आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मेरे दुश्मन भी आखिरशः बेरोजगार हुएः विशाल कपूर

अपनी खु़दी में इस तरह तब्दील न हो जाऊं,
बाग़ी हूँ जिनका उनकी तफ़्सील न हो जाऊं.

आपकी बात बज़ा हो कोई,
मेरे डरने की वज़ह हो कोई.

लाख शिकवे हैं दिल को ज़ेहन से,
दिल से ज़ेहन को गिला हो कोई.

ख़ासकर आप चुप रहते हैं के जब,
जान देने पे तुला हो कोई.

तेरे हाथों में शफ़ा हो कोई,
मेरे होठों पे दुआ हो कोई.

गाँव में तेरे क्यूं वीरानी है,
मेरे शहरों को सज़ा हो कोई.

सुकूं से ज़ीस्त न गुज़र जाए,
अपनी हस्ती से गिला हो कोई.

“और अचानक कोई किरण उभरे,”
नाउम्मीदी से घिरा हो कोई.

मैं जो शामिल हूँ तेरी महफिल में,
मेरे होने से ख़फा हो कोई.

तेरे जलवे जो नये हों दुनिया,
मेरा मिसरा भी नया हो कोई.

फासले रख न आसमानों जैसे,
अज़ीज़ है मिल दीवानों जैसे.

नरमी आ जायेगी माहौल में भी,
फ़ज़ा में फैल जा अजानों जैसे.

चाँद,तारे,शमाँ का ज़िक्र छेडो,
ये भी हो जाए ना पुरानों जैसे.

बात लगती है दिल को तीर जैसी,
नीम-वा होंठ हैं कमानों जैसे.

सरे-बाज़ार आशना का मिलना,
गोया लम्हात इम्तहानों जैसे.

बंद कमरे में नजारों की फ़ज़ा पायेगा,
मिज़ाज अपना जब भी शायराना पायेगा.

उसकी आंखों में एक आसमान दिखता है,
ज़मीं पे रहने का वो कुछ तो सिला पायेगा.

यकीं से आपके मस्जिद में ख़ुदा गया,
मुझको शक़ वो दीवारों से निभा पायेगा.

इक मरासिम था रंजिशों का वो भी खत्म हुआ,
मेरे दुश्मन भी आखिरशः बेरोजगार हुए.

किसी को याद रहें, ऐसे तो हम लोग नहीं,
किसी का दर्द बनें, ऐसे तो हम लोग नहीं.

बात करते हुए मौज़ूअ से भटक जाते हैं,
हल मसाइल का बनें, ऐसे तो हम लोग नहीं.

घर के आराम के आदी हैं एक मुद्दत से,
घरों को छोड़ चलें,ऐसे तो हम लोग नहीं.

कल तलक मौजूं रहे ऐसा कोई ख्वाब ही बुन,
कल तलक मौजूं रहें, ऐसे तो हम लोग नहीं.

हमारे सपने टूटते हैं बिखरती है उम्मीद,
खुदी बचा के खें,ऐसे तो हम लोग नहीं.

हम अपने दर्द से बोझिल हैं इतने ज़्यादा “विशाल”
किसी का दर्द सुनें, ऐसे तो हम लोग नहीं.

कुछ ख़ास किताबों से है मंसूब रोज़गार,
वो पढ़ रहा हूँ मैं कि जिसमें दिल नहीं मिरा.

तुम्हारी दोस्त है ज़ात से तो अच्छा है,
न रखो रंजिशें हालात से तो अच्छा है.

चलो अच्छा है दरीचों की ज़द नहीं इतनी,
दूर हो मंज़रे-जुल्मात से तो अच्छा है.

तुम्हारे ज़हन से कुछ इल्म की बू आती है,
लबों को दूर रखो बात से तो अच्छा है.

कोई भी हादसा अब वक़्त का पाबन्द नहीं,
न गिनो दिन को अलग रात से तो अच्छा है.

मंज़र जो जिस जगह था वहां पर नहीं मिला,
साहिल पे घूम आए, समंदर नहीं मिला.

क़ातिल की मेरे शक्ल थी क्या देखने लायक,
तलाशी-ऐ-चश्मे-लाश में जब डर नहीं मिला.

सारा शहर ग़मगीन है पर हंस रहे हैं आप,
शामिल हैं जनाज़े में मगर हंस रहे हैं आप.

मैं दाद देता हूँ लचीलेपन की आपके,
मंज़र बदल चुका है मगर हंस रहे हैं आप.

कीचड़ में गिर पड़ा था मैं और उस बात को,
अरसा गुज़र चुका है मगर हंस रहे हैं आप.

खूँ देख के भी हंस पड़े अपना वो दिल नहीं,
है पास आपके वो जिगर हंस रहे हैं आप.

मैं शरीक़ अपने ग़म में तुम्हें करता भी मगर,
मुझको “विशाल” थी ये ख़बर,हंस रहे हैं आप.

ऐसे न टोका कीजिये मुझको करीने के लिए,
इक उम्र सोचा चाहिए इक उम्र जीने के लिए.

फूल खिलने का सबब है यारों,
उसका मिलना ही अजब है यारों.

चांदनी झांके है दरीचों से,
चाँद को कोई तलब है यारों.

सूरते-दुनिया ही तो बिगड़ी है,
रुख़ उसका अब भी गज़ब है यारों

आ के कुछ पेड़ लगा दें राह में उनके लिए,
जिनपे मुश्किल है किसी ज़ुल्फ़ का साया होना.

परे-नज़र के है जो शय ज़दे-अहसास में है,
हिलें जो पेड़,हवाओं का पता चलता है.

कोई शय देती है किसी और शय का भी अहसास,
जैसे पेडों से परिंदों का पता चलता है.

दरीचे तोड़ के जब आते हैं घर में पत्थर,
हमको बहार की फ़जा़ओं का पता चलता है.

लाख गु़ल हो रहे बेगानी समाअत मेरी,
कोई चुप हो तो सदाओं का पता चलता है.

बेअसर हों तो दुआओं से यकीं उठ जाए,
बाअसर हों तो खुदाओं का पता चलता है.

वही पुरानी सी सूरत नई जगह पर भी,
हम,के साबित हुए ग़लत नई जगह पर भी.

वही है इश्क़ की हसरत नई जगह पर भी,
पुरानी शय की ज़रूरत नई जगह पर भी.

नहीं बदलती ये फ़ितरत नई जगह पर भी,
लहू जलाती है ज़िल्लत नई जगह पर भी.

वही तरीका़ पुराना है ज़ुल्म करने का,
चंद लागों की सियासत नई जगह पर भी.

वही है झगडा-ऐ-महफूजियत-ऐ-मुस्तक़बिल,
है बहम हममें रक़ाबत,नई जगह पर भी.

अनापरस्ती से, जज़्बात से, उसूलों से,
दूर रहने की हिदायत, नई जगह पर भी.

किन दरीचों से मैं झांकूं नए मंज़र के लिए,
उफ़,नयेपन की ये हसरत,नई जगह पर भी.

हम,के खुश थे “विशाल” छोड़ के पुरानी जगह,
लगी न अपनी तबीअत, नई जगह पर भी.

मिरी तामीर में कुछ हाथ ज़माने के लगे हैं,
इक मुद्दत हुई हम साथ ज़माने के लगे हैं.
ऊंचा ओहदा, मेयार, दौलत, आलीशान मकां, सब,
हमारे पीछे ये हजरात ज़माने के लगे हैं.
इतनी फ़ुर्सत कहाँ के इल्म पे सोचें तालिब-ऐ-इल्म,
हल जो करने में सवालात ज़माने के लगे हैं.
एक मुद्दत से मिरा गुस्सा मुझे छोड़ चुका है,
मेरी अना पे दबावात ज़माने के लगे हैं.
लहू में अपने घुल गया है ज़माने का नमक यूँ,
जो मैं सोचों तो ख़यालात ज़माने के लगे हैं.
के कू-ऐ-यार नहीं “फैज़” सू-ऐ-दार भी नहीं,
हमारी रह में मक़ामात ज़माने के लगे हैं.
गवाह ज़माने का, मुंसिफ भी भी ज़माने का है “विशाल”,
‘औ’ मिरे सर पे इल्ज़ामात ज़माने के लगे हैं.

2 comments
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  1. उन्हें पूछते हैं लोग कि जो बन गए हैं कुछ
    कायल मिरे बिगड़ने का ज़माना नहीं रहा

    नाकामियों की बहुविध छवियाँ विशाल के यहाँ देखी जा सकती हैं,और ये भी कि कामयाबी की `पगडंडियों का ज़माना ‘हमारे भीतर कितना कुछ कुचल देता है.विशाल का ही दूसरा शेर जो यहाँ भी शाया हुआ है-
    कुछ ख़ास किताबों से है मंसूब रोज़गार
    वो पढ़ रहा हूँ मैं कि जिसमें दिल नहीं मिरा

  2. Great ghazals! Novel and a pleasure to read.

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