आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कला माध्यम, पत्र-पत्रिकाएं और आपातकाल: अमरेन्द्र कुमार शर्मा

बाल्टर बेंजामिन ने लिखा है, ‘हमेशा से ही कला का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रकार्य है एक ऐसी मांग पैदा करना, जिसकी पूर्ति पूरी तरह होने का समय अभी न आया हो।’ और आंद्रे ब्रेंता ने लिखा है, कोई कलाकृति तभी मूल्यवान होती है, जब भविष्य की आहटें उसमें मौजूद होती हैं।१

बाल्टर बेंजामिन, कला के कार्य को रेखांकित करते हुए जब मांग और पूर्ति के संदर्भों को भविष्यलक्षित अवधारणा में विन्यस्त कर रहे होते हैं, तब वे असल कला की उपयोगिता या कहना चाहिये उपादेयता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे होते हैं। यही बात आंद्रे ब्रेंता कलाकृति के संदर्भ में कह रहे होते हैं। अर्थात्‌ कलाकृति का मूल्यवान होना उसमें मौजूद भविष्य की आहटों पर निर्भर करता है। जाहिर है, बेंजामिन और ब्रेंता कला के लिए कला जैसी धारणा या आंदोलन से उपर्युक्त कथनों द्वारा अगलाते हुए दिखाई पड़ते हैं। इस अलगाव का महत्वपूर्ण कारण भी है, ‘कला के लिए कला’ का आंदोलन स्वच्छंदतावादी आंदोलन से जुड़ा हुआ था। यह आंदोलन क्रांति के बाद के पूंजीवादी जगत में यथार्थवाद के साथ ही साथ पैदा हुआ था। कला के लिए कला का रवैया असल में कलाकार के इस दृढ़निश्चय से पैदा होता है कि जहाँ दुनिया में, हर चीज वस्तु बन जाती है और जो बिक्री के लिए माल पैदा नहीं करती। प्रसिद्ध कवि मलार्मे को कला के लिए कला प्रवक्ता माना जाता है, जिनकी कविता पर हूगो फ्रीडरिश ने दि स्ट्रक्चर ऑफ मॉडन लिरिक पोइट्री में यह टिप्पणी की – मलार्मे का प्रगीत काव्य पूर्ण एकाकीपन का मूर्तिमान रुप है। उसे किसी भी ईसाई, मानवतावादी या साहित्यिक परंपरा की जरुरत नहीं। यह कविता वर्तमान में कोई हस्तक्षेप करने से अपने आपको बरजती है। पाठक को वह अपने से दूर ही दूर रखती है, और स्वयं को मानवीय होने की इजाजत नहीं देती।२  एक कलाकार या रचनाकार के लिए बहुत दिनों तक स्वयं से दर्शक या पाठक को दूर रखना मुश्किल होता है इसलिए ‘कला के लिए कला’ जिस शून्यता में स्वयं को विसर्जित करता है, एक चेतनशील समाज के लिए उसका कोई महत्व नहीं होता है। बेंजामिन और ब्रेंता का कथन इस मायने में भी एक जरुरी कथन लगता है कि वह कला के सामने एक नैतिक चुनौती रखता है जिसका लक्ष्य भविष्य है।

आपातकाल जो भारत के कला साहित्य के लिए चुनौतीपूर्ण था और जो अपने अंतिम उद्देश्य में आतंक और बेचैनी ही छोड़ गया ने कला के माध्यमों को अत्यधिक प्रभावित किया। एक सेंसर की हुई व्यवस्था में कला को विकसनशील और चेतनशील होना कितना कठिन होता है यह जर्मनी के नाजीवादी इतिहास को पढ़ने से पता चलता है। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात पर ध्यान देना चाहिये कि कला का कोई माध्यम हो और व्यवस्था का कोई भी प्रतिरुप हो कला अपनी बात कह ही जाती है और कहने के पीछे के संदेश और उसकी अर्थगामिता के तंतु छोड़ ही देती है। प्रसिद्ध नाटककार, कवि नंदकिशोर आचार्य ने इस संदर्भ में आपातकाल के समय ‘नया प्रतीक’ में छपे एक चुटकुले का जिक्र करते हुए उन्होनें इस बात को सिद्ध किया कि नाजीवादी व्यवस्था में सत्ता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कला अपना माध्यम अपना रास्ता बना ही लेती है। चुटकुला यूं था ‘स्पेन के तानाशाह फ्रेकों ने अपने देश में एक आदेश जारी किया कि आज से जो भी व्यक्ति आपस में मिलेगा वह तीन बार ‘हे, फ्रेंको’ बोलेगा। शायद ‘हे हिटलर’ ‘हे हिटलर’ की तर्ज पर था जिसे हिटलर ने जारी करवाया था। स्पेन की राजधानी मेड्रिड के एक प्रसिद्ध रेस्तरां में एक नया विदूषक कलाकार गया और उसने तीन बार मेज थपथपाते हुए तीन बार, वेटर, वेटर, वेटर पुकारा। वेटर के आते ही उसने तीन बार कॉफी, कॉफी, कॉफी कहकर ऑडर दिया और ठीक वैसे ही तीन बार बिल, बिल, बिल मांगा। रेस्तरां में बैठे लोग पहले तो कुछ समझ नहीं पाए, लेकिन अचानक बात समझते ही पूरे रेस्तरां में जोर का ठहाका लगा और उसके बाद तो मेड्रिड में जो भी कोई आपस में मिलता, फ्रेंको के साथ-साथ हर बात को तीन चार बार कहने लगा। जनरल फ्रेंको को जब यह बात पता लगी कि उसके आदेश मज़ाक बना दिए गए हैं तो उसने तुरंत अपना आदेश वापस ले लिया। असल में, स्पेन की जनता ने तानाशाही व्यवस्था के आदेश के प्रति न कोई आंदोलन, विद्रोह, हड़ताल किया और न ही कोई क्रांति। आदेश अपने-आप वापस ले लिए गए। एक कलाकार के कहने के माध्यम ने एक तानाशाही आदेश को रद्द करवा दिया। भारत में आपातकाल में ऐसा बहुत कुछ देखने को नहीं मिलता। आपातकाल में कला (माध्यम) सत्ता की संपोषक थी या फिर उसने अपना मुख बंद कर लिया था। कला माध्यम द्वारा प्रतिरोध आपातकाल में बहुत कम ही दिखाई पड़ता है। स्पष्ट है कोई भी नाजीवादी व्यवस्था सबसे पहले कला माध्यमों को ही प्रभावित करती है और कलाएं अपनी इयता से दूर हो जाती हैं। आपातकाल लागू होने के तुरंत बाद सरकार ने मीडिया को प्रतिबंधित किया। देष के महत्त्वपूर्ण अखबारों के प्रकाशन संस्थाओं की बिजली काट दी गयी जिससे सुबह अखबार जनता तक न पहुँच सके। लेकिन जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि अगर कला को प्रतिरोध करना होता है तब वह प्रतिरोध का अपना रास्ता ढूँढ़ ही लेती है। असल में कला अपने मूल चरित्र में सत्ता का प्रतिपक्ष ही होता है वह मूल उद्देश्य में मानव के जीवन को और अंततः समाज को चेतनशील बनाता है। सत्ता मानव जीवन की चेतना को सत्तापेक्षी बनाती है, कला उसके ऐसा करने का विरोध करती है।

कला के उद्देश्य के संदर्भ में चर्नीशेव्स्की (१८२७-१८८९) की टिप्पणी कला को इतिहास से अलगाती है। वह कहता है कला का मूल उद्देश्य जीवन में मानव की दिलचस्पी की हर चीज को पुनः मूर्त करना है। बहुधा जीवन का स्पष्टीकरण और उसकी परिणातियों का गुण-दोष विवेचन भी काव्यात्मक कृतियों में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लेता है। कला का जीवन के साथ संबंध वैसा ही होता है जैसा कि इतिहास का इतिहास जहां मानव-जाति से संबंधित है वहां कला किसी एक मानव के जीवन को अपनाकर चलती है। असल में जब कला दिलचस्पी की चीजों को मूर्त कर रही होती है तब वह केवल व्यक्तिगत जीवन का चित्र नहीं खींच रही होती है और न ही वह अपनी व्यक्तिगत अनुभूति को मूर्त कर रही होती है, उसके माध्यम से वह एक सामाजिक जीवन का चित्र खींचते हुए अपना सामाजिक दायित्व भी निभाती है। अर्थात्‌ कला का स्थान महज यथार्थ के समान्तर नहीं बल्कि उससे ऊँचा भी हो रहा होता है। इसी कारण यह कहा जाना चाहिए कि कला जिस प्रकार सामाजिक संरचना और राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करती है ठीक उसी तरह से वह प्रभावित भी होती है।

भारत में १९७० का दशक कई मायनों में ऐतिहासिक महत्व का रहा है, जिसमें भविष्य के विकास क्रम का बीजतत्व मौजूद रहा है। इस दशक में हर स्तर पर परिवर्तन को रेखांकित किया जा सकता है, चाहे वह सिनेमा हो या साहित्य, चित्र हो या स्थापत्य। राजनीति हो या समाज, आर्थिकी हो या सुरक्षा। धार्मिक मामला हो या सांस्कृतिक। परिवर्तन हर दिशअ में होता हुआ दिखाई पड़ता है। जाहिर है कला, जिसका नहीं चित्रित करना, शब्दों, ध्वनियों, रेखाओं और रंगो में प्रकृति के सार्वभौम जीवन को पुनः मूर्त करना है और यही कला का चिरंतन विषय-वस्तु भी होता है, आपातकाल में इन सबका बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। खेद के साथ कहना होगा कि उनमें से अधिकांश आपातकाल को अगर तानाशाही व्यवस्था कहा जा सके, तो उसका समर्थन करने वाला ही था।

चित्रकारों में मकबूल फिदा हुसैन का यहाँ जिक्र करना होगा, जो आज भारत के एक बड़े चित्रकार माने जाते हैं और जो वर्तमान में अपने चित्रों के कारण काफी विवादित रहे हैं। आपातकाल के दौरान इंदिरा जी के समर्थन में इंदिरा जी की तीन बड़ी-बड़ी तस्वीर दुर्गा देवी के रूप में इंदिरा को शक्ति का अवतार बनाते हुए चित्रित की गई। अपने इन चित्रों को हुसैन ने एक बड़ी प्रदर्शनी में इंदिरा जी को बुलाकर दिखाया और वाहवाही पायी। सच मायने में एक कलाकार की निष्ठा का सवाल अगर कोई होता हो, और उसे माना जाता है तब कहना होगा एम.एफ. हुसैन की निष्ठा समाज के प्रति न आपातकाल के समय थी और न वर्तमान दौर में। एक चित्रकार जब प्रसिद्ध हो जाता है उसके नागरिक कर्तव्य आम आदमी की तुलना में बढ़ जाते हैं उसके द्वारा उठाए गए कदम आम आदमी को प्रभावित करते है, आंदोलित करते हैं, तब उसे प्रत्येक कदम सचेत होकर उठाना चाहिए और अपने नागरिक होने का निर्वाह करना चाहिए। आपातकाल के समय कहना होगा कोई भी निर्वाह कर रहा है? ऐसे सवाल के जवाब खोजे जाने चाहिए। आपातकाल के दौरान कुछ कार्टूनिस्टों ने आपातकाल और इंदिरा जी के विरोध में कार्टून जरूर बनाए थे और उसका प्रभाव समाज पर सकारात्मक पड़ा ही था ऐसे ही कुछ चित्र ‘शंकर’स एनुअल (Shankar’s Annual १९७५) ने जो नई दिल्ली से प्रकाशित होता था, आपातकाल के विरोध में छापे थे। ये चित्र, वास्तव में आपातकाल के प्रभाव के हर पहलू को हमारे सामने खोल कर रख देते हैं। इन चित्रों को यहाँ हू-ब-हू आपके सामने रखा जा रहा है।

es03

es04

es05

es06

es07

es08

es09

es10

es11

es12

यह महज संयोग नहीं है कि १९७० के दौर में ही कई ऐसी फिल्में बनायी गयी जिनमें व्यवस्था के प्रति, बने बनाए ढाँचे के प्रति एक किस्म का आक्रोष, चिढ़ और विद्रोह दिखलाई पड़ता है। दीवार हो या डॉन दोनों नेशन -स्टेट की अवधारणा के विरूद्ध एक चुनौती के रूप में खड़े हुए दिखलाई पड़ते हैं। दीवार में दो भाई दो भिन्न मानसिकता की उपज हैं एक व्यवस्था विरोधी है और एक पुलिस नेशन-स्टेट का हिस्सा। संबंधों के बीच में नेशन-स्टेट बार-बार हस्तक्षेप करता हुआ दिखलाई पड़ता है। डॉन भी व्यवस्था की सड़ांध से ही पैदा होता। डॉन इस मायने में विषिष्ट दिखलाई पड़ता है कि जिस तरह की व्यवस्था से नेशन-स्टेट को चुनौती है उसे समाप्त करने के कई शातिर चाल नेशन-स्टेट चलता है। डॉन में डॉन के अड्डे को पुलिस एक नकली डॉन को निर्मित कर ही ध्वस्त कर ही ध्वस्त करती है। वह जहर से जहर को काटने की अवधारणा पर विश्वास करता है। वह अपनी चालों से आम आदमी को कई बार मूर्ख बना देता है। नेशन-स्टेट के इस तरह के कार्य आम जनता को शुरूआती तौर पर लाभदायक दिखलाई पड़ते हैं। इस जाल में आम आदमी का फंस जाना आश्चर्य पैदा नहीं करता बल्कि नेशन-स्टेट की इस तरह की शातिर चालों के प्रति आक्रोष होता है। जंजीर को भी नेशन-स्टेट की इसी धारणा के तहत देखा जा सकता है।

असल में, १९७० के दशक के युवाओं की पीड़ा का कोई इलाज नेशन-स्टेट के पास नहीं था वह केवल कुछ सुनहरे सपनों, कुछ सैन्य विजय की उपलब्धियों को लेकर उपस्थित होती थी। उस समय सिनेमा की विषय-वस्तु लगभग यही हुआ करती थी। यह उन परिस्थितियों का संकेत था, जिन परिस्थितियों के कारण इंदिरा गाँधी ने बाद में आपातकाल लागू किया। आपातकाल उस क्षोभ, आक्रोश को दबाने का एक नाजीवादी तरीका था जो तत्कालीन व्यवस्था की विसंगतियों के कारण उपजा था और जिससे आम आदमी त्रस्त हो चुका था। जाहिर तौर पर १९७० का दशक, आजादी के पष्चात्‌ भारत के विकास के रसियन मॉडल या नेहरूवियन मॉडल के धीरे-धीरे क्षीण हो जाने का दशक था। पुरानी आंकाक्षाएं ध्वस्त हो रही थीं कुछ भी अच्छा और बेहतर होने की जगह पर गलीच होता हुआ दिखलाई पड़ रहा था हम कह सकते हैं कि ऐसी फिल्में एक सेंसर की हुई व्यवस्था के आने का पूर्वाभास दे रहा था।

आपातकाल के ठीक पूर्व किस्सा कुर्सी का नाम से अमृत नाहटा ने जो स्वयं कांग्रेस के संसद सदस्य थे, एक फिल्म बनाई। यह फिल्म उस दौरान काफी चर्चित हुई और संसद की गलियों में इसकी गूंज काफी दिनों तक रही। २३ मई १९७५ को विशन टंडन, जो प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी के काफी नजदीक थे, ने अपनी डायरी में दर्ज किया

..शारदा (एच.वाई. शारदा प्रसाद, प्रधानमंत्री के उप और फिर सूचना सलाहकार १९६६-१९७७) ने आज प्रधानमंत्री को एक नोट भेजा है कि अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का सरासर उनके और सरकार के विरूद्ध है। प्रधानमंत्री पर बड़ा पैना और तीव्र व्यंग्य इस फिल्म में किया गया है। …आज शेषन (एल.के. शेषन, प्रधानमंत्री के निजी सचिव १९६६-१९७७) ने यह कार्यक्रम बनाया कि हम चार लोग, शेषण, शारदा, वी.आर. (वी. रामचंद्रन, प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव, १९७२-१९७७) और मैं- चुपचाप किस्सा कुर्सी का देखें। तीन बजे इसका प्रबंध हुआ। महादेव रोड एडीटोरियन में हम चारों और गुजराल के निजी सचिव घटनेकर ने यह फिल्म देखी। यह नाहटा ने बनाई है (कल शारदा का नोट देखने के बाद प्रधानमंत्री ने यह निश्चय किया कि वे अमृत नाहटा के घर नहीं जाएंगी। फिल्म शुरु से लेकर आखिर तक प्रधानमंत्री के विरूद्ध है उनका और उनके नारों का विषेषकर ‘गरीबी हटाओ’ का बड़ा कटु मजाक उड़ाया गया है। जितनी बातें आज विरोधी दल प्रधानमंत्री के विरूद्ध कह रहे हैं, वह सब नाहटा ने इस फिल्म में प्रधानमंत्री पर थोपा है। नाहटा स्वयं कांग्रेस के सदस्य हैं। स्पष्ट है कि कांग्रेस पार्टी में भी प्रधानमंत्री के विरूद्ध अंदर ही अंदर रोष बढ़ रहा है। इस फिल्म को लेकर बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। प्रधानमंत्री इस को बैन करना चाहेंगी। नाहटा खुलेआम कह रहा है कि वह इस मामले को न्यायालय ले जाएगा। न्यायालय का क्या निर्णय हो, क्या कहा जा सकता है, पर जब सुनवाई होगी, उसी से प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी की काफी दुर्गति होगी।

असल में, किस्सा कुर्सी का कोई फिल्म नहीं थी, बल्कि एक राजनैतिक स्टंट था जो तत्कालीन कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी को नागवार गुजर रहा था। इस पूरे फिल्म को देख लेने के बाद ऐसा कोई दृष्य याद नहीं रह जाता, जो यह कह सके कि यह ठीक-ठीक व्यवस्था की कोई तार्किक समीक्षा थी उसके अंर्तविरोध या उसके कुप्रभाव की व्याख्या करती है। बावजूद इसके आपातकाल के समर्थकों ने और खुद कांग्रेस के कई लोगों ने इस फिल्म को बैन कर देने की बात करते हुए नष्ट कर दिया। विशन टंडन की डायरी में बताई गई आशंका सच साबित हुई। १८-२४ दिसम्बर १९७७ का दिनमान इस फिल्म पर एक टिप्पणी लिखता है, यह टिप्पणी असल में किस्सा कुर्सी का फिल्म को इमरजेंसी के शुभचिंतकों ने नष्ट कर के इस जिज्ञासा को फैलाने का पर्याप्त अवसर दे दिया कि उसमें कुछ ऐसी विशेषता अवश्य थी, जिसे तत्कालीन व्यवस्था बर्दाष्त न कर सकी। इमरजेंसी के बाद जल्दबाजी में इसका पुनर्जन्म हुआ है और वास्तविकता सामने आ गयी है, किस्सा कुर्सी का फिल्म नहीं है और उसे ‘फिल्मांकित नाटक’ की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती। कुल मिलाकर वह एक ऐसी चीज़ है- एक रंगीन सी चीज जिसका फूहड़पन वितृष्णा उत्पन्न करती है और जिसके विचित्र चरित्र और अरचित संवादो का तांता पर्दे पर आकर राजनीति के संबंध में कुछ कहने के बहाने ऐसी बातें कहते हैं जो राजनीति को ही निरर्थक सिद्ध करती है। आरंभिक दृश्य में अमृत नाहटा खुद भी पर्दे पर आकर एक बात यह कहते हैं कि उनकी फिल्म में किसी मां या बेटे को ढूढ़ना निरर्थक है। किस्सा कुर्सी का में यदि मां या बेटे को न ढूँढा जाए तो भी उसमें कही गयी बातों का आधार निहितार्थ और व्यंग्यार्थ तो ढूँढना ही पड़ेगा।

दरअसल कला माध्यमों में सिनेमा और नाटक जनता तक बहुत तेजी और सरल तरीके से संप्रेषण स्थापित करता है जाहिर है, किस्सा कुर्सी का अपने तमाम आलोचनाओं, प्रतिबंधों के बाद भी जनता के बीच विमर्श का एक मुद्दा बनाने में सफल हुई। यह बात उल्लेखनीय और रही कि सरकार की खामियों को इस फिल्म के माध्यम से दिखलाया।

प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर के एक उपन्यास काली आंधी पर भी आंधी नाम से फिल्म बनाई गई। कहा जाता है कि फिल्म की नायिका का हाव-भाव, व्यवहार, बातचीत आदि इंदिरा जी से मिलता है। आपातकाल के दौरान इंदिरा जी के सामने भी इस फिल्म का जिक्र किया गया था कि यह फिल्म आपकी छवि को धूमिल करती है। बाद में इस फिल्म को लेकर कोई विवाद नहीं रहा।

असल में कोई भी कला माध्यम अपनी इयता में कोई विमर्श रखे या न रखे लेकिन जब वह सामाजिक होता है विमर्श के किसी न किसी बिन्दु से जा टकराया है। कला की यही ताकत भी होती है। लेकिन यहां हमें यह बात जान लेनी चाहिए कि राजनीति के साथ कला की तमाम मुठभेड़ों के बाद भी कला की अपनी सांस्कृतिक इयता होती है, इसलिए किसी भी कला माध्यम की आलोचना या उसकी उपादेयता को किसी प्रचलित पद्धति से समझा नहीं जा सकता। इस संदर्भ में माओ के विचार को उद्धत करना समीचीन होगा-

कला को राजनीति के समकक्ष नहीं रखा जा सकता और न कलात्मक सृजन व समालोचना की किसी एक पद्धति को ही आम विष्व दृष्टिकोण के समकक्ष रखा जा सकता है। हम न सिर्फ एक अमूर्त और बिल्कुल अपरिवर्तनीय राजनैतिक मापदंड के अस्तित्व को मानने से इंकार करते हैं सभी वर्ग समाजों में हर वर्ग के खुद अपने राजनीतिक और कलात्मक मापदंड होते हैं। हम जिस चीज की मांग करते हैं वह है राजनीति और कला की एकता, विषयवस्तु और रूप की एकता, क्रांतिकारी राजनैतिक विषय वस्तु और यथा संभव अधिक पूर्ण कलात्मक रूप की एकता। वे कलाकृतियां जिनमें कलात्मक प्रतिभा का अभाव होता है बिल्कुल शक्तिहीन होती है चाहे वे राजनैतिक दृष्टि से कितनी ही प्रगतिषील क्यों न हो, इसीलिए हम ऐसी कलाकृतियों का सृजन करने जिनका राजनैतिक दृष्टिकोण गलत होता है तथा पोस्टर बाजी व नारेबाजी जैसी शैली वाली उन कलाकृतियों का सृजन करने जिनका राजनैतिक दृष्टिकोण तो सही होता है लेकिन जिनमें कलात्मकता का अभाव होता है, इन दोनों प्रकार की प्रवृतियों का विरोध करते हैं। साहित्य और कला के सवालों के बारे में हमें इन दोनों मोर्चों पर संघर्ष चलाना चाहते हैं।

(२७ फरवरी १९५७, पहला जेबी संस्करण, पृष्ठ ८०-९० तथा पृष्ठ४९-५०)६

आपातकाल के संदर्भ में अगर माओ के विचार का विश्लेषण करें तो कई बातें साफ हो जाती हैं। अधिकांश कलाकार या तो कला को शुद्ध राजनैतिक वक्तव्य बना रहे थे, मसलन एम.एफ. हुसैन और कुछ केवल कलात्मक, शून्य में विलीन हो जाने वाला मसलन रूपवादियों की कलात्मकता। आपातकाल के ही दौर में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के तमाम भवनों पर रातों-रात आपातकालीन विरोधी पोस्टर छात्रों ने चिपकाए। वे पास्टर राजनैतिक दृष्टि से काफी प्रगतिषील माने गए लेकिन कलात्मकता के अभाव में वे बहुत दिनों तक न जीवत रहे और न उन पर कोई विमर्श हुआ। सनसनीखेज मामला बनाने में वह जरूर कामयाब रहे। लेकिन कला को कोई भी मामला सनसनीखेज नहीं होता बल्कि कलाकृतियां राष्ट्र की संस्कृति की धरोहर होती है। माओ ने इसे इस तरह कहा- संसार के सभी राष्ट्रों की कला जहां तक मूलभूत सिद्धातों का प्रश्न है, एक है….. लेकिन हर देश की कला का एक विशेष राष्ट्रीय रूप और राष्ट्रीय शैली होती है।७

आपातकाल के दौरान और उसके ठीक बाद साहित्य के विविध रूपों में कविता के अलावा और दूसरी कोई रचना लगभग दिखलाई नहीं पड़ती। कुछ एक उपन्यास और कहानियां जरूर दिखलाई पड़ती है। कविताओं में आपातकाल का प्रतिरोध साफ पता चलता है। लेकिन गद्य में नहीं। गद्य जबकि जीवन-संग्राम की भाषा है और जिसका प्रभाव पाठक पर सीधे-सीधे पड़ता है, ठीक-ठीक कोई भी रचना आपातकाल के विरोध में लिखी नहीं गयी। कुछ एक अपवाद को अगर छोड़ दिया जाए तो मसलन, निर्मल वर्मा, का रात का रिपोर्टर और राही मासूम रजा का कटरा बी आर्जू साथ ही पंकज बिष्ट की कहानी खोखल। कविताएं कला का वह सबसे संभावनाशील रूप है जिसमें बात अर्थ-बिम्बों, संकेतों से बात कहना ज्यादा आसान है इसलिए आपातकाल के दौरान नवोदित कवियों ने खुद कविता कही और कई प्रसिद्ध कवियों ने कविता कही। साहित्य-कला के संदर्भ में आपातकाल के प्रभावों को आगे के अध्याय में विस्तार विष्लेषित किया जाएगा।

राजनैतिक व्यवस्था खासकर नाजीवादी व्यवस्था चित्र, सिनेमा, साहित्य के साथ-साथ संगीत और स्थापत्य कला को भी प्रभावित करता है। मुगलकाल के स्थापत्य और संगीत और ब्रिटिष काल के स्थापत्य और संगीत एवं १९९० के भूमंडलीकरण के बाद संगीत व स्थापत्य के अंतर को देखा जा सकता है। असल में व्यवस्था अपनी सुविधा के अनुसार कला माध्यमों को मोड़ लेती है हालांकि आगे चलकर इन कला माध्यमों से प्रभावित हुए बिना व्यवस्था भी नहीं रह पाती है। तात्पर्य यह कि कला एक ऐसी दुनिया का निर्माण करती है जिसमें व्यक्ति की आस्तित्विक चिताएं तो मौजूद होती है उसके समाधान के संकेत भी मौजूद होते हैं। आपातकाल जिस तरह की दुनिया का निर्माण करना चाह रहा था, साहित्य उसके प्रतिरोध में एक बेहतर दुनिया का संकल्प लिए खड़ा था। इसीलिए आर्नल्ड हाउजर का यह कथन एक जरूरी कथन लगता है कि

कला एक बेहतर दुनिया का सृजन करती है, अस्तित्व के एक ऐसे रूप का सृजन करती है जो कम अराजक, कम भ्रामक और अधिक संगत हो।८

तात्पर्य यह कि कला के बिना अगर विश्व की कल्पना की जाए तो वह असंगत भ्रामक और अराजक होगी। जाहिर है हाउजर कला को बड़े सूक्ष्म स्तर पर मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार विश्लेषित कर रहे हैं। आपातकाल के दौरान उत्पन्न परिस्थितियों और उन परिस्थितियों के बीच निर्मित मानसिक संरचना क्या किसी कलाकार को प्रभावित किए बिना रह सकती थी? नहीं। यहाँ तर्क यह नहीं है कि कलाकार किसी व्यवस्था का समर्थन करता है अथवा प्रतिरोध। सवाल केवल उस मानसिक बुनावट का है जिसे आपातकाल ने पैदा किया और कलाकार को प्रभावित किया। जहां माओ कला को राजनीति से संतुलित करते हुए उसके सामाजिक मूल्य को निरूपित करते हैं वहीं अर्नाल्ड हाउजर उसे मानसिक स्तर पर पकड़ते हैं कहना होगा कि माओ के विचार में मार्क्स और हाउजर के विचार में फ्रायड मौजूद है। कलात्मक गतिविधि को रेखांकित करते हुए अर्नाल्ड हाउजर लिखते हैं

कलात्मक गतिविधि को यदि मानसिक रणनीति के बतौर, विजय या प्रतिशोध के साधन के बतौर, रक्षा या पलायन के रूप के बतौर व्याख्यायित किया जाए तो वह न केवल अधिक आसानी से समझ में आती है बल्कि अधिक सार्थक भी लगता है। वस्तुतः कला को समझने में मनोविश्लेषण का बुनियादी योगदान कलाकृति की जैविकीय परिभाषा अर्थात्‌ इसकी कामवृतिक उत्पति के उद्धाटन अथवा इसके काममूलक प्रतीको की व्याख्या में उतना अधिक नहीं है जितना कि तार्किकीकरण और अन्य औचित्य प्रतिपादन की सार्वभौमिक योजना के अंग के बतौर कलात्मक गतिविधि की धारणा में है, जिसमें कामेच्छा को छिपाना किसी भी तरह एकमात्र साध्य और उद्देश्य नहीं होता।९

अर्नाल्ड हाउजर की अपील कला की तार्किकता और उसके औचित्य को लेकर है माओ के विचार का अंतिम लक्ष्य भी लगभग यही है। फर्क केवल रास्तों का हो सकता है।

आपातकाल में जिस तरह से कला के माध्यमों पर दवाब और चोट पड़ रही थी ठीक उसी तरह कलाकारो पर भी हमला हो रहा था। यहां हम ऐसे दो उदाहरणों का उल्लेख करेगे। जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि एक तानाशाह व्यवस्था में कला और कलाकार को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जूझना पड़ता है।

पश्चिम बंगाल की एक घटना को गणशक्ति (बंगाल दैनिक, ७-१ २-१९७५) से साभार लेते हुए उतरार्ध-११ इस तरह से दर्ज करता है-

पश्चिम बंगाल में राज्य में अमन-कानून की हालत क्या है? इस सवाल का सही जबाव हाल-फिलहाल ही विशिष्ट अभिनेता स्वरूप दत्त पर हमले से जाना जा सकता है। गणतांत्रिक लेखक शिल्पी कला कुशली सम्मिलनी के सदस्य मशहूर मंच और चलचित्र अभिनेता स्वरूप दत और उनकी पत्नी बर्बर हमले का शिकार हुए हैं। २६ अक्टूबर को कलाकार कलकते के बालीगंज प्लेस ईस्ट में अपने नए मकान के सामने खड़े थे। उसी समय दो कुख्यात समाज-विरोधियों ने उन पर गोली चलाई, गोली उनके सिर को छूती हुई निकल गई। कलाकार ने इस हमले की डायरी थाने में लिखाई।१०

गणशक्ति लिखता है कि ७ नवम्बर को दुबारा हमला होता है, अस्पताल ले जाने के बाद बिना किसी कारण बताए दो घंटे बाद अस्पताल छोड़ने को कहा जाता है। दूसरे दिन स्वरूप दत उनकी पत्नी और भतीजे को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में छोड़ते हुए यह शर्त रखी कि रोज थाने में हाजरी देता रहे। इन गुण्डों ने कलकता के रंगमहल थियेटर में जाकर नाटक अनन्य के निर्देशक जहर राय को यह लिखकर देने के लिए दबाव डाला कि नाटक में स्वरूप दत को अभिनय करने नहीं दिया जाएगा।

दूसरी घटना बंगलौर की है। १ मई १९७६ को स्नेहलता रेड्डी को राजनीतिक कारणों से गिरफ्तार कर लिया गया और बंगलौर जेल में डाल दिया गया। बंगलौर के रंगमंच और कला की दुनिया में स्नेहलता का महत्वपूर्ण स्थान था, कन्नड फिल्म संस्कार की नायिका भी थी उनकी ख्याति और मित्र प्रियता ने ही उन्हें कदाचित सता का कोपभाजन बनाया। वे समाजवादी पार्टी के नेता जार्ज फर्नाडीज की घनिष्ठ मित्र थीं। आपातकाल लगने के बाद बदली हुई परिस्थितियों में यह मित्रता त्रासदी में बदल गयी। …स्नेहलता और उसके पति को पूछताछ के लिए अलग-अलग कक्षों में ले जाया गया। ….जब कोई सवाल करता स्नेहलता स्वयं ही फूट पड़ी मेरा बेटा ला दो, मेरे पति को छोड़ दो। मेरी बेटी को तंग करना बंद करो।११ जेल में आगे चलकर स्नेहलता को दमा हो गया। वे रोज अपनी भावनाओं को कागज पर दर्ज करती थी। उनके डायरी के अंश सेमिनार जून १९७७ के पृष्ठ २६ से ३२ के बीच ए प्रिजन डायरी शीर्षक नाम से दर्ज किये गए हैं। ३० अगस्त को वे लिखती हैं-

भयानक दिन… सबसे बुरे दिन ……. मैं मर जाना चाहती हूँ .. वाकई मर जाना चाहती हूँ।

लंबी बीमारी और बिना ईलाज के पेरोल पर छूटने के एक महीने के अंदर २५ जनवरी १९७७ को स्नेहलता रेड्डी की मृत्यु हो गई।

उपर्युक्त दोनों घटनाओं को विस्तार से और ध्यान से अगर पढ़ा जाए तब एक बात साफ हो जाती है कि तानाशाह व्यवस्था में सबसे अधिक नुकसान कला और कलाकार को होता है। स्वरूप दत और स्नेहलता रेड्डी जैसे कई कलाकार आपातकाल में आतंकित किए गए और मार डाले गए। कई विद्वानों को जेल में डाल दिया गया। असल में तानाशाही व्यवस्था, कला और कलाकार की उस चेतना तंतु से घबराती है, जिसके आधार पर एक चेतनशील और विकासशील समाज का अंततः निर्माण होता है। इस कारण सैद्धांतिक तौर पर यह मान लेना अत्यंत जरूरी है कि कलाकार या कला माध्यम व्यवस्था को ठीक ढंग से प्रभावित करने के लिए एक जरूरी अवयव है। क्योंकि एक तरफ कला आक्रामक आवेगों की बहिष्कृति है, विश्व के प्रति आत्मख्यात्मक शत्रुता की अभिव्यक्ति है, और दूसरी तरफ, जीवन की अपूर्ण, खंडित प्रकृति का अवचार है। कला मानव जाति की मातृभाषा है, इस रोमांटिक धारणा के साथ ही दूसरी उतनी ही रोमांटिक धारणा अकसर पाई जाती है कि कला केवल प्रेम और श्रद्धा की अभिव्यक्ति है और कि कलाकार जीवन और प्रकृति के नियमों का निःस्वार्थ सेवक है, या अपने सहयात्रियों का खुदाई खिदमतगार है।१२

दरअसल कला अपने सृजन में कलाकार को गहरे स्तर पर विरेचित करती है और जो उसका आस्वादन करता है उसको भी विरेचित करती है। व्यक्ति अपने भीतर की अनुभूति, संवेदना को कला में पुर्नसृजित करता है और कला से वह अपनी संवेदना, अनुभूति को पगाता भी है। इस आषय में कला जीवन का जो भी पक्ष गर्हित है उसे उद्धात बनाता है। अर्नेस्ट फिशर को एक बार फिर इस संदर्भ में याद करना होगा कि कला ही मनुष्य को विखंडित अवस्था से ऊपर उठाकर पूर्णता की अवस्था में, एकीकृत अस्तित्व की अवस्था में ला सकती है। कला मनुष्य को यथार्थ समझने में समर्थ बनाती है। और न केवल यथार्थ को झेलने में उसकी सहायता करती है, बल्कि यथार्थ को अधिक मानवीय तथा मानवता के लिए अधिक उपयुक्त बनाने के उसके दृढ़ निष्चय को भी बढ़ाती है। कला स्वयं एक सामाजिक यथार्थ है। समाज के लिए कलाकार सबसे बड़ा जादूगर है और समाज को इस सब को यह मांग करने का अधिकार है कि कलाकार अपने सामाजिक काम के प्रति संचेत हो।१३

तात्पर्य यह कि कला, मनुष्य को और अंततः समाज को पूर्णता प्रदान करती है। मनुष्य को यथार्थ समझने और उसे झेलने की ताकत देता है। आपातकाल के दौरान सता संरचना ने इसी कारण कला के माध्यमों को दबाकर और आतंकित रखा कि वह उभर कर हमारे सामने नहीं आ सका। एक नाजीवादी व्यवस्था, जनता को अपनी संरचना में इस प्रकार उलझा देता है कि यथार्थ से उसका नाता ही खत्म हो जाता है और अगर उसने इससे अपना नाता रखा तो जाहिर है इसकी अभिव्यक्ति भी करेगा। यह अभिव्यक्ति नाजीवादी व्यवस्था को चुनौती देगी। इस व्ववस्था को खत्म करना चाहेगी। इस कारण से यह व्यवस्था कला और कलाकार दोनों को मार डालती है। जबकि होना यह चाहिए था कि ऐसे समय में कला अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ी होती और यथार्थ की तस्वीर जनता के सामने प्रस्तुत करती। बुद्धिजीवियों से बातचीत के संदर्भ में १९६१ ई. में क्यूबा की राजधानी हवाना में एक तीन दिवसीय बैठक (१६, २३ और ३० जून १९६१) में फिदेल कास्त्रों ने कला के संदर्भ में अपनी राय को लोगों के सामने रखा। उन्होंने कहा कि

खासकर ऐसे समय में जब क्रांति का बुनियादी उद्देशय और लक्ष्य कला और संस्कृति का विकास करना हो, जिससे कि हमारी कलात्मक-सांस्कृतिक विधियों जनता के पास पहुँच सके। क्रांति कभी भी कला या संस्कृति को अवरूद्ध नहीं कर सकती, और जिस तरह हम भौतिक अर्थों में जनता के लिए एक बेहतर जिन्दगी चाहते हैं उसी तरह सांस्कृतिक अर्थों में भी हम जनता के लिए एक बेहतर जिन्दगी चाहते हैं। चूंकि हमारी क्रांति का सरोकार उन स्थितियों और शक्तियों को विकसित करना है जो जनता की समूची भौतिक आवश्यकता को पूरा कर सकें, उसी तरह उसका सरोकार उन स्थितियों को भी पैदा करना है जो जनता की तमाम सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा कर सके।१४

यह बात स्मरण रखने की है कि किसी भी तरह की क्रांति का बुनियादी उसूल कला और संस्कृति का विकास करना है। एक व्यक्ति के लिए जितनी भौतिक सुख-सुविधाएं आवश्यक होती है उससे कहीं ज्यादा सुकून उसके सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करके दिया जा सकता है। कहना होगा फिदेल कास्त्रों का यह विचार प्रचलित क्रांतिकारी की उग्रता के विरूद्ध एक गहरे सामाजिक धरातल को स्पर्ष करने वाला है जिसका असर तात्कालिक न होकर दीर्घकालिक होता है, जिससे अतीत भास्वर होता है, वर्तमान अपना कार्य करता है और भविष्य की आहटों को स्वयं में समाहित किए होता है। फिदेल कास्त्रों के उपर्युक्त वक्तव्य को आरंभ में कहे गए बाल्टर बेंजामिन और आंद्रे ब्रेतां के कथन से मिलाकर पढ़ने पर कला की कलाकार की एक मुकम्मल युगीन तस्वीर उभरती है और यह तस्वीर आपातकाल के समय काफी धुंधली और कपासी थी। एक सेंसर की हुई व्यवस्था में कला माध्यमों की तस्वीर साफ़ हो, ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती।

ब्रतोल्त ब्रेख्त की एक कविता है, कला सर्जकों से। यह कविता अभिरूचि-२ (सम्पादक- शिवराम, चन्द्रमोहन, कोटा, राजस्थान) पत्रिका में पृष्ठ २६ पर छपी हुई है-

पत्रकारों! कल रात
अत्याचारियों द्वारा हमारी झोपड़ियों को जलाने की बात
क्या तुमने नहीं सुनी?
तुलिका से गुलाब को रंगने वाले चित्रकारों।
भट्टियों में गलती हमारी देह
धूप में चलते हमारे बच्चे
क्या तुम्हारी नजरों से ओझल थे?
जलप्रपात के बीच किसी पत्थर खंड पर बैठी
युवती की कल्पना करने वाले कवियों
…अधिकारों की लड़ाई में हमारी कुचलती लाश
देखकर भी तुम क्यों चुप हो ?
इतिहासकारों।
अब नया इतिहास लिखों।
बतित हमारे ऊपर किए गए अत्याचारो की ओर से
नजर फेर लेने के कारण
तुम्हारे इस इतिहास में
कोई तिथि क्रम नहीं है।१५

भारत में आपातकाल लगाए जाने के बाद आम जन जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर ठीक-ठीक टिप्पणी करने वाले कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो कोई नहीं था। सभी तरफ भय और आतंक का माहौल था। इस भय और आतंक का जिक्र प्रसिद्ध आलोचक प्रो. सत्यप्रकाश मिश्र ने अपने साक्षात्कार में बार-बार किया है जिसे पक्षधर ‘संकलन ०३’ मई (सम्पादक विनोद तिवारी) में देखा जा सकता है। ब्रतोल्त ब्रेख्त की कविता आपातकालीन परिस्थितियों का सही आलेख है। देश के पत्रकार, कलाकार, साहित्यकार सभी खामोश हो गए थे। यहीं पर जल्दी में यह याद दिलाया जाना चाहिए कि यह महज संयोग नहीं है कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अंधेरे में ये सभी लोग चुप हैं। मुक्तिबोध की यह कविता आपातकाल की परिस्थितियों की पूर्व घोषणा या पूर्व चेतावनी है , जिसे नए सिरे से देखा जाना चाहिए। इसकी चर्चा हम आगे की अध्याय में करेगे। बहरहाल ब्रेख्त की यह अपील कि इतिहासकारों अब नया इतिहास लिखों। इस बात की ताकीद करती है कि अब तक का लिखा इतिहास केवल जीत (विजय) का इतिहास है इनमें उन अत्याचारों, आहों, संकटों का कोई जिक्र नहीं है जिसे आम लोगों में किया है और जिसे मार्क्स की शब्दावली में ‘कॉमन मैन’ कहा जाता है।

असल में, आपातकाल के दौरान अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं पर या तो प्रतिबंध लगा दिया गया था या उस पर इतना दबाव बना दिया गया था कि उसने अपना स्वर और अपना तेवर बदल लिया था। कुछ लघु पत्रिकाऐं भी अपना छोटा-मोटा प्रतिरोध दर्ज करा रहे थे, लेकिन वह ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ ही बनी रही, आपातकालीन व्यवस्था को समाप्त करने की आखरी कील नहीं बन सकी। इस अध्याय में दिनमान, धर्मयुग, पहल, आजकल के साथ-साथ कुछ छोटी पत्रिकाओं का जिक्र किया जाएगा लेकिन विशेष तौर पर सारिका ( सम्पादक-कमलेश्वर) का जिक्र किया जाएगा। इस पत्रिका की सेंसर के बाद की प्रति कमलेश्वर जी से शोधकर्ता को प्राप्त हुई है। सेंसर की हुई पत्रिका और सेंसर के बाद छपी हुई सारिका की प्रति के तुलनात्मक अध्ययन से आपातकालीन व्यवस्था के पोल को समझा जा सकता है। इन सबका विष्लेषण करने से पूर्व उन दबावों का जिक्र करना आवश्यक होगा जिनके कारण पत्र-पत्रिकाओं को या तो बंद करना पड़ जाता है या अपना स्वर, तेवर सतापेक्षी कर लेना पड़ता है। आपातकाल के दौरान यह परिस्थितियां किस तरह से काम कर रही थी जिसके कारण आम आदमी की आवाज सता तक पहुँच नहीं पा रही थी।

असल में जब आम जनता के मानवीय अधिकार छीने जाते हैं, अपहरण किए जाते हैं, पैरों से कुचल दिए जाते हैं तब उसके खिलाफ समाज/देश के चेतनषील साहित्यकार, पत्रकार, कवि, नाटककार, नायक तथा कलाकारों के ढंग से सबसे शक्तिशाली तरीके से प्रतिरोध ध्वनित होती है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ मेघा पाटकर, अरूधन्ति राय और आमिर खान का होना इसी बात का प्रमाण माना जाना चाहिए। आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने इस बात पर प्रतिबंध लगाया और कुछ आचार संहिता का निर्माण किया। यह आचार संहिता इसलिए था कि वह इंदिरा जी के उठाए गए कदमों का विरोध न करें। १६-२४ जनवरी १९७६ के दिनमान में ‘प्रेसजगत’ कॉलम के अंतर्गत एक रिपोर्ट मे उन १४ सूत्री आचार संहिता का जिक्र था जिसका पत्रकारों और समाचार पत्रों को पालन करना था आचार संहिता तैयार करने में १७ संपादको की एक समिति बनायी गई थी। जिसमें कुछ नामों का उल्लेख भी किया गया। हम कुछ नामों का उल्लेख यहां कर रहे हैं। सर्वश्री एम. चलपति राव-वयोवृद्ध पत्रकार, नेशनल हेराल्ड के संपादक और द प्रेस इन इंडिया, नेहरू फॉर चिल्ड्रेन आदि पुस्तकों के लेखक, पी. विश्वनाथ नई दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक पैट्रियट के संपादक, निखिल चतुर्वेदी, विचार प्रधान पत्रिका मेनस्ट्रीम के संपादक, जी. कस्तूरी मद्रास से ही प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध दैनिक हिन्दू के संपादक और कस्तूरी एंड संस लि. मद्रास के निदेशक अक्षय कुमार जैन- पिछले ३६ वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत और हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स, दिल्ली, बंबई से प्रकाशित के प्रधान संपादक, के.एम. मैथ्यू कालीकट से प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय पत्र मलमाला मनोरमा के संपादक। इन लोगों ने १४ सूत्री कार्यक्रम पत्रकारों और समाचार पत्रों के सामाजिक उतरदायित्व को ध्यान में रखकर और यह भी ध्यान में रखकर बनाया गया कि पत्रकारों का आत्म विश्वास बना रहे। इन १४ सूत्र में से हम तीन का यहां जिक्र करेंगे जो इस बात को ध्वनित करते हैं कि सरकार के किन राजनीतिक आशयों को पूरा करते हैं, और किन आशंकाओं, चुनौतियों से वह घबराता है।

१)  पत्रकार और समाचार पत्र ऐसे तनाव पैदा करने वाले समाचार और टिप्पणियां नहीं छापेंगें जिनसे नागरिक अव्यवस्था, सैन्य-द्रोह या विद्रोह फैलने की आशंका हो। हिंसा की हर हालत में निंदा की जानी चाहिए।

२)  पत्रकार और समाचार पत्र ऐसी जन अफवाहों या गप्पों या प्रमाणिक समाचारों को भी प्रसारित नहीं करेगें जिन से किसी का निजी जीवन प्रभावित होता है।

३)  पत्रकार और समाचार पत्र ऐसी सूचना तथा टिप्पणियां प्रकाशित नहीं करेगें जिनसे भारत की सार्वभौमिकता तथा अखंडता, राज्य की सुरक्षा और विदेशों से मैत्री संबंधो को क्षति पहुँचे।

उपर्युक्त तीनों तर्क गुजरात और बिहार में बड़े पैमाने पर हुए छात्र आंदोलनों और उससे उत्पन्न हुई परिस्थितियों से एक घबरायी हुई सत्ता संरचना के हैं, साथ ही जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की उद्घोषणा से जिससे शुरूआती दौर में सरकार घबरा गई थी। दिनमान में आचार संहिता के संदर्भ में एक व्यंग्य चित्र छापा जिसमें संपादक समिति एक मुर्गी के रूप में १४ सूत्री आचार संहिता के अंडों पर बैठी हुई उसे सेक रही है। जाहिर है, इन सूत्रों के निर्माण से पत्रकार समुदाय में हलचल हुई और यह भी हुआ कि सरकार का इसमें आत्मविश्वास बढ़ा, खसकर श्रीमती इंदिरा गांधी का जो काफी घबरायी हुई थीं कि कहीं आपातकाल के विरोध में ऐसा वातावरण न बन जाए जो अपने अंतिम लक्ष्य में सत्ताच्युत कर जाए। इतिहास बताता है कि श्रीमती गांधी अतिशय सत्ताप्रेमी होने के कारण ही आपातकाल के दौरान अलोकप्रिय हुई। जबकि वह एक लोकप्रिय नेता की बेटी थीं। इसी संदर्भ में जब एक पत्रकार ने श्रीमती गांधी से यह पूछा कि आपातस्थिति घोषित करने का फैसला उनके पिता कर सकते थे तो उन्होनें जवाब दिया कि

यह कहना बहुत कठिन है कि वह क्या करते। शायद वह ऐसी स्थिति पैदा ही न होने देते। मैं नहीं समझती कि विरोधी दलों के प्रति कोई व्यक्ति इतना सहनशील रहा है जितनी की मैं।१६

जवाहरलाल नेहरू ने लोकतंत्र की जिस पद्धति का विकास किया था और जैसी आशाएं लोगों के मन में जगाई थीं, इंदिरा, जिन्हें नेहरू की परम्परा का वाहक माना जा रहा था, इन सबसे पीछे हट गई थी। कांग्रेस घोर रुप से चापलूसी और संदेह का शिकार हो गई थी। व्यवस्था पूरी तरह एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो गई थी और जब व्यवस्था एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो, इतिहास बताता है, वह जनविरोधी होती है और वह एक व्यक्ति अत्यधिक संदेहशील होता है। हिटलर मुसोलिनी, फ्रेंको आदि संदेह से भरे हुए लोग थे। इंदिरा भी अपने साथियों के व्यवहारों के प्रति आशंकित रहती थीं और विपक्ष के किसी आचरण पर तो विश्वास तक नहीं करती थीं। ३० सितम्बर १९७६ को एक समाचारपत्र द सन के संवाददाता से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने कहा कि आपातस्थिति के बाद से बहुत सी सरकारें और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं खुले रुप से हमारे देश के कुछ व्यक्तियों को व्यक्तिगत रुप से धन दे कर सहायता करते रहे हैं।१७

पत्र-पत्रिकाओं को व्यवस्था हमेशा से प्रभावित करती रही है। आजादी के पूर्व अंग्रेज और उसके बाद अपनी सरकार पत्र-पत्रिकाओं पर दबाव बनाती है। संस्कृति पर फासीवादी दबाव शीर्षक से कंचन कुमार इसकी सम्यक्‌ छानबीन (जन्म नाम – किरण नाहटा) करते हुए दिखलाई पड़ते हैं। वे लिखते हैं

अंग्रेजी राज में मुल्क की आवाज को मुखर करने के लिए काजी नजरूल इस्लाम को ‘देशद्रोहिता’ के जुर्म में जेल में डाल दिया गया था। निलहे साहबों के जुल्म के खिलाफ लिखा गया दीनबन्धु मित्र का नीलदर्पण नाटक, महात्मा शिशिर कुमार घोष द्वारा स्थापित बंगला पत्र अमृत बाजार पत्रिका प्रेमचंद का सोजेवतन कहानी संग्रह तथा मुकुन्ददास की यात्रा पर विदेशी शासकों ने पाबन्दी लगा दी थी। जनमुखी कला साहित्य तथा समाचार पत्रों की आजादी का गला घोंटने की घृणित उपनिवेशी परम्परा ‘जॉन की जगह गोविन्द’ के तख्त पर बैठने के बाद भी जारी रही हैं।१८

असल में एक रचनाकार कलाकार के लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन बैठा है, फर्क इस बात से पड़ता है कि कला साहित्य के प्रति उनका रवैया क्या है? भारतीय लोकतंत्र में अगर इसे लोकतंत्र सही मायने में कहा जाए तो लेखक कलाकारों के विवेक के साथ यदि सरकार या सरकार के नौकरशाह अथवा पुलिस के विवेक का संघर्ष हो तो सही मायने में जो बात सामने आती है वो यह है कि लेखक कलाकारों को सत्ता के पोशक नौकरशाह एवं पुलिस के ही विवेक के अनुसार चलना होता है। दरअसल, एक रचनाकार और कलाकार की स्वतंत्रता है इसलिए इस स्वतंत्रता की रक्षा करनी ही पड़ती है, क्योंकि हम जानते हैं कि स्वंतत्रता के खतरे में पड़ने पर लेखन भी खतरे में पड़ जाता है, और तब ऐसी ऐतिहासिक हालात सामने आ सकती है, जिसमें महज कलम से उसकी रक्षा करना संभव न हो सके। आपातकाल इसी दौर से गुजर रहा था। सरकार द्वारा समाचार पत्रों की आजादी और कलाकारों की आजादी जैसी बातें तो की जाती थीं परंतु वास्तव में उन तमाम पत्रों तथा उससे संबंधित संगठनों पर हमले किये गये, जबकि पत्र-पत्रिकाएं कानूनी थे एवं उनमें शामिल लेखकों, कार्यकर्ताओं का अपराध महज यह था कि उन्होंने अपनी रचनाओं तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों के जरिए अपने मुल्क की प्रचलित व्यवस्था तथा उसके संचालकों की विभिन्न नीतियों के खिलाफ अपनी आस्था के मुताबिक अपना दृष्टिकोण जनता के सामने पेश करने की हिमाकत की।

पूर्वी पाकिस्तान जब बांग्लादेश के रूप में भारत के सैन्य और असैन्य सहयोग से सृजित हुआ, और भारत की जनता ‘विजय दिवस’ के उल्लास में झूम रही थी और श्रीमती इंदिरा गांधी का गुणगान कर रही थे तब वे नहीं जान रहे थे कि इस भोले-भाले उत्साह पर जल्द ही ग्रहण लगने वाला है। अपने इसी लेख में इस तरह दिखलाते हैं २४ अगस्त १९७२ की शाम को इंदिरा गांधी युग युग जिओ ‘राष्ट्रीय कांग्रेस जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का एक गिरोह सियालदाह के दर्पण बंगलादेश और सत्युग के हाकरों पर टूट पड़ा और उनसे उपरोक्त पत्रिकाओं की लगभग तीन हजार प्रतियां छीनकर जला दीं। रेनेसां और जनतार मुख के संपादकों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के एक जुलूस ने धमकी दी कि उन्होंने आइंदा पत्रिका निकाली तो उनका खात्मा कर दिया जाएगा। फ्रंटियर के संपादक समर सेन को धमकी दी गई। इन तमाम पत्रों का गुनाह एक ही था कि वे सभी शासक दल के विरोधी थे।१९ आशय साफ था कि सत्ता के विरोधियों को बोलने नहीं दिया जाएगा, लेकिन प्रतिरोध की आवाज कभी बंद नहीं होती कभी रुकती नहीं, सरकार दमन करती रही और पत्र पत्रिकाएं जनापेक्षी होकर हकीकत बयान करती रहीं। २४ अगस्त १९७२ की घटना असल में आने वाले समय अर्थात्‌ २६ जून १९७५ के बाद के समय में पत्र-पत्रिकाओं की दशा और दिशा संकेत करती है आपातकाल के दौरान लगाए गए तमाम दबाव वाले लेख इस प्रकार है – उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ से प्रकाशित अरिमर्दन के ३ जुलाई १९७५ के अंक में उसके संपादक एडवोकेट तेजबहादुर को भारत रक्षा कानून में गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने सरकारी तथा पुलिस सूत्रों से प्राप्त सूचना के आधार पर लिखा था कि आंदोलनकारी राज्य कर्मचारियों पर लाठी बरसाने के आदेश को पुलिस ने मानने से इन्कार कर दिया तथा उस दमनचक्र के हिस्से के तौर पर इस्तेमाल होने की ख़िलाफत करते हुए कुछ जवानों ने छुट्टी ली और बहुत से जवान ड्यूटी से गैरहाजिर रहे।२०

आपातकाल के दौरान यह सिलसिला कभी थमता हुआ दिखलाई नहीं पड़ता है। श्रीमती इंदिरा गांधी के पुराने मित्र कुलदीप नैयर, जिनकी मित्रता इस हद तक थी कि जब श्रीमती गांधी ने अपने लंबे बालों को छोटा करवाया तब उन्होंने कुलदीप नैयर से सवाल किया था कि अब मैं कैसी दिख रही हूँ? को भी आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया था। कुलदीप नैयर ने कई बार जवाहरलाल नेहरु के जमाने से लेकर १९६५-७५ के दौरान जब वे दि स्टेटमैन के स्थानीय संपादक थे श्रीमती गांधी के साथ मिलकर काम किए थे, ऐसे में उनकी गिरफ्तारी आश्चर्य पैदा करती है। इस संदर्भ में कुलदीप नैयर ने दैनिक जागरण में एक लेख लिखा जिसे साक्षात्कार के जून-जुलाई अंक में छापा। उसमें कुलदीप नैयर ने लिखा है कि

२५ जुलाई को सुबह ५ बजे जब पुलिस ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया तब मैं हैरत में पड़ गय, किन्तु मुझे अचानक यह बात याद आयी कि मैंने तीन दिन पहले ही श्रीमती इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा था कि आपने आपातकाल के साथ प्रेस पर जो सेंसरशिप लागू की है, वह लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुरुप नहीं है। २६ जून को देश पर आपातकाल थोप दिया गया। इस घोषणा के दो दिन के बाद मेरे आहृवान पर दिल्ली के प्रेस क्लब पर १०५ पत्रकारों ने एकत्र होकर प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों का पुरजोर विरोध किया। मुझे याद है कि इस घटना के कई वर्षों बाद श्रीमती गांधी के निजी सचिव आर.के.धवन ने मेरी गिरफ्तारी के संबंध में मुझे कुछ राज की बातें बताई थी बकौल धवन, तत्कालीन सत्ता ने यह तय किया था कि पत्रकारों को अपने पक्ष में करने के लिए इस पेशे के अव्वल पत्रकारों को विरुद्ध कर प्रेस के बीच भय की भावना का संचार किया जाए। यह युक्ति काम कर गई और कई पत्रकार सरकार की पंक्ति में आ खड़े हुए।२१

असल में किसी भी राष्ट्र राज्य में प्रेस पर प्रतिबंध लगाए जाने के कारण यह होता है कि आम जनता के पास सत्ता द्वारा उठाए गए सत्तापोषी कदम की जानकारी विचार तंत्र का हिस्सा है, सत्ता अपनी खबर उस तक पहुंचाने से खुद को रोके रखना चाहती है, जो खबर उसके लिए चुनौती प्रस्तुत करती है। कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी नहीं थी बल्कि मध्यप्रदेश के प्रख्यात आंग्ल दैनिक मध्य प्रदेश क्रॉनिकल, भोपाल में कार्यरत थे, ने लिखा है कि किस तरह आधी रात में पुलिस ने उनके प्रेस में आकर अखबार निकालने से मना किया। बावजूद इसके श्री त्रिपाठी ने अखबार निकाला और अपने मित्रों से बातचीत करते हुए जब उनके मित्र स्व. प्रेम श्रीवास्तव ने यह कहा कि कुछ भी हो देश भर में कोई भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। गजब का कंट्रोल है। तब उन्होंने कहा कि पहाड़ फोड़ने के लिए जब सुरंग बिछायी जाती है, तब बारुद की बत्ती में काफी दूरी पर आग लगायी जाती है। यह आग धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। आग जब क्लाइमेक्स पर पहुंचेगी तभी आखिर धमाके के साथ महाविस्फोट होगा। प्रतीक्षा कीजिये।२२

आपातकाल के पश्चात्‌ हुए चुनाव में यह महाविस्फोट हुआ अपने समय की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की शर्मनाक पराजय हुई।

e01

अखबारों और पत्रिकाओं के साथ इस तरह का लंबा खेल आपातकाल के दौरान चलता रहा। सरकार जहां कहती कि ये पत्र-पत्रिकाएं समाज में सरकार की गलत छवि प्रस्तुत कर रहे हैं इसलिए इन पर प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक है वहीं उनके संपादक कहते हैं कि सरकार की जनविरोधी नीतियों और लोकतांत्रिक मूल्य की हत्याओं को जनता तक जाना चाहिये। पत्र-पत्रिकाओं और सत्ता से उनके रिश्ते हमेशा विवादित और लगभग विरोधी रहे हैं और जब कभी पत्र-पत्रिकाओं का रुख सत्ता के समर्थन में गया है, सबसे अधिक हानि समाज की हुई है और जाहिर है खुद पत्र-पत्रिकाओं के लोकतांत्रिक मूल्यों की भी, उसके प्रतिरोध के स्वर भी कुंद हुए हैं। पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता के संदर्भ में कार्ल मार्क्स की टिप्पणी यहां पर एक जरुरी टिप्पणी लगती है-

‘प्रस्ताव प्रस्तुत करने वाला चाहता है कि पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता को व्यवसाय की सामान्य स्वतंत्रता से अलगम न रखा जाए, जो अभी तक प्रचलित है- इस आन्तरिक विरोध को वह असंगतता का क्लासिकीय उदाहरण मानता है। …. सबसे पहले अजीब लगने वाली बात यह है कि पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता को व्यवसाय की स्वतंत्रता में शामिल किया गया है। पर कुछ भी हो, हम वक्ता के विचार को नहीं ठुकरा सकते। रेम्ब्रॉ ने मैडोना को नीदरलैंड की किसान महिना के रूप में चित्रित किया था, हमारा वक्त स्वतंत्रता को क्यों ऐसे रूप में व्यक्त नहीं करता जो उसे प्रिय और बोधगम्य है?२३

कार्ल मार्क्स पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता की बात करते हुए उसे महज इस कारण से स्वतंत्रता प्राप्त करने की वकालत नहीं करते कि पत्र-पत्रिकाओं निर्बाध तरीके से अपनी कोई भी बात कह सके बल्कि इसलिए भी कहते हैं कि पत्र-पत्रिकाएं भी अपना जनापेक्षी रूख स्पष्ट करें वे सवाल पूछते है …… क्या पत्र-पत्रिकाएं अपने स्वरूप के प्रति ईमानदार हैं, क्या वे अपनी उदात प्रकृति के अनुसार काम करती है, क्या वे पत्र-पत्रिकाएं स्वतंत्र है, जो नीचे गिरकर व्यवसाय के स्तर तक पहुँच जाती है, कार्ल मार्क्स इसका समाधान बताते हुए फिर कहते है निसंदेह लेखक को कमाना चाहिए ताकि वह जिंदा रह सके और लिख सके, परंतु उसे किसी भी सूरत में इसलिए नहीं जिंदा रहना और लिखना चाहिए कि वह कमा सके।२४ जाहिर है कि कार्ल मार्क्स पत्र-पत्रिकाओं को व्यावसायिकता से अलग करते हुए उसकी ईमानदारी की मांग करते हैं। कार्ल मार्क्स की यह टिप्पणी पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता, उसकी ईमानदारी और उसके व्यावसायिकता परक दृष्टिकोण को अपने तत्कालीन समय में और आज के समय में हमें मौजूद दिखाई पड़ती है। यहीं पर, मार्क्स की इस टिप्पणी का सैद्धांतिक आधार लेते हुए यह कहा जा सकता है कि पत्र-पत्रिकाओं का सत्तान्मुख हो जाना और उसके माध्यम से अपने हितो का संवर्धन करना उसके व्यावसायिक हो जाने से भी नीचे की ओर गिरा कदम माना जाना चाहिए। आपातकाल के दौरान जिन पत्रिकाओं का ऐसा रूख रहा, उसे पच्चीस साल बाद याद करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा कहते है कि

हिन्दी में दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं जिनके संपादक लेखकों से हम किसी और तरह की आशा रखते थे, आंखे मूंदकर मुंह पर पट्टी बांधकर इस तरह कार्यरत थे मानो आसपास जो हो रहा है, वह सब नॉर्मल है। यदि आज हम इन पत्रिकाओं के तत्कालीन अंकों को उलट-पलट कर देखें तो शायद ही अनुमान लगा पाएं कि हम उन दिनों कैसे संकट की घड़ी से गुजर रहे थे।२५

इस शोध के लिए जब हमने वास्तव में तत्कालीन अंकों को उलट-पलट कर देखा तो कुछ अपवादों को छोड़कर वास्तव में आपातकालीन संकटों के बारे में कोई भी मुकम्मल जानकारी दर्ज नहीं की गई थी कुछ मिला तो, वह सता के समर्थन में या वास्तविक संकटों से ध्यान भटकाने वाले मुद्दों के रूप में।

धर्मयुग और दिनमान के अलावा ऐसी कई पत्रिकाएं थी जो आपातकाल के दौरान खामोश होकर अन्य मुद्दो पर बात कर रही थी। पहल जहां इंदिरा गांधी के फैसले को वैध ठहराते हुए तमाम जनान्दोलनों को षड़यंत्र और अमेरिका परस्त बता रही थी वहीं आजकल पत्रिका श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रशस्तिगान कर रही थी। अंग्रेजी पत्रिका सेमिनार में निर्मल वर्मा के एक लेख ने उस पत्रिका के तत्कालीन अंकों को प्रतिबंधित करवा दिया। प्रसि समाजवादी और आपातकाल के कट्टर विरोधी जार्ज फर्नान्डीस के संरक्षण में निकलने वाली पत्रिका प्रतिपक्ष जिसके संपादक गिरधर राठी थे एक ही अंक निकलने के बाद बंद करवा दी गई और उसके संपादक गिरधर राठी को कार्यालय से उठा कर सत्रह महीने के लिए जेल भेज दिया गया। अन्य कई छोटी-छोटी पत्रिकाएं और कवि अपनी रचनाओं द्वारा प्रतिरोध दर्ज करवा रहे थे। पहल के रूख की पड़ताल करने के लिए आपातकाल के समय पहल पर केन्द्रित एक पत्रिका निकाली गई और उसके बाद उसे अपना प्रकाशन बंद कर लिया। उसने घोषणा की थी कि वह केवल पहल की छद्म प्रगतिशीलता का नकाब उतारने के लिए निकाली जा रही है। तत्कालीन समय के पहल के अंकों को और उसके साथ पहल की पड़ताल करने वाले पत्रिका को देखना वास्तव में पत्र-पत्रिकाओं के उस रूख को समझने में सहूलियत होती है जिससे सता द्वारा अपने चरित्र को बदल लेने के बाद व्यवस्था का एक दमनकारी रूवरूप विकसित होता है और जिसे पत्रिकाएं जनता के आंखों से ओझल कर देना चाहती है। ठीक इसी दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका कम्युनिस्ट के तत्कालीन अंकों को देखने के बाद खासकर उसके संपादकीय गौर से पढ़ने के बाद यह बात समझ में आती है कि कैसे उसने आरंभ में आपातकाल का समर्थन किया और ज्यों-ज्यों आपातकाल का क्रूरतम स्वरूप सामने आने लगा कम्युनिस्ट का संपादकीय कहने लगा कि आपातकाल का समर्थन करना एक भूल साबित होती जा रही है। आज लगभग तीस वर्च्च पश्चात यदि वामपंथी मित्रों के पास आपातकाल के बारे में बातचीत की जाती है तो वे उसका लगभग विरोध करते ही नजर आते है।

आपातकाल के समय पत्र-पत्रिकाओं के रवैये के संदर्भ में उस समय की चर्चित पत्रिका सारिका को जिसके संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर थे, विशेष तौर पर याद किया जाना चाहिए। सारिका पत्रिका की प्रतिबंधित की हुई प्रति और प्रतिबंध के बाद प्रकाशित की हुई प्रति दोनो तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण करना वास्तव में इस कारण दिलचस्प होगा कि एक तानाशाह व्यवस्था किस तरह संदेह से भरी हुई और जनता की वास्तविक ताकत से सहमी होती है। कमलेष्वर जी से ऐसे दोनो अंक प्राप्त हुए है जिनको बतौर उदाहरण और बतौर प्रमाण और बतौर सता की मानसिकता को समझने के उपकरण यहां शामिल किया गया है साथ ही समाचार पत्रों के कुछ दुर्लभ दस्तावेज भी संलग्न किए गए है जिन्हें आगे दिया जा रहा है।

e02

सारिका जुलाई १९७५ समानान्तर कहानी विशेषांक १० के अंक में जिन शब्दों, चित्रों, छोटी कहानियों को सत्ता तंत्र ने छापने से रोका उन शब्दों, चित्रों कहानियों को कमलेश्वर ने बड़ी होशियारी से केवल काला करके पुनः छापा – यह देखना दुबारा यह यकीन करना होता है कि किसी भी राष्ट्र राज्य में सता तंत्र इन चीजों पर तानाशाह तरीके से प्रतिबंध लगाता है, उससे कहीं ज्यादा चालाक तरीके से कलाकार और साहित्यकार अपनी कला को जनता तक पहॅुंचा ही देते है। कला जो हरहाल में कलाकार और अंततः जनता का ही चिंतन होता है अपनी वद्यतीय संप्रेषण तकनीक विकसित कर लेती है। कहना है, कमलेष्वर जी ने सारिका के माध्यम से वह कौषल दिखलाया है। १८५७ की क्रांति में औपनिवेषिक सता के भीतर आम जनता तक और क्रांतिकारी मित्रों तक अपनी बात पहुँचाने की जिस तरह की तकनीक को क्रांतिकारियों में विकसित किया था, वह वास्तव में क्रांतिकारियों की दृढ़ता और औपनिवेशिक सता की कुंद मानसिकता का ही द्याक है। आपातकाल में ऐसी हजारों घटनाऐं हुई थी जिसमें श्रीमती गांधी की सता की दमनकारी नीतियों और प्रतिबंधो के बीच जनता तक अपनी बात पहुँचाने के नए और अनूठे तरीको को साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने ढूँढ़ लिये थे। तमाम विवादों और अपवादों के बावजूद कमलेश्वर जी की सारिका जुलाई १९७५ सता तंत्र के बरवस प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित कर रही थी। ध्यान से इस अंक को देखे। इस पर भारत सरकार की मुहर लगी हुई है। अशोक स्तम्भ के द्योरों वाली मुहर जिसके नीचे लिखा है कि सत्यमेव जयते जिन शब्दों पर लाल रोशनाई चलाकर छापने से मना करते हुए क्लियर टू सेंसर लिखा है उन शब्दों के कुछ उदाहरण देखे

सी.आई.ए.राज. मंत्री, नेता, वोट के रोज ताड़ी की बोतल और दस रूपये मिल जाते है माई-बाप जन असंतोच्च समाजवादी, प्रधानमंत्री, केन्दीय राज्यपाल आनी मिनिस्ट्री, विपक्षी, राक्षस, सरकार, रिजर्व बैंक, शासन, एम.वी. खद्दर आदि

सैंकड़ो द्याब्दो अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग पद्यश्ठों पर दर्ज जिसे हटा देने के लिए सेंसर के कार्यालय ने कहा कमलेश्वर जी ने इन शब्दों को हटाया नहीं बल्कि केवल इसे उसी स्थान और पृष्ठों पर काला कर दिया और उसके आगे-पीछे के संदर्भों को यथावत छाप दिया। जाहिर है जब यह पत्रिका पाठकों के हाथ छपकर आई तो लोगो ने बड़े कौतुहल से उन पृष्ठों को देखा जिस पर जहां तहां शब्दो को काला कर दिया गया था। कमलेश्वर बताते है कि उन शब्दों की हकीकत जानने की बेचैनी तब पाठको में कुछ ज्यादा ही थी।

सारिका में छपे एक व्यंग्य चित्र का और एक लघु कथा का विशेष तौर पर यहां जिक्र करना ठीक होगा। यह चित्र और लघु कथा इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि एक तानाशाह व्यवस्था अपनी भीतरी संरचना में कितनी संदेहशील और भ्रमित रहती है। यह चित्र सारिका जुलाई १९७५ के पृष्ठ २१ पर छपा हुआ है। चित्र में सबसे पहले एक गिद्ध की तस्वीर है फिर गणित के जोड़  का चिन्ह + है, फिर एक लगभग गांधीवादी टोपी बनायी गई है, इसके बाद गणित का बराबर का चिन्ह  =  हैऔर उसके बाद टोपी पहने एक नेता खड़ा है अर्थात्‌ गिद्ध जोड़ टोपी बराबर नेता। इस तस्वीर में से सेंसर अधिकारी ने अपनी समझ के मुताबिक जोड़ + और बराबर =  चिन्ह को प्रतिबंधित कर न छापने के लिए कहा। कमलेश्वर जी ने इस तस्वीर के क्रम को वैसे ही रखा सिर्फ जोड़ और बराबर के चिन्ह को काला कर दिया। ध्यान देने की बात है कि क्या यह तस्वीर गणित के चिन्हों के बिना अपनी बात पूरी नही करती कि गिद्ध अगर टोपी लगा ले तो वह नेता बन जाता है। शर्तिया यह तस्वीर अपनी बात पूरी करती है। सता तंत्र का सेंसर यहां भोथरा साबित होता है। सता तंत्र के इस भोथरेपन को उजागर करने में निश्चित तौर पर कमलेश्वर जी के विवके और कौशल की सराहना की जानी चाहिए।

कमलेष्वर जी ने सारिका, जुलाई १९७५ में एक लघु कथा को छापा जिसे पूरा का पूरा सेंसर अधिकारी ने काट दिया और उसे न छापने का आदेष दिया। इस पूरी कथा को कमलेश्वर ने काला कर दिया और जहां-तहां कुछ शब्दों को रहने दिया जिससे यह पता चल सके कि इस काली पट्टी के नीचे कुछ शब्द आपस में मिलकर कहना चाहते थे और जिसे व्यवस्था ने काली पट्टी के नीचे दबा दिया हे। कथा भी अपने आप में दिलचस्प है जो महज मनोरंजन नहीं करती बल्कि राजनीतिक विचारधाराओं की आलोचना करती है। कथा जो नकटा पंथ के नाम से कैलाश चंद्र सक्सेना द्वारा लिखी गई है और जो सारिका के पृष्ठ ३१ पर छपी है इस प्रकार है-

एक राज्यमंत्रिमंडल में सभी नकटे थे। हुआ यह कि एक आदमी की नाक किसी दुर्घटना में कट गई। उसने सोचा मेरी नाक तो मुफ्त मे कट गई दूसरे लोगों की भी कटनी चाहिए। वह आसमान की तरफ मुंह उठाकर बड़ी तन्यमता से देखने लगा। दूसरा उसके पास आया और उत्सुकतापूर्वक बोला-भाई तुम क्या देख रहे हो ? मैं समाजवाद देख रहा हूँ, वहां देखो, ऊपर अप्सराओं का नाच हो रहा है। छोटे-बड़े हर एक आदमी को नाच देखने के लिए निमंत्रित किया गया है। बड़ा अमन-चैन है वहां। दूसरे आदमी ने तब हैरानी से कहा भाई मुझे तो कुछ भी नहीं दिख रहा है। इस पर नकटा आदमी हंसा-अगर नाक का अगला भाग कटवा लो, तो दिखने लगेगा अच्छा ऐसी बात है, वह नाई के उस्तरे से नाक का अगला भाग साफ कराके लौट आया। उसने ऊपर की ओर देखा। वहां समाजवाद तो क्या मंत्रियों के आश्वासनों भरे बादल भी दिखाई नहीं दिया। वह झल्लाया-ऐ भाई। मुझे तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा हे। पहला आदमी धीमे से बोला तुम्हारी नाक तो कट ही गई। अब तुम भी लोगों से बोलो कि समाजवाद दिख रहा है। दूसरा आदमी भी आसमान की ओर सिर उठा कर देखते हुए चिल्लाने लगा। मुझे समाजवाद दिख रहा है। उनको देख कर काफी भीड़ जुट गई और नाक कटा कर उनमें शामिल हो गई। एक नकटा पंथ ही बन गया। वह समाजवादी सब्जबाग दिखाकर लोगों की नाकें काटने लगा।२६

यह कथा अपनी पूरी संरचना के सता-तंत्र और उसकी किसी एक विचारधारा का क्रिटीक प्रस्तुत करती है। समाजवाद के संदर्भ में भेड़चाल चलने वालों की यह पड़ताल वास्तव में आपातकाल के दौरान भड़काने वाला साबित हो सकता था। सता तंत्र की इसी मान्यता ने इस कथा को प्रतिबंधित कर दिया था। लेकिन इस तरह के प्रतिबंधों को देखकर लगता है कि एक तानाशाह व्यवस्था की मूल चरित्र जो भयभीत होता है, संदेह से भरा होता है, हर छोटी-छोटी घटनाओं प्रसंगो पर सूक्ष्म निगाह रखता है। इस तरह की कथाओं पर प्रतिबंध इस बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है कि एक तानाशाह व्यवस्था के भीतर जनकल्याण की बातें प्रसंग आदि उसके नजरों से ओझल हो सकते हैं लेकिन व्यवस्था को चुनौती देने वाली कोई घटना ओझल नहीं हो सकती। सत्तोन्मुखता, हर हाल में अपने को श्रेष्ठ बनाये रखने की कवायदें, श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके आगे-पीछे के लोग अपने हित के प्रति किस स्तर तक सावधान थे, दौर उनका संदेह किस स्तर तक था, कथा का उपर्युक्त प्रसंग बतलाता था।

एक दूसरा सवाल इसके साथ जो मन में आता है कि सारिका पत्रिका के संपादक कमलेष्वर ने आखिर क्यों आपातकाल के तुरंत बाद इस तरह की कथाओं को अपनी पत्रिका में जगह प्रदान कर रहे थे। जाहिर है, उनके कुछ राजनीतिक आशय रहे होगें। जब शोधकर्ता ने कमलेष्वर जी से बातचीत करते हुए पूछा कि आप आपातकाल का समर्थन कर रहे थे या विरोध? तब कमलेश्वर जी ने स्पष्ट कहा, विरोध कर रहे थे। तब दूसरा शोधकर्ता ने पूछा तब क्या जयप्रकाश नारायण का समर्थन कर रहे थे ? कमलेश्वर जी ने जवाब दिया कि संपूर्ण क्रांति से पहले में उनका बहुत बड़ा समर्थक और प्रशंसक  रहा हूँ लेकिन जब एक बार मैंने संपूर्ण क्रांति के संदर्भ में जयप्रकाश नारायण से कुछ सवाल किए, तब जयप्रकाष जी ने जवाब दिया कि- कमलेश्वर, क्रांति, क्रांति होती है …. क्रांति के बारे में सवाल नहीं पूछने चाहिए। तब कमलेश्वर जी ने जयप्रकाश जी से जो कहा, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक घटनाचक्र में भी दर्ज किया है कि

सन्‌ १९३७-३८ में (दूसरे विश्व युद्ध से पहले) इटली में मुसोलिनी ने बिल्कुल यही बात कही थी और बाद में वह भयानक फासिस्ट साबित हुआ। यदि आप भी यही कहते हैं तो आपमें तथा आपातकाल घोषित करने वाली श्रीमति इंदिरा गांधी में मैं (एक लेखक के रूप में) कोई फर्क नहीं कर पाता। क्योंकि श्रीमति इंदिरा गांधी देश नहीं है, पर आप जो आंदोलन देश में चलाना चाहते है और बरपा करना चाहते है, वह इंदिरा गांधी को नहीं, पूरे देश को ले डूबेगा। सवाल इंदिरा गांधी को बचाने का नहीं देश को अंधसाम्प्रदायिक शक्तियों से बचाने का है। मैं इंदिरा गांधी का समर्थक रहा हूँ आपातकाल का आंशिक समर्थन मैंने किया है .. उससे आहत भी हुआ हूँ लेकिन आप जिन साम्प्रदायिक शक्तियों को लेकर चल रहे हैं वे तो …. २७

इस तरह की बातचीत की सूचना कमलेश्वर जी ने जयप्रकाश जी के साथी और समर्थक प्रसिद्ध साहित्यकार रेणु जी को दी और रेणु जी ने आश्वस्त किया कि वे जे.पी. से बात कर लेगे। बहरहाल, कमलेश्वर जी इन कारणों से जे.पी. से दूर होते गए कि जे.पी. ने तत्कालीन समय में देश की साम्प्रदायिक ताकतों का समर्थन हासिल किया था। जाहिर है, समाजवाद के संदर्भ में सारिका में छपी कहानी को कमलेश्वर जी की इस तरह बन रही चिंतन पद्धति का नतीजा कहा जा सकता है। कमलेश्वर जी के जे.पी. को दिए गए जवाब से एक बात और साफ होती है कि कमलेश्वर आपातकाल के पूर्ण विरोधी नहीं थे। जब शोधकर्ता ने उनके आपातकाल के आंशिक समर्थन का अभिप्राय पूछा कि कोई संतोषजनक उत्तर प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन घटनाचक्र पुस्तक मे  इस का उत्तर मिलता है। इसमें कमलेश्वर लिखते हैं,

मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्र्थक था और नहीं भी था। जहां तक आपातकाल भारत की साम्प्रदायवादी शक्तियों और पूंजीवादी सोशलिस्ट इंटरनेशनल के प्रतिक्रियावादी इरादों को तोड़ना चाहता था, वहां तक मैं आपातकाल के साथ था। …भारत के संदर्भ में आपातकाल का विरोधी न होते हुए भी प्रेस सेंसरशिप के मुद्दे पर आपातकाल का समर्थक था। यह एक अंतर्विरोध हो सकता है, पर मेरी नजर में आज भी यह अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि एक सही स्टैंड है, क्योंकि राष्ट्रीय हितों के बगैर आप देश के अंतरराष्ट्रीय मंसूबों और हितों की हिफाजत नहीं कर सकते। आखिर मैंने ही आपातकाल के दौरान उसके विरोध में दुष्यंत कुमार की गजलें छापी थी- मैं आपातकाल का अंध समर्थक होता तो कथा-पत्रिका में दुष्यंत की गजलें छापने को जोखिम न उठाता।२८

जाहिर तौर पर कमलेष्वर जी का उपर्युक्त कथन १९७७ में एक सफाईनुमा वक्तव्य लगता है। आपातकाल के संदर्भ में दो ही पक्ष थे और आज भी इस तरह की परिस्थितियों के दो ही पक्ष हो सकते है या तो आप समर्थन करते हो या विरोध। आंशिक समर्थन और आंशिक विरोध जैसे कोई चीज होती। कमलेश्वर जी ने स्वयं कहा है कि यह उनका अंतर्विरोध हो सकता है। यह कहना होगा कि वास्तव में यह उनका अंतर्विरोध ही था। बावजूद इसके कमलेश्वर की पत्रिका सारिका को आपातकाल के दौरान सेंसरषिप की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, जिसके घाटे कमलेश्वर जी को हुए इससे इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी सारिका कोई व्यावसायिक पत्रिका थी नहीं जिसके कारण उसके लाभ और हानि का मामला बनता हो। और न ही कमलेश्वर जी इस पत्रिका को लाभ-हानि के हिसाब से देख रहे थे। इस संदर्भ में मार्क्स ने यह टिप्पणी भी की है कि लेखक अपनी कृति को कदापि साधन के रूप में नहीं देखता। कृति स्वयं उसके लिए लक्ष्य है, वह उसके तथा दूसरों के लिए साधन इतना कम है कि वह अपने अस्तित्व को जरूरत पड़ने पर सृजन के अस्तित्व की बलि वेदी पर चढ़ा देता है। पत्र-पत्रिकाओं की मुख्य स्वतंत्रता व्यवस्था न होने में निहित है। जो लेखक पत्र-पत्रिकाओं को नीचे महज भौतिक साधनों की स्थिति में पहँचा देता है, वह इस आन्तरिक अस्वतंत्रता के लिए दंड के रूप में सेंसर की बाहरी अस्वतंत्रता का सेंसर का पात्र है या कहना चाहिए, उसका स्वयं अस्तित्व ही उसके लिए दंड है।२९

जाहिर है, आपातकाल के समय पत्र-पत्रिकाओं का रवैया और वर्तमान के इस आपाधापी वाले समय में पत्र-पत्रिकाओं का रवैया कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो व्यावसायिक स्वरूप को ग्रहण न करते हुए भी लाभ के लिए ही अपनी तमाम तिकड़में करता है। इस तिकड़म में शामिल तमाम लोग और उनके अगुआओं का अस्तित्व मार्क्स की शब्दावली में उनके स्वयं के लिए दंड ही है।

असल में आपातकाल के दौरान प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंध और उसके दफ्तरों की तोड़-फोड़ उनके संपादको की अपमानजनक गिरफ्तारियां, बुद्धिजीवियों, लेखकों को धमकी और उस पर रखी जाने वाली खुफिया नजर एक ऐसा परिवेश निर्मित कर रहा था, जिसमें खुलकर बोलने और लिखने वाले लोग कम हो गए थे। जिन रचनाकारों और लेखकों से यह आशा की जा रही थी कि आपातकाल, जो कि एक तानाशाही व्यवस्था की तरह थी, के विरूद्ध जन-चेतना फैलाने का काम करेगें और जिनके सामने जर्मनी और हिटलर की तानाशाही का उदाहरण था और जिसकी आलोचना करते वे थकते न थे, स्वयं को प्रगतिवादी मूल्यों का वाहक मानते थे, वे सब सता के सतर्थन में जाते हुए दिखलाई पड़ रहे थे और अपनी धार को सता के हित में इस्तेमाल कर रहे थे। जाहिर तौर पर इन बुद्धिजीवियों की दशा और दिशा, समाज के उन युवा रचनाकारों पर असर डालता था जो उन्हें अपना आदर्ष और प्रेरणा स्रोत मानकर लिख रहे थे। साथ ही जिन लेखक बुद्धिजीवियों ने आपातकाल का विरोध किया, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और यातनाएं दी जा रही थी ऐसे में उन युवा रचनाकारों के सामने भय और आतंक का माहौल निर्मित हो गया था। युवा रचनाकारों और पत्र-पत्रिकाओं को इस विषम परिस्थिति का सामना करने में कठिनाई आ रही थी। बावजूद इसके जिन रचनाकारों ने आपातकाल के दौरान आपातकाल के विरूद्ध लिखने का साहस किया उन्हें वंदनीय मानना चाहिए और अभिरूचि, उत्तरार्द्ध जैसी पत्रिकाओं की प्रशंसा की जानी चाहिए जिन्होंने इन विपरीत परिस्थितियों में जनापेक्षी भूमिका बनाए रखा।

और अंत में यह कि आपातकाल के दौरान प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को एक बार फिर से लगभग पैंतीस वर्ष बाद सूक्ष्मता से देखे जाने की आवश्यकता है जिससे यह पता चल सके कि तत्कालीन समय के सरोकारों को दर्ज करने की कोशिश में किस तरह की राजनीति खेली गई और कितनी ईमानदारी बरती गई, किस तरह के समझौते किए गए और किस स्तर से व्यवस्था से फायदे उठाए गए। वर्तमान पत्र-पत्रिकाओं का रूख या रवैया और उसकी शक्ति निर्मित करने में आपातकालीन पत्रिका का क्या योगदान रहा है यह भी उस समय की पत्र-पत्रिकाओं को देखने पढ़ने से पता चलता है। असल में पत्र-पत्रिकाएं किसी भी राष्ट्र के जाग्रत चेतनशील समाज का दर्पण होती हैं। इस दर्पण में उस राष्ट्र की उपलब्धि और विकास के साथ-साथ उन विसंगतियों का चेहरा भी दिखाई पड़ता है, जो व्यवस्था के भीतर से उभरता है और जिसे अपने कुछ निहित स्वार्थों के चलते सत्ता तंत्र पोषित करता है। आपातकाल में हमें इस दर्पण में दोनों तरह के चेहरे पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से दिखलाई पड़ते हैं। वर्तमान पत्र-पत्रिकाओं के रवैये में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने की कितनी कोषिष की जा रही है, यह भी आज अनुसंधान का विषय है, क्योंकि भूमंडलीकृत व्यवस्था ने आधार और अधिरचना दोनों को आमूल चूल ढंग से हिला दिया है। और व्यक्ति का कोई एक चेहरा नहीं रहा है। पत्र-पत्रिकाएं व्यक्ति के इस चेहरे को बचाते हुए एक मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत कर सकें इस आषा के साथ अंधेरे में कविता में मुक्तिबोध का यह सवाल एक जरूरी सवाल है –

बरगद आत्मा का पत्र है वह क्या?

सन्दर्भ
१.         कला की जरुरत, अर्नेस्ट फिशर, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण – १९९०, पृष्ठ – २२०
२.         वही, पृष्ठ -७७
३.         पाश्चात्‌ काव्यशास्त्र : मार्क्सवादी परम्परा, प्रधान संपादक, डॉ. नगेन्द्र, प्रकाशक, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पृष्ठ-१६, १७
४.         आपातकाल एक डायरी, भाग-१, बिशन टंडन, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, २००२, पृष्ठ – ३४५-      ३४६.
५.         दिनमान, १८-२४ दिसम्बर १९७७, पृष्ठ-४६
६.         दिनमान, २६ सितम्बर २ अक्टूबर १९७६, पृष्ठ-११
७.         वही, २४ अगस्त १९५६ में संगीतकारों के बीच माओ के दिए गए भाषण से उद्धत
८.         कला का इतिहास दर्शन, आर्नल्ड हाउजर (अनुवादक, गोपाल प्रधान), गं्रथशिल्पी, प्रथम हिन्दी          संस्करण, २००१, पृष्ठ-६७
९.         वही, पृष्ठ-७०,७१
१०.      उत्तरार्द्ध अंक-११, संपादकः सव्यसाची, मथुरा, फरवरी-१९७६, पृष्ठ-१२४
११.      उत्तरार्द्ध अगस्त १९७७, पृष्ठ-२१,२२
१२.      कला का इतिहास दर्शन, आर्नल्ड हाउजर (अनुवादक, गोपाल प्रधान), गं्रथशिल्पी, प्रथम हिन्दी          संस्करण, २००१, पृष्ठ-१०४
१३.      कला की जरुरत, अर्नेस्ट फिशर, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण-१९९०, पृष्ठ-५२
१४.      उत्तरार्द्ध-९, पृष्ठ-१५
१५.      अभिरुची-२, संपादक-शिवराम, चन्द्रमोहन, कोटा, वर्ष उपलब्ध नहीं है।
१६.      दिनमान १०-१६ अक्टूबर १९७६, पृष्ठ-१५
१७.      वही, पृष्ठ-१५
१८.      संस्कृति पर फासीवादी दबाव, कंचन कुमार, अभिप्राय, संपादक-राजेन्द्र कुमार, इलाहाबाद, सितम्बर    १९८२, पृष्ठ-१०३
१९.      वही, पृष्ठ-१०४
२०.      वही, पृष्ठ-१०५
२१.      साक्षात्कार, जून-जुलाई,२००५, पृष्ठ ७९
२२.      वही, पृष्ठ-१०३
२३.      साहित्य तथा कला, मार्क्स एंगेल्स, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८१, पृष्ठ-१७०
२४.      वही, पृष्ठ -१७१-१७२
२५.      आदि, अन्त और आरम्भ, निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ- २२६, २२७
२६.      सारिका, जुलाई-१९७५, संपादक-कमलेश्वर, पृष्ठ-३१
२७.      घटनाचक्र, कमलेश्वर, सामयिक प्रकाशन, प्रथम संस्करण-१९९७, पृष्ठ-७
२८.      वही, पृष्ठ-८
२९.      साहित्य तथा कला, मार्क्स एंगेल्स, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८१, पृष्ठ-१७२

One comment
Leave a comment »

  1. आदरणीय अमरेन्द्र जी
    आपातकाल का मीडिया पर पड़े प्रभाव को लेकर मैं कुछ सामग्री तलाश रहा था, तभी गुगल बाबा में पड़ा आपका लेख मिला ।अहा मन मुग्ध और दिल से वाह निकल गया। हालॉकि लेख को पूरा अबी पढ़ा नही हूम पर सरसरी तौर पर काम से ज्यादा मैटर पैकर आपके मैहनत के प्रति मन भर आया।नमस्कार सहित इस लेख को मैं अपने ब्लॉग में बी डालकर अपने ब्लॉग की शोभा बढ़ा चुका हूं
    asbmassinmis.blogspot.com ( पत्रकारिता / जनसंचार)
    आपका
    अनामी शरण बबल

Leave Comment