Translating Bharat / India: Something Will Ring
एक बार फिर, हमारी शीर्ष कथा कई मज़मूनों से बनी है और पिछले अंक के सम्पादकीय की थीम को आगे बढ़ाती है।
जैसा पिछले सम्पादकीय में कहा गया था, हमारे समय में अनुवाद के नये संकेतक/मध्यस्थ सक्रिय हुए हैं। भारत में, भारत के विषय में अनुवाद को लेकर सक्रियता अकादमिक और व्यावसायिक दोनों स्तरों पर नये ढंग से बढ़ी है। इस वर्ष के शुरु में सियाही ने अनुवाद पर एक आयोजन किया जिसका शीर्षक था ट्रांसलेटिंग भारत. उस आयोजन में भारतीय भाषाओँ के अलावा मुख्यतः फ्रांसीसी और ब्रितानी अनुवादकों और साहित्यिक एजेंटो ने हिस्सेस्दारी की. पिछले महीने स्विट्जरलैंड के लोज़ान विश्वविद्यालय में एक आयोजन हुआ जिसका शीर्षक था ट्रांसलेटिंग इंडिया. इसमें हिन्दी लेखकों, आलोचकों और इतिहासकारों के साथ साथ स्विस, फ्रांसीसी, जर्मन और अमेरिकन अकादमिकों ने हिस्सेदारी की. सियाही के आयोजन के उद्देश्यों में ‘आर्थिक महाशक्ति’ के तौर पर उभरे देश और ‘ग्लोबल हो रहे संसार’ में भारत से अनुवाद की संभावनाओं का पता लगाना, अनुवाद कर्म और अनुवाद उद्योग की समस्याओं पर विचार करना और भारतीय भाषाओं से अंग्रेज़ी एवं यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर्म से जुड़े विभिन्न व्यावसायिकों को एक नेट्वर्किंग प्लेटफार्म उपलब्ध करना था. लोज़ान विश्वविद्यालय के आयोजन का उद्देश्य हिन्दी साहित्य के अनुवादों से निर्मित होने वाले ‘सांस्कृतिक भारत’ का अध्ययन करना था. लोज़ान का आयोजन अधिक औपचारिक रूप से वैचारिक/अकादमिक किस्म का आयोजन था और इसमें पढ़े गए पर्चे विश्वविद्यालय द्वारा प्रोफेसर माया बर्गर और निकोला पोज्जा के संपादन में पुस्तककाकार प्रकाशित होंगे. (इस आयोजन की अधिक जानकारी के लिए देखें साइड बार) उसमें पढ़े गए पर्चों में से पाँच हमारी शीर्ष कथा में शामिल हैं. प्रतिलिपि में उनके प्रकाशन की अनुमति के लिए हम माया और निकोला के आभारी हैं. यहाँ प्रस्तुत छह पाठ अनुवाद और भारत के सम्बन्ध को कई तरह से पढ़ते हैं. सुधीर चन्द्र उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशीकरण की पृष्ठभूमि में भारतीय संस्कृतिक आत्म के बनने की जटिल गाथा को कहते हुए यह याद दिलाते है कि कैसे आरंभिक भारतीय अनुवादको ने अनुवाद को एक दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की जो शीघ्र ही एक ‘एपिस्टमोलॉजिकल सबमिशन’ में बदल गयी. मदन सोनी का पठन हिन्दी गद्य की जन्मकथा को एक औपनिवेशिक फलन की तरह पढता हैं और उसकी उपनिवेशोत्तर जीवनकथा को समस्याग्रस्त करता है. पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर के उपनिवेशकालीन और उपनिवेशोत्तर अनुवादों को डिकोड करते हुए यह पाते हैं कि इन अनुवादों में कबीर अनुवादकों के अपने पूर्वग्रहों से निर्मित एक भिन्न कबीर है, एक भिन्न कवि ही नहीं, भिन्न व्यक्ति भी. एनी मोंताउ का पेपर निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद के कथा साहित्य को, और खुद उनके द्वारा किये गये अनुवादों को भारतीय और पश्चिमी दृष्टियों की रोशनी में पढता है. गिरिराज किराड़ू तेजस्विनी निरंजना की पुस्तक को पढ़ने के प्रयत्न में उत्तर-औपनिवेशिक प्रश्नो को हल करने में उत्तर-संरचनावादी ज्ञान पद्धतियों के उपयोग और अनुवाद के सम्मुख मूल की स्थिति पर विचार करता है. इन पाँच मुख्यतः अकादमिक मज़मूनों से बहुत भिन्न तरीके से इस प्रश्न पर विचार करता है गीतांजलि श्री का निबंध. द्विभाषी होने की औपनिवेशिक विरासत, वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में भारतीय साहित्य के ‘प्रामाणिक’ प्रतिनिधि के तौर पर भारतीय अंग्रजी साहित्य की विडंबनात्मक मान्यता और एक बहुभाषी देश की बहुल सचाईयों पर एक साथ निजी और सार्वजनिक ढंग से बतियाता हुआ यह निबंध एक द्विभाषी के एकांत में और उसके द्वारा लिखित ‘साहित्य’ में अनुवाद और लेखन की प्रत्यावर्तनीयता का बहुत महत्वपूर्ण विश्लेषण है. |
Once more, our Lead Story is the sum of many parts and takes forward the theme set out in the last issue’s Editorial.
As was stated in that Editorial, in our time, new signifiers/mediators of translation have become active. Whether academic or commercial, there seems to be an increase in activity around translation in India and about India. At the start of the year 2008, Siyahi organized a translation event titled “Translating Bharat” in which the participants included French and British translators, besides those working in Indian languages, and literary agents. Last month, there was a conference at Laussane University (Switzerland) titled “Translating India“. Participants included Hindi writers, critics and historians as well as Swiss, French, German and American academics. The aims of Siyahi’s event were to explore the possibilities of translation in India (an ‘economic superpower’ in a ‘globalized world’), to discuss the various problems in the process and the economics of translation, and to provide a platform for networking to people in the translation market. The conference at Laussane intended to study the ‘Cultural India’ created by translations. This event was obviously more academic in nature and the papers read here will be published in book form, edited by Maya Burger and Nicola Pozza (see sidebar). Pratilipi is grateful to Maya and Nicola for permission to print five of those papers as part of our Lead Story. The texts presented here read the relationship between translation and India in many ways. Sudhir Chandra, while narrating the complex story of the formation of modern Indian cultural consciousness in the context of colonization, calls attention to how the first Indian translators tried to use translation as a double-edged sword which soon turned into an ‘epistemological submission’. Madan Soni’s text reads the development of Hindi prose as fallout of colonization and problematizes its post-colonial history. Purushottam Agrawal, in decoding the pre- and post-colonial translations of Kabir, finds that, in these translations, the translators have created a different Kabir out of their preconceptions – not just a different poet, but a different person. Annie Montaut’s paper reads Nirmal Verma and Krishna Baldev Vaid’s fiction (and her own translations of that) in light of Indian and Western perceptions. Giriraj Kiradoo, in trying to read Tejaswini Niranjana’s book, problematizes the proposed project of using post-structuralist methods to solve post-colonial questions and of the position of the original vis-a-vis the translation. In ways very different from these academic papers, Geetanjali Shree’s essay approaches the same questions. It talks of the colonial inheritance of being bilingual, the ironic acceptance of the the Indian-English Literature as the only, authentic and noticeable representative of Indian Literature and the many truths of a country with many languages, in a way that is at once personal and general. The essay is also important in the way it talks of the interchangability of original and translation in a bilingual writer’s writing, and in her loneliness. |