आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

जब बरसेगा शिलौंगः तरुण भारतीय

1. भय की प्रार्थना

भय का आरंभ ज्ञान
आकाश का अनन्त स्वप्न
भाषा सामिप्य आतंक
कमरे का कोना तय

जँगल में साँस विद्रोह
इतिहास में प्रश्न मुस्कान
नगर में कुत्ते चुप
कमरों की सँख्या तय

प्रेम के ईश्वर कुपित
सिमटती दिशाएँ मंत्र
साहब की खांसी गुप्त
कमरे का आकार तय

कमरों से ही बनता है घर
हवाओं में नहीं हिलतीं स्मृतियाँ
नमक से नहीं चमकता दालान
मतों से नहीं उगती हताशा
प्रार्थना ही है सत्य

भूगोल भी नहीं
कहानियाँ भी नहीं
प्यास तो दूर की बात है
प्रार्थना ही है सत्य
इतना ही है भय

2. श्रीनगर ना जाने के बहाने

(ऐजाज़ और परवेज़ के लिए)

कहाँ है श्रीनगर
मेरा नक्शा ग़ुम है कल से
मैं लौट रहा था बॉम्बे रेस्टॉराँ के
खंडहर पर बनते नए बाजार को
देख – शायर यारों के साथ
जेब टटोला तो केवल
बचत खाते की रसीद
यारों ने कहा
अब तो अखबार का ही सहारा है
ग़र अखबार के चौथे पन्ने पर नहीं है कश्मीर तो
टीवी पर ऊंघती समाचार वाचिका को ही कर लो फोन
(उसे तो तुम पहचानते हो)
वो तो यह भी बता देगी
कि शहर का बेहतरीन कहवा
कहाँ मिलता है
नज़फ के नीलेपन को देखकर
कैसे मिलेंगे हम शाहे हमदान के
सैलानीपन में
मुझे तो आना था श्रीनगर
अहदूस के सपनाए अंधेरे सूंघकर
और मैं खड़ा हूँ ऐसी नींद के बीच
जहाँ अमीरा कदल में
खाए झापड़ का दुख
इजराइली चेकपोस्ट की अलसायी सुबह
एक फिलिस्तीनी कारीगर के औजारों
के नीले झोले में सुगबुगाती कथा है
याद आया वह नैयायिक
शायद तेरहवीं शताब्दी में
जाना चाहता था अंदलूस
लेकिन प्रायश्चित्त और सलीब
के बीच लौट आया
मैदानों में
तब उसके बाप ने बताया कि
पश्चिम नहीं उत्तर दिशा में है
पृथ्वी का अंतिम नगर
देवलोक से पूर्व
उसका बाप डरता था दरबार के
वेदांतियों से
और तुम हंसे इस मैथिल
कायरता पर
तुम्हारी हंसी से लगा डर
ऐसे शहर में जिसे लगता है
कि जनतंत्र के हर कोने
पर एक हंसता कश्मीरी है
एक शहीद स्मारक भी
जिसे देखने के लिए
जूते उतार कर
कैमरे के सामने
मुस्कुराना पड़े
मैने दर्शन किए गांधी के
मैने दर्शन किए गांधी के
क्या मज़ारे शौदा के आस पास
उगती हैं गलियाँ
जहाँ मैं आता तो ग़ुम हो जाता
तुम्हारे उस सुबह से बचने के लिए
जब पता नहीं किसने कहा तुम
से पता नहीं किसके बारे में पता नहीं
कहाँ से आए शूरवीर
कोई हुआ हताहत बीवी से बतियाते बतियाते
कि डरना मत यह तुम्हारा दूसरा बच्चा है
नाम पूछना चाहता था मैं तुमसे
और तुम्हे चिंता थी कि
जंग में फुर्सत के दौर क्यों नहीं आते
और तुम हंसे
मैं देखना भी नहीं चाहता तुम्हारा शहर
क्या पहचान बताउंगा अपनी
कौन सी तस्वीर करूंगा पेश
रम भूख और देश से डरी आंखों को
कहूंगा क्या?
दोस्त हूँ ?
किसका? क्या कहूँगा
बेवफाई और दोस्ती का कौन सा पहचान पत्र
ढूंढूंगा जेब में सवालों के संगीत के बीच मैं
शर्म से जूझता अजनबी
और अजनबियत श्रीनगर देखना नहीं है
हजारों बार अगर वो कहे भी
वो शायर जिसकी तस्वीर मृत्युपूर्व ही
लगने लगी थी ऐतिहासिक
हम मिलेंगे
अमन महल के क़रीब
अमन महल के दरवाजे पर ही है
चेकपोस्ट
तुमने ही तो बताया था उस दिन

3. आने वाली दुनिया

1

आने वाली दुनिया के बारे में पहली बार मैंने सुना
जब मैं खाना नहीं चाहता था दलिसग्गा,
मेरी इच्छा पलंग पर बैठ ट्रक चलाने की थी
माँ ने कहा आज खा लो बौआ
आने वाली दुनिया में
खाने की ज़रूरत ही नहीं
धर्मशास्त्रों वाली नहीं थी वो दुनिया
जो कि आने वाली थी
उसे तो खोजा इंगलैंड से लौटे चितपावन बाभन सावरकर ने
सोचा उसके बारे में जर्मनी से लौटे लोहिया ने
कह सकते हैं युरोप ग्रस्त बाभन साम्यवादियों ने भी किया प्रयोग
( उन्हें क्यूँ भूला जाए )
राजनैतिक चाय पार्टियों की पेपरबैक क्रांतियों में
उपस्थित रहा चुसकियाँ लेता यह ख़याल मानो भूल जाओ
क्लास की अ० जिसकी नज़र में मैं उतरता ही नहीं था
आएगी वह दुनिया, आएगी वह दुनिया उस आखिरी दिन की तरह
जब उसने कहा बस स्टॉप पर सुबह आठ बजे
”तरुण, तुम्हे कहना चाहिए था ना…. ”

क्या इसी दुनिया के हैं अम्बेडकर के गीत?

2

बाबूजी का सुनाना
आपातकाल के किस्से, आपातकाल
मेरे तैंतीस बरस
बाबूजी फोटो में दाढ़ी उगाते
लो बौआ अब उग गयी दाढ़ी
बुलाओ पुलिस बुलाओ
शायद बीस मार्च सतहत्तर की रात
रानी के हारने की संभावनाएँ
सुबह तक रहीं मौजूद
कौन था वो अंकल
नोच लिए थे जिनके नाखून
पुलिस ने भागलपुर जेल में?

सब सहेजती है एंजेला उस छोटे से टिन के बक्से में जिसमें माँ ने रख कर दिया था
मेरे तीसरे क्लास का रिपोर्ट कार्ड, अरे वो कहानी भी जिसकी नायिका कल दिखी थी बाजार में
अपने दो स्मार्ट बेटों के साथ

कल जाना है आने वाली दुनिया में
आज केवल एंजेला की चुप्पी
ठंडा होता पास्ता
हमने क्या छोड़ा
इस दुनिया के लिए?
क्या छोड़ा? क्या छोड़ा?
मैंने सोचा था कि
कुछ ना कुछ तो कबाड़ होगा ही
बांटने के लिए, ब्रेख्त ने कहा है ना

”जाने से पहले यह ना सोचो कि
तुमने जिया बेहतर जीवन
बल्कि तुमने छोड़ी एक बेहतर दुनिया”

एंजेला कहती रही फिर भी मैने अखबारों में तहकर रख ली वो बारिश टिनोपाल से चमकायी गयी
अ० के स्कूली कमीज पर जबकि मुझे पता भी नहीं था कि चूमा जा सकता है अभी इसी वक्त

4. अमेरिका सीरिज सेः विवाह सूत्र

1

हर शाम स्कूटर में कम पड़ जाता था पेट्रॉल
ज० लगती थी ऊंघने
मेरी ज़िप खुलने पश्चात
जब तय कर ले प्रेमिका
कि वह नींद में चलेगी कुल्ला करने के बजाय
उससे कर लो ब्याह
वात्स्यायन कामसूत्र में लिखा है साफ-साफ
जबकि मास्टर्स और जॉन्सन कहते हैं कि
टीवी में सीरियल के दौरान अग़र ज़रूरत हो
ऑफिस के कॉफी की
आपको बंधना चाहिए वैवाहिक सूत्र में

2

चौकी खँरोचते हुए मेरा यार राकस
अब हँसने लगा
उसे गली के चौथे टेलीफोन खम्भे पर ठुके
अखाड़ों के विज्ञापन याद आ गए
उसने जेब से निकाली डायरी
और भूलने से पहले नोट कर लिया
२ ५ ३ ४ ५ ९

3

अब समय आ गया है घर लौट मोजे उतार कर फोन करने का
श्री बंसल की दुकान से फ्री होम डिलीवरी में आ जाएगा
तेंदुआ बेहोश
बंसल साहब तीन चीड़ भी लिख लीजिए
नहीं अभी नहीं चाहिए करिश्मा कपूर के नाखून
हाँ नौकर से कह दीजिएगा कि ले जाएगा
परसों के करेले जो कड़वे थे कम
जोयिता बाथरूम से चीखती है
सुनो तरूण मत भूलना अमेरिका का वीज़ा
बंसल ने गलती से भिजवाया था शाम में तिलचट्टों की गूंज
बाल तौलिए से पोछती ज०
मेरे कानों को चबा रही है
और हाँ उल्लुओं का शाप आया है बंसल के यहाँ
ट्राइ कर लेते हैं

5. आत्मकथा

आत्मकथा के बदले टेबल है
और खांसती हवा

आत्मकथा के बदले हथियार हैं
पकड़े युद्ध फिल्म में एक्स्ट्रा

आत्मकथा के बदले अचानक
हिन्दू एक विलुप्त कहते हैं ढांचा

आत्मकथा के बदले सिगरेट के कश
अठन्नी गीली माचिस

आत्मकथा के बदले बैठी माँ है
बाल खोल पढ़ती दसवीं की किताबें

आत्मकथा के बदले अब चीज़ें
रहेंगी स्थायी जीवाश्म

आत्मकथा के बदले क्यों नहीं
गौरैया यादें खेलती लंगड़ी टांग

आत्मकथा के बदले क्यों नहीं
पुराने नम घरों में सूफियाना गीत

आत्मकथा के बदले क्यों नहीं
जुलूस में खोए बच्चे का तरबतर स्वाद

आत्मकथा के बदले क्यों नहीं
पिताओं के इर्द-गिर्द जाले लाल मकड़ी के

आत्मकथा के बदले क्यों नहीं
आत्मकथा

6. यूँ ही एंजेला

ऐसा शायद अक्सर होता होगा
(बेशक कविताओं में ना सही)
आशिकी के तथाकथित ‘यूँ ही’ अवसरों पर
हम पाते हैं बंजारा बाजीगर
काव्यात्मक कानेपन के साथ
कोस रहा है अपनी बेटी की उम्र
रस्सी तानते तानते
उसे याद आ गयी थी वह कहानी
जिसकी नायिका ने बचाया था
साधु बन गए राजकुमार को
आदतों के शिकार से
यह मैंने यूँ ही कह दिया एंजेला

मैं कह सकता था-
तुम्हारे डर का तरीका
मेरी ज़रूरतों का आकार
या फिर यह कि
राष्ट्रभक्तों की हंसी का शायराना निषेध
और मेरा सांस्कृतिक लुच्चापन
अखबारों में बिजली कटने की सूचना
यानि सूचियाँ बना सकती थी तुम
और मैं लाल चाय-
हल्के पनियल खून सा
मेरी अजीब बिम्बों की आदत
यूँ ही नहीं जाएगी एंजेला
फिर वह रात नींद से सीजी, तुम्हारी
दिसम्बर की खांसी के बाद वाली
रेडियो आवाज, तुम्हारा कहना कि
तस्त्र्ण जितना तुम चाहते हो
उतनी चीनी नहीं है तुम्हारी चाय में
तुम तो जानती ही हो आशिकी की
जगह ही नहीं है ऐसी कविताओं में
मेरी भाषा के हकलाते जनपद में
मुझे न तो दिखे भींगते प्रेमपत्र
न ही ईश्वर हांफते
यूँ ही बरबाद होती है
कविता की जिज्ञासा एंजेला

7. जब बरसेगा शिलौंग

मेरे रोज़नामचे का
बायाँ अंधेरा कोना तुम्हारा नहीं है
वहाँ सालों से रहती है दुअन्नी मकड़ी कीड़ों की ताक में
गोलकीपर तो तुम हो ही नहीं सकती
हमारे समर्थकों की बस जो छूट गई
काँग रोज़ की दुकान की कुर्सियाँ दूभर हैं
मेरी गोल्ड फ्लेक लपेटती है तुम्हारे चेहरो को उस्तादी से
जुलूस का पसीना तुम्हे रास नहीं आता
मेरे यार बार-बार कहते हैं झंडियाँ उछालो
कितने बजे रखोगी पाँव मेरी रसोई में
बिरयानी में बचा है बस दम लगाना
चिलम का आख़िरी कश साला साधू रामानंद खींच गया
तुम्हारी ग़लती है कि शरमाती रही
मेरे पसीने में तुम्हारी तस्वीर छप नहीं सकती
दाढ़ी जो चुभती है तुमको
मेरे उम्र का हाशिया कुछ खास ही गुप्त है
तुम्हारी मौसी जपती है उसमें – पचास, पचास, पचास
मेरे डर को चुपके से सहेज नहीं सकती तकिए के नीचे
वहाँ मेरी माचिस, अधखाया सेब और तुम्हारे टूटे बाल
तुम ही बताओ कहाँ बसोगी
कल रात, जब बरसेगा शिलौंग?

8 पारिवारिक फोटो

पिता ग़र रोए
सुनाई दे जाएंगी
सलाखों वाली खिड़कीनुमा तस्वीरें
( कल तक जो थीं दीवालों पर टंगी )

आंगन फिर लौट आएगा
वर्जिश करता, जड़ें फेकता
पेड़ पीपल का

जल जाएगी सब्जी
माँ की
थम जाएँगी चौखट पे
ऋचाएँ
आयतें
सहगल के गीत भी

क्या होगा ख़बरों का?
फोटो कौन सी होगी
पहले पन्ने पर?

करवट ही बदलेगा सौदागर
प्यासा
दूसरे पहर
सपने में दाशर्निक
सेकेंगे रोटियाँ सावधानी से

ओस की संभावनाएँ
चीखी जाएंगी
तैंतीस साल से बन्द कमरों में

पिता के आँसू
मानो गलतियों के छूटे अवसर

दरवाजों को मजबूत बनाने की फिक्र में माँ संग प्रकाश वर्षों दूर तक यात्रा की है और अचानक
पाया है दुपट्टे पर सितारे टांकते हाथ और आसपास उगती रसीली कंटीली
झाड़ कुतरती बकरियाँ चितकबरी

माँ यात्राओं से डरी नहीं, एक चूल्हे से दूसरे – एक पुत्र से पुत्री – पुत्री से फिर पुत्र – ज्ञान एक से ज्ञान दो –
एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक यात्रा करती रही, हम अकेले में बाबूजी के संग रजाई में दुबके उनकी
थकी सांसों में सुनते माँ का अतिविलम्बित आलाप, अंह्योरे सुरंग में जैसे भाग रही हो तेज हवा,
धीरे से पूछते,” बाबूजी माँ के आने बाद खाएंगे ना हम किशमिश वाली खीर?”

सफेद बालों को भूल माँ केवल दरवाजे मजबूत करने के लिए खरीद लाती है सैकड़ों रंग, आज उसने
कल के लाल दरवाजे को रंग दिया काले से – इतने रंग, इतनी परतें, शायद इंद्रधनुष से ही
बना हो दरवाजा

चार किताबों की भूख के बाद बाबूजी ठकठकाते हैं दरवाजा, उन्हें क्या पता रंगों और सूरज का खेल,
झाड़ते हैं अपने काले हाथ

माँ दौड़ती है, रंगों को कोसती है, फिर कनखियों से रंगों के डिब्बों में ढूंढती है मजबूती का कोई और रंग,
अपने आंचल से पोछती है हाथ बाबूजी के, इतनी कोमलता से कि रेखाएँ बची रहें और वे दौड़ पाएँ
उन घाटियों में उड़न तश्तरियों तक और पूछें तीन कान वाले परदेसी से,
” आपके यहाँ होते हैं दरवाजे?”

9. सीमा

(सड़क पर भुतियाये सांप को चाँप दिया किसी ने)
बच कर रहना
काग आइती की कहानियाँ पाँच सौ चार सीढ़ियाँ उतर कर
ख़त्म होती हैं
यहीं गनक खोद रहा था विलायत भाग गयी बेटी के लिए
झरने का चेचक नुमा पत्हृार
काली-पीली तितलियाँ छुई-मुई
पोते को तो यह भी पता नहीं कि कहाँ है शिलॉट
यहीं है (भटकती उंगलियों के ऊपर)
उमलुलू , जो गनक चुरा ले गया शिलॉट
इकहत्तर में बांग्ला नहीं पााकिस्तान
बादलों में दिखा तलवार भांजता घुड़सवार
पाँच सौ चार पाँच सौ चार
संतरे के मौसम में आना हम नहीं बेचते संतरे
खाओ जितना खा सकते हो,
उठाओ जितना उठा सकते हो हाथ में
पर ले नहीं जा सकते शिलांग में बैठी प्रेमिका के लिए एक भी
लोक की रुमानियत लोक की नादानी
लोककथाओं का संग्राहक नहीं हूँ मैं
कि ना थकूँ पाँच सौ चार सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते

10. कविता

जबसे मैंने चढ़ना बंद किया बस में
मेरी भाषा सुधर गयी
हकलाता नहीं मैं
गियर तीन से गियर चार में जाने से
क्रियापदों की संख्या
पसीने के आयतन का हिसाब नहीं खेलतीं
पर्चे सपनाने का रहता है समय ही समय
दुख होता है उन शायरों पर
जिनको खोलना पड़ता है चश्मा पायदान पर लटके लटके
कभी कभी रोकता हूँ गाड़ी
तो शरमा के बैठ जाते हैं मेरी बाँई ओर
मैं उन्हें जानकारी देता हूँ माइलेज की
और वे मुझे जनवाद की शिकायतें
मुक्तिबोध के कर्जे़
पंक्तियों का समाजशास्त्र
हाउसिंग सोसाइटी की झंझटें

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