क्या हम हाम्सुन को पढ़ना छोड़ दें: तेजी ग्रोवर
१८८८ में जब क्नूत हाम्सुन लगभग तीस के थे, वे भूख से मर रहे थे, “एक अटारी में जो चन्द्रमा से सिर्फ तीन फुट की दूरी पर थी,” और उनका अब तक का हासिल कुछ भी नहीं था. अब तक नार्वे के साहित्यिक परिदृश्य से घनघोर नैराश्य ही उन्हें मिला था, और अमरीका तक में तरह-तरह की कड़ी मजदूरी कर चुकने के बाद भी नार्वे लौटने पर भी उन्हें कड़े श्रम और भूखमरी का सामना करना पड़ा.
एक उपन्यास की अधूरी पाण्डुलिपि उनके पास थी जिसका पहला वाक्य था “यह उस समय की बात है जब मैं क्रिस्तियानिया में भूख से मर रहा था, उस शहर में जिसकी छाप लिए बिना कोई उसे छोड़ नहीं सकता…..” उस शहर में उपजे अवसाद को मन में लिए ही वे भूख की अधूरी पाण्डुलिपि लिए एक प्रकाशक से मिलने गये थे. उसी साल पतझड़ के मौसम में भूख की वह अधूरी पाण्डुलिपि छप गयी, और लगभग रातों-रात हाम्सुन स्कान्दिनेविया के दिग्गज लेखकों में शरीक माने जाने लगे.
अगले कुछ सालों में रहस्य और पान प्रकाशित हुए. इन तीन किताबों की आत्मलक्षी शैली उस समय के लिए चौंका देने की हद तक नयी थी, और कई मायनों में अब तक भी बेजोड़ ही साबित हुई है. इन उपन्यासों की बदौलत लेखक आक्सेल सान्देमूसे के अनुसार अन्य नार्वीजी लेखक तो नार्वे में ही विश्व-प्रसिद्ध हैं लेकिन हाम्सुन विश्व में विश्व-प्रसिद्ध हैं. यूरोपीय साहित्य में हाम्सुन आधुनिक औपन्यासिक विधा के अग्रज की हैसियत से प्रतिष्ठित हैं और नार्वे में कोई लेखक स्वयं को हाम्सुन की श्रेणी में रख पाने की हिमाकत नहीं करता.
फिर इस भूमिका के शीर्षक से हाम्सुन के बारे में अभी तक लेख क्यों लिखे जा रहे हैं? हाम्सुन का नाम हर नार्वीजी के मन के एक रिसते हुए घाव की तरह क्यों अंकित है? नार्वे में हाम्सुन की किताबें हजारों लोग चोरी-चोरी खरीद कर क्यों पढ़ते हैं? जी-जान से प्यारे इस लेखक को लेकर हम-वतन इस हद तक मन ही मन आहत क्यों हैं? नार्वे का कोई मार्ग हाम्सुन-मार्ग नहीं कहलाता न अगले वर्षों तक कहलायेगा. इस सबके बावजूद हर वर्ष हाम्सुन की हर किताब की ३०००० प्रतियाँ यींलदॉल प्रकाशन से बिकती हैं. अमरीकी उपन्यासकार हैनरी मिलर के अनुसार अगर ये ३०००० प्रतियाँ केवल नात्जी ही खरीद रहे होते तो नार्वे का भविष्य काफी मनहूस दिखायी देता.
दुनिया के नक्शे में उत्तर यूरोप के नन्हीं सी इल्ली-नुमा इस देश में जहां मीलों-मील लोग ढूँढे+ नहीं मिलते, हाम्सुन को पढ़ने और चाहने वाले लोग बड़ी संख्या में पाये जाते हैं- यह साहित्य में शिद्दत से जीने-मरने वाले लोग हैं. हो सकता है वे हाम्सुन नाम की पहेली से क्षुब्ध, आहत और अचम्भित हों, लेकिन वे हाम्सुन को इस कौतूहल से तो निश्चित ही नहीं पढ़ते कि देखें तो सही कि हिटलर के समर्थक इस विक्षिप्त लेखक की किताबों में उस खौफनाक विचारधारा के कोई संकेत मौजूद भी हैं या नहीं. हम उन नात्जी सैनिकों के बारे में भी आखिर क्या जानते हैं जो हाम्सुन के महाकाव्यात्मक उपन्यास माटी की फसल को अपनी वर्दी की सीने वाली जेब में लिए इतिहास के क्रूरतम अध्यायों में गोटियों की तरह चले जा रहे थे? साहित्यिक कृतियों को जुनून की हद तक चाहने वाले लोगों का लघुतम समापवर्त्य आखिर क्या हो सकता है और इन कृतियों के लेखकों का?
कोरे तथ्य इस प्रकार हैं – नार्वे १९४० से १९४५ तक नात्जी जर्मनी के कब्जें में था. नार्वे में तो हाम्सुन अगाध प्रेम और श्रद्धा के पात्र थे ही, लेकिन अब तक तो वे दुनिया भर के इने-गिने दिग्गजों में माने जाने लगे थे. नार्वे में जर्मनी की उपस्थिति के रहते हाम्सुन जर्मनी का समर्थन करने लगे थे. हाम्सुन जो अब तक अपने हमवतनों के अजीजदार थे, अब गद्दार की हैसियत से उनकी हिकारत के पात्र बने जब तक कि यह साबित न कर दिया जाता कि वे पागल हो चुके थे. पुलिस की हिरासत में हाम्सुन पर मुकदमा चलाया गया और इस प्रसंग का इतिहास अब नार्वे तक ही महदूद नहीं रह गया है. जिस क्रूरता से मनोचिकित्सीय जाँच के बहाने वृद्ध हाम्सुन को यातना दी गयी, वह डेनमार्क के लेखक थॉरकिल्ड हाम्सुन की पुस्तक प्रोसेसेन में पैने और मार्मिक विवरणों के साथ दर्ज है, भले ही इस पुस्तक के लेखक ने हाम्सुन को इस कदर शिद्दत और अकीदत से उबारने में खुद को तबाह करलिया. इस पुस्तक से आर इसके लेखक प्रति हुई प्रतिक्रिया से इस बात का अनुामन सहज ही लगाया जा सकता है कि केवल नात्जी ही नात्जी नहीं थे. हाम्सुन को बुरी तरह तोड़ देने की कोशिश की गयी बिना उस जीवन को बारीकी से देखे जिसमें वह लेखन मौजूद था जो ऑस्मंड ब्रिनिलसन के अनुसार ‘उस मूढ़ फलसफे का अनवरत विखण्डन था.’ हिटलर से एक ऐसी मुलाकात समेत जिसके बाद हाम्सुन हिटलर की बॉल्कनी पर जाकर जार-जार रोने लगे थे, हाम्सुन के पूरे जीवन में ऐसा क्या हो सकता था जिससे उनके नात्जी होने का आभास मिलता हो? नार्वे में हिटलर के कॉमिसार तर्बोफन से कई बार वे नार्वीजी नौजवानों की जान बचाने अपील करने जाया करते थे. वे इस हद तक खुद को जोखिम में डाल तर्बोफन और बाद में हिटलर तक से उलझ बैठे थे कि अन्ततः उनके लिए पूरी तरह बेकार सिद्ध हुए. आट्टले शिट्टाँग हाम्सुन पर अपनी पुस्तक बयार हवा कुछ नहीं में लिखते हैं कि प्रतिक्रियावादी हाम्सुन से नात्जी और गद्दार हाम्सुन तक कोई सीधी लकीर नहीं है. आप बेकार में यहूदियों के प्रति घृणा और जातिवाद के संकेत हाम्सुन में ढूँढ़ने लगते हैं …… हाम्सुन के प्रसंग में विचारधारा एक तरह की अचेतन वाणी है- निरपेक्ष की एक ऐसी जरुरत जिसमें वे खुद को प्रतिबिम्बित कर सकते. नार्वीजी लेखक ऑक्सेल साँदेमूसे हाम्सुन को हाम्सुन के बावजूद वापिस चाहते हैं, अपनी वृद्धावस्था में जो कुछ वे कर गुजरे, उसके बावजूद. हम कोई बहाने नहीं बनाना चाहते, न हाम्सुन को बरी करना चाहते हैं- ऐसा करने से हाम्सुन में सत्तावाद के चिह्न ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, वह प्रकृति की दुर्बोध सम्मोहकता को लक्ष्य करते हैं – किसी चरित्र द्वारा सरल जीवन की ऐसी परिकल्पना में जो समकालीन जीवन की धन-लोलुपता और आपाधापी से बहुत परे हो. समस्या सिर्फ इतनी है कि हाम्सुन में लिखा हुआ जीवन कतई सरल नहीं है. स्वप्न और भाषा की सम्मोहकता में लगभग हमेशा नैराश्य और मोहभंग के कूट दिखायी देते हैं. पान का ग्रीष्म-सूर्य नूर्रलाँड के लोगों पर दिन-रात चमकता है, फिर भी वे अबूझ हैं, रहस्यों से सराबोर, और अपनी ही छायाओं से लड़कर खुद को खाक किए दे रहे हैं, जबकि जंगल में प्रकृति-देव पान की सरसराहट के सहारे ही आप इस उपन्यास को पढ़ रहे होते हैं.
यह उपन्यास उत्तरी नार्वे की ग्रीष्म ऋतु के अमिट सूर्य में लिखा गया है, उसी मनस्थिति में जिसमें शायद किशोर हाम्सुन पशु चराते समय पीठ के बल लेट कर अपनी तर्जनी से आसमान पर अपना नाम लिखा करते थे. हमें यह तो मालूम कि जिस समय हाम्सुन यह अचरज कर रहे थे कि क्या उन्होंने मरुस्थल में बहुत जोर से पुकार लगायी है, और प्रसंग भी वही है जब उन्होंने यह ख्वाहिश जाहिर की थी कि वे “कोई और ही रास्ता अपनाना चाहेंगें, कुछ ऐसे धीर-धरे शब्दों से जो खिड़कियों के सामने से छाया की तरह गुजर जाये.”