धुले हुए कपड़ों की तह लगातेः देवयानी
१. इंतज़ार
यह धरती जो उर्वरा है
स्वप्न उर्वरा, इच्छा उर्वरा
इस धरती को इंतज़ार है
एक बारिश, एक बूंद का।
२. उदासी
उदासी ने फिर
बिखेर लिए हैं अपने बाल
अकेलेपन के आगोश में
गिरती चली जा रही हूँ
३.
यूँ ही
उसके कदमों की आहट
सुनाई नहीं देती
खटकाता है वह कुंडी इस तरह
मानो डरता हो
कहीं जाग ना जाए दीवार पर सोई छिपकली
इस तरह आता है वह
और घुल जाता है इस तरह
जैसे कभी गया ही न था
अपनी खिलखिलाती हंसी से
भर देना चाहता हो जैसे
उन तमाम कोनों को
उदासी जहाँ बाल बिखेरे बैठी है
कुछ देर के लिये ही सही
समेट लेती है वह जूड़े में बाल
घूमने लगती है यूँ ही
इधर-उधर
बनाती है चाय
बिखरे घर को समेटते
व्यस्त होने का दिखावा करती
हंसती है फीकी हंसी
वह बना रहता है अनजान
फिल्मों की बातें करता है
पूछता है बच्चों के हाल-चाल
अचानक घड़ी को देखते हुए
कुछ इस तरह चल देता है
जैसे याद आया हो अभी-अभी
छूट रहा कोई
बेहद जरूरी काम
बहुत जल्दबाजी में विदा ले
निकल आता है वह सड़क पर
जहाँ घंटों भटकता है
यूँ ही
4
अहसासों का बस्ता अटारी पर रखा है
अलमारी में बंद पड़ी हैं इच्छाएँ
एक देह है जो बिछी है
घर के दरवाजे से लेकर
रसोई, बैठक और बिस्तर तक
न घिसती है
न चढ़ता है मैल इस पर
सलवटें निकाल देने पर हर बार
पहले सी ही नई नज़र आती है
कमबख्त।
5. उसका जाना
एक दिन बोली वह
अच्छा अब चलती हूँ
और चली गई दूर कहीं
कई दिनों तक नहीं हुई हमारी मुलाकात
शुरू में मैं समझती रही
ऐसे भी कोई जाता होगा भला
लौट आएगी यूं ही किसी दिन
राह चलते
लौटते हुए घर
धुले हुए कपड़ों की तह लगाते
मिल जाएगी झांकती देहरी से
भर लेगी बाँहों में
धर देगी आंखों पर कोमल हाथ
और पूछेगी – बताओ कौन?
आह्लादित मैं चहक उठूंगी
कविता!
कहाँ रही तुम इतने दिन?
किंतु जब नहीं लौटी वह
कई महीनों, बरसों तक
मैंने चाहा कई बार
ढूँढ़ा उसे कई जगह
अब मिलती भी है तो पहचानी नहीं जाती
क्या यह तुम ही हो कविता?