आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

शिकायतों का पुलिंदा और तितलीः प्रयाग शुक्ल

शिकायतों का पुलिंदा और तितली

चाहता हूँ रख ही दूँ उसे सरकाकर
इस सुबह एक ओर
रह रह कर मुझे मुंह बिराता है
पुलिंदा
कहता हुआ अब भी भरोसा है
सूनी जायेगी शिकायत कोई!

आदत पर छूटती नहीं.
गोल गोल लाल मुँह सूरज का
इतना नरम, कैसी तो लाली फैलाता है
ठंडी हवा करती है स्पर्श माथे का
थपकी-सी कोई फूल पेड़ देता है,
पर यह पुलिंदा कुछ भारी-सा
करता है इनकार उतरने से.

शिकायतें कई हैं:
कुछ तो हैं नाम सहित
जानी-पहचानी भी
कुछ है उलझी-पुलझी
जल्दी से ढूँढ में न आने वाली,
भीतर पुलिंदे के!

और ईश्वर के नाम के
शिकायतें
उसका तो पता ही नहीं मालूम
ठीक ठाक
फिर भी भेज ही देता हूँ –
पुलिंदे से निकलकर
कुछ उसकी ओर भी

अच्छा हुआ तितली यह
दीख गयी
पल भर को ही सही
उड़कर ले गयी पुलिंदा यह
वजनी,
अपने उन भारहीन पंखों पर,
पल भर को ही सही!

पल भर को ही सही
ख़ुद बनकर दृश्य,
कर दिया उसने उसे कैसे अदृश्य!!

भ्रमों के पार

(स्वामीनाथन के लिए)

भ्रमों के पार
चीज़ें रहती हैं अपने
वास्तव में.
अपनी ही सांसों और अपने ही
रंग-रूप, अपनी ही रगों में!

पर, उनपर पड़ती हैं छायाएँ
एक-दूसरी की.
उनकी दूरियों-नज़दीकियों का
भी है वास्तव अपना!
जो चीज़ों की जगह से,
होता है उस जगह का
जहाँ से देखा जा रहा होता
है उनको!
और गुणनफल चीज़ों का
वह भी हो जाता है
उनका वास्तव ही –

तब कई-कई वास्तवों
से किसी एक वास्तव के
मूल में चाहते
पहुँचना हम!

और किसी वास्तव से
किन्ही, कई वास्तवों की ओर भी
जाने को
रहते हैं उत्सुक हम –
भ्रमों के पार!

देखो, देखो अपने घोंसले
से उड़कर जाती हुई
चिडिया को,
लौट लौट आती
घोंसले तक!

और उसे भी जो लिये
जाती है संग अपने
उड़ाये चट्टान को,
किसी सूर्य आभा में!

धूपकाठी

जलती धूपकाठी सुगंध फैलाती
धीरे सुलगती वह
धीरे झर जाती.

जब तक वह जलती है
रहती अदृश्य-सी,
होने का भान पर
अपना कराती.

कभी कभी फूलों की छाया में
रहती वह प्रज्वलित,
कहीं किसी कोने में
हल्के उजाले में
हल्के अंधेरे में
चुप चुप वह निज से ही
मानों बतियाती!

सारी प्रार्थनाओं में
रहकर समर्पित वह
जलती ही रहती है,
अन्तिम सिरे तक.

कण कण कुछ राख कण
सिरजती,
सिरजती सुगंधियाँ.

वृत एक अपना वह
सहज ही बनाती.
झर जाती
धूप काठी!!

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