हर की पौड़ी से ख़त: मीनाक्षी ठाकुर
एक शाम हर की पौड़ी से ख़त बनारस के मित्रों को
यहाँ गंगा बहुत चंचल है
पानी लहरे बन बहती ही चली जाती है
ठहराव यहाँ का स्वभाव नहीं
बड़ी ऊँची लगी फ्लडलाईटें
अपनी लाल नीली रोशनी से
अन्दर झाँकने की कोशिश करती हैं
उनकी भी परछाइयाँ ठहरती नहीं
बहती चली जाती है
कैसे कोई रोके इस पल को
कोशिश तो की थी मैंने भी
झुककर मुठ्ठी भर नदी
और साथ बहती रौशन परछाइयाँ
पी ली जब हमने
तो घूँट भर जिंदगी मिली मुझे फिर
लेकिन मेरी परछाई फिसल गई
और बह गई सर्र से तेज धारा में
जरा ढूँढना तुम अपने शहर में
थोड़ी शान्त हुई सी गंगा में
शायद मिल जाए मेरी परछाई तुम्हें
घाट किनारे ठहरी हुई
हरिद्वार ख़ामोश ख़त
एक ख़त लिखने की इच्छा है
जिसमें शब्दों का शोर न हो,
सिर्फ़ निर्झर बहती ख़ामोशियाँ हों
हो ख़ामोशी की एक नदी
जिसकी नम सजल सतहों में
तुम्हें मेरी आत्मा साफ़ नज़र आ जाए
पल-पल यूँ ही बहती हुई
सोने-चाँदी सी बत्तियों की
तैरती परछाइयों को पीती हुई
यूँ ही नज़र आ जाऊँगी मैं
ख़ाली, खामोश से कागज़ों में
घूँट-घूँट पीती तन्हाइयाँ
ख़त के किनारे काश
स्याही की सीमा में कैद न हो
एक किनारे का सिरा जो तुम पकड़ो
तो हाथों पे तुम्हारे भीगी रेत आ लगे
और दूसरे किनारे को देखने की इच्छा
के मैं मिल जाऊं यूँ ही कभी
उस छोर पर पानी में पैर भिगोती हुई
ख़ामोश ख़त लिखती हुई
लेकिन इन किनारों को बांधना मुश्किल होगा
भीगे, रिसते सितारों को थामना भी क्या ख्वाब है
ख़ामोश ख़त की इच्छा भी क्या ख्वाब है!
बनारस
आह बनारस!
सोचती हूँ तो जलन होती है
उन सारे पैरों से
जो छानते हैं
उन संकरी गलियों को
जो खुलती हैं गंगा के विस्तार में
कथा
सूरज अपना तमाशा दिखा
अपनी पोटली समेट
घर जा रहा है
मेरी किताब के
पन्नों पे खेलती
रौशनदान से बहती पीली धूप
उल्टे पाँव लौटने लगी है अब
उठो एकाकी, मेरे साथी तुम,
एक चिराग तो जला दो
काटती हो जो काजल वाले
नयनों से उतारते गहरे अंधेरे
ऐसी कोई तेज़ लौ सुलगा दो
बड़े दिनों से लिख रही हूँ
आज ये कथा पूरी कर लूँ!
झुककर मुठ्ठी भर नदी
और साथ बहती रौशन परछाइयाँ
पी ली जब हमने
तो घूँट भर जिंदगी मिली मुझे फिर
लेकिन मेरी परछाई फिसल गई
और बह गई सर्र से तेज धारा में
kavi ka apne samay mein chuta hua apna sanskar ,samvedna,manviya bhav..kavi ko udvelit karta hai…aur aaj ke samay mein mil rehe asthayi jeene ka saman uski ghoot bher jindagi ke liye bhale hi kaafi ho magar uske hone ko pramanit nahi karta …ye sare bhav…bahut hi sahaj tareeke se sunder v bolchal ki bhasha mein likhi ye kavita v enki anya kavitaeen prabhavit karti hai…..
meenakshi Thakur ki sabhi kavitayen achhi lageen.
inme nayapan hai aur gahri samvadanshilta bhi.
om nishchal
patna/Delhi
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