आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

हिंसा के संत्रास को सुनना: सदन झा

भारत विभाजन पर एक शोधकर्ता की टिप्पणी

वक्ताओं और श्रोताओं
उत्तर भारत में एक लोकोक्ति प्रचलित है –

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुन इठलाइहें लोग सब, बांट न लीन्हें कोय॥

यह कहावत पीड़ा भोग रहे व्यक्ति के लिए एक तरह की सामाजिक चेतावनी है, या इसे एक मनोवैज्ञानिक सलाह भी कहा जा सकता है।

मेरी रुचि इस लोकोक्ति में निहित नैतिक संदेश में या उसकी पुनर्व्याख्या करने में नहीं है। मेरी दिलचस्पी लोक विवेक के उस घटक को समझने में है जो किसी के साथ अपना दुख बांटने या किसी की तकलीफ को सुनने को दो व्यक्तियों के बीच की निहायत गंभीर अंतःक्रिया के रूप में स्थापित करता है। लोगों के सामने अपनी कमजोरी जाहिर हो जाने की आशंका व्यक्ति के लिए अपना दुख बांटने को बहुत मुश्किल बना देती है। लोग आप की बात सुनकर आप पर हंसे नहीं यह आशंका श्रोता जुटाने की प्रक्रिया को और भी दुरूह बना देती है।

विभाजन पर शोध/हिंसा से मुठभेड़

सुनने के विविध आयामों के प्रति मेरी रुचि तब जागी जब मैं आशीष नंदी के निर्देशन में विकास अध्ययन केंद्र दिल्ली में “जीवन का पुनर्सृजन” परियोजना से शोधकर्ता के रूप में जुड़ा। इस परियोजना के तहत १९४७ के भारत विभाजन के दौरान हिंसा में जिंदा बचे लोगों के मौखिक इतिहास और अनुभवों को जुटाया और उनका विश्लेषण किया गया था। विभाजन पर अध्ययन करने वालों के बीच इस दौरान हुई हिंसा में मरने वालों की संख्या को लेकर भारी मतभेद है और यह संख्या २ लाख से लेकर २० लाख के बीच झूलती नजर आती है। इस दौरान विस्थापित हुए लोगों की संख्या निश्चय ही इससे कहीं ज्यादा है। दरअसल विभाजन पर लिखते हुए आंकड़ों का इस्तेमाल खास तरह की ऐतिहासिक संवेदनशीलता के साथ किया जाता है। जैसा कि इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे ने कहा भी है कि इस उपद्रव के ऐतिहासिक विमर्श के साथ सत्यापित किए जा सकने वाले तथ्यों की बजाय अफवाहों, अटकलों पर आधारित, मनमाने, अतिरंजनापूर्ण, अपुष्ट किंतु विश्वसनीय आंकड़ों का ठप्पा हमेशा लगा रहेगा। विभाजन के संत्रास को बताने के लिए गंभीर अध्येताओं और दक्षिणपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं, दोनों ने समुदायों के लोगों की संख्याओं और प्रतिक्रियाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया है।

पाकिस्तान से विस्थापित हुए अनेक शरणार्थी बाद के वर्षों में दिल्ली या उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों में बस गए। इस परियोजना के तहत शोध के लिए मैंने वर्ष २००१-०२ के दौरान दिल्ली, अजमेर और जम्मू के गांवों में घूम-घूम इन विस्थापितों से साक्षात्कार किए।

विभाजन के दौरान हुई हिंसा में जिंदा बचे लोगों को लेकर ज्यादातर शोधवृत्तियां उन वक्ताओं की स्मृतियों पर आधारित वर्णन की भाषा के अनुसंधान तक सीमित हैं, जो यह देखती हैं कि बात को कितना समस्याग्रस्त बना कर  प्रस्तुत किया गया है। जबकि स्रोता के सुनने की प्रक्रिया पर शायद ही कोई ध्यान दिया गया हो। हिंसा, स्मृति और भाषा के प्रति सुनने वाले की दृष्टि के बीच संबंध पर भी शायद कभी ध्यान नहीं दिया गया। भाषा के अनुसंधान के लिए वक्ता की बजाय स्रोता की दृष्टि पर ध्यान देते ही हिंसा के बोझ और हिंसा की स्मृति किस तरह के ज्ञान के निर्माण के क्षेत्र पर छाई रहती है, इसे बांटने के आयामों को समझने के लिए दूसरी ही दृष्टि मिलती है। यह बदलाव हमें यह समझने में मदद करता है कि एक साक्षात्कार के दौरान हिंसा कैसे एक से दूसरी जगह पर प्रत्यारोपित होती है। उन अनुभवों को सुनते हुए हम सोचने लगते हैं कि जिन लोगों ने हिंसा का सामना किया उन पर क्या बीती होगी।

मनोवैज्ञानिक डोरी लॉब होलोकॉस्ट में जिंदा बचे लोगों के संदर्भ में लिखते हुए बताते हैं

संत्रास को भोगने वालों की बातों को सुनते हुए स्रोता स्वयं भी आंशिक रूप से उस संत्रास का भोक्ता बनने लगता है।

लॉब का अनुकरण करते हुए यह पूछा जा सकता है कि: सामुहिक हिंसा के विवरणों को सुनना स्रोता पर क्या असर डालता है? और, पीड़ित की मनःस्थिति (यहां तक कि उसकी देह भी) कैसे जवाब देने वाले से प्रश्नकर्ता में प्रत्यारोपित हो जाती है?

मेरे लिए यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो गए। इन्होंने मुझे न सिर्फ जनहिंसा की उस तर्कहीन राजनीति को समझने की कोशिश करने के लिए बाध्य किया बल्कि एक साक्षात्कारकर्ता या स्रोता के रूप में और साथ मैं जिनका साक्षात्कार कर रहा था उनकी बातों का पुनःलेखन करने वाले व्यक्ति के रूप में मैं जो नया व्यक्ति बन रहा था उसे भी समझने के लिए प्रेरित किया।

शोध के दौरान हुई इन मुलाकातों के परिणामस्वरूप मैं इस बात में विश्वास करने लगा कि साक्षात्कारकर्ता या अभिलेख जुटाने वालों की उपस्थिति जितनी ज्यादा होती है अभिलेखागारों में अधिकारिताओं को बनने से रोकने में उससे उतनी ही ज्यादा मदद मिलती है। इस परियोजना के संदर्भ में भी (खासतौर से उस भाग के संदर्भ में जिससे मैं जुड़ा रहा) सुनना ज्यादा प्रासंगिक होता है, क्योंकि साक्षात्कारकर्ता और जवाब देने वाला व्यक्ति इस तरह के संवाद में संलग्न हो जाते हैं जो पूरी तरह किसी ढांचे में बंधा नहीं होता और ऐसे में जवाब देने वाले और प्रश्नकर्ता दोनों के ही मन में उसकी बात को पूरा न सुना जाने की आशंका भी मंडराती रहती है।

धीरे-धीरे मुझे यह अहसास होने लगा कि यह नियोजित ढंग से सुनने की गतिविधियां, अधूरे साक्षात्कारों की स्मृतियां और हिंसक अतीत के विविध अनुभव जिन्हें में लगभग नियमित रूप से सुन रहा था, उन्होंने मेरे सपनों में जगह बनाना शुरू कर दिया है। मुझे खुद अपने लिए इन अनुभवों के विवरणों को पेश करने की जरूरत महसूस होने लगी थी, ताकि मैं जिस तरह की आत्मपरकता से गुजर रहा था उसे परानुभूति के साथ लेकिन आलोचनात्मक दृष्टि से समझा जा सके। मुझे इस बात की भी आवश्यकता महसूस होने लगी कि मैं अपने काम में स्मृतियों के पुनर्निर्माण की जिस तर्कहीन भावभूमि पर खड़ा था उसके असंगत पहलुओं का भी सामना कर सकूं।

यहां मैं इस प्रक्रिया के दौरान उभरी कुछ छवियों और प्रतिक्रियाओं को इकहरे विवरणों के रूप में नहीं बल्कि अनुभवों के उन टुकड़ों के रूप में प्रस्तुत करूंगा जिन्हें मैं उसी रूप में सुना करता था। उन्हें अलग-अलग समय में, विभिन्न भौगोलिक स्थानों पर लिखा गया है, जहां से कि उन्हें जुटाया भी गया था।

शांति बाई/चिमनी बाई, दिल्ली, २००१

मुझे अब उनका चेहरा याद नहीं। जो लोग मुझे जानते हैं वे कहते भी हैं कि मैं जल्दी भूल जाता हूं। मैं पिछली बार जब उनसे मिला इस बात को भी लंबा वक्त गुजर चुका है। दरअसल मुझे उनसे फिर मिलने की कोई जरूरत भी महसूस नहीं हुई। उनके साथ मेरी एकमात्र पहली मुलाकात ही मेरे लिए पर्याप्त थी। कहा जा सकता है कि हर लिहाज से पूर्ण। उस समय की एक छवि, समय का एक टुकड़ा मेरी स्मृति में दर्ज है, लेकिन उनका चेहरा मुझे बिल्कुल भी याद नहीं। प्रेम, ऊष्मा और दर्द, उस मुलाकात का जो मुझे याद है, उसका सार बस यही है। इनमें से किसी ने भी मेरी स्मृति को धोखा नहीं दिया है। वे सब मेरी अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे उतरे। शायद यही वह कारण है कि मैंने दुबारा कभी जा कर उनसे मिलने के बारे में सोचा तक नहीं।

मुझसे कहा गया था कि मैं उनसे फिर मिलूं, ज्यादा से ज्यादा बातचीत करूं ताकि उनके जीवन के बारे में और ज्यादा जानकारियां हासिल कर सकूं, लेकिन मुझे फिर कभी उनसे मिलने की इच्छा तक नहीं हुई। असल में मेरे मन में एक तरह का डर बैठ गया था। यह सच है कि मुझे खुद भी उनसे कम से कम एक और मुलाकात की जरूरत महसूस होती थी, लेकिन मैं जानबूझ कर दुबारा उस गली में भी जाने से कतराने लगा, जिसमें वह रहती थीं। मैं उस दर्द को फिर से सहन नहीं कर सकता था।

उसी दिन, जब मैं उनसे विदा ले रहा था तब ही मैं जानता था कि मैं अब कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगा, फिर भी मैंने उनसे कहा कि मैं फिर आऊंगा और उनसे उनकी जिंदगी के बारे में और बातचीत करूंगा। उन्होंने बहुत मासूमियत के साथ मेरी बात को मान लिया और मुझे खुला आतंत्रण दिया कि मैं जब भी चाहूं उनके पास जा सकता हूं।

लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। उनसे दुबारा मिलना हमेशा स्थगित ही रहा, और हमेशा के लिए निरस्त हो गया। मुझे याद है कि उस दिन जब मेरी उनके साथ बातचीत खत्म हुई उस वक्त मैं कितना उत्तेजित था और किस संत्रास से गुजर रहा था। मुझे याद नहीं कि मैंने ठीक-ठीक कब और कैसे उनसे विदा ली। मेरी स्मृति मेरे उस अलगाव के क्षण को दर्ज नहीं कर सकी। हालांकि मुझे लगभग वह पूरा क्रम याद है जिसमें यह साक्षात्कार आगे बढ़ा। उस मुलाकात के अंत की विस्मृति के पीछे इसके अपने कारण तलाशे जा सकते हैं। संभवतः इसकी अपनी व्याख्या किए जाने की आवश्यकता भी है। मैं उनमें से कुछ कारणों का अनुमान कर सकता हूं, और मुझे उनकी परवाह भी है। लेकिन मेरा फटाफट किसी चतुराईपूर्ण सफाई के साथ उनसे छुटकारा पाकर उनसे दूर खड़े हो जाने का इरादा नहीं है। मैं चाहता हूं कि उस मुलाकात का रोमांस उसी मुलाकात से उपजी हिंसा, संत्रास और तकलीफ में समाविष्ट हो जाने का प्रतिरोध करता रहे।

यह एक ऐसा साक्षात्कार है जिसे मैं उसके अधूरेपन के बावजूद हर लिहाज से पूर्ण पाता हूं। शोक और हिंसा का एक दृश्य इसी तरह के अन्य दृश्यों की तरह मेरे सामने अभिनीत किया गया और जिसे मैंने असंख्य उतार-चढ़ावों के साथ अनेक अवसरों पर सुना। फिर भी चेतना के मैदान में मैं अब भी उस एक मुलाकात की चौखट में कैद हूं। इस पाठ को लिखना मेरे लिए खुद को उस कड़ी से मुक्त करने की तरह है। ऐसा कहा जाता है कि लेखन यादों को उनमें बसी हिंसा से मुक्त करता है। हालांकि उन संत्रासकारी अनुभवों को लिखना अपने आप में बेहद पीड़ादाई प्रक्रिया है। यह एक दूसरे किस्म की हिंसा है।

धानी राम, जम्मू दयारन शिविर (मिस्रीवाला के पास), जम्मू कश्मीर, २००२

उसने कहा, “रामधारी हो जाए, सुलह हो जाए। रामधारी होनी चाहिए.” (शांति हो जाए और दोस्ती हो जाए। शांति बनी रहनी चाहिए।)

रामधारी होने का आशय उस अवस्था से है जिसमें कोई दुश्मन नहीं होता, जहां सिर्फ प्यार होता है, सब तरफ सिर्फ प्यार।

उसने रामधारी शब्द का यह अर्थ मुझे समझाया। मैं उसके साथ हाल ही बनाए गए अस्थाई राहत शिविर में बैठा बात कर रहा था। हालांकि मुझे बहुत तीव्रता के साथ यह महसूस हो रहा था कि वह सिर्फ मुझसे बात नहीं कर रहा है। वह अपनी सारी उम्मीदों और अपनी तमाम निराशाओं को भी संबोधित कर रहा था। बार-बार विस्थापन का शिकार धानीराम अपने बचपन के बारे में बहुत बात करता है। उसने अपनी मातृभाषा डोगरी में गीत गाने के बारे में बात की, ऐसे गीतों की बात जो देवी मां को समर्पित होते हैं। उसने काउड़ी के खेल के बारे में बात की, जिसे खेलना उसे अपने बचपन में बहुत पसंद हुआ करता था। फिर उसने इस बात पर अफसोस जताया कि अब तो सब लोग टीवी देखते हैं और कोई भी डोगरी में बीत नहीं गाता। जब मैंने उसे जीवन के खुशनुमा अनुभवों के बारे में पूछा (मुझे इस तरह के प्रश्न पूछने के निर्देश दिए गए थे) तब उसने कहा, मैं बचपन में खुश रहना जानता था। अब मैं खुशी को नहीं जानता। मैं सुबह खाना खाता हूं तब मुझे नहीं मालूम होता कि शाम को क्या होने वाला है। यहां सिर्फ दुख हमारे साथ हैं, खुशी नहीं।

लंबोदरनाथ, मिस्रीवाला शिविर, जम्मू २००२

मिस्रीवाला शिविर के निवासी लंबोदरनाथ की याददाश्त बहुत अच्छी है, लेकिन मुझे खासतौर से उसके गहरे अकेलेपन और उदासी ने उसकी ओर आकर्षित किया। वह अकेला रहता है। खुशी के बारे में उसने कहा ÷कोई खुशी नहीं है। मैंने कभी खुशी महसूस ही नहीं की। बचपन से लेकर अब तक कभी नहीं। जैसे देखों मैंने जिंदगी में कभी नए कपड़े नही पहने, घमंड से मुझे नफरत है।’

मैं स्वयं, सदन झा, साक्षात्कारकर्ता

हिंसा के अनुभवों को सुनने की इस यात्रा के दौरान मैं स्वयं अनेक पड़ावों से गुजरा। शुरू में हिंसा और विस्थापन के जिन अनुभवों और विवरणों को मैं सुनता था उनके प्रति मैं काफी उदासीन रहता था। मेरे पास आधुनिक भारतीय इतिहास की अकादमिक पृष्ठभूमि थी। मैं १९४७ में भारतीय उपमहाद्वीप में विभाजन के काले इतिहास से जुड़े पाठों और विवरणों के बारे में पढ़ता रहा था और अब इस संबंध में की जाने वाली शोधवृत्तियों से परिचित था।

विभाजन से जुड़े मेरे अब तक के अध्ययन के कारण मेरी जो अपेक्षा बन गई थी उसकी तुलना में मेरा सामना अब तक ऐसे प्रकरणों से नहीं हुआ था जिन्हें बहुत गंभीर हिंसा की कार्रवाइयों के रूप में दर्ज किया जा सके। अपने काम के दौरान मेरा सामना जिस तरह के प्रकरणों से हो रहा था उनमें शारीरिका हिंसा कई बार बहुत मुखर या स्पष्ट सामने नहीं आती थी। लेकिन विस्थापितों की तादाद तो निश्चय ही बहुत ज्यादा थी, और फिर जिस तरह के विवरणों को मुझे सुनना होता था वे ही मुझे व्यस्त रखने के लिए काफी थे। सभी विवरणों को बहुत सावधानीपूर्वक सुनने और जहां जरूरी हो वहां आवश्यक हस्तक्षेप के लिए सतर्क रहने के लिए मैंने खुद को काफी तैयार कर लिया था। इसके लिए मुझे अपनी उदासीनता से भी जूझना पड़ता था। जल्दी ही इस स्थिति ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। मुझे लगातार जुकाम रहने लगा। यह जुकाम ठीक नहीं हो रहा था और तब मुझे इस बात का अहसास हुआ कि साक्षात्कार के दौरान जैसे ही हिंसा और संत्रास का जिक्र आता मुझे खांसी का दौरा उठने लगता था। जैसे ही साक्षात्कार देने वाला व्यक्ति विभाजन के दौरान भोगी तकलीफों का जिक्र शुरू करता, मुझे जबरदस्त खांसी उठने लगती, जो रोके नहीं रुकती थी। इस खांसी के दौरे के साथ ही बहुत थकान भी महसूस होने लगती थी। अधूरे साक्षात्कार, अस्वीकार और संभावित साक्षात्कार देने वालों के मुलाकात से इनकार के कारण मुझे बुरे सपने आते और मैं रातों को ठीक से सो नहीं पाता।

अपने फील्ड वर्क के दौरान मैंने जाना कि मेरे भीतर भावनाओं का तूफान मचा हुआ है। मेरे भीतर गुबार फूट पड़ता कभी खुद अपने प्रति तो कभी मेरे प्रश्नों के जवाब देने वाले लोगों के प्रति। मेरे मन में धीरे-धीरे यह बात घर करने लगी कि इस तरह की बातचीत में शामिल कर मैं अपने सवालों के जवाब देने वालों को फिर से उसी हिंसा में झोंक रहा हूं। मैं जानता हूं कि खुद उन्हें इस बात का अहसास नहीं है लेकिन मेरा यकीन है कि हर मुलाकात के दौरान उनके प्रति अनेक परोक्ष रूपों में हिंसा होती है।

इसके अलावा जब भी मुझे अस्वीकार कर दिया जाता या कोई साक्षात्कार बीच में छूट जाता, और खासतौर से उन लंबे अंतरालों के दौरान जब मेरे प्रश्नों के जवाब देने वाले व्यक्ति अपने जीवन के ऐसे विवरणों के बारे में बताने लगता जो मेरी राय में अनउपयोगी या उबाऊ होते, तब समाज शास्त्र में मेरे अब तक के प्रशिक्षण के किन्हीं कोनों में से यह हिंसा बाहर निकल आती। मुझे अब अहसास होता है कि मेरे भीतर इस तरह का हिंसा तब ज्यादा सर उठाती थी जब मैं स्वयं अपनी प्रतिक्रिया की प्रकृति को समझने में नाकाम रहता था, और ऐसा मेरे साथ बार-बार होता था। कुछ हद तक मेरी देह उस हिंसा को दर्ज करती थी, लेकिन उसे समझने और उसके साथ संगति बिठाने में नाकाम रहती।

मुझे अब भी नहीं मालूम कि क्या इस प्रश्न का भाषा और संत्रास के बीच के संबंध के साथ कोई सरोकार है या नहीं, या यह हिंसा के ज्ञानमीमांसात्मक पहलू का ज्यादा सामान्य मसला है। अब मुझे अमूर्त प्रश्न ज्यादा आकर्षित करने लगे थे। मुझे इस बात पर यकीन हो चला था कि मैं अपने शरीर और खुद अपने आप को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा हूं। मेने एक ऐसी मनःस्थिति विकसित कर ली जिसमें मैं खुद ही हिंसा का शिकार भी होता था और उसका कर्ता भी होता था।

इतना ही नहीं, मैं खुद यह चाहता था कि कोई मुझे भी सुने।

2 comments
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  1. sadanji ki is anubhav-yatra se gajarna bahut achha laga. we lok aur shastra donon men sidhh hain aur apne lekhan men uska sahaj upyog karte hain. lok katha ke shilpa men likhne ka andaz unke lekhan ki vishishtta hai, jise yahan bhi parha jaa sakta hai.

  2. सदन !
    खूब स्पष्ट आ गहींर भाव-विचार…
    साधुवाद !

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