पद-दंगल, धवले और जगन मीणा: प्रभात
पद में रुचिः धवले
‘पद’ एक तरह के लोकगीत हैं। मेरे इलाके में ये इतने जनप्रिय हैं कि गांवों में जब-तब यहाँ-वहाँ इनके दंगल भरते ही रहते हैं। पदों से मुझे प्रेम लोक गायक धवले के कारण हुआ। उनकी गायकी ने मेरे अंचल के लोकगीतों की इस शैली में मेरी रुचि जगा दी। मेरी ही क्यों मेरे जैसे पचासों हजार लोगों की। राजस्थान के करौली, सवाईमाधोपुर, दौसा और इनके आसपास के इलाकों की पद दंगल परम्परा में धवले शीर्षस्थ गायक हैं। बहुत छोटी उम्र में धवले ने पद गाना शुरू कर दिया था। और आज पचास के आसपास उम्र में भी उसी मीठी गूंजती टेरती आवाज के साथ दंगल में उतरते हैं। कितने ही पद गायक ऊँचे आये मगर न जाने जिन्दगी की किन-किन कठिनाईयों के चलते अपनी गायकी को जारी नहीं रख सके। बहुत सारे कारण हो सकते हैं। कई बार जोठ (संगतकार गायकों का दल) में कुछ फांक पड़ जाती है। बहुत से पद गायकों की जोठ को गांवों की राजनीतिक उठा-पटक खा जाती है। कई निरतंर कुछ नया नहीं रच पाते तो दंगल भरवाने वाले गांव उन्हें बुलाना छोड़ देते हैं। ऐसे दुखांत के साथ भी घर बैठ जाना पड़ता है। मगर कुछ लोग अपने फन के इतने बड़े उस्ताद हो जाते हैं कि अकेले ही एक संस्था के बराबर काम करने लगते हैं। धवले ऐसे ही विरल लोगों में से एक हैं। आज उनके नाम के हांके से दंगल भरते हैं। उनके नाम पर हजारों की संख्या में जन-सैलाब दंगल सुनने जाने के लिए उमड़ पड़ता है।
वे केवल चौथी कक्षा तक पढ़ाई पूरी कर सके हैं। लेकिन विषयवस्तु के अनुरूप भाषा रचने में उन्हें महारत हासिल है। एक पद में स्त्री के सौंदर्य की झलक दिखाते हुए वे कहते हैं-
तेरे रूप से काम की नार लजै और चाल को देख लजै ब्रजनारी
नैनन से मृग नार लजै और चोटी को दखै तो नागिन कारी
ग्रीवा से मोर लजै पिक बोली से तेरी लजै हां रे कोयल कारी
तू घूंघट खोलै तो ऐसी लगै मानौ पून्यौ के चंदा से चीर निकारी
आभा की सी बिजली चमकै काया तेरी में
तेरौ घूंघट में सूं दीखै म्होंडो रात अंधेरी में
घरवाड़ी को भैम बलम रखवाड़ी करतो डोलै रे
राणी गंगा से बतड़ावाइ हौलै-हौलै रे।
अंतिम दो पंक्तियाँ पद का सुरबंदा है। हरेक बंद पूरा होने के बाद गाया जाता है। यह ‘स्थाई’ की तरह होता है। इसमें धवले ने यह विषय उठाया है कि स्त्री का निर्दोष सौंदर्य पति नामक सत्ता के मन में उसके प्रति संदेह पैदा करने का काम करता रहा है। और वह जाने अनजाने ही उसकी जासूसी करने लगता है। पति की इसी रखवाली वाली सस्ती हरकत से खीज कर एक दिन स्त्री अपने से कहती है-
सुंदर काया पिया पड़ी रह जाएगी आंगन में
अगनि में जल जाएगी जलै जैसे होली फागन में।
जिस सुंदर काया की वजह से तुमने मेरे जीवन को नरक किया हुआ है, वह एक दिन घर के आंगन में पड़ी दिखेगी। फिर उसे इस तरह जला दिया जाएगा जिस तरह फाग के महीने में होली जलायी जाती है।
भरथरी के पद में रानी पिंगला के मायम से धवले ने कहा है-
इश्क नहीं देखै जात-कुजात, प्यास नहीं देखै धोबी घाट
बांधी जब निंदरा झुकै तो कोई लखैन टूटी खाट,
बांधी से बतड़ाय पिंगला बैठ झरोकन में
और वा अश्वपाल असवार नचा रियौ घोड़ा चौकन में।
अंतिम दो पंक्तियों में कैसे दृश्य को बांध दिया है। झरोखे में बैठी पिंगला सेविका से बात कर रही है। लेकिन उसके मन में उठ रहे तूफान की वजह वह अश्वपाल है जो नीचे चौक में घोड़ा नचा रहा है। वह जो राज महल के आसपास इसलिए दिखाई पड़ता है कि वह घोड़ों की सार सम्हाल के लिए नियुक्त है। कहां रानी, कहां घोड़े पालने वाला। पर प्रेम की इच्छा जाति कुजाति, ऊँच नीच कुछ भी तो नहीं देखती। वह एक और समय था जब भरथरी-पिंगला की कथा में यह अश्वपाल खलनायक की तरह दिखाई देता था और पिंगला के मन में इसके प्रति उमड़ा प्रेम कोरी वासना। और तब इस प्रकरण में किसी ने भी पिंगला के मन की इस टीस को इश्क शब्द से नहीं नवाजा होगा बल्कि रंगरेलियों की कुएषणाओं से भरी छलछंदा और कुलटा के व्यभिचार की तरह देखा गया होगा। लेकिन आज तो लोक कवि की इस पंक्ति में उसकी इच्छा को प्रेम कहकर समादृत किया जा रहा है। यह सायास अभिव्यक्ति नहीं है। यह अनायास अभिव्यक्ति है। कवि की सायास अभिव्यक्ति तो वही है जो एक जड़ सामंती समाज में हो सकती है। कदाचित उसकी दृष्टि में पिंगला के मन में एक अश्वपाल के प्रति उगी प्रेम की भावना पाप हो। आखिर कवि भी तो एक बंद समाज का हिस्सा है। वह कैसे साफ सुथरा बाहर निकल सकता है। ‘काजर की कोठरी में कैसोहू सयानो जाय, एक लीक काजर की लागी है पै लागी है।’
धवले की चन्द्रमा कथा
हां तो सज्जनो अब आप सुनेंगे गुरु बिसपत की पत्नी तारा और चांद का प्रेम प्रसंग। सज्जनोऽऽऽ होता क्या है कि चन्द्रमा गुरू बिसपत के पास विद्या प्राप्त करने के लिए आता है। लेकिन उसका विद्या में ध्यान नहीं लगता है। गुरू की पत्नी थी तारा। उसी के साथ उसका मन रमता है। देखिए क्या होता है –
हां रे मीठो-मीठो बोल मटो चंदरमा धोखो देगो रे
चेऽऽऽऽलो हो के गुरू की नारी लेगो रे।
देवन नै मतो विद्या पढ़बा को कियौ
गुरू बिसपत नै खोल मंदरसो दियौ
चंदरमा गुरू को भौत लाडलो चेला
वा गुरू से करगो कपट बड़ौ खंडखेला
देवन कै साथ रोजीना पढ़बा जावै
वा कौ नहीं पढ़बा में ध्यान गुरू की नारी सूं बतड़ावै
बहका कै ले गयौ संग प्रेम जुड़गो छलछंदा से
गईअ गुरू कू छोड इस्यो मन मिलगो चंदा से।
मीठो-मीठो बोल मटो चंदरमा धोखो देगो रे
चेह्ढह्ढह्ढला हो के गुरू की नारी लेगो रे।
प्रिय श्रोताओं यह प्रेम एकतरफा नहीं होता है। गुरू पत्नी तारा को भी चन्द्रमा से प्रेम होता है। तभी तो वह गुरू को छोड़ चन्द्रमा के साथ रहने लगती है।
इस कथा को इतने सुंदर ढंग से बुना गया है और इतने अद्भुत ढंग से गाया गया है कि बार-बार सुनने की इच्छा मन में बनी रहती है। पूरे पद को सुनते हुए लगता है कि पद गायन की शैली पर और लोक संवेदना पर गहरी पकड़ के बिना ऐसी रचना संभव नहीं है। मैं सोचता ही रह गया कि कैसा यह गायक होगा। कैसी साधना के बाद उसने गायन और कथा वस्तु के मिश्रण से सृजित लोक संगीत की इस विद्या को अर्जित किया होगा। फिर मैं पद गायकी की इस मौखिक परंपरा के बारे में सोचने लगा कि कितनी सदियों बरस दूर से चलकर लोक संगीत की यह विद्या यहाँ तक आकर पहुंची होगी। सामाजिक जीवन के युगों के आलोड़न-विलोड़न से निकली सुंदर सांस्कृतिक परंपराएं इसी तरह आपको आकर छूती है और एक पहले से अधिक मानवीय मनुष्य के रूप में संस्कारित करती हैं। पद गायकी की यह परंपरा जो अब राजस्थान के इस (करौली,सवाईमाधोपुर, दौसा) जन-जातीय इलाके के आदिवासी लोक संगीत की एक प्रमुख धारा बन चुकी है, दलित जातियों में भी प्रचलित रही है।
धवले अपनी मिठास भरी आवाज में हमारे मन के तारों में अनुगूंजें पैदा करते हुए गाते हैं-
कछु लाकड़ी चीकणी, कछु भोंटी करवाड़ी
चंदा को इ नहींअ बजीअ दोनूं हाथन से ताड़ी।
विवाद की षुरूआत होती है यहाँ से। स्त्री-पुरूष सम्बन्ध में आए इस पेच से। इस तरह के पेचपूर्ण प्रकरण हमारे समय में घर-घर की कहानी नहीं भी हैं तो गांव-गांव की कहानी तो जरूर हैं। एक पौराणिक कथा के माध्यम से स्त्री-पुरूष सम्बन्घ की जटिलता को सामने लाना पद को एक सारगर्भित प्रासांगिकता देता है। रचना में एक तो प्रेम कहानी का वर्णन दूसरा इन प्रेम कहानियों पर हमारा समाज किस तरह प्रतिक्रिया करता है उसे प्रमुख कथा-वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना इस पद की जनता में अपील को बढ़ा देता है। इस अपील के बढ़ने में गायक द्वारा कथा की महीन बुनावट का बहुत योगदान है। प्रेम प्रसंग के एक कदम चलने से पहले ही मामला पंच-फैसले के अधीन चला जाता है। पंचायत की उठा-पटक पर जाने से पहले यह जान लेना दिलचस्प होगा कि सिलसिला शुरू कैसे हुआ ? सिलसिला ऐसे शुरू हुआ कि तारा और चन्द्रमा के बीच कुछ-कुछ चल तो रहा ही था एक रोज चन्द्रमा विद्यार्जन के लिए गुरू के पास नहीं पहुंचता है। गुरू ने दो शिष्य भिजवाए-
घर पै पहुंच गए दो चेला
जातैई दियौ चांद कू हेला
अब चंदा बोल्यो नाय देख जा बैठ्यो छा जा पै
गुरू बिसपत की तारा नार खड़ी पायी दरवाजा पै
अब आप बिम्ब देखिए कितना सुंदर है। चन्द्रमा घर के छज्जे पर चुपचाप बैठा दिखाई दिया। जैसा कि हम उसे जीवन में देखते हैं। घर के दरवाजे पर खड़ी दिखती है प्रेम कथा की नायिका तारा। तारा जब उन शिष्यों को इंकार में जवाब देती है तो चन्द्रमा की चुप्पी अर्थवान हो उठती है। कहने की जरूरत नहीं कि उस चुप्पी का निहितार्थ यह है कि चन्द्रमा न कहते हुए भी यह कह रहा कि ‘भाईयों मैं और तारा साथ रह रहे हैं तो यह मेरी अकेले की मर्जी नहीं है।’ तारा के दो टूक जवाब से बात और भी साफ हो जाती है-
मोकू गुरू गुड़ फीको लग्यौ स्वाद चेला काइ लपटा में
मैं दुख-सुख लऊँगी काट बैठ चंदा का छज्जा पै
तारा का प्रेम कितना सरल और कितना सच्चा है कि वह वहाँ रहकर दुख-सुख काटने की बात करती है जहां बैठना चन्द्रमा को प्रिय है। छज्जे पर। यूँ वह यह कह ही देती है कि मुझे गुरू गुड़ फीका लगा है और चन्द्रमा का पानी का लपटा ही स्वादिष्ट लगा है। एक भागी हुई स्त्री की मूलभूत भावना का ऐसा नग्न चित्रण लोकगीत में ही संभव है। लोकगीतों की यही वह विशिष्टता है जो साहित्य की तमाम आधुनिक, उत्तर आधुनिक उपलब्धियों के बीच उनके स्थान को अक्षुण्ण बनाए रखती है।
जब शिष्य गुरू को जाकर सारी बात बताते हैं तो गुरू सबसे पहला काम जो करतें हैं वह है-चन्द्रमा को ‘रेस्टीकेट’ करने का काम। युवा छात्रों की विद्रोह-भावना को दबाने की शिक्षक की सबसे निरीह कार्यवाही-
कियो चेला नै खोटो काम
मंगा रजिस्टर लियो काट दियो चन्दरमा को नाम।
अरे वा दुष्ट नै तनिक न कियो विवेक
और वाइ हांडी में खा गयो स कोई वाइ में कर गयो ठेक।
जिस थाली में खाना उसी में छेद करना-यह एक लोकोक्ति है। यह लोकोक्ति विद्रोह को दबाने के लिए रूढ़िग्रस्त समाज से सहयोग के लिए भावानात्मक अपील का काम करती है। और व्यापक समर्थन पाकर रहती है। गुरू वृहस्पति समाज का समर्थन प्राप्त करने के लिए तर्क देते हैं-
आज तो घरवाड़ी गई म्हारी, तड़कै जायंगी नार तुम्हारी
इस्यां तो जणा-जणा की जायंगी, घर-घर में नार उकतायंगी
मुसकिल बोदा आसामी की, करौ पाबंदी बैरबाणी की
तड़कै मुल्जिम कू बुलवाल्यौ और पंचन पै न्याय करा ल्यौ
और जुवाड़वाद्यौ पंचात कराद्यौ चन्दरमा पै दण्ड
और करो जात सूं बाहर करौ वाकौ हुक्का पाणी बंद।
वृहस्पति कह रहे हैं- ‘आज तो मेरी स्त्री गई है, कल को आपकी भी जा सकती हैं। और ऐसे छोटी-मोटी बातों से परेशान होकर हर किसी की स्त्री जाने लगी तो क्या होगा इस समाज-व्यवस्था का। इसलिए सबसे जरूरी है स्त्री के ऐसे दुस्साहस पर फौरन प्रतिबंध लगाना और इस अपराध में शरीक चन्द्रमा को जाति से बहिष्कृत करना। उससे किसी तरह का कोई सम्बन्घ नहीं रखना।’ निहितार्थ ये कि अकेले आदमी को टूट कर झुकने में देर ही कितनी लगती है।
तय होता है अमुक दिन पंचायत होगी और उसी में मामले का निपटारा होगा। वृहस्पति अपने जातिभाईयों से सलाह मशवरा करते हैं। उधर जाति के नाम पर चन्द्रमा के समर्थन में भी आधे पंच आ जाते हैं। राजनीतिक खेल शुरू हो जाता है। राजनीति के अखाड़े में पहुंचकर व्यक्तिगत भावनाएं, संवेदनाएं सदा कुचली ही जाती हैं। कोई भी मामला वहाँ वर्चस्व प्राप्ति के मोहरे से अधिक कुछ नहीं है। चन्द्रमा समर्थकों का मुख्य तर्क यह है कि एक बार आई हुई स्त्री ऐसे कैसे वापस हो जाएगी। हम देखते हैं कल पंचायत होती कैसे है। भैंस तो लाठी वाले के पास ही रहेगी। उधर वृहस्पति समर्थक यह कहते हुए बांहें चढ़ा रहे हैं कि हमारी स्त्री गई है, कोई हंसी खेल नहीं है। जब तक हाड़ के ऐवज में हाड़ यानी स्त्री के बदले स्त्री नहीं ले लेंगे तब तक चन्द्रमा को सुख से नहीं जीने देंगे। आज भी यह एक कटु यथार्थ है कि बदला लेने का सीधा सरल जरिया स्त्री है। उसकी इज्जत से खेल कर बदले की आग बुझायी जाती है। हमारे आसपास ऐसा है, इस अर्थ में आज भी हम बर्बर सामाजिक जीवन जीते हुए उम्र के दिनों को व्यतीत करते हैं। दोनों धड़ो के बीच एक स्त्री, स्त्री नहीं हुई, खिलौना हो गई। चन्द्रमा के अलावा हर कोई स्त्री को जीत कर वर्चस्व की राजनीति का धूर्त खेल खेलना चाहता है।
पंचायत जुड़ती है। चन्द्रमा और तारा तलब किए जाते हैं। तारा को बताना है कि वह किसके साथ रहना चाहती है। तो वह बताती है-
वा नारी नै घूंघट काडी, और पंचन में होगी ठाडी।
गुरू के घर में पग नहीं दूंगी, और मैं तो चन्दरमा कै ही रहूंगी।
और हाथ जोड़ के कहूं पंच थारै जचै जिस्यांई कीज्यौ
पण मेरी बेई नाम गुरू बिसपत को मत लीज्यौ।
घूंघट निकाल कर तारा पंचों के बीच खड़ी होती है और कहती कि गुरू के घर में पैर भी नहीं रखूंगी और मैं तो चन्द्रमा के साथ ही रहूंगी। तारा पंचों से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती है कि आप चाहे जो भी फैसला करें लेकिन मेरे सामने गुरू वृहस्पति का नाम भी न लें।
इसके बाद कहने और सुनने के लिए क्या बाकी रह जाता है। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनता कौन है! पंच फैसला सुनाते हैं कि चन्द्रमा तुम गुरू की पत्नी को वापस करो। उधर चन्द्रमा समर्थक कहते हैं ये फैसला एकतरफा है। पंचायत बिगड़ जाती है। हुल्लड़ मच जाता है। भगदड़ में कोर्ह कहां गिरता है कोई कहां। किसी की पगड़ी उछलती है तो किसी की धोती फटती है। धवले कहते हैं कि-
‘पंचात डटी नहीं डाटी। रहगी धरी दाड़ और बाटी।’ रोकने से भी कोई पंचायत में नहीं रुका। बेचारे गुरू वृहस्पति की घबराहट बढ़ गई परंतु उनके धड़े के लोग वर्चस्वशाली थे। कहने लगे ऐसे कहां तक डरेंगे। शास्तर से बात नहीं बनती दिखी तो इस बार वे शस्त्र के साथ आए और तारा को वृहस्पति के हवाले करवाया।
ये जिन्दगी बड़ी जानलेवा चीज है मित्रो। तारा ने गुरू के घर आकर चन्द्रमा को गाली देना शुरू कर दिया- ‘मुझे उस दुष्ट, उस हरामी चन्द्रमा से कोई प्रेम व्रेम नहीं था। वो तो तुम्हारे नाम से मुझे बहका कर ले गया और ले जाकर अपने घर में बैठा लिया।’ अब इसे क्या कहें ? तारा तब सच कह रही थी कि अब ? इसकी जांच किस नारको टेस्ट से की जाए ? उधर वृहस्पति ने अपने दिल को कौनसी विद्या से यह समझाया कि ताकत के बल पर लौटा कर लाई गई तारा अब उसकी हो गई ? ऐसा धुर विरोधाभासी जीवन कैसे जिया जा सकता है? मगर हमारे समाज की विवाह नामक संस्था से ऐसे विरोधाभासी जीवन को उपहार में पाकर हर शादीशुदा जोड़ा ऐसा ही विरोधाभासी जीवन जीने को अभिशप्त है। और यह तो कुछ भी नहीं ग्रामीण सामंती समाज में तो यहाँ तक है कि स्त्री के पति का निधन हो गया तो छोटे भाई का पछेवड़ा/चादर उसे ओढ़ायी जाती है। बच्चे-बच्ची गर्भ में होते हैं यह पता नहीं होता बच्चा होगा या बच्ची और रिश्ता पक्का कर दिया जाता है। गर्भ में ही तय हो गए रिश्तों में ऐसा होना आम बात है कि संयोग से यदि एक गर्भ से लड़का और एक से लड़की पैदा हो भी गए और उनका विवाह माता-पिता ने गोद में लेकर फेरे डलवाकर करवा भी दिया तो भी भारत जैसे देश में जहां कुपोषण बड़ी समस्या है। बच्चे मर भी जाते हैं। ऐसे में वह विवाहित बालिका अपने पति की मां की कोख से अगले पुत्र के आने की प्रतीक्षा करती है। कितने मजे की बात है बाल्यवस्था से ही पति की सेवा का सुख भोगती है! शिशु पति का गू मूत साफ करने में मदद करती है। पति के बड़े होने की प्रतीक्षा करती है। बड़े होने पर पति उसके साथ जीवन बिताने से इंकार कर दे या दूसरी शादी कर ले तो वह या तो नाते भेज दी जाती है या वहीं पति की सेवा में बनी रहती है। समाज व्यवस्था के इस क्रूर मजाक पर कहानीकार डा. सत्यनारायण ने कथादेश पत्रिका के जुलाई २००८ के अंक में डायरी लिखी है। डायरी का शीर्षक है- ‘अब और बलम नहीं।’
जिन्दगी की जिल्लतें प्रेम जैसी सौंदर्यपूर्ण भावना को भी टंटा बना देती है। वृहस्पति, तारा और चन्द्रमा का टंटा यहीं नहीं सुलटता। तारा की कोख से पुत्र का जन्म होते ही चन्द्रमा अपना पुत्र मांगने गुरू के पास आ जाता है। इस तरह गुरू वृहस्पति एक बार फिर मुश्किल में फंस जाते हैं। वृहस्पति कहते हैं- ‘ऐ बेटी के बाप चांद तू मुझे क्यों परेशान करने पर तुला है। तू जन्म का कंवारा बैठा है। तेरी शादी ही नहीं हुई तो पुत्र कहां से आ जाएगा ?’
तू जनम कंवारो धर्यौ बता तेरै छौरा खां सूं आवै
अरे ऐऽऽऽऽ बेटी का बाप चांद तू मोकू क्यों उकतावै।
फिर पंचायत। फिर वाद-विवाद। फिर स्त्री के बयान। स्त्री की आंतरिक शक्ति से ही संभव हुई इस स्वीकारोक्ति का विश्लेषण भी किए जाने लायक एक काम है कि वह कहती है- ‘मेरी कोख से जन्मे इस शिशु का पिता चन्द्रमा है।’
शिशु का नाम बुध रखा गया था। कहते हैं-
चंदा कू दियौ बुध, गुरू कूं दई तारा राणी
कियो दूध को दूध पंच नै पाणी को पाणी।
धवले के अनुसार तो पंचों ने नीर-क्षीर फैसला किया। आपके अनुसार?
लोकगायक धवले ने पौराणिक कथा को पद में इस तरह से पुनर्सृजित किया है कि वह सदियों पुराने जीवन की कथा या कोरी काल्पनिक कथा न लगकर हमारे आज के जीवन की कथा लगती है। और हमारे मानसिक जगत की संरचना के साथ इस तरह की छेड़छाड़ करती है कि हम स्त्री-पुरूष सम्बन्ध की इस जटिल बहस पर पुनर्विचार करने को विवश होते हैं। लोक साहित्य लोक में इसी तरह विमर्शों के लिए जमीन तैयार करने का काम करता है।
आज भी हमारे ग्रामीण जीवन का यथार्थ सामंतवाद ही है। सारी चीजें ताकत और सामंती दृष्टि से ही तय होती है। और एक लोकगीत उस यथार्थ को हमारे सामने खोलकर रख देता है तो यही उसकी सार्थकता है। कुछ अधपढ़े अफसर और आवारा पूंजी किस्म के लोग जिन्होंने सत्ता बल से समाज में रसूख पाया हुआ है समाज को ऐसी दिशा देने में लगे हैं कि समाज में लोकगीतों का प्रचलन पिछड़ेपन की निशानी है। यह सही नजरिया नहीं है। असल में लोकगीत हमारी सांस्कृतिक विरासत का अंग है। हमें इस धरोहर को संचित करके संग्रहालय की वस्तु नहीं बनाना है बल्कि जीवन का हिस्सा बनाना है। ताकि हमारे दौर में बची-कुछी मानवीय चीजों पर हो रहे चौतरफा हमले से इन्हें बचाया जा सके। यही तो एक सामूहिक आनंद का स्रोत है इसे भी सुखा दिया तो पहले से ही बेजा तरह से शुष्क हमारे जीवन में आखिर बचेगा क्या ?
समाज पर दो सबद: जगन मीणा
जिस कविता की चर्चा यहाँ करना चाहता हूं असल में वह एक ऐसे अपरिचित काव्य परिदृश्य से है कि कविता पर बात करने से पहले मुझे उसका परिचय पत्र तैयार करना होगा।
इस पृथ्वी पर जीवन में जहां-जहां चिड़िया के घोंसले के अण्डे सरीखी गरमाहट बची हुई है, वहाँ-वहाँ कविता भी बची हुई है। जीवन है तो कविता है। जीवन नहीं तो कविता कहां से होगी ? गत कुछ वर्षों में भारत में आये ताबड़तोड़ विकास की आंधी में जो गांव डूब में आये उन गांवों के जीवन का अता-पता नहीं तो हम उनकी कविता का पता कहां से पा सकते हैं? जिन गांवों ने अपने घरों की दीवारों पर लिख दिया- ‘यह पूरा गांव बिकाऊ है।’ क्या वहाँ से कविता पाने की कल्पना की जा सकती है? जिन घरों में किसान मुखियाओं ने आत्महत्या करली उन घरों के शेष सदस्य जो आत्महत्या के पथ पर घुटनों में सिर दिए बैठे हैं क्या वहाँ से कविता की खबर पाना संभव है? जहां जीवन का नामोनिशान नहीं छोडा गया वहाँ से सबसे उदास कविता को भी नहीं पाया जा सकता है। ऐसे में जहां कुछ जीवन शेष है वहाँ कविता की तलाश की जा सकती है और वहाँ से उसे यदाकदा पाया भी जा सकता है।
पृथ्वी के कोनों अंतरों में रह रहे समुदायों का अपना अलग-थलग लोक है और वहाँ उस लोक की अपनी कविता है। इस कविता में आप जीवन संग्राम में बने रहने के लिए जूझती हुई व्यथा को पा सकते हैं।
राजस्थान के सवाईमाधोपुर, करौली, दौसा जिले और उनके आसपास का इलाका। मिट्टी पानी की तासीर, बोली-बाणी और पहनावे के लिहाज से इस इलाके में तीन छोटे-छोटे अँचल हैं-माड़, जगरौटी और आँतरी। यहाँ लोकगीतों के दंगलों की एक समृद्ध परंपरा आज भी जीवित है। इस बरस के मार्च की पहली और दूसरी तारीख को करौली जिले के कैमड़ा गांव में भरे पद-दंगल में डैंडा बसेड़ी गांव के आदिवासी कवि जगन मीणा ने अपना मुख्य पद सुनाने से पहले कहा- ‘दो सबद। जादा टैम नहीं लूंगा। दो सबद समाज के बारे में कहूंगा।’ दंगल सुनने के लिए हजारों की तादाद में उमड़े श्रोता-समाज से इस संक्षिप्त से अनुनय के बाद उन्होंने पद शैली में रचित अपनी कविता सुनायी।
समाज पर दो सबद
सूरज कहता मैं बड़ा, मेरा है परकास
चंदरमा कहता मैं बड़ा, मो बिन रैन उदास
ये अगनि कहती मैं बड़ी, मैं हूं सूरज कै साथ
जल से डर मोकूं लगै तो मैं कम करती उतपात
ये अन्न कय रया मैं बड़ा, सब मेरी करते आस
जल कहता ये अन्न से तेरा मैं हूं पालनहार
ये पवन कह रही मैं बड़ी, मैं वृक्षन को काड़
मो मैं बल इतनौ भर्यौ जेसूं उड़ जाय परबत पहाड़
ये माया कहती मैं बड़ी पण मेरी नहींअ प्रीत
समय करादे भौरगत, समय मंगा दे भीख
ये पदवी कहती मैं बड़ी,पण ऊमर पांचई साल
तकदीर कय रया मैं बड़ा, तू देख हमारा हाल
ये पुरूष कहता मैं बड़ा, तू है चैंटी के समान
और इक दिन ऐसौ आयगौ, तेरौ मिट जायगौ अभिमान
या मैं मेरी में का धर्यौ, तू मैं मैं मैं मैं क्यों करै
पता नहीं इस मौत का जाणैं किसके हाथन जा मरै
तू माया जोड़ै जो यहाँ की यहाँ रह जायगी
इक संग भलाई चल सकै पाई न लारै जाएगी
हां रै मीटिंग होगी टोडा में, कसीदा बंद कराबा की
जेवर बंद करौ नुकता में आबा जाबा की।
अब हो गई मीटिंग समाज की तुम याकी मानौं खैंण
और तीन चीज कूं कम करौ, जेवर नुकता दैंण
चांदी पौंची बीस पै,सोनो दस हज्जार
बेटी वाड़ा पै पड़ी, जब सादी की की मार
सूदी बही सुंदार की घर बैठ्या मुर्गी ज्याय
दस तोला सोना में से वा दो तोला कू खाय
तीया को मेला कर्यौ, भर भर बुक्का ज्याय
कोई झांझ मंजीरा बजै गैल में, निरबै सुड्डा गाय
मीटिंग होगी टोडा में, कसीदा बंद कराबा की
जेवर बंद करौ नुकता में आबा जाबा की।
गूजर मैंणा में चल्यौ, एक नवादा रूल
सौ रूपिया की लूगड़ी में दो सै दस का फूल
चलता हुयी तिरियान की, मरद हुए आधीन
गांव-गांव म कसीदान की घर-घर चलै मसीन
मेरै न्याड़ी होबा की जचै तो दीयौ कार बिंगाड़
बद खरचौ जादा करै ये नौकर्यान की नार
पाणी नीचा कूं गयौ, दुनिया ऊँची आयी
ये अदपर का धाप्यान नैं तो या समाज की बैंडाई
समझावै समझै नहीं एक नयौ चल्यौ पिरचार
नुकता पैलां तीसरो,पुज्यौ नवादा वार
गोंदीदाणा पापड़ी, खीर जलेबी साग
ये तीसरान में चलै कड़ैया नहींअ धिकाउ राग
समधन और समधीन की तो भर-भर दौंदी ज्याय
और सौ रूपिया की आंट गपागप गोंदीदाणौ खाय
मीटिंग होगी टोडा में, कसीदा बंद कराबा की
जेवर बंद करौ नुकता में आबा जाबा की।
हां ऽऽऽऽ रै पल्ला में मोबाअल बजै मैडम कै बीच गिराड़ा म
जयपुर फोन करै रोजीना ठाडी बाड़ा म।
समै समै का फेर है र समै समै सूं चाल
और सब दुनिया नै कान कै लगा लिया मोबाअ्ल
पैदल तो पागल चलै र मोटर साइकल होय
दो पईसा को आदमी चाय रोज टोकरी ढोय
अब आगौ समै दिमाग को तो कम्पूटर को काम
दो नम्बर धंधा करै वाकी मिलै जेब में दाम
खैबा से नहीं धन जुड़ै, अनपढ़ की नहीं जात
बोलतान का बिकै भूंभड़ा, अणबोल्या की राअ्स
कैंडा से खरचौ करै, नहीं रखते घणी फतूर
आज समैं में है सुखी नौकर और मजूर
या जमींदार का जीव कूं, सब बैठ्या म्होंडो फाड़
और भैंस को माल भैंस नै पियौ, खेत कूं खा गई बाड़
सिरीराम कट्टा मिलै दो सै और पचास
या पैदा खरचा में चली मित करौ बचत की आस
गुड़ चीणी मंहगा घंणा इननै करी कमाल
या छस्सै को कुण्टल बिकै जमींदार को माल
पैटरोल मंहगौ हुयौ, लीटर सैंतालीस
डीजल की सीमा नहीं जा पौंच्यौ पैंतीस
बिल-बिजली मंहगा हुया, हुया कनैक्षन तेज
जमींदार मार्या गया नहीं चुकै बौर की भेज
गरीब कूं नहीं सहायता, झूठे पुज रहे ठाम
दो-दो नौकर जिनका है चैनत में नाम
हां ऽऽऽऽऽ जयपुर कूं गई रै राजन्ती न्हा आयी रै नड़ का पाणी पै
डूटी छंडतैइ आगौ न्याड़ौई रूप जिठाणी पै।
जे घर घाटा में गया कर-कर ऊँचा कार
और कोसन आगै पड़ गया पढ्या लिख्या परिवार
पढ लिख बणगा नौकर्या जिनका घर में चैन
और अनपढ की कुण करै सगाई बाकै लाग्या बैन
जयपुर कूं गई रै राजन्ती न्हा आयी रै नड़ का पाणी पै
डूटी छंडतैइ आगौ न्याड़ौई रूप जिठाणी पै।
पद-दंगल का वीडियो
[flashvideo filename=http://pratilipi.in/wp-content/uploads/2008/12/pad-dangal.flv /]
मार्मिक, कहने दीजिए प्राणघातक । मन में गहरे उतरती बात। सोने सी खरी, चंद्रमा सी उजली। और क्या कहूं।
धवले जी आप आपने जितने भी पद गाये है उन्हे You Tube पर डाल दिजिए।
Dear Sir,
i am realy surprise to that see this thing. this is the first time to find this one because i am tring to last 5 years to find meena wati………….kaniyya, harikirtan………..Pad etc… i am so much eager to listen and see this culture
but i am working out of state so that i want to that more thing download on that page
Dear Sir,
i am Ramesh Meena
every day look your web site for listen new vedio releted to Pad, Harikirtan, Rasiya, Kanniya…………but sorry for that i am unhappy to not for new things
if possible please load any new things………………….
DEAR SIR,
TODAY I AM VERY HAPPY TO KNOW THAT OUR THE MOST POPULAR PAD, DANGAL IS BEING UPLOADED ON NET.
Really…….. amazing……. I PROUD OF OUR CULTURE
SHRI DAWLE RAM MEENA IS A GIFT OF GOD TO MEENA COMMUNITY………………..
I belöng to Danda Baseri which is also the village of famous singer of Meena Samaj i.e Jagan Meena
dhavale ji you are a historical singer . we all meena remember you all time . i salute you for this sweet art and i pray to god for your bright future. now i hope that please some new song create . …………………….
good luck ………../…………….. i am hemant meena (b.tec engineer in civil ) from nangal sherpur ( todabhim).
dhavle g aap apne lok geet site par daldiya karo taki sab log deklein aur eska aanand lein sakin…….
i am belong from v/pareeta distt-karauli
that is our community culture
sun kar bahut acha laga
dhavale ji you are a historical singer . we all meena remember you all time . i salute you for this sweet art and i pray to god for your bright future. now i hope that please some new song create . …………………….
good luck ………../…………….. i am hemant meena (b.tec engineer in civil ) from nangal sherpur ( todabhim).
it is very good way to keep the culture live. there are other cultural thing needs to be uploaded on net. i am trying to upload Hari Kirtan. i really miss such cultural gatherings. I am Dharmendra Kumar Meena a Telecom Engineer from Village-Parli distt- Dausa
Iamproud of meena culture please doing all songs online thanks for your mind
Sat Sat naman hain in sanskrati ke prnetao
Jai minesh ,,,,,,,, muje lok geet bahut achhe lagte h …….
But time ki kami se mai inko live nahi dekh pata lekin mai youtube se video upload kar leta hu
thank you…….jagan ji
Meena Cast Is Superb……….
Thanx to god for Part of Meena soceity
6 aur 4 padhai 10 aur 8 batvat hai panth karori
सर मझे पदों के बारे में डिटेल मिल जायगी क्या ? कृपया करके आप मुझे पदों के बारे में लिखित रूप में जानकारी चाहिए |
dhavle ram jee & jagan jee i am proud of you that you are bron our meena socity and apne hamare samaj ko in kavitao k dura samaj me mojud kuritiyo ko dur karne ka prayas kiya or sahi disha dikhai ………apko meri tarf se bhut bhut thanks or ap se anurod karta hu ki ap ne ne kavita banate rahe ….thanks ok.
अगर हिन्दी-साहित्य के सूर्य सूरदासजी हैं तो श्री धवले राम जी मीना लोक -साहित्य के सूर्य हैं।मैंने उनके पदों को गहराई से सुना हैं। उनके पदों की भाषा सुबोधगम्य प्रसंगानुकूल और गहनता लिए हुए हैं। उनकी वाणी में श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध करने की काबिलियत है। जब वे गा रहे होतें हैं तो लगता है वक़्त भी ठहर गया हैं।मैं उनकी गायिकी का कायल हूँ। समाज उनका ऋणी रहेगा।
I am kamlesh Kumar meena V/P Dolika Teh Sikrai Dist Dausa Raj 303304 job in railway tte at ldh stn
Jaganji I am Reserach Schoolar,I want work ” meena lok geet,” So me some Tips about meena lok geet
I am super fan of shri Jagan ji daidan
Today I am happy to see their outstanding pad regarding to social aspects.
I always salute their consistency , memory and creativity