आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ : शिरीष कुमार मौर्य

जब रात के दो बजते हैं !

जब रात के दो बजते हैं
प्रेम सो चुका होता है श्लथ होकर
मेरे आसपास आती है
उसके खर्राटों की हल्की-सी आवाज़

जब रात के दो बजते हैं
मैं देखता हूँ बन्द दरवाज़ों के बाहर नैनीताल का तारों भरा सुशीतल आसमान

जब रात के दो बजते हैं
मैं हैरान रह जाता हूँ
यह जानकर
कि इस वक़्त सिर्फ़ मेरा है ककड़ी के आकार वाला
घर के ठीक नीचे का वह हरा ताल

और उसमें दिखाई नहीं दे रही कोई भी नाव

जब रात के दो बजते हैं
सात की उम्र का मेरा बच्चा कुनमुनाता है
कभी मुस्कुराता-हँसता
तो कभी बिसूरता है
दरअसल
अजीब-से सपनों भरी उसकी इस सबसे गहरी नींद में ही
उसका भविष्य छुपा है

जब रात के दो बजते हैं
और जाहिर है असफल हो जाती है नींद की गोलियों की आख़िरी खुराक भी
तो मैं सोचता हूँ कि मेरी रात के बाहर भी कोई रात है और वहाँ भी
शायद दो बज गए होंगे

जब रात के दो बजते हैं
मैं थोड़ा और लड़ाकू हो जाता हूँ
देखता हूँ
बाथरूम के आईने में अपना ख़ामोश पथरीला चेहरा

जब रात के दो बजते हैं
मेरे भीतर जागता है कवि जैसा कोई एक शख़्स
लगातार
और खुद के होने पर रोता है चुपचाप

अपनी आँखों में अगले दिन सबके बीच
हँस पाने लायक
मनुष्यता इकट्ठी करता हुआ !

मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ

मैं उसे
एक बूढ़ी विधवा पड़ोसन भी कह सकता था
लेकिन मैं उसे सत्तर साल पुरानी देह में बसा एक पुरातन विचार कहूँगा
जो व्यक्त होता रहता है
गाहे-बगाहे
एक साफ़-सुथरी, कोमल और शीरीं ज़बान में
जिसे मैं लखनउआ अवधी कहता हूँ

इस तरह
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ

मैं उसे देखता हूँ पूरे लखनऊ की तरह और वो बरसों पहले खप चुकी अपनी माँ को विलापती
रक़ाबगंज से दुगउआँ चली जाती है
और अपनी घोषित पीड़ा से भरी
मोतियाबिंदित
धुँधली आँखों में
एक गंदली झील का उजला अक्स बनाती है

अचानक
किंग्स इंग्लिश बोलने का फ़र्राटेदार अभ्यास करने लगता है
बग़ल के मकान में
शेरवुड से छुट्टी पर आया बारहवीं का एक होनहार छात्र
तो मुझे
फोर्ट विलियम कालेज
जार्ज ग्रियर्सन
और वर्नाक्यूलर जैसे शब्द याद आने लगते हैं

और भला हो भी क्या सकता है
विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ानेवाले एक अध्यापक के लगातार सूखते दिमाग़ में?

पहाड़ी चौमासे के दौरान
रसोई में खड़ी रोटी पकाती वह लगातार गाती है
विरहगीत
तो उसका बेहद साँवला दाग़दार चेहरा मुझे जायसी की तरह लगता है
और मैं खुद को बैठा पाता हूँ
लखनऊ से चली एक लद्धड़ ट्रेन की खुली हवादार खिड़की पर
इलाहाबाद पहुँचने की उम्मीद में
पीछे छूटता जाता है एक छोटा-सा स्टेशन
… अमेठी

झरते पत्तों वाले पेड़ के साये में मूर्च्छित-सी पड़ी दीखती है
एक उजड़ती मज़ार

उसके पड़ोस में होने से लगातार प्रभावित होता है मेरा देशकाल
हर मंगलवार
ज़माने भर को पुकारती और कुछ अदेखे शत्रुओं को धिक्कारती हुई
वह पढ़ती है सुन्दरकांड
और मैं बिठाता हूँ
बनारसी विद्व जनों के सताए तुलसी को अपने अनगढ़ घर की सबसे आरामदेह कुर्सी पर
पिलाता हूँ नींबू की चाय
जैसे पिलाता था पन्द्रह बरस पहले नागार्जुन को किसी और शहर में
जब तक ख़त्म हो पड़ोस में चलता उनका कर्मकाण्ड
मैं गपियाता हूँ तुलसी बाबा से
जिनकी आँखों में दुनिया-जहान से ठुकराये जाने का ग़म है
और आवाज़ में
एक अजब-सी कड़क विनम्रता
ठीक वही
त्रिलोचन वाली

चौंककर देखता हूँ मैं
कहीं ये दाढ़ी-मूँछ मुँडाए त्रिलोचन ही तो नहीं !

क्यों?
क्यों इस तरह एक आदमी बदल जाता है दूसरे ‘आदमी’ में ?
एक काल बदल जाता है दूसरे ‘काल’ में?
एक लोक बदल जाता है दूसरे ‘लोक’ में?

यहाँ तक कि नैनीताल की इस ढलवाँ पहाड़ी पर बहुत तेज़ी से अपने अंत की तरफ़ बढ़ती
वह औरत भी बदल जाती है
एक
समूचे
सुन्दर
अनोखे
और अड़ियल अवध में

उसके इस कायान्तरण को जब-तब अपनी ठेठ कुमाऊँनी में दर्ज़ करती रहती है
मेरी पत्नी
और मैं भी पहचान ही जाता हूँ जिसे
अपने मूल इलाक़े को जानने-समझने के
आधे-अधूरे
सद्यःविकसित
होशंगाबादी किंवा बुन्देली जोश में !

इसी को हिंदी पट्टी कहते हैं शायद
जिसमें रहते हुए हम इतनी आसानी से
नैनीताल में रहकर भी
रह सकते हैं
दूर किसी लखनऊ के पड़ोस में !

चाँदनी डीलक्स

नैनीताल के शांत सजल सूर्योदय में
मशहूर महाशीर मछली का मरना सब देखते हैं
चिंतित होते हैं
करते हुए
सरकारी और गैरसरकारी पर्यावरणीय विमर्श

मगर
एक नाव का मरना कोई नहीं देखता

पर्यटक बसों के-से नाम वाली यह नाव बँधी मिलती है आजकल
तल्लीताल
अरविन्दो मार्ग के मुहाने पर
हिलती-डुलती
जैसे हत्या के बाद पानी में डूबता-उतराता है कोई शव

कुछ समय पहले तक वह तैरती थी शान से
हज़ारों-लाखों गैलन पानी पर
अपने होने की कई-कई लकीरें बनाती हुई
उस पर विराजते थे
अजनबी पर्यटक बेहिसाब
अपने दिए एक-एक पैसे का हिसाब वसूलते

दरअसल
पेड़ से कटते ही मर गई थी
वह लकड़ी
जिससे इसे बनाया एक पुराने कारीगर ने
जिलाया दुबारा
अपनी थकी हुई साँसों की हवा भरकर
तैराया पानी पर

बूढ़े और बच्चों से भरे एक परिवार को दो वक़्त की रोटी दिला
इसने भी अपना हक़ अदा किया

इसे मेरा अहमक़ होना ही मानें
पर मैं देखता हूँ इसे
किसी रचते-खटते इंसान की तरह

दूसरी कई नावें तैरती हैं
अब भी ताल पर
जगहें ख़ाली होते ही भर दी जाती है
तुरन्त

उसे याद करता है तो बस एक उसे बनाने वाला
और अपनी कोठरी के अंधेरे में
मुस्कुराता है चुपचाप

बाहर
सार्वजनिक अहाते में लगभग तैयार पड़ी है इसी नाम की एक नाव
शायद कल ही दिखाई दे जाए
ताल के पानी में
तुरन्त उगे सूरज का अक्स तलाशती !

समझता जाता हूँ
मैं भी
कि जो मर गई वह महज एक नाव थी
नाव का विचार नहीं
और मुस्कुराता हूँ
अपने हिस्से की उत्तरआधुनिक रात के अंधेरे में
ठीक वही मुस्कान

बूढ़े कारीगर वाली !

एक अविवाहिता का अविस्मरण

जहाँ पशु-पक्षियों में भी जोड़ा बनाने का विधान हो
हमारी उस नर-मादा दुनिया में
उसने
सिर्फ़ मनुष्य बनने और अकेले रहने का
विकट फैसला लिया

अपने चुने हुए एकान्त में
अपने बुने हुए सन्नाटे में
उसने चाहा कि कोई उसे तंग न करे
और यह
एक ऐसी कार्रवाई थी
जिसे उसके अपने घेरे के बाहर
लोगों ने
विवाह विरोधी
परिवार विरोधी
समाज विरोधी
और अंत में चल कर
स्वैराचार करार दिया

अब
उसकी उम्र के पाँचवे दशक में
उसका वह एकान्त अचानक ही घुस पड़ा है
कई-कई विस्फोटों से भरे
मेरे जीवन में

उसका वह ज़बरदस्त सन्नाटा भी
गूँजता है
मुझसे जुड़े दूसरे रिश्तों के आत्मीय
कोलाहल के बीच

उसे पता नहीं
या फिर शायद जानबूझ कर वह चली आई है
एक ऐसी ख़तरनाक़ जगह पर
जो ख़ुद मुझे पाँव देने को तैयार नहीं
और
जिसका
कोई स्मरण
कभी
बाक़ी न रहेगा

मालूम होना चाहिए उसे
कि मुझ जैसा कायर कवि नहीं
उसके इस तरह अविस्मरणीय होने की कथा तो
उस जैसा
कोई मनुष्य ही कहेगा !

एक चश्मदीद का बयान…

मैं किसी हत्या के बारे में कुछ नहीं जानता
सरकार !

मैं उस जगह के बारे में थोड़ा-बहुत ज़रूर जानता हूँ
सूत्रों के मुताबिक
जहाँ हत्या हुई
मैं जानता हूँ
उस रास्ते और उससे जुड़ी एक बंद गली के बारे में
और उन आवारा कुत्तों के बारे में भी
जो भूँकते हैं
वहाँ से गुज़रते ही

लेकिन मैं हत्या के बारे में कुछ नहीं जानता

अलबत्ता मृतक को मैं जानता हूँ

आत्महंता जोश से भरी उस अड़तीस की उम्र को
पत्नी की जवान मजबूरियों
और पीछे छूट गए
दो छोटे बच्चों की बड़ी-बड़ी अनभिज्ञताओं को भी
मैं जानता हूँ

हुज़ूर इस दुनिया में
मैं सिर्फ़ उतना जानता और नहीं जानता हूँ
जितना जानने और नहीं जानने से मैं
बच सकता हूँ
आपकी इस महान न्यायप्रिय अदालत में
अगली किसी
ऐसी ही चश्मदीद गवाही के लिए !

(रघुवीर सहाय की स्मृति और चाचा राजेन्दप्रताप्र मौर्य के एक अघोषित गैंगवार से भरे वर्तमान को समर्पित)

एक मध्यप्रदेशीय सामन्ती क़स्बे के आकाश पर…

वहाँ फ़िलहाल कुछ लड़कियों के कपड़े टंगे हैं सूखने को
और सपने भी
जिन्हें वे रात के अंधेरे में देखती और दिन के उजाले में छुपाती हैं

उनके घरों में एक छोटा-सा आँगन होता है जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती है
और पिता पिता की तरह

भाई भाई की तरह नज़र आते हैं वहाँ

इस आँगन के बाहर दुनिया बदली हुई होती है
कुछ लड़के होते हैं जो उनमें रुचि रखते हैं जिसे प्रेम कहना जल्दबाजी होगी अभी

वे रुचि रखते हैं कुछ जवान होते शरीरों में
और उनमें अपने जवान होते शरीरों को मिलाते वे कुछ ऐसी रुचि रखते हैं
जिसमें पसीने की गंध और नमक का स्वाद होता है

रुचि का परिष्कार भी हो सकता है कभी

कभी हम कह सकते हैं प्रेम
और जिसे प्रेम कहते ही खलबली मच जाती है उस आँगन में जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती थी
और पिता पिता की तरह

भाइयों की दुनिया में चाकू की तरह प्रवेश करता है
बहन का प्रेम
जिसे वे उनके और उनके प्रेमियों के हृदय में गहरे तक उतार
अपने आँगन और उसके ऊपर के टुकड़ा भर आकाश की लाज बचाना चाहते हैं

जबकि
वे खुद झांकते रहते हैं दूसरों के आँगनों में
कुछ जवान
कपड़ों
सपनों
और शरीरों की तलाश में

महीने में एक बार तो गूँज ही उठता है बाज़ार देसी कट्टे से चली गोलियों की
धाँय धाँय से
क़त्ल का मक़सद मालूम ही रहता है
जिसे अमूमन अपने रोज़नामचे में नामालूम लिखती है पुलिस

इस तरह इक्कीसवीं सदी में भी
हमारा इस तथाकथित नागरिक सभ्यता में प्रवेश हर बार कुछ कबीलाई निषेधों के साथ होता है

जैसे कि
जब मैं लिख रहा होता हूँ ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ और कविता करने का भरम पालता हूँ
तब कौवो के कुछ झुंड मँडराते आते हैं
उस मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश से
और काँव काँव करते उतर जाते हैं
सुदूर उत्तर में मेरे झील वाले पहाड़ी पर्यटक शहर की बेहद साफ़-सुथरी सड़कों पर
अपने हिस्से का कचरा माँगते

लोग कहते हैं –
अशुभ है यों कचरा खंगालते कौवों का आगमन जीवन में
अशुभ है हज़ारों किलोमीटर दूर तक आती उनकी आवाज़

यों शुभ या अशुभ के बारे में नहीं सोचता हुआ मैं गोलियों और चाकुओं के बारे में भी नहीं सोचता

पर सोचता हूँ –
शायद उन्हें चलाने वाले सोचते हों मेरे बारे में कभी !

(यशवंत सिंह जैवार, उनके प्यार और हम तीनों के ‘पिपरिया’ के लिए)

4 comments
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  1. शिरीष की सुंदर कविताएं पढवाने के लिए बहुत बहुत आभार।
    शिरीष का वह खास मिजाज, जो अपने आस-पास के होने में ही रचनाकार को अपने होने का देखता, इन कविताओं में ज्यादा स्पष्टता के साथ दिखाई देता है।
    जैसे कि
    जब मैं लिख रहा होता हूँ ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ और कविता करने का भरम पालता हूँ
    तब कौवो के कुछ झुंड मँडराते आते हैं
    उस मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश से
    और काँव काँव करते उतर जाते हैं
    सुदूर उत्तर में मेरे झील वाले पहाड़ी पर्यटक शहर की बेहद साफ़-सुथरी सड़कों पर
    अपने हिस्से का कचरा माँगते

  2. मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ…bahut pasand aai…swayam mere anubhv men bhi yah hindi-lok isi tarah basa hai…anya kavitayen bhi utni hi achhi…par jaisa kaha…मैं नैनीताल में लखनऊ…bahut achhi…badhai…

  3. All the poems are extremely good!!

  4. shirish bhai ki kavitataayen hamesha hi pasand aati hain. Vipasha men TASLA kavita padhi, unhen talash bhi kiya lekin baat na ho saki. Sambhav hai aiase log sulabh na hote hon.

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