आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नीता गुप्ता से प्रतिलिपि की बातचीत

१. आखिर कैसे शुरू हुआ है यह सब? हिंदी में साहित्यिक प्रकाशन शुरू करने के पीछे क्या कारण थे?

अच्छी पुस्तकें छापना, अलग तरह की पुस्तकें छापना, भारतीय भाषाओं के साहित्य के प्रकाशन के स्तर को ऊँचा उठाना और स्तरीय अनुवाद के ज़रिये अँग्रेज़ी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को हिंदी में लाना. प्रकाशन का काम शुरू करने के पीछे शुरुआती कारण यही थे. बहुत हद तक आदर्शवादी और मुश्किल!

२. तब आपकी हिंदी की साहित्यिक दुनिया या संस्कृति के बारे में क्या समझ थी? क्या आपको पहले से कुछ एक्सपोजर था?

मैं पिछले १५ वर्षों से भारतीय अनुवाद परिषद से जुड़ी हुई थी. अनुवाद और साहित्य से जुड़े लोगों की राय,उनके अनुभव और उनकी आवश्यकता से मैं वाकिफ थी. मुझे लगा कि हिंदी में न केवल अँग्रेज़ी या किसी विदेशी भाषा का कथा-साहित्य, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं का कथा-साहित्य भी अनूदित होकर आना चाहिए और साथ ही हिंदी के कथा-साहित्य को भी इन भाषाओं में जाना चाहिए. हम हिंदी की ज़मीन पर खड़े होकर देशी-विदेशी जितनी भाषाओं के साहित्य से संभव हो सके, हिंदी के पाठकों का संबंध जोड़ना चाहते थे.

३. क्या आपको अब भी लगता है जैसे आप हिंदी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं?

ऐसा अभी ही नहीं, कभी नहीं रहा. “हिंदी संस्कृति” से आप क्या अर्थ निकाल रहे हैं, मुझे नहीं पता. लेकिन हिंदी की संस्कृति का मतलब मेरे लिए हिंदी साहित्य की महान परंपरा को, जहां तक संभव हो सके, जानना है. मैं हिंदी की राजनीति को भले न जानती होऊँ, पर संस्कृति को तो समझती ही हूं.

४. तब आप लोगों का हिंदी साहित्य के बाज़ार के बारे में क्या आकलन था? क्या वह सही निकला?

यह सवाल सही है. हिंदी साहित्य के बाज़ार के बारे में तब मेरी समझ वैसी नहीं थी, जैसी अब विकसित हुई है. तब मेरा दृष्टिकोण आदर्शवादी ज्यादा था, बाज़ार क्या चाहता है, इसकी समझ या परवाह होने के बदले.

५. अपने प्रतिद्वंदियों, हिंदी के स्थापित प्रकाशकों राजकमल, वाणी, ज्ञानपीठ के बारे में क्या राय थी/है?

उनके पास जिस तरह के लेखक हैं, जिस तरह की किताबें हैं, मार्केट में उनकी जो स्थिति है, इन सब बातों के लिए मेरे पास उनके लिए ढेर सारी तारीफ है, लेकिन लेखकों के साथ उनके जिस तरह के संबंध हैं, जो सुनने में आते हैं, वे मेरे लिए चिंता के विषय हैं. उनके बारे में जो मेरी समझ बनी है,उस के आधार पर मेरा शुरू से उद्देश्य यह रहा है कि लेखकों के साथ हमारे प्रकाशन का संबंध पारदर्शी हो और हम लेखकों को पर्याप्त सम्मान और सहयोग दें.

६. आपको हिंदी में प्रकाशन करते हुए अब चार बरस हो रहे हैं. यात्रा/पेंगुइन की मुख्य उपलब्धियां क्या हैं आपकी नज़र में?

अनुवाद के लिए हमारे पास पेंगुइन की अच्छी किताबों की लंबी लिस्ट का होना और किताबों या लेखकों के बारे में खुला नज़रिया रखना हमारी सबसे बड़ी ताकत है. इसकी बदौलत हमने इन चार सालों में “श्रेष्ठ कहानी संग्रह” श्रंखला के अंतर्गत समकालीन हिंदी कहानी के प्रायः सभी महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों को अपने प्रकाशन से जोड़ा है. इसके अलावा बिल्कुल नए और अलग या ज्वलंत मुद्दों पर भी हमने किताबें छापी हैं. कुछ बेहद ख़ास शोधों को भी छापा है. बनारसीदास द्वारा लिखित किताब “अर्धकथानक”, जो कि हिंदी की पहली आत्मकथा है, उसे छापा है. बाज़ार की चिंता किए बग़ैर!

७. इन चार बरसों में हिंदी में दुर्भाग्य से जो मज़बूत लाइब्रेरी संस्कृति है उसका सामना आपने कैसे किया?

दुर्भाग्य से, हमें इसका जितना फायदा मिल सकता था या जितना हमें उठाना चाहिए था, वह हम उठा नहीं पाए हैं क्योंकि हम पाठकों तक सीधे पहुंचने की कोशिश में लगे रहे और लाइब्रेरी में किताबें पहुंचाने की “तरकीब” नहीं समझ पाए, लेकिन हमें उस तरफ भी थोड़ा ध्यान तो देना ही होगा. हालांकि मैं फिर कहना चाहती हूं कि हम अपनी किताबें सीधे पाठकों तक पहुंचाने के हिमायती हैं.

८. पिछले साल आपने देहरादून में एक नया प्रयोग किया सीधे पाठकों तक जाने का. कैसा रहा वो अनुभव?

बहुत ही कामयाब! नतीजतन हम इस साल फिर देहरादून जा रहे हैं और साथ ही भोपाल, बीकानेर, लखनऊ और पटना जाने की भी योजना बना रहे हैं.

९. हिंदी में अनुवाद की स्थिति बहुत प्रिमिटिव है? क्या अब फोकस हिंदी में मौलिक न प्रकाशित करके अनुवाद करने की तरफ जा रहा है?

हम दोनों पर बराबर ध्यान देना चाहते हैं. हिंदी के अनुवादकों में प्रोफेशनलिज्म का अभाव हमारे लिए बहुत बड़ी समस्या है! बावजूद इसके कि हिंदी में अनुवाद की एक महान परंपरा है, परंतु वर्तमान समय में हिंदी में अच्छा अनुवाद बहुत बड़ी चुनौती की तरह है.

१०. हिंदी/भारतीय भाषाओं के किसी  लेखक को पुनर्प्रकाशन के लिए चुनते वक्त क्या आधार होते हैं?

नए समय में उनकी प्रासंगिकता क्या है और उनके पाठक कौन हैं? मोटे तौर पर यही हमारे लिए किसी भी रचना के पुनर्प्रकाशन के लिए चयन के आधार हैं.

११. उदय प्रकाश हिंदी में लगभग फिनामिना हैं. वे सवार्धिक पढ़े जाने वाले, बिकने वाले लेखक भी माने जाते हैं. आपका कैसा अनुभव है?

यह बात सही है. उनकी दो किताबें हम छाप चुके हैं और अभी वे हमारे लिए एक उपन्यास लिख रहे हैं.

१२. क्या आप पॉपुलर की ओर शिफ्ट कर रहे हैं?

नहीं, हम पॉपुलर की ओर भी ध्यान देना चाह रहे हैं.

१३. क्या आपने भारतीय भाषाओं के लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत किया है?

हां, बिल्कुल. फ्रैंकफर्ट बुक फेयर, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल या और भी तरह से हम भारतीय भाषाओं के लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत करने का काम तो कर ही रहे हैं, बल्कि अब यह कुछ और योजनाबद्ध ढंग से भी हम करने जा रहे हैं.

१४. हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्शन की क्या संभावनाएं हैं? यात्रा में?

यात्रा हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्शन के लिए एक मंच के रूप में तो उभरा ही है. हिंदी साहित्य और साहित्यकारों को अनुवाद के माध्यम से या कार्यक्रमों में भागीदारी के माध्यम से हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर ढंग से लगातार प्रस्तुत कर रहे हैं. इससे हमारी भी स्वीकार्यता बढ़ी है. अभी भी हम नई संभावनाओं की खोज कर ही रहे हैं, क्योंकि जितना हमने किया है और उसके जो परिणाम सामने आ रहे हैं, उससे हमारा उत्साह बढ़ा है. हम अपनी किताबें दुनिया के तमाम देशों में मौजूद हिंदी-प्रेमियों के बीच सीधे पहुंचाने की योजना बना रहे हैं. अप्रवासी हिंदी लेखकों को भी अपने प्रकाशन से जोड़ रहे हैं. आप भी इसी तरह के प्रयास में लगे हैं, अपने ढंग से. आप ठोस काम करने की दिक्कतों को खुद समझ सकते हैं.

Leave Comment