आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सफेद रंग की स्कूटी: संजय सिंह

१.

सुबह की धूप में थोड़ा तीखापन था। धूप के साथ पत्तों का आकार भी आँगन पर उतर रहा था। नीम की पत्तियों की सरसराहट से बीच बीच में हवा में कंपन आ जाती। उसी कंपन से खिड़की हिली। उसके हिलने से खिड़की के कब्जे से डकार जैसी आवाज आयी। उस आवाज के पास ही नान्हू का बिस्तर लगा हुआ था। उसके सपने का दरवाजा खुल गया और वह धम्म से बाहर आ गिरा। जहाँ आफिस जाने की हड़बड़ी थी। तम्बाकू रगड़ने की मजबूरी थी। मकान का किराया देना था। वेतन बैंक खाता में जमा नहीं हो पाया था। मकान मालकिन का झुर्रीदार गुस्सा था। उसने अधखुली पलकों से दीवार की ओर देखा। जहाँ पर घाव की तरह उभरी हुई घड़ी में काँटे सुबह के सात बजा रहे थे।

नान्हू की आँखें पूरी तरह खुल चुकी थी। उसकी आँखों की पुतलियों के भूरेपन में थोड़ी नींद घुली हुई थी। देर रात तक टेलीविजन देखने के चलते उसकी आँखों के नीचे कालापन आता जा रहा था। जिसके नीचे की हड्डी कुछ ज्यादा ही उभरी हुई थी। उसी हड्डी पर हल्की सी चिकोटी करते हुए माधुरी की माँ ने उससे कहा था- माझा जावाई बनशील काय?

तब नान्हू घबरा गया था। उसके होंठ से चिपट कर रखा हुआ तम्बाकू एक झटके में उसकी ओइसोफेगस में जाकर अटक गया था। वह खाँसने लगा। उसकी आँखों में पानी तैर आया। फिर हिचकी ने उसे उकडू बैठने पर मजबूर कर दिया। ताई यानी माधुरी की माँ नान्हू का पीठ सहलाने लगी। दूर अपने दरवाजे पर तुलसी की पूजा कर रही मकान मालिकन की आँखें बंद थी। असहनीय प्रार्थना के बोझ से उसकी पीठ पर कूबड़ निकल आया था। शायद इसीलिए उसने विवाह नहीं किया था।

“क्या विवाह नहीं किया था। अरे हुआ नहीं था।” ताई जब ऐसा जोर देकर कहती तो उसके धवल दन्त श्रृँखला नीचे के होंठ को धकिया कर बाहर आ जाते। तब ताई के मुँह के भीतर दाँतों में उलझे लार के धागे और तम्बाकू के लाल काले दाग जगमगा जाते थे। तब ताई का सिर्फ़ सिर हिलता रहता। एकदम दुबली काठी वाली ताई बहुत चपल और कर्मठ थी। वह भोर में ही उठ जाती और फिर आंगन बुहारना, बर्तन माँजना, सामने दीवार से सटकर लगे फूलों के पौधों को पानी देना। माधुरी के लिए नाश्ता बनाना आदि निपटा लेती। उसके इस निपटने के आसपास ही नान्हू की नींद खुलती थी।

नान्हू ने लम्बी जम्हाई और करीब पैंसठ अंश की अंगडाई लेकर अपनी देह में बची खुची नींद झाड़ दी। इस क्रिया में उसके दोनों हाथ हवा में ऊपर उठ गये। मानो वे किसी असीम को पुकार रहे हों। उसने घबराकर अपने दोनों हाथ नीचे खींच लिये। ऊपर सिलिंग फैन चल रहा था। वह अपने हाफ पैंट की जेब में हाथ डालकर घोड़ा छाप तम्बाकू की पीली पैकेट टटोलने लगा। जेब में अंगुलियाँ इधर से उधर फड़फड़ाने लगी। लेकिन तम्बाकू का पता ही नहीं। अंगुलियाँ अब खोजबीन की बजाय “खाज” का बीन बजाने लगी।

“साला हागायला जाईल तर कूबड़ी भाड़ मागेल। ” नान्हू की अंगुलियाँ अपना मिशन अंजाम देकर जेब से बाहर आ चुकी थीं। उसने दूसरी जेब से तम्बाकू का पैकेट निकाला और फिर उसे हथेली पर लेकर रगड़ने लगा। तम्बाकू रगड़ते हुए उसने सामने का दरवाजा खोला। नीम के पेड़ की टहनियाँ पतली बाँहों की तरह इधर उधर डोल रही थीं। शायद इतनी ही पतली बाँहे रही होंगी माधुरी की। उसके सपने का बंद दरवाजा हिल गया। उसी दरवाजे के पीछे उसने माधुरी की टहनियों पर अपने असँख्य चुम्बनों को धरा था। तब पहली बार उसने देह के तनाव और उसके लिजलिजेपन को महसूस किया था। अगली सुबह साब ने नान्हू का हाफ पैंट देखकर कहा- “क्या बे निशापतन हो गया? साले रात भर रसियन चैनल देखेगा तो यही होगा।” तब नान्हू को लगा था कि साब वाकई तेज दिमाग के आदमी हैं। वह तेजी से बाथरूम की ओर भागा।

नीम पेड़ के पास सीमेंट का चबूतरा बना हुआ था। उसके पास की मुख्य नाली में सामने वाले मकान की बहू कूड़ा फेंककर जा रही थी। उस जगह पर चार पाँच कुत्ते तेजी से झपटे और फिर उतनी ही हताशा में उस बहू को घर के भीतर लौटते देखने लगे। उनकी इस हरकत में जीभ बाहर आ गयी और उनका पेट धुकनी की तरह फूलने-सिकुड़ने लगा। कुत्तों का चेहरा लटक गया था- “साला इस मुहल्ले में तो जीना मुश्किल है।”

नान्हू ने तम्बाकू को होंठ के नीचे दबाकर शेष को हवा में उड़ा दिया। कूबड़ी यानी मकान मालकिन अपना दरवाजा खोलकर बाहर आ गयी। उसके हाथ में जलती हुई अगरबत्ती थी। मुँह में कोई बुदबुदाती हुई प्रार्थना लेकिन वह बोल पड़ी- “काय रे केव्हां मिळेल भाड़। बिजली का बिल भी भरना है।” कूबड़ी ने अनमने ढंग से तुलसी के गमले में अगरबत्ती खोंस दिया। उसके ठीक बगल में माधुरी के मकान का दरवाजा था। जिस पर परदा लगा हुआ था। क्योंकि उसके पिता यानी काकाजी रात की ड्यूटी कर सुबह छह बजे घर लौटे थे। इसलिए वे अभी सो रहे थे। उसका भाई बहुत मद्धिम आवाज में दूरदर्शन देख रहा था। ताई यानी माधुरी की माँ रसोई में थी।

“साब आने ही वाले हैं।” नान्हू के मुँह में थूक भरा हुआ था फिर भी उसने किसी तरह यह वाक्य पूरा किया। कूबड़ी ने अपनी भूरी आँखों से घूरा फिर थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा- “तू तो अपना आदमी है। ये तेरा साब बाहर का है। मैं तेरे को परेशान नहीं करना चाहती। लेकिन क्या करूं मुझे भी पैसे की जरूरत है। मुंबई में मेरा जो भतीजा है उसे भी पैसा भेजना पड़ता है। बार बार उसका फोन आ रहा है।” यह सब कहते हुए कूबड़ी ने अपने स्थान पर खड़े होकर पृथ्वी की तरह तीन बार परिक्रमा की और फिर तुलसी को जोरदार प्रणाम किया। इस प्रणाम की मुद्रा में कूबड़ी बोफोर्स तोप की तरह सामने की ओर झुक गयी। तब उसका कूबड़ ऊपर हो गया। फिर कूबड़ी ने ताम्बे के छोटे से पात्र का पानी गमले में उढे़ला और अपने मकान के भीतर चली गयी।

नान्हू के मुँह में थूक भर आया था। उसने कूबड़ी के जाते ही दीवार के पास जाकर थूक हवा में प्रक्षेपित कर दिया जो चाहरदीवारी के उस पार चला गया। तब परदे के पीछे खड़ी ताई ने चुपके से सिर बाहर निकाला जैसे कछुआ अपनी खोल से सिर निकालता है। नान्हू के पास आते ही वह धीरे से फुसफुसायी- “काय म्हणत होती रे कूबड़ी”

नान्हू अपनी बाह खुजाते हुए बोला- “भाड़या बदद्ल।” कूबड़ी के कमरे से घंटी बजने की आवाज आने लगी। ताई अंदर चली गयी। नान्हू ने दरवाजा बंद किया। बीच के कमरे में जहाँ उसका बिस्तर और टेलीविजन था वहाँ जाकर नान्हू रूक गया। फिर उसने रिमोट से टेलीविजन ऑन किया। बीसीएन चैनल में फिल्म ‘रंग दे बसंती’ का गाना चल रहा था। गाने में आमिर खान किसी अजीब पाठशाला के बारे में बताते हुए अपने नितंबों पर हथेली पटक रहा था। तम्बाकू का असर दिखने लगा था। नान्हू तेजी से पीछे की दरवाजे के ओर भागा। आँगन पार किया और कोने के एसटीडी बूथ जैसे दिखने वाले कमरे का दरवाजा खोलकर झट से भीतर घुस गया।

२.

“तुम चाहो तो मेरे साथ यहाँ रह सकते हो।” साब के इस प्रस्ताव पर नान्हू थोड़ा चकित था। लेकिन किराये की बात मन में आते ही उसके कान सुन्न हो गये। साब और नान्हू दोनों साथ ही मलेरिया नियंत्रण कार्यालय की नौकरी पर आये थे। नान्हू का गाँव करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर था। जबकि उसका साब मध्यप्रदेश से यहाँ आया था। साब की उम्र कुछ ज्यादा नहीं थी। शादी होने होने की उम्र का था वह और नान्हू की मूँछे अभी बारीक और सकुचायी सी थी।

“अबे सुनता है कि नहीं।” साब की आवाज का तीखापन नान्हू के कान के परदे पर जाकर चिपक गया। तब उसकी साँसे जोर जोर से चल रही थी। साइकिल खड़ी करने के बाद से ही उसकी यह हालत थी। उसके हाथ में दूध का टेट्रापैक था। वह बार बार अपने माथे का पसीना पोंछ रहा था। नान्हू अपनी खुशी से साब के लिए रोज दूध का पैक लाकर चाय बना जाता था। साब के साथ रहने और उनकी बातें सुनने में उसे काफी मजा आता था। वह गाँव से निकल सीधे शहर आ गया था। हिन्दी हाँफ हाँफ कर बोल लेता था।

“हव साब। मैं आई से पूछ कर बताऊँगा। बाबा के पैर में जख्म हो गया है। खेत का काम भी देखना होता है। छोटा भाई बदमाश है। स्कूल जाने की बजाय जुआ खेलता है। आई बेचारी अकेली हो जायेगी। फिर भी आप बोलते हैं तो।” नान्हू साब को चाय देकर टेलीविजन देखने लगा। इससे पहले उसने रंगीन टेलीविजन इतने पास नहीं देखा था। रिमोट कंट्रोल को स्पर्श नहीं किया था। साब चाय पीकर बाथरूम चले गये। वह अकेला बैठा अपने काँपते हाथों से रिमोट के बटन को दबा-छेड़ रहा था। कभी मीनू, कभी पिक्चर, कभी साउंड, कभी ट्यूनिंग, कभी कलर के लिए संदेश टेलीविजन के स्क्रीन पर उभर आते। घबराहट में उससे रिमोट का लाल बटन दब गया। स्क्रीन पर अंधेरा छा गया। सचमुच वह घबरा गया।

उसकी भी आँखों के सामने अंधेरा छा गया था। गाँव के पास की चढ़ाई में उसका फेफड़ा फूल गया था। वह मुँह में हवा भर भरकर किसी तरह पैडल मार रहा था। बड़ी मुश्किल से साइकल ऊपर आयी थी। नान्हू की पिंडलियों में भी दर्द होता था। जिस पर वह सरसों का गर्म तेल लगाकर सोता था। उसे ऐसा अहसास होता था कि उसमें साइकल चलाने का दम नहीं। जब नौकरी पक्की हो जाएगी तो वह बैंक से लोन लेकर कावासाकी की मोटरसाइकिल खरीदेगा। तब गाँव से आना जाना आसान हो जाएगा।

लेकिन कुछ दिनों के बाद नान्हू साब के साथ शहर में ही रहने लगा। आई ने उसे विश्वास दिलाया था कि वह अकेली ही घर सम्हाल लेगी। शहर आने के बाद वह साब के लिए रोज सुबह चाय बनाता। कमरे की साफ सफाई करता। फिर दोनों साब की मोटरसाइकिल पर एकसाथ आफिस जाते। इससे दोनों को काफी सहूलियत हो गयी थी। साब का मन नान्हू की सेवा, भक्ति और निष्ठा से रूआँसा हो उठता। उसका मन करता कि वह अपनी धारीदार कमीज उसे दे दे। लेकिन तब ही उसे ख्याल आता कि नहीं नहीं यह कमीज तो उसे भाई ने दिया है। फिर वह क्षोभ में डूब जाता। ” छी छी। मैं इस की मदद भी नहीं कर सकता।” वह सिगरेट सुलगा लेता। पहला कश इतना लम्बा और जोर का लगाता कि उसके दोनों गाल अंदर पिचक जाते। तब नान्हू उसे भौंचक सा देखता रहता।

“ले बे पियेगा।” साब ने सिगरेट नान्हू की तरफ बढ़ाते हुए कहा। तो वह सन्न रह गया। कमरे में टेलीविजन की आवाज बहुत मद्धिम थी। दोनों खिड़कियाँ बंद थी इसलिए धुआँ अंदर एक गोल चक्कर लगाकर ऊपर रोशनदान की ओर जा रहा था।

“नइ साब।” नान्हू ने सिर को असहमति जताने के लिए झटका। जिसके चलते उसके काले बालों के नीचे दबे पड़े सफेद बाल उछल कर बाहर आ गये। नान्हू के सफेद बाल देखकर साब थोड़ा चकित हुआ। ” इतनी कम उम्र में ही बाल सफेद हो गये। क्या हो गया इस पीढ़ी को।” फिर उसकी सोच वहीं ठहर गयी। मुझसे क्या ज्यादा छोटा है। होगा कोई दो चार साल छोटा। प्रोबेशन पीरियड खत्म होते होते इसकी शादी हो जाएगी। “शादी।” साब के मस्तिष्क में यह शब्द उलझ गया।

“तू इससे शादी क्यों नइ कर लेता बे।” साब ने रिमोट से चैनल बदलते हुए कहा। तब नान्हू फर्श पर बैठा हुआ टेलीविजन की ओर निहार रहा था। बाहर हल्की रिमझिम बारिश हो रही थी। साब को न्यूज चैनल देखने का शौक था जबकि नान्हू को फिल्में देखने का। छुट्टी का दिन ऐसे ही टेलीविजन देखते बीतता था। 

“किससे साब” नान्हू ने धीरे पूछा।

“अबे इस बाजूवाली छिपकली से।”

“अरे नइ साब। वो अपून को भाउ बोलती है।” नान्हू ने इस ठोस और दमदार तर्क से अपनी बात को मजबूती देना चाहा। लेकिन साब तो साब हैं। उसके पास इस बात का भी जवाब था।

“तुम लोगों में तो ममेरे भाई से शादी होती है ना। कल से तू उसकी माँ को ताई की बजाय मामी बोलना शुरू कर दे। सब ठीक हो जाएगा।” साब के चेहरे पर मुस्कान थी। जबकि नान्हू चुप था। बारिश की बूँदे सामने वाले दरवाजे से अंदर की ओर आ रही थी। नान्हू दरवाजे से बाहर की ओर देखने लगा।

उसके सामने घर का दृश्य उभर आया। उसकी छोटी बहन कंडे बनाकर जमीन पर सूखा रही है। माँ अभी अभी तालाब से नहाकर लौटी है। भाई स्कूल की फीस के लिए जिद कर रहा है। उसके पिता आँगन के नींबू पेड़ के नीचे खाट लगाकर अपना जख्म सहला रहे हैं। उसके पिता पहले सरकारी अस्पताल में वार्ड ब्वॉय का काम करते थे। तब उन्हें दैनिक वेतनभोगी के रूप में रखा गया था। रोज गाँव से पैदल आने जाने के कारण और फिर खेती के काम के चलते उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। लेकिन समय के साथ कपास की खेती ने भी साथ देना छोड़ दिया। उसके बाद वे साइकिल पर रेडीमेड कपड़ों का बंडल लेकर बेचने गाँव गाँव जाने लगे। तब से ही शायद उनके दाँये पैर की नस में बाधा आ गयी।

” कहाँ खो गया। उस छिपकली की बाँहों में।” साब ने नान्हू की सोच में अपनी आवाज घुसेड़ दी।

“घरात।” नान्हू अपने पैर के नाखून सहलाते हुए बाहर देख रहा था। उसके इस तरह देख लेने में पन्द्रह किलोमीटर दूर अपने घर को देख लेने की जिद थी। यह नौकरी उसे लगभग सौगात के रूप में मिली थी। इस नौकरी से पहले नान्हू शहर के एक बगीचे में काम करता था। जिसके साथ लगा एक सभाकक्ष था और उसमें गाहेबगाहे सेमिनार आदि होते रहते थे। मलेरिया नियंत्रण विभाग के किसी कार्यक्रम में नान्हू की मुलाकात पांडे साब से हो गयी। वे उसके काम से प्रभावित हो गये और अपने अधिकार का उपयोग करते हुए नान्हू को दैनिक मजदूर के रूप में बतौर चपरासी नियुक्त कर लिया।

“बेचारा” साब ने सिगरेट का धुआँ हवा में उगल दिया। उसके रेशे हवा में तितर बितर होने लगे। “इतनी कम उम्र में इस पर घर परिवार की जिम्मेदारी आ गयी है। न जाने चुपचाप बैठे हुए क्या सोचता रहता है। इसकी उम्र में तो हम लोग मजे से रहा करते थे। न कोई जिम्मेदारी और न कोई चिंता। खाओ, खुजाओ, बत्ती बुझाओ।” जब साब सोचते तो सोचते ही रहते और अंगुलियों में दबा सिगरेट सुलगता रहता।

“तू उस टीचर के बारे में बता रहा था ना। वो देवली वाले के बारे में। क्या हुआ वो लोग तैयार नहीं है क्या शादी के लिए।” साब ने बात की दिशा बदल कर नान्हू के सोच विचार की थाह पाने की कोशिश की। लेकिन नान्हू चुप रहा। बगल के कमरे से कढ़ी पत्ते की खुश्बू आ रही थी। ताई के रसोई से खटरपटर की आवाज आ रही थी। दोनों कमरों के बीच नौ इंच की दीवार का फासला था।

“हूं… वो लोग दो लाख माँग रहे हैं। हमारे पास इतना पैसा नहीं है साब। यदि दो एकड़ खेत बेच भी दे तो भी इतना पैसा नहीं मिलेगा।” नान्हू ने पैर के अंगूठे के नाखून के किनारे निकल आयी मोटी चमड़ी को नोंच कर अलग कर दिया।

बाहर लोहे का बड़ा सा दरवाजा खुलने की आवाज आयी। नान्हू ऊँट की तरह अपनी गरदन उठाकर उस दिशा में देखने लगा। माधुरी एटलस की एक पुरानी साइकिल अंदर खींच कर ला रही थी। साइकिल के हैंडिल का पेंट कई जगहों से उधड़ गया था। पिछले चक्के का रिम टेढ़ा हो गया था। इसलिए उसका पिछला पहिया मडगार्ड में अटक गया था। साइकिल की कैरियर पर उसकी किताबें थी। वह थोड़ा लचक लचक कर चल रही थी। माधुरी की आँखों में आक्रोश था जो साइकिल खड़ी करने की आवाज से भी जाहिर हो रहा था। नान्हू और साब चुप थे। ‘आज तक’ चैनल पर समाचार वाचिका बैंक ब्याज दर की वृद्धि और इसके चलते किश्तों की ईएमआई में बढ़ोतरी के बारे में बता रही थी जिस पर न तो साब का ध्यान था न ही नान्हू का। माधुरी तेजी से लगभग कूदते हुए कमरे की ओर भागी। उसने किताबों को जोर से जमीन पर दे मारा और रोते हुए चिल्लाने लगी- “साल्या ऑटोवाल्यानी टक्कर मारली। माझ्या ढुंगणाच्या हड्डी ला वेदना होत आहे आई।” माधुरी के रोने की आवाज के चलते उसके बाद के अक्षर, शब्द और वाक्य सिसकियों में उलझकर उसके गले में ही रह गये।

३.

कुछ महीने पहले बाजूवाले मकान में माधुरी और उसका परिवार किराये से रहने आया था। कूबड़ी ने अपने रिटायरमेंट में मिले पैसों से ये मकान बनवाया है। ताकि बुढ़ापे में उसे पेंशन के अतिरिक्त आमदनी हो सके। वह किसी मराठीभाषी सरकारी स्कूल में शिक्षिका थी। लेकिन उसके बातचीत के ढंग से ऐसा लगता नहीं था। मुहल्ले के लोग उससे परहेज करते थे। उसकी बातों के तीखेपन के चलते कुत्ते भी उसके दरवाजे के पास नहीं फटकते थे। और कभी कोई रोटी का टुकड़ा देखकर आ भी जाते तो अपने सामने के बरामदे में लगे झूले पर बैठी कूबड़ी उन्हें देखकर चिल्ला पड़ती- ” हूर हूर परत आले साले कु़त्रे।” और झूले से उतर कर दरवाजे तक दौड़ पड़ती। फिर रोटी का टुकड़ा देखकर चौंक जाती- “मुझसे ऐसी गलती कैसे हो गयी। रात को पूरी रोटी खायी थी ना।” वह अपने दिमाग पर जोर देती फिर पलट कर ताई को आवाज देती-  “ये बचा हुआ खाना यहाँ ना फेंकना माधुरी की आई।”

तब ताई भीतर से नकली मुस्कान लिये बाहर आती। “नहीं नहीं हमने नहीं फेंका है। हम रात को चावल खाते हैं। रोटी तो कई दिनों से बनाया ही नहीं।” उसके पीछे से काकाजी यानी माधुरी के पिता भी बाहर आ जाते। वह चुपचाप कूबड़ी की ओर देखते। दूरदर्शन की आवाज खिड़की के रास्ते से बाहर आती रहती। “कौन टीवी देख रहा है।” कूबड़ी ने शिकायतभरे लहजे में पूछा जिसका किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। काकाजी के डिपो जाने का समय हो गया था वे गार्ड का ड्रेस पहनने लगे। ताई टिफिन बंद करने लगी। भाउ दूरदर्शन में कृषिदर्शन देख रहा था।

काकाजी की ड्यूटी का समय तय नहीं था। कभी वे रात को जाते कभी दिन में। उनकी देहयष्टि को देखकर लगता नहीं था कि वे गार्ड होंगे। ना जाने कैसे इतने दुबले आदमी के भरोसे महाराष्ट्र सरकार ने अपना बस डिपो सौंप दिया। काकाजी कम बोलते पर जबरदस्त बोलते- “कूबड़ी जब अपने भतीजों की नहीं हुई तो हमारी क्या होगी और उन कुत्तों की क्या होगी। सिर्फ किराया लेने और पैसे गिनने से मतलब है। अकेले फड़फड़ाकर मरेगी तो कोई पूछने वाला नहीं होगा।” उन्होंने अपनी टोपी ठीक करते हुए आलमारी के आईने में अपना चेहरा निहारा।

ताई ने बात बदलते हुए कहा- “परसों माधुरी की साइकिल को किसी ऑटोवाले ने टक्कर मार दी थी। बेचारी रोते हुए आयी थी। उसके कूल्हे की हड्डी में चोट आयी है। क्यों ना आप उसके लिए कोई गाड़ी खरीद देते। वह बोल रही थी कि उसकी सारी सहेलियों के पास स्कूटी, लूना, हीरो पुक, एक्टिवा आदि हैं। वही अकेली साइकिल से जाती है। कितनी पुरानी हो गयी है उसकी साइकिल। काय हो एकता आहे ना।”

काकाजी ने जूते का लेश लगाया। पैर पटककर जूतों पर जमी धूल को झटका। टिफिन उठाकर वे पैदल ही बाहर निकल गये। भाउ भी उनके पीछे निकल गया। भाउ यानी माधुरी का भाई भी काकाजी की तरह कम बोलता था। ना जाने क्यों वह घर में ही घुसा रहता। जबकि माधुरी घर और बाहर का सारा काम करती। अपने खर्च के लिए सिलाई का काम करती थी। कूबड़ी ने दो ब्लाउज सिलवाकर उसे पैसे भी नहीं दिये। कूबड़ी से वे लोग तीन महीने में ही परेशान हो गये। वह अक्सर उनसे सब्जी मांगती। क्योंकि वह सिर्फ चावल या रोटी पकाती थी। इससे उसे खाना बनाने में कम मेहनत लगती थी। हालांकि वह ताई से कहती कि क्या करूं अकेली रहती हूँ। मन नहीं लगता। भतीजा और बहू मुंबई चले गये हैं। ताई जब पोहे का नाश्ता बनाती तो वह सूंघकर आ जाती।

“क्या बना रही हो बड़ी अच्छी खुश्बू आ रही है।” कूबड़ी तब अपना एक पैर ताई के दरवाजे की चौखट पर चढ़ा देती और एक हाथ से दीवार का सहारा लेकर खड़ी हो जाती। और तब तक वहाँ खड़ी रहती जब तक ताई उसे नाश्ता का प्रस्ताव नहीं दे देती। लेकिन वह प्लेट में हाथ लेते हुए कहती-“बीती रात पेट में खूब जलन थी। तेल-मसाला खाने से डर लगता है। किंतु इसकी खुश्बू ही इतनी अच्छी है कि क्या करूं।” और फिर चबर चबर मुँह चलाने लगती।

फिर दिनभर झूले में पैर लटकाकर झूलती रहती और मुहल्ले पर नजर रखती। साथ ही घर पर भी उसकी नजर रहती। कौन कब आ रहा है। कब जा रहा है। किससे मिलने कौन आ रहा है।

माधुरी कालेज से लौटती तो दोपहर में थोड़ा आराम करने के बाद सिलाई करती। उसके बाद सब्जी लेने बाजार जाती। फिर लौटकर चाय बनाती। तब भाउ दोपहर की नींद लेकर उठता। भाउ उससे दो साल बड़ा है। लेकिन बारहवीं में दो बार फेल होने के कारण वह निराश सा रहता है। ताई उसे एक बार और परीक्षा देने का संबल देती है। लेकिन वह घबरा जाता है। इसलिए वह घर में ही दुबक कर रहना पसंद करता है। और जब निराशा बढ़ जाती है तो वह दूर की पैदल यात्रा पर निकल जाता है। तब उसके हाथ हवा में जोर जोर से झूलते हैं। ढीली सी काली पैंट और सफेद कमीज उसका प्रिय वस्त्र है और वह उसे ही पहनकर बाहर जाता है। शहर के बाहर किसी सूने से पान दुकान में रूक कर लगातार दो तीन सिगरेट पीता और फिर चुपचाप वापस घर लौट आता।

नान्हू और साब आफिस से लौटने के बाद ऊपर छत पर जाकर बैठ जाते। रात का टिफिन आने तक वे वहीं बैठे रहते और गप्पे मारते। जब रात का अंधियारा छा जाता तो साब चुपचाप सिगरेट सुलगा लेते और फिर किसी असीम विचार में खो जाते। तब नान्हू छत की गैलरी से सटकर खड़ा हो जाता और आँगन में बैठकर किताब पढ़ती माधुरी को देखता रहता। जब दूर से काकाजी पैदल आते दिखते वह वहाँ से हट जाता और साब के पास आकर बैठ जाता। उसकी इच्छा होती कि वह पूछे कि आखिर रोज शाम-रात को आप क्या सोचते हैं और क्यों चुपचाप सिगरेट पीते हैं लेकिन वह नहीं पूछता। साब की मोबाइल में सिर्फ समय देखता और उसे धीरे से रख देता।

नान्हू ने ऊपर से माधुरी को देखा तो बस देखता ही रह गया। गुलाबी सलवार में वह गजब की दिख रही थी। पतले पतले बाल उसके कंधे से होकर नितंब तक लटक रहे थे। जो हवा के हल्के झोंके से लहरा जाते। उसके पतले गोरे हाथ में काँच की हरी चूड़ियाँ और कोई सस्ती सी घड़ी। उसके चेहरे पर पिपरमिंट की तरह मुस्कान जिसे देखकर नान्हू का दिल ठंडा जाता था। नान्हू को लगा जैसे वह ममता कुलकर्णी को देख रहा हो और वह उसका अक्षय कुमार हो। उसकी नसें फड़फड़ाने लगी। उसका जी हो रहा था कि वह छत की रेलिंग पर चढ़ जाये और कोई फिल्मी गाना जोर जोर से गाये। लेकिन वह चुपचाप खड़ा रहा। साली कूबड़ी हर वक्त झूले में ही बैठी रहती है। अचानक वह बाहर आँगन में आ गयी और आसमान की ओर देखते हुए बोली-“देख तो रे माधुरी आज कितने सारे तारें हैं ऊपर।” नान्हू झट से पीछे दीवार की ओट में हो गया। माधुरी ने सिर उठाकर आसमान की ओर देखा या नहीं यह नान्हू को नहीं मालूम।

दूर से काकाजी पैर घसीटते चले आ रहे थे। उनका पूरा शरीर झूला हुआ था। साथ ही उनकी कमीज का आस्तीन भी लटका हुआ था। उनकी टोपी उनके हाथ में थी। टार्च उनकी जेब में खुसा हुआ था। थकान का असर दूर से ही दिख रहा था। उनकी नजरें जमीन पर थी। काकाजी की देह पर चमड़ी की परत झूल रही थी। उनके चेहरे पर मुँहासों के पुराने दाग थे। जिसे वे पाण्ड्स पावडर से पोतकर छिपाने की कोशिश करते। कभी कभी माधुरी से वे फेशियल भी करवा लेते। लेकिन बुढ़ापा झांक ही लेता। जैसा कि अभी उनके पूरे बदन से झांक रहा था। उनके कदम आहिस्ता आहिस्ता उठ-पड़ रहे थे।

रात के अंधियारे में स्ट्रीट लाइट का दूधिया उजाला थूक की तरह जमीन पर गिर रहा था। जिसके चारों ओर कीट-पतंगें बजबजा रहे थे। ताई अंदर सुबह की सब्जी को टमाटर डालकर गर्म कर रही थी। भाउ कोई पुराना अखबार दिल लगा कर पढ़ रहा था। काकाजी को देखकर कूबड़ी ने कहा- “भाउ आजकल बिजली का बिल ज्यादा आ रहा है। अगले महीने से सौ रूपये ज्यादा किराया देना पडे़गा।” काकाजी उसकी बात को अनसुना कर अंदर चले गये। जहाँ माधुरी चुपचाप बैठी किसी साड़ी में फॉल लगा रही थी।

“अभी पाँच महीने नहीं हुए और ये किराया बढ़ाने को कह रही है।” ताई ने गुस्से से कहा।

“इसके भोक में जितना भी पैसा डालो कम है।” काकाजी बुदबुदाते हुए कमीज का बटन खोलने लगे। उनके हाथ में हल्की कंपकपी थी। चेहरे की झुर्री में उदासी थी। लेकिन वह इसका इज़हार नहीं कर रहे थे।

“काय झाल बाबा।” माधुरी ने बडे़ दुलार से पूछा जैसे वह कोई दादी अम्मा हो। काकाजी चुपचाप पलंग पर बैठ गये। तब ताई चावल का कूकर गैस स्टोव पर चढ़ा रही थी।

४.

कुछ दिनों बाद माधुरी ने अचानक कालेज आना जाना बंद कर दिया। शायद उसके कूल्हे की हड्डी की दर्द की वजह से। डाक्टर ने जो दवा दी थी उससे बहुत आराम हो गया था। फिर भी कभी वह अपने आप उभर आता। वह दिनभर सिलाई का काम करती। फिर साइकिल उठाकर तैयार कपड़ा उसके मालिक को दे आती। लौटते हुए सब्जी खरीद लाती या फिर कोई अन्य काम निपटा आती। जबकि भाउ टस से मस नहीं करता। दिन भर घर में पड़ा रहता। मौका मिलते ही माधुरी के कामकाज पर टिप्पणी करता।

“आई ये जीन्स पहन कर कहाँ जा रही है देख। इसका मन पढ़ाई में नहीं है। वो बगल वाले भाउ को देखती रहती है। वो भी हरामी है। ऐ चल अंदर। उधर दुकान की तरफ क्या देख रही है। सब पोट्टे बैठे हैं।”

लेकिन वह उसकी बात को अनसुना कर देती। और जब कभी पलट कर जवाब देती तो वह भड़क जाता। गाली गलौज पर उतर आता। कभी कभी तो थप्पड़ भी जड़ देता। तब माधुरी फूट फूट कर रोती। “आई तू लड़के का साथ देती है। मैं लड़की हूँ इसलिए तू मुझे प्यार नहीं करती। मेरी सिलाई का पैसा तू इसे निकम्मे को देती और ये बाहर जाकर सिगरेट पीता।” तब ताई पीछे के आँगन में कपडे़ फैलाने चली जाती। वह घर के काम में इतना रम जाती कि उसे कुछ भी पता न चलता।

जबकि कूबड़ी को पूर्वाभास हो जाता या फिर वह इतनी कुटिल थी कि स्थितियों से सही भविष्य का अनुमान लगा लेती और उसका अनुमान लगभग सही होता। कूबड़ी ने ताई को बताया था-“देखना सामनेवाले की बहू उसे तलाक दे देगी” और कुछ दिनों बाद वैसा ही हुआ। बहू ने अपने पति पर बदचलनी का आरोप लगाकर कोर्ट से तलाक ले लिया और यवतमाल में अपने पुराने प्रेमी के साथ रहने लगी। कूबड़ी ने कहा था कि “किराना दुकान वाले के यहाँ छापा पड़ने वाला है” और कुछ दिनों बाद वैसा ही हुआ। दूसरे दिन उसकी दुकान पर पुलिस का छापा पड़ा और सैकड़ों अश्लील सीडी पकड़ी गयी। वो दुकानदार जेल चला गया। इसके अलावा भी अन्य छोटे मोटे अनुमान थे मसलन परसों बारिश होगी। ये बगल वाली मस्के उस मुसलमान से फंसी है। तेरा बेटा उस दिन शराब पीकर घर लौटा था। माधुरी की वह काली सहेली धोबी के घर में पकड़ा गयी। जबकि ताई बेचारी भोली थी वह यह मानकर चलती थी कि ऊपर वाला एक कमजोरी देता है तो दूसरी खूबी भी दे देता है।

“लेकिन कूबड़ी को अपने घर के बारे में पूर्वाभास क्यों नही हुआ।” यह उनकी पड़ोस की मस्के आत्या कहती। ताई कभी कभी उनके घर जाती और कूबड़ी की बात निकलती तो फिर निकलती ही जाती। ऐसे ही एक बार आत्या ने उसे बताया था कि पहले कूबड़ी के साथ उसका भतीजा और बहू रहा करते थे। लेकिन इसकी कमीनी हरकतों के कारण बहू अपने पति के साथ मुंबई चली गयी। कूबड़ी ने भतीजे को बेटे की तरह पाला परंतु शादी के बाद वह बदल गया और अपनी पत्नी को ज्यादा भाव देने लगा। इससे कूबड़ी बिगड़ गयी और बिना बात के बहू को परेशान करने लगी।

“आधा किलो कांदा क्यो लायी। शाम को चावल बनाने की क्या जरूरत है। बच्चे को यहाँ टट्टी क्यों करवाती है। मेरे पूजा के सामान को मत छुआ कर।” बहू बेचारी सब सुन लेती। लेकिन जब कूबड़ी ने उसे यह कहा कि “तेरा अपने मामा से संबंध है तो वह बिफर पड़ी। रो रोकर बेचारी की आँखें सूज गयी थी। उसके बाद वह सिर्फ दस दिन ही रही और अचानक वे लोग मुंबई चले गये। मुंबई जाकर उसके भतीजे ने फोन पर बताया कि उसकी नौकरी लग गयी है और अब वह वहीं रहेगा। तब से कूबड़ी अकेले रहती है। और जब से अकेली हुई है तब से उसका कूबड़ बढ़ता जा रहा है।” आत्या यह कहकर मुस्कुराती।

अकेलापन दूर करने के लिए कूबड़ी या तो पूजा पाठ करती रहती या फिर चुगली, परनिंदा में ध्यान लगाती। सुबह का काम निपटाकर वह सामने के बरामदे में आ जाती। कभी ताई और कभी माधुरी को बुलाकर अपने साथ झूले में बैठा लेती और इधर उधर की बातें करती। कूबड़ी की बातों को टालना या अनसुना करना मुश्किल था। वरना वह उनके टंकी में पानी नहीं भरने देती। माधुरी को साइकिल खड़ी करने के लिए भला बुरा कहती। सामने कचरा पड़ा होने का बहाना कर ताई पर गुस्सा करती। “कसा हो बाई ये कचरा तो साफ कर देना था। घर-आँगन को कूड़ादान बना रखा है तुम लोगों ने।” लेकिन ताई मुस्कराती हुई बाहर आती। कचरा न होने पर भी वह आँगन बुहारने लग जाती। इसे देखकर भाउ खीज जाता और दूरदर्शन की आवाज बढ़ा देता।

भाउ बहुत गुस्सैल था। उसे ताई का नान्हू से ज्यादा बात करना पसंद नहीं था। लेकिन ताई जब भी मौका पाती नान्हू से उसके घर-परिवार, खेत-खलिहान आदि के बारे में पूछती। नान्हू को भी उससे बातें करने में मजा आता था। इसी बहाने वह माधुरी की झलक पा जाता जो उनकी बातें सुनकर मुस्कुराती रहती थी।

“तेरा साब कब आएगा रे नान्हू। कितने दिन हो गये। कूबड़ी मुझसे बोल रही थी कि महीना पूरा हो गया है फिर भी इस पोट्टे ने किराया नहीं दिया है। क्या मालूम इसका साब कब आएगा।”

तब नान्हू का चेहरा थोड़ा ललिया गया था। उसके जेहन में कूबड़ी के लिए बहुत सारी गालियाँ थी लेकिन वह उसे दबा गया।

“उसका तो बस किराये का रोना है ताई। साब अगले सप्ताह आ जाएंगे। साली कूबड़ी को कई बार बता चुका है फिर भी नहीं समझती है।”

“छोड़ ये सब तू शादी कब कर रहा है।” ताई ने बात बदलते हुए कहा। तो माधुरी खिलखिलाकर हँसने लगी। वह सिलाई छोड़कर भीतर रसोई की ओर भाग गयी। तब भाउ सिगरेट पीने गया हुआ था। काकाजी ड्यूटी पर गये हुए थे।

“अभी कहाँ ताई।” नान्हू की उदासी उसके चेहरे पर फैल गयी।

“सोच ले एक अच्छी लड़की है।” ताई के मुस्कुराने से उसके सारे दाँत उजागर हो गये।

नान्हू चुप रहा। उसके मन में और बहुत सारी बातें चल रहीं थीं। जैसे साब के आने से पहले घर साफ करना है। उनके कपड़े धोने है। रसोई भी ठीक करनी है। एक सप्ताह की छुट्टी पर गये थे लेकिन न जाने क्या हुआ कि उन्होंने अपनी छुट्टी बढ़ा दी। कल घर भी जाना है। लड़के वाले आ रहे हैं। इस बार बात जम गयी तो छुटकी की शादी हो जाएगी। बाबा का पैर भी ठीक हो रहा है। सोयाबीन से करीब तीस चालीस हजार मिल जाएंगे। पीछे का कमरा भी बनवाना है।

“क्या सोच रहा है रे नान्हू।” कूबड़ी ने बडे़ प्यार से पूछा। तब नान्हू अपने कमरे के दरवाजे के सहारे टिक कर नीम पेड़ की ओर देख रहा था। उस पेड़ के नीचे एक फेरीवाला खड़ा था और मुहल्ले की औरतें उससे बातें कर रही थी। फिर फेरीवाला बंडल से साड़ियाँ निकाल कर उन्हें दिखाने लगा। उस भीड़ में ताई भी थी।

“कुछ नहीं।” नान्हू ने जवाब दिया।

“क्या बोल रही थी ये दतली।” कूबड़ी की तीखी मुस्कान उसकी झुर्रियों में छिप गयी।

“मेरे बाबा के बारे में पूछ रही थी कि उनकी तबियत कैसी है।”

“अरे क्या हुआ उनको। मुझे बताया नहीं।” कूबड़ी ने हितैषी बनते हुए कहा।

“कुछ नहीं सब ठीक है।”

“सुन बेटा एक काम करेगा। वो बिजली वाले को बुला दे। मेरा पंखा काम नहीं कर रहा है। और लौटते समय धोबी के यहाँ से कपड़ा लेते आना।” कूबड़ी अपने बरामदे से उतरकर नान्हू के पास आ गयी फिर अपनी मुट्ठी से निकाल कर उसे दस का एक नोट पकड़ा दिया। नान्हू के पास ना कहने की हिम्मत ही नहीं थी। यदि वह ना करता तो कूबड़ी किराया की बात उठाकर उसे खरी खोटी सुनाने लग जाती। इसलिए वह चुपचाप दस रूपये का नोट लेकर चला गया।

वह जब लौटकर आया तो देखा कि माधुरी के कमरे के सामने सफेद रंग की नयी चमचमाती स्कूटी खड़ी है। ताई, काकाजी, भाउ और माधुरी उसे चारों ओर से घेरकर खडे़ हैं। ताई के हाथ में आरती की थाली है। वह स्कूटी के हेडलाइट के सामने आरती की थाली घूमा रही है। हेडलाइट के गले में गेंदा के फूलों की माला लटक रही है। काकाजी के दोनों हाथ कमर पर है। उनके बनियान में दर्जन भर रोशनदान उभर आये थे। चेचक के दाग से भरपूर उनके भूरे चेहरे पर जिम्मेदार बाप होने का अभिमान दिन के उजाले में चमक रहा था। भाउ का मुँह सूख रहा था। उसे सिगरेट की तलब हो रही थी।

ताई के पूजा करने के बाद माधुरी स्कूटी के सामने हिस्से पर सिंदूर से स्वास्तिक बना रही थी। उसके चेहरे की खुशी की लहरें इस गाल से उस गाल तक फैली हुई थी। बगल की मस्के आत्या अपनी खिड़की से झाँक रही थी। थोड़ी ही देर में कूबड़ी भी बाहर आ गयी। कूबड़ के कारण उसका शरीर हैंडपम्प की तरह झुका हुआ रहता था। वह झूले के पास रूक गयी।

“नयी खरीदी है क्या।” कूबड़ी न चाहते हुए भी बोल पड़ी। तब काकाजी के चेहरे पर तनाव उभर आया। लेकिन ताई ने इशारे से उसे चुप रहने को कहा।

“ऐसा लगता तो है।” भाउ से रहा ना गया।

“स्कूटी है क्या।” नान्हू उनमें शामिल हो गया। वह घूम घूम कर गाड़ी को देखने लगा। ये पीला रंग का स्टार्ट का बटन है। ये पेटो्रल ऑन करने का बटन है। इस सीट के नीचे पेट्रोल टंकी है। साथ ही डिक्की भी है। सामने भी सामान रखने की जगह है। उसने मुआयना करने के साथ ही स्कूटी की विशेषताओं के बारे में बता कर अपने तकनीकी ज्ञान का प्रदर्शन किया। कूबड़ी उसे खाली हाथ लौटा देखकर नाराज हो गयी। “क्यों रे कपडे़ कहाँ हैं।” नान्हू ने उसे बताया कि धोबी की दुकान बंद है। वह किसी की शादी में गया है।

“चल अब इस पर एक चक्कर लगाकर आ।” काकाजी ने माधुरी को आदेश दिया। माधुरी ने चुनरी को अपने कमर के पीछे बांधा फिर गाड़ी को स्टैंड से उतारकर सड़क पर ले गयी। स्कूटी पर विराजने के बाद उसकी काँपती हुई अंगुली ने सेल्फ स्टार्ट के पीले रंग के बटन पर दबाव बनाया तो उसका एक्सीलेटर वाला हाथ उससे तालमेल बिठाते हुए घूमा लेकिन पहली बार में चूक गया। तब माधुरी के पैरों की जमीन पर से पकड़ छूटने लगी तो स्कूटी थोड़ा झुक गयी। इससे उसके नितंब का दर्द उभर आया। लेकिन वह खुश थी। ऐसे मौके पर दुख दर्द की कोई जगह नहीं थी।

वह ठीक से स्कूटी पर सवार हुई। चुनरी की गाँठ को एक बार और पक्का किया। ताई की ओर देखा। फिर भर भर भर………………..और देखते ही देखते माधुरी सफेद रंग की स्कूटी में फुर्र हो गयीं।

“चालीस हजार की स्कूटी की आवाज कितनी मधुर है ना आई।” भाउ की आँखें ताई से कह रही थी जो मिठाई के डिब्बे से एक टुकड़ा निकालकर कूबड़ी को दे रही थी। काकाजी कमरे के अंदर जा चुके थे। भाउ की तलब बढ़ गयी थी वह बाहर चला गया। नान्हू के आफिस जाने का समय हो गया था।
 

५.

उसके बाद तो दिन, सप्ताह और महीने बीतने लगे। कुछ पता ही नहीं चल रहा था। कुछ था तो सिर्फ फुर्र फुर्र…। जो काम महीनों से टाल दिये गये थे। सब होने लगे। माधुरी फिर से सुबह कालेज जाने लगी। स्कूटी की चाबी के लिए सुंदर सा की-रिंग खरीदा गया। सीट कवर लगा दिया गया। जब माधुरी को मौका मिलता वह उसे साफ करती। कपड़े के टुकडे़ से उसका बोनेट चमकाती। साइड मिरर पोंछती। धूप से बचाने के लिए बोरी का कवर बनाया गया था। उसकी पुरानी साइकिल बगल की संकरी गली में खड़ी रहती। जिसे बाद में काकाजी डिपो जाने के लिए ले जाने लगे। भाउ भी थोड़ा खुश दिखने लगा।

माधुरी अपना दर्द भूल चुकी थी। वह दौड़कर स्कूटी के पास जाती। उसकी डिक्की खोलती उसमें अपनी किताबें रखती। फिर साइड मिरर में अपना चेहरा निहारती। हेडलाइट के ऊपर लगे मीटर के काँच को अपनी हथेली से साफ करती। फिर एक्सीलेटर को ऐसे ही ऐंठती और तेज कदमों से वापस कमरे के भीतर लौट आती।

नान्हू उसकी हरकतों को देखता रहता। जिस जगह पर माधुरी की साइकिल खड़ी रहती थी उस जगह पर अब सफेद रंग की स्कूटी खड़ी रहती। घर का कोई भी सदस्य बाहर आँगन में निकलता तो उस पर एक प्यारभरी नज़र जरूर मार लेता। कोई चिड़िया सीट पर बैठती तो भाउ खिड़की से चीखता-हुर हुर। ताई भी झाडू लेकर उस ओर झपट पड़ती।

माधुरी की स्कूटी की आवाज रह रह कर आती जाती। कभी वह पास किराना दुकान हल्दी पावडर लेने जाती तो कभी अपनी सहेली से यह पूछने जाती कि क्या कल वह कालेज जाएगी। अब माधुरी को स्टार्ट बटन के साथ एक्सीलेटर के तालमेल में महारत हासिल हो गयी थी। झटके से बटन दबता। भर भर की आवाज के साथ वह एक्सीलेटर वाली अपनी कलाई मोड़ती और स्कूटी फुर्र से निकल जाती। वह सड़क के गड्ढों और गायों के झुंड से बचाकर स्कूटी चलाती लेकिन उसकी गति में कोई फर्क नहीं आता। बस भर भर। फुर्र। तब उसे स्कूटी पर आता देखकर लोग किनारे हो जाते। “नया खून है। ठोंक ही दिया तो।” लड़के भी बस देखते ही रह जाते और माधुरी फुर्र हो जाती। खाली सड़क पर रह जाती तो बस स्कूटी के धुंएं की सफेद धुंध।

नान्हू ने खिड़की से बाहर देखा तो वह अपने बाबा को स्कूटी चलाना सिखा रही थी। काकाजी ने स्कूटी के हैंडिल को जोर से पकड़ रखा था। उनके पीछे माधुरी बैठी थी और वह पीछे से उन्हें निर्देश दे रही थी। “पहले ये बटन दबाओ साथ ही एक्सीलेटर भी लो। ऐसे नई बाबा। दोनों को एक साथ।” लेकिन काकाजी से वह तालमेल बन ही नहीं पा रहा था।

कूबड़ी झूले में बैठी नजारा देख रही थी। उसकी आँखों में ईर्ष्या थी जो चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी-“देखो तो साले को शरम नहीं अपनी जवान बेटी के साथ कैसे चिपक कर बैठा है।” माधुरी ने अपने बाबा को समझाने के लिए स्कूटी चलाने का कमान सम्हाल लिया और काकाजी उसके पीछे की सीट पर बैठ गये।

इस तरह धीरे धीरे काकाजी स्कूटी चलाना सीख रहे थे। इस तरह से घर के काम में तेजी आ गयी थी। जिस चीज की जरूरत होती माधुरी तुरंत बाजार जाकर ले आती। गैस सिलिंडर लाने का काम भी अब आसान हो गया था। ताई को दाँतों के डाक्टर पास जाने के लिए अब ऑटो या रिक्शा की जरूरत नहीं थी। वह माधुरी के साथ स्कूटी में चली जाती।

भाउ भी शाम के वक्त पैदल जाने की बजाय गाड़ी से जाता। अब वह दूर के गाँव तक जाता वहाँ ढाबा में बैठकर चाय पीता। मजे से सिगरेट के कश लगाता और फिर लौट आता। बस काकाजी ही साइकिल से आना जाना करते। लेकिन वे खुश थे क्योंकि माधुरी फिर से कालेज जाने लगी थी। उसकी सहेलियाँ भी अपनी गाड़ियों में उसके घर आने लगी थी। सचमुच माधुरी खुश थी क्योंकि उसके पास स्कूटी थी।

उसने सिलाई की कमाई के पैसे से अपने लिए एक मोबाइल फोन ले लिया। फिर उसका मोबाइल भी घनघनाने लगा। कभी काकाजी के लिए फोन आता-“आज आपकी नाइट ड्यूटी है।” तो कभी ताई के बड़े भाई के बच्चे फोन करते। और माधुरी की सहेलियाँ तो गाहे बगाहे फोन करती ही रहती। घर के अंदर कवरेज नहीं मिलने के कारण उसे बाहर आँगन में आना पड़ता। तब कूबड़ी उसे घूर कर देखती और अंदाज लगाने की कोशिश करती कि वह किससे बात कर रही है और क्या बात कर रही है। उसने ताई से कहा भी था-“लगता है माधुरी किसी लड़के से बात करती है। इसलिए ऊपर छत पर चली जाती है।”

माधुरी की गाड़ी देखकर कूबड़ी को भी कई काम याद आने लगे। उनके प्रति कूबड़ी की चिड़चिड़ाहट कम हो गयी। वह आँगन गंदा होने पर उसकी अनदेखी कर देती या फिर कहती-“अरे बाई हवा से कूड़ा अंदर आ जाता है ना।” लेकिन ताई उसकी बातों से प्रभावित नहीं होती। वह चुपचाप चावल चुनती रहती।

भाउ की पढ़ने की इच्छा होती। वह किताबें निकाल लेता लेकिन पहला पन्ना देखते ही उसका सिर भन्ना जाता। उसकी सिगरेट पीने की तलब भड़क जाती। वह चुपचाप चादर के नीचे दुबक कर सो जाता। क्योंकि तब माधुरी स्कूटी लेकर कूबड़ी को उसके किसी रिश्तेदार के पास ले गयी होती।

फिर कुछ दिन बाद कूबड़ी उसे डाक्टर के पास ले गयी। फिर दर्जी के पास। फिर साड़ी दुकान। फिर कामवाली बाई के घर। फिर बिजली का बिल जमा करने। फिर अपना पेंशन खाता देखने। फिर अपने भतीजे को मनीऑर्डर करने। फिर टेलीफोन आफिस। फिर। फिर माधुरी उकता गयी। भाउ नाराज हो गया। ताई खिसिया गयी। कूबड़ी को इसका पूर्वाभास था। वह चुप रही। मस्के आत्या इन सब बातों पर नजर रखे हुए थी।

साब को आसपास से कुछ लेना देना नहीं था। लेकिन आँगन में खड़ी नयी स्कूटी देखकर उसने नान्हू से पूछा था कि-“यह किसकी है?” फिर इस बारे में दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई। घर से लौट कर आने के बाद साब थोड़ा उदास और परेशान दिखने लगे थे। नान्हू पूछना चाहता था लेकिन हमेशा की तरह वह पूछ न सका। फिर सोयाबीन की कटाई और उसे मंडी में बेचने के लिए सात दिनों की छुट्टी लेकर वह गाँव चला गया।

जब वह वापस लौटा तो माधुरी के मकान पर लगा ताला देखकर चौंक गया। वह कूबड़ी से पूछना चाहता था लेकिन उसके मकान का दरवाजा अंदर से बंद था और बाहर पूजा करने की आवाज आ रही थी। वह चुपचाप अपने कमरे चला आया। साब आफिस जा चुके थे। उसके पास कमरे के ताले की एक और चाबी थी। वह बिस्तर पर जाकर पसर गया। पन्द्रह किलोमीटर साइकिल चलाकर आने के बाद उसका शरीर थक चुका था। फेफड़ा गर्म हो चुका था। पिंडलियों में दर्द हो रहा था। कमीज पसीने से भीग चुका था।

“गाड़ी खरीदना ही होगा।” नान्हू सोचने लगा। सोचते सोचते उसकी पलकें जैसे ही मूंदी वैसे ही उसके भीतर का वही दरवाजा खुल गया। जिसके पीछे वह अक्सर माधुरी से मिला करता था। भीतर ठंडा अंधेरा था। पीछे दूर तक रोशनी की दूधिया किरण थी। नीचे घुटनों तक सफेद धुआँ उमड़ घुमड़ रहा था। रोशनी के अंतिम छोर पर माधुरी सफेद रंग की चमचमाती स्कूटी पर सवार थी। वह फिल्मी परी की तरह सफेद कपड़े पहने हुए थी। हाथ में एक चमकीली छड़ी थी। जिससे रंगबिरंगी हल्की आभा निकल रही थी।

नान्हू ने गौर से देखा। वह हाथ के इशारे से उसे बुला रही है। लेकिन उसके पैर पत्थर की तरह भारी और जमीन में धंसे हुए से लग रहे थे। नान्हू चाहता था कि वह लपक कर भागे और अपनी माधुरी को बाँहों में भर ले। लेकिन वह जड़ खड़ा रहा। माधुरी खीज गयी। उसने अपने सुनहरे हैंडबैग से नोकिया का मोबाइल निकाला और उसकी ओर पीठ कर किसी से बात करने लगी। सितार की आवाज वातावरण में गूँज उठी। नान्हू को अपने पैर हल्के होने का अहसास हुआ। उसने पैर उठाया फिर अचानक तेजी से माधुरी की ओर भागा। माधुरी की स्कूटी फुर्र से अंधेरे में हवा हो गयी। स्कूटी की सफेद धुंध पीछे रह गयी। वह उसे पुकारता ही रह गया। उसके साइलेंसर का धुआँ और उसकी बू वहाँ छूट गयी और छूट गया नान्हू हाँफता, काँपता पसीने से लथपथ।

शाम को जब उसकी नींद खुली तो वह सामने के आँगन की ओर गया और उसने देखा कूबड़ी अपने झूले में अकेली बैठी है। उसकी झुर्रियों की चमक पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं। वह नान्हू को देखते ही चहक उठी। “कब आया रे तू गाँव से।”

“आज ही।” नान्हू ने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया क्योंकि उसके मन में माधुरी के घर लगे ताले के बारे में जानने की जिज्ञासा थी। वह उस ताले को देखते हुए कुछ सोचने लगा।

“क्या देख रहा है उधर। वो लोग गये।”

“क्यों।” नान्हू के मुँह से स्वतः ही यह सवाल निकल आया।

“तेरे जाने के तीसरे दिन रात में कुछ लड़के लोग आये थे शायद वे किसी आईचीआईचीआई बैंक के थे। उनके और माधुरी के बाप के बीच बहुत बहस हुई फिर भी वे लोग नहीं माने। उन लोगों ने पुलिस केस करने की धमकी दी और गाली गलौज करने के बाद उसकी स्कूटी उठाकर जबरन ले गये। उसके बाद माधुरी रो रोकर बीमार पड़ गयी। ताई भी घर के अंदर रहने लगी। फिर उसके दो दिन बाद वे लोग ये मकान खाली कर चले गये।”

“लेकिन वो लोग स्कूटी उठाकर क्यों ले गये।” नान्हू को बात समझ नहीं आयी।

कूबड़ी ने उसे समझाते हुए कहा-“अरे मूर्ख उसके बाप ने किश्त जमा नहीं की थी इसलिए बैंक वाले गाड़ी सीज कर ले गये।”

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