ी सी लोकप्रिय नैतिक भावनाओं के बाहर कभी था भी? हमारे लिए आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण का आईना आज दरक चुका हैं. लेकिन देखा जाय तो यह एक अच्छा अवसर भी हो सकता हैं. इस दरके हुए आईने के टुकड़ों में तमाम तरह की विशिष्टता फिर से उभर रही हैं. जो विशिष्टताएँ हमें लुप्त होने के खतरे में पड़ी लग रही थीं, वे अभी जैसे तैसे जीवित बची हुई हैं, और जिन्हें देखकर हमें लगता था कि वे खत्म हो चुकी थीं, वे फिर से जी उठी हैं.

वैश्विक मूल्यों के अपने प्रभुत्व और वैधता के खो देने के साथ ही चीजें कहीं, ज्यादा मूल स्वरूप में उभरती हैं. जब वैश्विक आस्थाओं को सांस्कृतिक मध्यस्थता कर सकने वाले एकमात्र संभव मूल्यों की हैसयित में पेश किया गया था, तब इन आस्थाओं के लिए यह बहुत कुछ आसान था कि वे विशिष्टताओं को विभेदीकरण की विधियों के रूप में उस वैश्विक संस्कृति के भीतर समाहित कर लें जो विभेद को एक मूल्य मानते हुए उसकी रक्षक होने का दावा करती थी. लेकिन वे ज्यादा समय तक ऐसा कर नहीं सकीं, क्योंकि भूमण्डलीकरण के विजयोन्माद से भरे हुए पसारे ने विभेदीकरण के तमाम रूपों और भेद की पैरवी करने वाले तमाम वैश्विक मूल्यों को नेस्तनाबूद कर दिया. ऐसा करते हुए भूमण्डलीकरण ने एक सर्वथा तटस्थ संस्कृति को जन्म दिया हैं. वैश्विक के लोप के बाद अब अपना एकछत्र प्रभुत्व कायम करने के लिए एक भूमण्डलीय प्रविधिपरक संरचना बची हैं. लेकिन इस प्रविधिपरक संरचना को अब उन नयी विशिष्टताओं से टक्कर लेनी होगी जो, इन विशिष्टताओं का पोषण कर सकने वाले वैश्वीकरण के अभाव में, स्वच्छद और बर्बर तरीके से अपना विस्तार कर सकती हैं.

इतिहास ने वैश्वीकरण को अवसर प्रदान किया था. लेकिन आज, एक तरफ एक विकल्पहीन विश्व्यवस्था  की और दूसरी तरफ बाढ़ की तरह फैलती विद्रोही विषिष्टताओं की चुनौती के सामने मुक्ति, लोकतंत्र और मानवाधिकार की अवधारणाएं डरावनी प्रतीत होती हैं. वे अब अतीत हो चुके वैश्वीकरण के प्रेतों के रूप में शेष रह गयी हैं. वैश्वीकरण उस संस्कृति को प्रोत्साहित करता था जिसके अभिलक्षणों में पारगामिता, आत्मपरकता, प्रत्ययपरक विचार-शैली, यथार्थ, और निरूपण जैसी चीजें शामिल थीं. इसके विपरीत, आज की वर्चुअल भूमण्डलीय संस्कृति में वैश्विक अवधारणाओं की जगह स्क्रीनों, नेटवकों, सर्वव्यापिता, अंकों और एक ऐसी देश-कालपरक निरंतरता ने ले ली हैं जिसमें कोई गहराई नहीं हैं. वैश्विक के भीतर तब भी संसार, काया, या अतीत के स्वाभाविक संदर्भ के लिए गुंजाईश थी. उसमें एक द्वन्द्वात्मक तनाव या आलोचनात्मक स्पन्दन था जो एक इतिहास-सम्मत और क्रान्तिकारी हिंसा में अपने को चरितार्थ करते थे. इस आलोचनात्मक नकार के निर्वासन ने हिंसा के एक बिल्कुल दूसर ही रूप के लिए दरवाजा खोल दिया हैं, जो कि भूमण्डलीय की हिंसा हैं. इस नयी हिंसा के खास लक्षणों में तकनीकी दक्षता तक निश्चयात्मकता की प्रधानता, सम्पूर्ण प्रबंधन, अविकल वितरण और तमाम लेन-देनों के बीच तुल्यरूपता जैसी चीजें शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, भूमण्डलीय की हिंसा ने बुद्धिजीवी की सामाजिक भूमिका ( जो कि ज्ञानोदय और वैश्वीकरण से जुड़ा हुआ विचार था) को तो समाप्त कर ही दिया है, उस कार्यकर्ता की भूमिका को भी खत्म कर दिया है जिसकी नियति आलोचनात्मक विरोध और इतिहास-सम्मत हिंसा से जुड़ी थी.

क्या भूमण्डलीकरण अवश्यम्भावी हैं? किसी समय में हमसे इतर संस्कृतियाँ तटस्थ लेन-देन की अनिवार्यता से बच निकलने में सक्षम हुआ करती थी. लेकिन आज वैश्विक और भूमण्डलीय के बीच का सीमान्त बिन्दु कहाँ हैं? क्या हम एक ऐसी जगह पर पहुँच चुके हैं जहाँ से कोई वापसी संभव नहीं हैं? वह कौनसा उन्माद हैं जो संसार को किसी महत्‌ उद्देश्य को मिटाने के लिए विवष करता है? और वो दूसरा उन्माद कौनसा है जो उसी क्षण,उस महत्‌ उद्देश्य की चरितार्थता की उद्दाम आकांक्षा के लिए विवश करता प्रतीत होता हैं?

वैश्विक एक महत्‌ उद्देश्य था. जब वह भूमण्डलीय के रूप में फलित हुआ तो एक उद्देश्य के रूप में वह गायब हो गया, उसने आत्महत्या कर ली, और अपने आप में एक लक्ष्य के रूप में वह लुप्त हो गया. ईश्वर के द्वारा रिक्त छोड़ दी गयी जगह की जिम्मेदारी ले लेने के बाद चूँकि अब मनुष्यता खुद ही अपनी सर्वव्याप्ति हैं, इसलिए मनुष्यत्व एकमात्र निर्देष-विधि बन गया है और वह सम्प्रभु हैं. लेकिन इस मनुष्यता में कोई अंतिमता नहीं हैं. अपने पिछले शत्रुओं से आजाद हो चुकने के बाद मनुष्यता को अब अपने भीतर से ही अपने शत्रुओं को गढ़ना जरूरी हो गया हैं, उस जगह से जो दरअसल अमानवीय रूपान्तरणों की व्यापक किस्मों को उत्पन्न करती है.

भूमण्डलीय की हिंसा का उत्स इसी जगह में हैं. यह एक ऐसी व्यवस्था का उत्पाद हैं जो नकार और वैशिष्टय के किसी भी रूप, जिसमें वैशिष्टय का चरम रूप मृत्यु भी शामिल है, को अपना लेती हैं. यह एक ऐसे समाज की हिंसा हैं जिसमें टकराव वर्जित है, जिसमें मृत्यु निषिद्ध है. यह एक ऐसी हिंसा है जो, एक अर्थ में, स्वयं हिंसा का भी अंत कर देती हैं, और एक ऐसी दुनिया को गढ़ने का प्रयत्न करती है जिसमें किसी भी नैसर्गिक चीज़ ( चाहे वह देह हो, यौन हो, जन्म हो या मृत्यु) का तिरोहित हो जाना अनिवार्य हैं. बेहतर है कि हम इसे भूमण्डलीय हिंसा कहने की बजाय भूमण्डलीय विषाक्तता कहें. हिंसा का यह रूप वाकई विषाक्त हैं. यह संसर्ग से फैलता हैं, श्रृंखलाबद्ध तरीके से आगे बढ़ता हैं, और धीरे-धीरे हमारी प्रतिरक्षा-प्रणाली तथा प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर देता हैं.

लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ हैं. भूमण्डलीकरण की जीत अभी पूरी तरह से नहीं हुई हैं. इस विलयनकारी और एकरूप कर देने वाली ताकत के खिलाफ विषमरूप ताकतें-सिर्फ उससे भिन्न ही नहीं बल्कि स्पष्ट तौर पर उसकी विरोधी ताकतें-हर कहीं उभर रही हैं. भूमण्डलीकरण के प्रति उत्तरोतर तीखी होती प्रतिक्रियाओं, और भूमण्डलीय के प्रति प्रतिरोध के समाजिक तथा राजनैतिक रूपों के पीछे नकार की महज नॉस्टेल्जिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, और भी बहुत कुछ हैं. इसके पीछे आधुनिकता और प्रगति के प्रति भीषण संशोधनवाद मौजूद हैं, एक अस्वीकार, न सिर्फ भूमण्डलीय तकनीकी संरचनाओं का बल्कि भूमण्डलीकरण के उस मानसिक तंत्र का भी जो सारी संस्कृतियों के बीच सिद्धान्ततः एक तुल्यरूपता मानकर चलता हैं. इस तरह की प्रतिक्रिया कैसे भी हिंसक, असामान्य और अविवेकपूर्ण रूप ले सकती है, कम से कम ऐसे रूप तो वह ले ही सकती हैं जिन्हें सोच-विचार के परम्परागत रूप से प्रबुद्ध माने जाने वाले तरीकों के परिप्रेक्ष्य में हिसंक, असामान्य और अविवेकपूर्ण माना जा सके. यह प्रतिक्रिया सामूहिक प्रजातीय, धार्मिक, और भाषायी रूप ले सकती हैं. लेकिन वह व्यक्तिपरक भावनात्मक विस्फोट, बल्कि स्नायविक रोग का रूप भी ले सकती है. किसी भी स्थिति में इन प्रतिक्रियाओं को महज पापुलिस्ट, आदिम ना कि आतंकवादी कहकर इनकी निन्दा करना एक भूल होगी. वह हर चीज जिसमें इस वक्त घटना होने का गुण है, वह भूमण्डलीय की अमूर्त वैश्विकता के खिलाफ उन्मुख हैं, और इसमें पश्चिमी मूल्यों के प्रति इस्लाम का अपना विरोध भी शामिल हैं (इसलिए कि इस्लाम इन मूल्यों का इस कदर प्रबल प्रतिद्वन्द्वी है कि आज उसे पश्चिम का अव्वल दर्जें का दुश्मन माना जाता है).

भूमण्डलीय व्यवस्था को कौन पराजित कर सकता हैं? निश्चय ही यह उस भूमण्डलीकरण-विरोधी आंदोलन के बूते की बात नहीं हैं जिसका एकमात्र लक्ष्य भूमण्डलीय अनियमन को धीमा कर देना भर हैं. इस आंदोलन का राजनैतिक प्रभाव अपने में महत्वपूर्ण हो सकता हैं. लेकिन इसके सांकेतिक प्रभाव में कोई दम नहीं हैं. इस आंदोलन द्वारा प्रस्तुत विरोध उस अन्दरूनी मसले से ज्यादा कुछ नहीं हैं जिसे यह प्रभुत्वशाली व्यवस्था बहुत आसानी से नियंत्रण में रख सकती हैं. इस प्रभुत्वशाली व्यवस्था को सकारात्मक विकल्प नहीं बल्कि वे विशिष्टताएँ ही पराजित कर सकती हैं जो न सकारात्मक है न नकारात्मक. विशिष्टताएँ विकल्प नहीं हैं. वे एक अलग ही तरह की संकेत-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती हैं. वे मूल्यनिर्णयों या राजनैतिक वास्तविकताओं को नहीं मानतीं. वे उत्कृष्ट या निकृष्ट हो सकती हैं. सामूहिक ऐतिहासिक कार्रवाई के सहारे उनका ‘नियमन’ नहीं किया जा सकता. वे अद्वितीय रूप से प्रभावी किसी भी विचार को विफल कर देती हैं. तब भी वे स्वयं को एक अद्वितीय प्रति-विचार के रूप में पेश नहीं करतीं. वे तो सिर्फ अपना निजी खेल रचती हैं और अपने नियम आरोपित करती हैं. कुछेक भाषायी, कलापरक, देहपरक या सांस्कृतिक विशिष्टताओं में काफी बारीकी हैं. लेकिन दूसरी जैसे कि आतंकवाद, हिंसक हो सकती हैं. आतंकवाद का वैशिष्टय उन संस्कृतियों के वेशिष्टय का प्रतिशोध लेता हैं जिनने एक अनूठी भूमण्डलीय ताकत के आरोपण की कीमत स्वयं अपने विनाश से चुकायी है.

यहाँ हम सचमुच ही ‘सभ्यताओं की भिड़न्त’ की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उस टकराव की बात कर रहे हैं, जिसमें एक तरह एक समरूप वैश्विक संस्कृति है और दूसरी तरह जिस किसी भी क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाली वे तमाम दूसरी चीज़ें हैं जो अपनी अनिवार्य अन्यता के गुण को बचाये हुए हैं. भूमण्डलीय शक्ति के परिप्रेक्ष्य में (जो अपने विश्वासों में उतनी ही रूढ़िवादी हैं जितना कि कोई धार्मिक कट्टरपंथ हो सकता हैं) भेद और वैशिष्टय का कोई भी रूप धर्मद्रोह से कम नहीं हैं. विशिष्टताधर्मी शक्तियों के पास दो ही विकल्प है : या तो वे भूमण्डलीय तंत्र का (स्वेच्छा से या बलात्‌) हिस्सा बन जाएँ अथवा नष्ट हो जाएँ. पश्चिम ( या कहें भूतपूर्व पश्चिम, क्योंकि वह अपने मूल्य बहुत पहले खो चुका हैं) का अभियान हर संभव साधनों का उपयोग करते हुए प्रत्येक संस्कृति को सांस्कृतिक समरूपता के क्रूर सिद्धान्त के अधीन ले आना हैं. कोई भी संस्कृति जैसे ही अपने मूल्य गँवा देती है, वह दूसरो के मूल्यों पर आक्रमण करके ही बदला चुका सकती हैं. युद्धों का वास्तविक लक्ष्य, जैसा कि वह अफगानिस्तान में लड़े गये युद्ध का था, बर्बरता का शमन करना और राज्यों को एक कतार में लाना होता हैं. लक्ष्य किसी भी तरह के प्रतिक्रियाशील क्षेत्र से छुटकारा पाना, और किसी भी उग्र तथा प्रतिरोध बरतने वाले राज्य को भौगोलिक और मानसिक दोनो ही स्तरों पर उपनिवेशित करना तथा पालतू बनाना हैं.

भूमण्डलीय व्यवस्था का विकास एक तीव्र ईर्ष्या का नतीजा हैं. यह अत्यन्त सुपरिभाषित संस्कृतियों के खिलाफ एक उदासीन और अल्प परिभाषित संस्कृति की, अत्यन्त प्रबल सांस्कृतिक पर्यावरणों के खिलाफ एक भ्रम-मुक्त और निरूद्वेग व्यवस्था की, और उत्सर्गपरक रूपों के खिलाफ एक अनुष्ठान-रहित समाज की ईर्ष्या हैं. इस प्रभुत्वशाली तंत्र के लेखे कोई भी प्रतिक्रियाशील रूप स्पष्टतौर पर आंतकवादी हैं. (इस तर्क के हिसाब से हम प्राकृतिक तबाहियों को भी आतंकवाद कह सकते हैं. चेर्नोविल जैसी बड़ी प्राविधिक दुर्धनाएँ आतंकवादी कृत्य और प्राकृतिक विपदा दोनों हैं.  भोपाल में जहरीली गैस का रिसाव, जो एक और प्राविधिक दुर्घटना है,एक आतंकवादी कृत्य भी कहला सकता था. किसी भी विमान-दुर्धटना की जिम्मेदारी भी किसी आतंकवादी गुट द्वारा ली जा सकती हैं.) तर्कहीन घटनाओं की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि उन्हें किसी के भी मत्थे मढ़ा जा सकता है या किसी भी उत्प्रेरणा से जोड़ा जा सकता हैं. किसी हद तक, कोई भी चीज, जिसके बारे में हम सोच सकते हैं, आपराधिक हो सकती हैं, यहाँ तक कि कोल्ड-फ्रण्ट या भूकम्प भी. यह कोई नयी बात नहीं हैं. १९२३ के टोक्यों भूकम्प में मारे गये हजारों कोरियाइयों की मौत का कारण इस आपदा के लिए उनका जिम्मेदार होना माना गया था. हमारे जैसे सघन रूप से एकीकृत तंत्र के भीतर कोई भी चीज विचलन के इसी तरह के प्रभाव के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती हैं. वह हर चीज एक तंत्र को विफलता की ओर ले जाती हैं जो अपनी अचूकता का दावा करती हैं. इस तंत्र के तार्किक और पूर्वयोजनापरक नियंत्रणों के अधीन हम जैसे लोगो के दृष्टिकोण से तो यहाँ तक सोचा जा सकता है कि सबसे बुरी विपत्ति तो दरअसल स्वयं इस तंत्र की अचूकता हैं. अफगानिस्तान को देखें. यह तथ्य कि अकेले इस देश के भीतर, संगीत और टेलिविजन से लेकर किसी स्त्री का चेहरा देख पाने तक, ‘लोकतांत्रिक’ स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्तियों के सभी मान्य रूप वर्जित थे, और यह संभावना कि इसतरह का देश उससे बिल्कुल विपरीत रास्ता अख्तियार कर सकता था जिसे हम सभ्यता कहते है ( इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह धारणा किन धार्मिक सिद्धांतों की दुहाई देती हैं), ‘उदार’ दुनिया के लिए मंजूर नहीं था. आधुनिकता के वैश्विक आयाम को अस्वीकार नहीं किया जा सकता. पश्चिम के दृष्टिकोण से, उसके सहमतिपरक आदर्श और उसकी अनूठी विचार-प्रक्रिया के दृष्टिकोण से, आधुनिकता को अच्छाई के एक स्पष्ट स्रोत के रूप में, या मनुष्यता के एक नैसर्गिक आदर्श के रूप में न देखना एक अपराध हैं. यह भी एक अपराध होता हैं जब हमारे मूल्यों की वैश्विकता को कुछ व्यक्तियों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है जो, जब अपने संदेह जाहिर करते हैं तो उन्हें तत्काल मतान्ध कहकर उनकी निशानदेही कर दी जाती हैं.

केवल सांकेतिक एहसास के तर्क को रेखांकित करने वाली व्याख्या ही भूमण्डलीय और विषिष्ट के बीच के इस टकराव को अर्थ प्रदान कर सकती हैं. पश्चिम के प्रति बाकी दुनिया की नफरत को समझने के लिए पृष्ठभूमियों को उलटना होगा. गैरपश्चिमी लोगो की नफरत इस तथ्य पर टिकी हुई नहीं है कि पश्चिम ने उनसे सब कुछ छीन लिया और उन्हें कभी भी कुछ भी वापस नहीं किया. इसकी बजाय, वह इस तथ्य पर आधारित है कि उन्होंने पश्चिम से सब कुछ प्राप्त किया लेकिन पश्चिम ने उन्हें कभी गुजाइंश नहीं दी कि वे भी उसे कुछ दे सकें. यह नफरत बेदखली और शोषण का नहीं बल्कि अपमान का नतीजा हैं. नफरत का यही वह रूप है जिसके सहारे ११ सितम्बर के आतंकवादी हमले को समझा जासकता हैं. ये एक दूसरी तरह के अपमान के जवाब में किये गये अपमानजनक आचरण हैं.

भूमण्डलीय शक्ति के प्रसंग में घटित हो सकने वाली निकृष्टतम घटना हमले की या विनाश की नहीं बल्कि अपमान सहने की होगी. ११ सितम्बर को भूमण्डलीय शक्ति अपमानित हुई क्योंकि आतंकवादियों ने भूमण्डलीय तंत्र को एक ऐसी चीज प्रदान की जिसे वह तंत्र वापस नहीं कर सकता. सैन्य प्रतिशोध केवल भौतिक जवाब हैं. लेकिन ११ सितम्बर को भूमण्डलीय शक्ति सांकेतिक रूप से पराजित हुई. युद्ध आक्रमण का जवाब तो है लेकिन वह सांकेतिक चुनौती का जवाब नहीं हैं. सांकेतिक चुनौती तो तभी स्वीकृत और निराकृत मानी जा सकती है जब बदले में प्रतिद्वन्द्वी को अपमानित किया गया हो (लेकिन प्रतिद्वन्द्वी पर बम बरसा देने या उसे गुआन्तानामो में सलाखों क पीछे बंद कर देने से यह बात नहीं बनती). सांकेतिक एहसान के बुनियादी सिद्धान्त की यह शर्त हैं कि प्रभुत्व का रूप चाहे कैसा भी हो, किसी भी तरह के प्रतिदान की अनुपस्थिति ही उसका आधार होती हैं. एक तरफा दान ताकत का कर्म हैं. और किसी भी संभव प्रतिदान के बगैर देने में सक्षम होना ही दरअसल कल्याण का साम्राज्य, कल्याण की हिंसा हैं. ईश्वरीय हैसियत में होने का अर्थ यही हैं. या उस मालिक की हैसियत में, जो गुलाम को उसके काम के बदले जीने की छूट देता है (लेकिन काम सांकेतिक प्रतिदान नही हैं, और गुलाम की एकमात्र प्रतिक्रिया अंततः या तो विद्रोह करने की होती है या मर जाने की). ईश्वर उत्सर्ग के लिए कुछ गुंजाइश देता था. पारम्परिक व्यवस्था में, ईश्वर के प्रति, या प्रकृति के प्रति, या किसी उच्च सता के प्रति उत्सर्ग के रूप में प्रतिदान करना संभव था. यही वह चीज़ थी जो प्राणियों और वस्तुओं के बीच एक प्रतीकात्मक संतुलन को सुनिश्चित करती थी. लेकिन आज हमारे पास ऐसा कोई नहीं है जिसे हम कुछ वापस दे सकें, जिसका हम सांकेतिक ऋणशोध कर सकें. यह हमारी संस्कृति का अभिशाप है. समस्या यह नहीं हैं कि दान असंभव हैं, समस्या यह है कि प्रतिदान असंभव हो गया हैं. उत्सर्ग के तमाम रूप निष्प्रभावी कर दिये गये हैं (जो बच रहा है वह उत्सर्ग की पैरोडी है, जो उत्पीड़न के तमाम दृष्टान्तो में दिखायी देती है).

इस तरह हम प्राप्त करने की अनिवार्य स्थिति में हैं, हमेशा ही प्राप्त करने की स्थिति में, ईश्वर या प्रकृति से तो अब नहीं, पर सामान्यीकृत लेन-देन और सर्वनिष्ठ तुष्टीकरण की प्राविधिक यांत्रिकी के माध्यम से. यथार्थतः हर चीज हमारे लिए प्रदत है, और हमने हर चीज का, चाहे वह हमें पसंद हो या न हो, हक हासिल कर लिया हैं. हम उस गुलाम की तरह ही हैं जिसका जीवन तो बख्श दिया गया हैं, लेकिन फिर भी जो एक न चुकाये जा सकने वाले ऋण से बँधा हुआ हैं. यह स्थिति कुछ समय तक जारी रह सकती हैं, क्योंकि यह इस अर्थपरक तंत्र के भीतर लेन-देन का असल आधार हैं. तब भी, हमेशा ही एक वक्त आता हैं जब बुनियादी नियम सतह पर आ जाता हैं और धनात्मक का जवाब अपरिहार्यतः ऋणात्मक प्रतिदान देता है, जब ऐसे बंधक जीवन की, ऐसे संरक्षित अस्तित्व की, अस्तित्व की ऐसी पराकाष्ठा की, एक हिंसक अनुप्रक्रिया घटित होती है. यह विपर्यय स्पष्ट तौर पर एक हिंसक कृत्य (जैसे कि आतंकवाद) की शक्ल ले सकता है, लेकिन वह एक नपुंसक आत्मसमर्पण की (जो कि हमारी आधुनिकता में ज्यादा परिलक्षित है), आत्म-घृणा की, पश्चाताप की, भी शक्ल ले सकता है, दूसरे शब्दों में, उन तमाम नकारात्मक संवेगो की शक्ल जो कि असंभव प्रतिदान के विकृत रूप हैं.

हम अपनी जिस चीज़ से घृणा करते हैं- जो कि हमारी कुढ़न का अंदरूनी विषय हैं- वह हमारा यथार्थ का, शक्ति का, सुख-सुविधा का अतिरेक हैं, वैश्विक स्तर पर हमारा सुलभ होना, हमारी निश्चित सिद्धि, कुछ-कुछ वैसी नियति जैसी कि दास्ताएव्स्की के ग्रेण्ड इन्क़्वीज़ीटर के पास घरेलू जनसमुदाय के लिए सुरक्षित थी. और ठीक यही हमारी संस्कृति का वह हिस्सा है जिससे आतंकवादियों को विकर्षण होता है (यह चीज़ उनको मिलने वाले समर्थन और उस आकर्षण को समझने में हमारी मदद करती है जिसे उत्प्रेरित करने में वे सक्षम होते है). आतंकवाद का समर्थन केवल उन लोगो की हताशा पर टिका हुआ नहीं है जो अपमानित हैं या जिन्हें आघात पहुँचाया गया हैं. वह उन लागो की अदृश्य हताशा पर भी आधारित हैं जिन्हें भूमण्डलीकरण ने विशेषाधिकार से नवाज़ा हैं, वह हमारे खुद के आत्मसमर्पण पर भी आधारित हैं जो हमने सर्वशक्तिमान प्रविधि के समक्ष, अभिभूत कर लेने वाले आभासी यथार्थ के समक्ष किया हैं, जो हमने उन नेटवर्कों और प्रोग्रामों के समक्ष कर दिया हैं जो शायद समूची मानव-प्रजाति की, भूमण्डलीकृत हो चुकी मनुष्यता की, रूपरेखाओं को पुनरांकित करने की प्रक्रिया में हैं. (आखिर पृथ्वी पर मौजूद मानवेतर जीवन पर मानव-प्रजाति की प्रधानता क्या पश्चिमेतर  दुनिया पर पश्चिम के प्रभुत्व की प्रतिच्छवि नहीं है?) यह अदृश्य हताशा, हमारी अदृश्य हताशा, निरर्थक हैं क्योंकि यह हमारी ही तमाम आकांक्षाओं की सिद्धि का परिणाम हैं.

इस प्रकार, अगर आतंकवादी यथार्थ के इस अतिरेक से, यथार्थ के इस असंभव विनिमय से, जन्मा हैं, अगर वह किसी संभव प्रतिरूप या प्रतिदान से रहित अतिशय उदारता की पैदाइश हैं, और अगर वह द्वन्द्वों के बलात निराकरण से उपजा है, तो उसे एक वस्तुपरक बुराई मानकर उससे मुक्ति पा सकने का भ्रम पूरा हो चुका समझना चाहिए क्योंकि, अपनी अनर्गलता और अर्थहीनता में आतंकवाद हमारे समाज का अपना फैसला और अपना दण्ड हैं.

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  1. gone through the article. is terroism a symptom of politics madan soni’s hindi is tougher than english ofcourse baudrilairs language also is very complex however a doubt remains can we ignore those universal values associated with modernism like freedom human dignity democracy secularism etc if we discard all these can we not go to barbarism or premodern age even after understanding the euro centric modernity did the elightment not made any contributions to human civilization. how far we can regard islamic terroism as a positive protest against the colonial west eulogising islamic terror as a preventive backlash cannot be accepted anyway

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