आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

पुस्तक में अनुष्ठान: गिरिराज किराड़ू

निर्मल वर्मा के कुम्भ के मेले के प्रसिद्ध वृतांत ‘सुलगती टहनी’ में एक जगह आख्याता कहता हैः

शायद मेरे लिए कुम्भ-घटक में यही कुछ बूँदें बची हैं – मैंने अंधेरे में चलते हुए सोचा – मैं इतनी दूर उन्हें समेटने आया हूँ, जैसे कोई अपनी मृत्यु के बाद स्वयं राख में अपनी अस्थियाँ समेटता हो, पोटली में बाँधता हो, गंगा में बहा देता हो। शायद यही इस फैले प्रसार का संदेश मेरे लिए हो – सोये हुए झोंपड़ों, रेत के ढूहों, मेले के मैदान पर सर उठाये सूने वॉच टावर पर टिमटिमाती नीली रोशनियों पर यही एक विचार फडफडाता हुआ मुझे भींच लेता है – अपने घटक में स्वयं अपनी हड्डियों को जमा करना – जिनमें दूसरों का समूचा कष्ट चिपका है – शायद यही ईश्वर है … एक नास्तिक के लिए, जो न कर्म में विश्वास करता है, न दूसरे जन्म में. मृत्यु के बाद सिर्फ़ शून्य को सत्य मानता है…

गगन गिल के कैलाश-मानसरोवर यात्रा वृतांत अवाक् के बिल्कुल शुरु में यह वाक्य (पहला वाक्य मॉरिस ब्लाँशो का है, निर्मल के अनुवाद में) आते हैः

जो भी ईश्वर को देखता है, मर जाता है, मरना एक ढंग है ईश्वर को देखने का…

क्या निर्मल ने ईश्वर को देखा था?

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अवाक् निर्मल-परिक्रमा है, निर्मल के लिए परिक्रमा है कैलाश की. एक अनुष्ठान है, मृतक के लिए.

मेरे पास एक वस्त्र है, निर्मल काया का पहना अन्तिम वस्त्र, उसे लेकर कैलाश जाना है…

मुझे कैलाश जाना है.

यह एक यात्रा मुझे निर्मल के लिए करनी है. उनके पहने वस्त्र, मोजे, कमीज़, स्वेटर पहने हुए करूं, तो ऐसा नहीं हो सकता, कि देवी उनका आना स्वीकार न करें. जाते जाते बड़ी जिम्मेवारी मुझ पर छोड़ गए थे.

मैं विधि से जाना चाहता हूँ.

आख्याता को कैलाश जाना है क्योंकि निर्मल ‘विधि से जाना’ चाहते थे. यह यात्रा एक कर्तव्य है आख्याता का मृतक के प्रति.

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कुम्भ मेले जाता हुआ निर्मल का आख्याता कहता है:

मैं इस मेले में खाली होकर आया था. सब कुछ पीछे छोड़ आया था – तर्कबुद्धि, ज्ञान, कला, जीवन का एस्थेटिक सौंदर्य.

मैं अथाह भीड़ में अपने को अदृश्य पाना चाहता था.

कुम्भ मेले जाता हुआ निर्मल का आख्याता एक ‘नास्तिक’ है. वह ईश्वर को ढूँढने नहीं अपने को लाखों के बीच अदृश्य पाने के लिए गया है. कभी शायद, एक दूसरे तरीके से, यही करने के लिए निर्मल कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने थे.

उसे वही ईश्वर कभी नहीं मिलेगा जो दूसरे लाखों के लिए सहज उपलब्ध है. उसका ईश्वर है ‘अपने ही घटक में स्वयं अपनी हड्डियों को जमा करना’, ‘जिनमें दूसरों का समूचा कष्ट चिपका है’.

तर्कबुद्धि, कला और ज्ञान तीनों को दांव पर लगाकर क्यों यह आख्याता कुम्भ जाना चाहता है? निर्मल पहले लेखकों में थे जिन्होंने दूसरों के बारे में सामान्यीकरण करने से गुरेज़ किया. वे कुम्भ में जमा लाखों लोगो को ‘पिछडे हुए’, ‘अंधकारग्रस्त’ लोगों की तरह नहीं देख सकते, उनका मखौल नहीं उड़ाते. वे उनके जीवन की उम्मीद और हताशा, गरीबी और आस्था सब को एक साथ देखते हैं:

लेकिन भक्तों की असली टोली अखाडे के अन्तिम सिरे पर हैं, जहाँ एक लंबा तख्त, दरियों और तकियों से अटा पड़ा है – ऊपर चौकी पर वही मठाधीश बैठे हैं जिन्हें जुलूस के आगे आगे हाथी पर पर देखा था. सिंहासन के नीचे नंगी सड़क पर निर्धन, फटेहाल, लुटे-पिटे आदमियों की लम्बी पांत बैठी है – भूखी उतप्त आंखों से ऊपर सिंहासन को निहारती हुई. एक क्षण समझ में नहीं आया वे कौन हैं, कहाँ से आए हैं? वे इस अखाडे के साधु नहीं थे – किंतु भिखारी भी नहीं जाना पड़ते थे – एक किस्म के धार्मिक प्रोलितारियत ….(जोर मेरा)

अवाक् की आख्याता ‘नास्तिक’ नहीं है. पर वह ‘सही-सही’ धार्मिक भी नहीं है.

कहने को मैं बड़ी आस्थावान, लेकिन सही सही ज्ञान किसी धर्म का नहीं. अंत्येष्टि-कर्म की पुस्तक मंगवाकर मैंने सब काम किए…

इस यात्रा में मुझे कमरे की साथिन दी गई तो मैंने विरोध किया.

काठमांडू के होटल में कई दिखीं थी, माथे पर चंदन का टीका लगाये, ठेठ धार्मिक-तत्व की बनी मूर्तियाँ. यदि मेरी साथिन कोई ऐसी मूर्ती हुई तो हो गया.

क्यों, आप पूजा नहीं करतीं?

करती हूँ, लेकिन चुपके से. कोई बहुत ताम-झाम से करने वाला मिल जाए तो घबरा जाती हूँ.

निर्मल वर्मा का आख्याता तर्कबुद्धि, कला और ज्ञान सबको पीछे छोड़ कर आता है कुम्भ, लेकिन अपने संदेह के साथ. संदेह जो उन्ही सब – तर्कबुद्धि, कला और ज्ञान – से जन्मा है. गगन की आस्तिक आख्याता भी बहुत कुछ पीछे छोड़कर कैलाश जाती है:

अगर मैं सचमुच न लौटकर आई?

रुक कर वसीयत लिखती हूँ, उसकी एक कापी माँ को भेजकर, दूसरी मेज पर छोड़कर मुक्त मन होती हूँ.

यात्रा और आत्महत्या से पहले, जहाँ तक हो सके, सब साफ़ छोड़ना चाहिए……

दोनों आख्याताओं के लिए यह ‘अन्तिम अपरिग्रह’ है लेकिन गगन की आख्याता की चेतना पर तर्कबुद्धि, ज्ञान, कला और जीवन के एस्थेटिक सौंदर्य का वैसा दबाव नहीं है. वह एक वसीयत लिखती है. और यात्रा/आत्महत्या से पहले जहाँ तक हो सके सब साफ़ छोड़ना चाहती है.

‘सुलगती टहनी’ के संदेहग्रस्त आख्याता को एक ईश्वर मिलता है, ‘दूसरों के समूचे कष्ट से चिपकी’ अपनी हड्डियों में. अवाक् की आख्याता को भी लगता है, ‘कैसी जगह है, कुछ ही दिनों में इसने एक एक करके सारे कवच उतरवा लिए – ज्ञान के, आस्था और शंका के’. विश्वासपूर्वक यात्रा को निकली इस आख्याता के कवच उसके सामने धीरे धीरे उतरते हैं, जिसके बदले में उसे क्या मिलता है?

मैं यहाँ मरने आ गई हूँ…. मैं यहाँ मरने आ गई हूँ..

क्या कर रही हूँ मैं? क्यों जाप नहीं कर रही? मूर्ख, जाप कर!

मैं यहाँ मरने आ गई हूँ…. मैं यहाँ मरने आ गई हूँ..

ये क्या हो रहा है? मैं मरा मरा क्या कर रही हूँ?

मैं यहाँ मरने आ गई हूँ…. मैं यहाँ मरने आ गई हूँ..

यह वो क्षण है जब परिक्रमा पूरी हो चुकी है और ईश्वर ने ‘अस्वीकार’ कर दिया है आख्याता का आना. वह अपने साथ कुछ लेकर लौट पाती तो वो है एक चुराया हुआ पत्थर, और ‘परायापन’.

मेरे साथ साथ कैलाश-परिक्रमा से चुराया हुआ पत्थर घर तक आ गया है..

पता नहीं जबसे लौटे हैं, हर चीज़ परायी-परायी लगती है, जैसे ये हमारी नहीं…हम इसके नहीं.

विषयांतर

हिन्दी की साहित्यिक दुनिया मुख्यतः सेक्यूलर, ‘नास्तिक’ दुनिया है. धार्मिकता और आस्तिकता उसमें बहुत सम्माननीय नहीं. इसका एक बड़ा कारण धर्म की मार्क्सवाद में मूलबद्ध आलोचना है जिसने हिन्दी की प्रभुत्वशाली प्रगतिशील संस्कृति को धर्म की पूरी अवधारणा का आलोचक बनाया है. एक दूसरा कारण आधुनिकता का स्वभावतः गैर-धार्मिक होना है जिसने गैर-प्रगतिशीलों को भी धार्मिकता का आलोचक बनाया है. तीसरा कारण सांप्रदायिक और धार्मिक चरमपंथ का सर्व-धर्म-सम-भावी उदय है.

एक तरफ हिन्दी की सेक्यूलर/नास्तिक साहित्यिक दुनिया है दूसरी तरफ हिन्दीभाषियों की सर्वव्यापी – वर्ग, जाति, लिंग,शिक्षा के आधार पर बने वर्गीकरणों के आर-पार फैली हुई – धार्मिकता/आस्तिकता है. हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में भी – प्रगतिशीलों  और गैर-प्रगतिशीलों  के आर-पार – कई अनुष्ठान हैं लेकिन धार्मिक/आस्तिक होने की स्वीकार्यता नहीं. कुछ ऐसा है हिन्दी में कि आस्तिकता=धार्मिकता=कर्मकांड=साम्प्रदायिकता=दक्षिणपंथ सब बराबर है.

आस्तिकता और धार्मिकता को साम्प्रदायिकता के समानार्थी मानने का ही यह परिणाम है कि दक्षिणपंथी राजनीति यह दावा कर सकती है कि एक वही आस्तिकता और धार्मिकता की प्रतिनिधि है और आस्तिकता और धार्मिकता वही है जो वह तय करती है. धर्म जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को हमने पूरी तरह से दक्षिणपंथ के हवाले कर दिया है. धर्म की ‘अन्दर-से-आलोचना’ का जो प्रोजेक्ट गांधी और आम्बेडकर ने शुरू किया था उससे प्रेरणा लेने की बजाय हमने धर्म को एक ‘वर्जित’ क्षेत्र बना दिया है.

एक तरफ हमने ‘धर्मनिरपेक्ष अध्यात्म’ और ‘ईश्वरहीन धार्मिकता’ और ‘गैर-सांस्थानिक धार्मिकता/आस्तिकता’ के प्रस्तावों को भी गंभीरता से नहीं लिया. और दूसरी तरफ यह अल्ट्रा-रेडिकलिज्म अपने में बहुत संकीर्ण रहा और मूलगामी आलोचना की बजाय राजनीतिक करेक्टनेस में अधिक संलग्न रहा.

और उस अमूर्त ‘आम आदमी’ के विवेक या धार्मिक होने या न होने के अधिकार का सम्मान तो हम क्या करते जब ख़ुद उसे ही हम सम्मानजनक नज़र से नहीं देखते, और उसे सुधारने, जगाने, अपमानित करने का कोई मौका नहीं चूकते.

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जो गगन से स्त्रीवादी और प्रतिरोधी होने कीउम्मीद उनके पहले संग्रह एक दिन लौटेगी लडकी के कारण कर रहे थे, उन्हें अंधेरे में बुद्ध ने कुछ हताश कर दिया और बाद की दोनों पुस्तकों, खासकर थपक थपक दिल थपक थपक ने उस हताशा को पूर्ण कर दिया. गगन का लेखन एक ऐसे मार्ग पर है जहाँ वो पोलेमिकल एडजस्टमेंट्स और सेल्फ-सेंसरशिप से आगे आ गया है. हो सकता है यह अब एक छोटी दुनिया हो, जहाँ एक लेखक अपने अकेलेपन और नश्वरताबोध के साथ खड़ी हो और उसे आस्तिकता में कोई चैन मिलता हो अपने या शायद समूची दुनिया के लिए. दुनिया उसके जीते जी न बदली है, न बदलेगी इसका दुख करती हुई वो प्रार्थना करने लगी हो, अपने लिए, अपनी समूची दुनिया के लिए.

क्या हम लेखक को इतना एकांत या चयन दे सकते हैं या हम उसे दक्षिणपंथी और पुरातनपंथी या जनविरोधी, एलीट कहकर अपमानित किये बिना नहीं मानेंगे?

5

यात्रावृतांत हिन्दी में बहुत कम हैं. जो हैं उनमें से काफ़ी विदेश यात्राओं के हैं. विदेश लिखने के लिए उकसाता है. यात्रा करने के लिए भी. जोखिम भरे यात्रा वृतांत और भी कम हैं. एडवेंचर हिन्दी में लगभग नहीं है. यह पुस्तक अपने प्रस्तावित आत्म-बिम्ब ‘अंतर्यात्रा’ के बावजूद एक दुर्गम स्थल की अपने स्वास्थ्य के विरुद्ध, लगभग जानलेवा और बेखुद और विस्मित हास्य से भरी, अपने पर हंसती यात्रा भी है. यह एक असफल कोशिश है मरने की, अपनी ‘विधि’ मरने की.

एक अनुष्ठान और एक अंतर्यात्रा के अपने आत्म-बिम्ब में यह अपने अन्दर से अधिक बाहर देखती है, इसमें यात्रा की मुश्किलों के, सहयात्रियों के इतने विवरण है, बाहर पर इतनी नज़र है (और वह भी एक ऐसे मंद हास्य के साथ) कि कभी कभी हमें धोखा होता है: क्या यह सचमुच एक अनुष्ठान है एक मृतक के लिए? या ख़ुद मरने की एक कोशिश?

One comment
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  1. आप शायद उस मर्म को पकड़ने की एक विधि बताते हैं जिसमें मरने की विधियां अपने आप ही अभिव्यक्त हो गई हैं।

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