कि तुम्हें ऐसा ही होना है: शिव कुमार गांधी
१.
उसने कहा मुझसे ले चलो अपने शहर
जो कहोगे वही करुंगा
फिर पकडाई चाय जो गैस के
चूल्हे पर बनी थी
मैंने कहा मजाक में –
जगह बदल लेते हैं हम
और फिर वैसे भी शहर खुद ही तो आ रहा है
तुम तक
उसने कहा वहाँ छत पर बैठना शाम में
अच्छा लगता है रोशनियों बीच और फिर हवा तो आती ही है
एक कारखानें में काम करता था उसका भतीजा
जिसके साथ किसी छत पर बैठा था वह एक दिन
इस शहर में रोशनियों बीच
और उस दिन भी हवा तो आयी ही थी
तालाब किनारे चाँद को देखता लेटा हुआ
शाम में मैं खुद कितने दिन काट लूंगा यहाँ
तालाब अभी भरा है फिर खाली होगा
और फिर भरेगा व खाली होगा
अगली बार
पता नहीं भरे कि नहीं
और मैं कहुँगा किसी से ले चलो अब तो मुझे
अपने साथ
जो कहोगे वह कर ही लूंगा
२.
पूरी शाम में नारंगी की ढेरी कैसी हुई जाती है
लड़का देखता है बार-बार जल्दी-जल्दी बेकाबू सा इधर-उधर
एक पहाड़ गुजरता है
उसके पीछे उगता हुआ सूरज उस पूरी शाम में ऑयल पेंट किया हुआ
ट्रक के पीछे के पहाड़ के पीछे जाता हुआ उधर,
जहाँ पहाड़ दिख रहे हैं पूरी शाम में बहुत गहरे भूरे
गहरी नारंगी सी नारंगी
गहरा तांबई जिस पर आकाश की गहरी नीली परछाईं,
जो देखता है इस बार
उस गुजरते ट्रक के पीछे के पहाड़ के पीछे बने सूरज को
जाती है ट्रक की आवाज धीरे गहरे भूरे पहाड़ में धंसती हुई
मैं अभी सूरज जैसी नारंगी में उलझा हुआ
हूँ इस पूरी शाम में
३.
‘कि तुम्हें ऐसा ही होना है’
पिता का यह महावाक्य विस्तार बनाता हुआ जमाता जाता है
मस्तिष्क में वाक्य की ध्वनि की परछाइयाँ
आप किसी स्टेण्ड पर खड़े बस यूँ ही कर रहे हैं बस का इंतजार
कि किसी उन्मुक्त पंछी को देख कर अचानक पीछा करती वाक्य
की परछाइयां दिखती हैं
बस में आराम से मिली सीट पर बैठ घिरी उदासी में सोचते हैं
छोटे-छोटे रंग बड़ी परछाई में दबे आपस में लोगों को सिर्फ धब्बे
जैसे दिखते होंगे
पिता हैं कि फिर भी खोज ही लेते हैं अपने ध्यान नहीं दिए गए वाक्य को
और ऐसी मुद्रा बनाते हैं कि अभी कोई जादू करने वाले हैं
कि अभी चीज की चीज़ परछाई की परछाई, सारे भेद खुल जाएंगे
आप इतनी बार पिता को देख चुके होते हैं अलग-अलग दृश्यों में
खोजते और कहते अपने वाक्य को
कि वे सभी दृश्य आपस में मिले हुए अतीत के धब्बे दिखते हैं
जिन पर एक पंछी बैठा होता है
जो अभी-अभी बस से उतर रहे व्यक्ति के ऊपर से गुजर कर गया है
कुछ उन्मुक्त सा…….
४.
एक सीधी रेखा पर उसे काटती दूसरी रेखा रेखा के काट पर कटे हुए आसमान के नीचे उसी अनुपात में सामने का जाता रास्ता
उसके आसपास खंबे और उसके तारों के बीच एक मेडिकल स्टोर उसके आगे एक खोमचा दो थड़ी चाय व पंक्चर की
सिर घुमा के देखता हूँ कुछ फल व सब्जी के ठेले उनके पीछे परिवहन निगम
का टिकट काउंटर हरे-पीले रंग का बीच में आते-जाते, जाते-आते लोग
मैं बार-बार सिर घुमाता हूँ एक कोण का दृश्य दूसरे कोण के दृश्य पर स्थापित
होता जाता है तीसरे कोण का दृश्य आठवें दृश्य पर, बहुत आसान तरीके से दृश्यों का गुणन फलित होता है
मेडिकल स्टोर का लड़का थड़ी के लड़के को आवाज देता है थड़ी का
लड़का ठेले के लड़के की ओर देख हंसता है ठेले का लड़का पपीते को देखता है
राहगीर पपीते का भाव पूछता है पैसे खुले करवाने इंजन ऑयल के पास जाता है
इंजन ऑयल हनुमान जी के आगे झुक कर खुल्ले नहीं देता है
सभी एक साथ दिखते हैं मुस्कुराते, उदास, हैरान, थके, उद्विग्न
व शाम के समय वापस घर लौटने की अन्यमनस्कता में
अपने थैले को पकड़े हुए
इस बीच रोडवेज की एक बस, दो ट्रक, चार ट्रैक्टर, तीन दूध की गाड़ियाँ,
एक बैलगाड़ी, बारह मोटर साइकिल गुजर चुकी हैं
एक साइकिल पेड़ के सहारे खड़ी है दो गाएँ भी वहीं सहारा लिए हैं
एक चेहरा घूरता है लगातार मुझे मुझे अटपटा लगता है उसका साफा
एक चीकट से छोटे ट्रांसफार्मर के नीचे एक आदमी बीड़ी पीता जाता है
दो बच्चे पीछे बैठे हैं उसके
इस सबमें ऐसा कुछ नहीं था साफ-साफ जो मुझे तनाव में भरता
बस कोण बदलते रहते हैं ये हिलते-डुलते मेरे पीछे आगे
और मैं उम्मीद से पहले थक जाता हूँ
अब आकाश में जाते पंछियों को देखते रहने का मन नहीं रहा उनका रंग भी वैसा नहीं रहा जैसे वे होते
एक सरल कोण अपनाता हूँ मैं
काटती रेखा से हट एक सरल रेखा पर कदमों से लौट पड़ता हूँ
शहर से आया हुँ भाई और अब ये भी भारी है मेरे लिए
५. इतना बचा
वह ऐसा समय था जब
अनेक छवियां थी मेरे जीवन में
जो अनेक बार मुझे बचाती थी
मैं छवियों से बेहद भरा था
उनकी उदात आंच ने मेरे पल पल को
वह संस्कार दिया जो
उस ऐसे समय में मैं बचा रहा लगातार
कि मैं लगातार इतना बचा
कि मुझे अब सुई के छेद में
पिरो सकते हैं आप
लगा सकते हैं अपनी पैंट का बटन ऐसे
जिसके लिए आप बने ही न थे
sunder hain , shiv..
painting’s jaisi dikhti hain,