आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अपनों में नहीं रह पाने का गीतः प्रभात

1. पीला फूल चाँद

मैं उस गाय की तरह हो गया हूँ
जिसने बछड़े को जन्म दिया है
या कह लो उस सूअरी की तरह
जिसने पूरे बारह बच्चे जने
और अब उनकी सुरक्षा में डुकरती है

आज मैं एक सूम काले पडरेट को जन चुकी
भैंस के पेट की तरह हल्का हो गया हूँ
या कह लो उस भेड़ की तरह खुश
जिसने जन्मा है काली मुंडी और सफेद शरीर वाले मेमने को

आज ऐसा हुआ है
जिससे मिला है आत्मा को सुकून

कल की रात का चाँद
अभी तक लग रहा है छाती पर गिर रहे
सुलगते कोयले की तरह
पर आज की रात
आत्मा पर झर चुका है
पीले फूल की तरह चाँद

2. अपनों में नहीं रह पाने का गीत

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा

क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं

3 एक सुख था

मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गई थी मृत्यु
किसी विकराल काली बिल्ली की तरह सबको बहुत साफ दिखायी
और सुनायी देती हुई
मगर तब भी,अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले तक भी
उतनी ही हंसोड़ बनी रही बुआ

अपने पूरे अतीत को ऐसे सुनाती रही जैसे वह कोई लघु हास्य नाटिका हो
यह एक दृश्यांश ही काफी होगा – जिसमें बुआ के देखते-देखते निष्प्राण हो गए फूफा
गाँव में कोई नहीं था
पक्षी भी जैसे सबके सब किसानों के साथ ही चले गए गाँव खाली कर खेतों और जंगल में
कैसा रहा होगा पूरे गाँव में सिर्फ एक जीवित और एक मृतक का होना
कैसे किया होगा दोनों ने एक दूसरे का सामना
इससे पहले कि जीवन छोड़े दे
मरणासन्न को खाट से नीचे उतार लेने का रिवाज है
बुआ बहुत सोचने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकी
अकेली थी
और फूफा, मरने के बाद भी उनसे कतई उठने वाले नहीं थे
जाने क्या सोच बुआ ने मरने के बाद खाट को टेढ़ा कर
फूफा को जमीन पर लुढ़का दिया

अब रोती तो कोई सुनने वाला नहीं था
बिना सुनने वालों के पहली बार रो रही थी वह जीवन में
इस अजीब सी बात की ओर ध्यान जाते ही रोते-रोते हंसी फूट पड़ी बुआ की
बुआ जीवन में रोने के लम्बे अनुभव और अभ्यास के बावजूद
चाहकर भी रो न सकी
मृतक के पास वह जीवित
बैठी रही सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती हुई

इस तरह जीवन को चुटुकलों की तरह सुनाने वाली बुआ के जीवन का चुटुकला
पिच्चासी वर्ष की बखूब अवस्था में जब पूरा हो गया
कुछ लोग हंसे,कुछ ने गीत गाये,कुछ को आयी रुलायी

बूढ़ी बुआ हमारे जीवन में अभी भी है
उतनी ही अटपटी,उतनी ही भोली,उतनी ही गंवई
मगर खेत की मेड़ के गिर गए रूंख सी
कहीं भी नहीं दिखाई देती हुई
यह बात भी अब तो चार बरस पुरानी हुई

चार बरस पहले
एक सुख था जीवन में

4. हमें नहीं पता

तुम अगर मिल सकती होती
या मैं तुमसे मिल सकता होता
तो जरूर मिल लेते

बावजूद हमारे बीच फैले घने कोहरे के
इसी में ढूँढते हुए हम एक दूसरे का हाथ पकड़ते
छूने से पहचान जाते और कोहरे में ही गुम हो जाते
पहले की ही तरह ऐसे कि कोहरे को भी न मिलते

तेज बौछारों में निकल पड़ते एक दूसरे के लिए
कनपटी से कान उखाड़ ले जाने वाली
चाकू आँधी में निकल पड़ते एक दूसरे के लिए

मिलना छोड़ो हम दिखते तक नहीं कहीं
जैसे मैं इस धरती पर जीवित नहीं
जैसे तुम इस धरती पर जीवित नहीं

चाँद के बारे में पृथ्वीवासियों को जैसी जानकारियाँ हैं
वैसी ही जानकारियाँ हैं हमें एक दूसरे के बारे में
हमें नहीं पता सच क्या है और वह कैसा महसूस होता है

5. गीला भीगा पुआल

कौन आ रहा है हरे गेंहूओं के कपड़े पहन कर
कौन ला रहा है सरसों के फूलों के झरने
किसने खोला दरवाजा बर्फानी हवाओं का
कैसे चू आये एकाएक रात की आंख से खुशी के आँसू

ओह! शिशिर
तो तुम आ गए

आओ आओ
यहाँ बैठो
त्वचा के बिल्कुल करीब

यहाँ आंगन में लगाओ बिस्तरा
गीला भीगा पुआल

6. हमसफ़र

मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं
मेरे पिता का एक था

मैं अब गाँव में रहता नहीं
शहर में वहाँ रहता हूँ
जहां मुसलमान नहीं रहते

अब मेरे पास बची हैं स्मृतियां

मेरे बाबा के कई मुसलमान दोस्त थे
करीमा सांईं, मुनीरा सांईं
अशरफ़ चचा, चाची सईदन
बन्नो, रईला

सुदूर बचपन की स्मृतियाँ हैं ये
हमारे घर आना जाना
उठना बैठना था उनका

समाज की बुनावट
कुछ ऐसी होती गई बीते दिनों
बकौल मीना कुमारी
‘हम सफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तनहा-तनहा’

7. जहाँ वह शव था

मैं रात भर चलकर वहाँ पहुँचा घाटी से मैदान की ओर
जहाँ वह शव था लोग खड़े और बैठे हुए थे जिसके चहुँओर

उस वक्त मैं थका था रुदन नहीं था मेरे भीतर
जो कुछ था वह शव की तरह था मेरे भीतर
या अधिक से अधिक उन लकड़ियों की तरह
जो शव को जलाने के लिए वहाँ लायी गई थी

फिर कितने महीनों बाद आज
दाह की आँच जैसी जलाती दोपहर में
मेरे निर्जन में एकाएक फूटा रुदन का निर्झर

उन्हें मुझसे कभी प्यार नहीं रहा
घर का बटवारा होने से पहले तक
मेरा बचपन उनके साथ
पाटोर की छत के नीचे रहते हुए बीता
उन्होंने सिर्फ मेरे लिए कभी कुछ नहीं किया
मगर मेरी बहुत सारी जरूरतें
सिर्फ उनकी वजह से पूरी होती रही

उनके रहने सहने और जीने में
धीरज था लगन थी और गहराई
सरसों की फलियों में दानों की जगह पानी भर जाता
गेहूँ की फसल को बादलों की भगदड़ रौंद डालती
वे इन बेरहम हालातों में
टूटी हुई खाटों को ठीक करने का काम करते
लालटेन जलाकर पशुबाड़े में नवजात बछड़े के पास बैठे रहते
यही उनका स्वभाव था

मैं अपने मृतकों को याद करता हूं
ताकि उनकी खूबियों की धूप
अपने घने उदास अँधेरों में फैला सकूँ

8. जीने की जगह

मैं तुझे जीवित समझकर लिखता हूँ तुझ पर कविता
ओ मेरी बहन तू आज भी है मुझसे दस बरस छोटी
मैं पैंतीस का हूँ तो तू पच्चीस की है
मेरी शादी सत्ताईस की उम्र में हुई
तेरी सोलह की उम्र में हो गई थी
और एक बरस बाद तू फंदे से झूल गई थी

मैं उस त्रासदी को भूलकर लिखता हूँ तुझ पर कविता
भाई भाई कहती आई है तू मुझसे मिलने और तूने
मेरे घर को अपने कब्जे में कर लिया है
बच्चों को और तेरी भाभी को और टीवी कम्प्यूटर वगैरह सबको
चूँकि दो ही दिन ठहरेगी तू यहाँ इसलिए दो दिन तक भाई के घर को
ठीक से चलाके देख लेना चाहती है अपने हिसाब
तू देख लेना चाहती है चीजें ठीकठाक चल रही है या नहीं
भाभी और भाई के बीच कोई गड़बड़ तो नहीं
बच्चों के चेहरे पर उदासी की कोई लकीर तो नहीं
मकान मालिक से हेलमेल है या खाली करने को बालते रहते हैं
हाँ तू ऐसी समझदारों की सी बातें करने लगी है
क्योंकि तू वही थोड़े रह गई है सतरह साल की अल्हड़ किशोरी
तू बड़ी हो गई है – युवती
और तेरे पास भी है तेरे से नाक नक्श वाली एक बेटी
तू जीवित है तो देख इसे अवसर मिला है दुनिया में आने और जीने का

और अब वे सब अतीत की बातें हो गई है
तू मरना चाहती थी और हर किसी के सामने डबडब रोती थी
मगर किसी को बता नहीं पाती थी कि आखिर बात क्या है
तूने चाहा था पूरे जीवन रहना पिता के घर
तूने चाहा था मैं तेरे इस इरादे के लिए सिफारिश कर दूँ पिता से
तूने चाहा था तुझे कभी वापस ससुराल न लौटना पड़े
तूने चाहा था तू किसी से कोई हिस्सा नहीं लेगी रहने को ठौर हो जाए बस
हल्ला मजूरी करके गुजारा कर लेगी
पिता के नाम पर कभी उँगली नहीं उठने देगी, बस जीने के लिए इज़ाज़त मिल जाय
तूने बुआ मामा काका काकी बहन भाई कोई रिश्ता नहीं छोड़ा था जिसे परखा न हो जाँचा न हो अपनी वेदना न बतायी हो
मगर सबके भयभीत दिमागों पर पड़ा था ताला
किसी ने मदद नहीं की तेरी
तेरी मदद तूने खुद की तू उस काली ससुराल में कभी नहीं लौटी
कैसा विशाल दबाव तेरे सतरह बरस के जीवन पर छाया हुआ था
कितने महीने से तू विषाद में जीते हुए बहुत हँसती
और बहुत गीत गाती थी पति के खिलाफ़
और कोई नहीं समझ पाया था तेरे जुनून को
और एक दिन तूने खाट पर अपनी कलाईयों को फोड़ फोड़ कर
चूड़ा फोड़कर बिखेर दिया और रो रो कर कहा था यह ले गैबी यह ले मेरी तरफ से देख यह तू मर गया और अब मैं किसी की सुहागिन नहीं हूँ अब मैं खुद हूँ जो मैं हूँ
फिर घरवालों के मनाने पर तू चुप हो गई थी

कैसे बुरे दिन बीत जाते हैं और ठीकठाक दिन आ जाते हैं
अब तू मेरे बराबर की हो गई है
छोटे बड़े का रिश्ता खत्म हो चुका है हमारे बीच
अब देख बरसों से मैं तुझे छोटी समझ कर पीटता भी नहीं हूँ
हाथ भी नहीं लगाता हूँ कभी भूलकर भी
तुझ इतनी बड़ी पर कैसे हाथ छोड़ूँ
और अगर तुझे उसी में समझ आता है भाई का प्यार
तो आ तेरी पीठ पर जमाऊँ धौल ओ मेरी मृत बहन
मैं तुझे जीवित समझकर लिखता हूँ तुझ पर कविता
मेरे बच्चे नहीं कह सके तुझसे बुआ
नहीं ला सकी तू इनके लिए गठरी में गुड़ की काँकरी

9. झाड़ू

घर में चलने वाले क्रिया-कलापों से
निकलता रहता है कुछ न कुछ निरर्थक
फैला-बिखरा रहता है यहाँ-वहाँ
खटकता रहता है आँखों में
लगता रहता है असुहावना

झाड़ू उसे सकेलने समेटने में मदद को आती है
झाड़ू की मदद से सँवरता है फिर से घर
दमकता है आँगन

अब घर आँगन में नंगे पैर चलना फिरना
अच्छा लगता है
उस अनोखे साफ-सुथरेपन में
किसी को बुलाने की हूक उठती है

घर आँगन तो था उतना ही है

10. झाड़ू २

मेरे बाबा के पास कुछ अद्भुत झाड़ुएँ थीं

एक थी आँख की झाड़ू
अनाज के चार दाने भी अगर
उन्हें बिखरे दिख जाएँ कहीं
वे उन्हें आँख की झाड़ू से सकेलते थे
और अनाज के कोठे में पहुँचाते थे

एक थी पत्थर के कोकरे की झाड़ू
जिससे वे बैलों के शरीर से लिपटा
गारा और रेत खुरचते थे
फिर उन्हें कपड़े की झाड़ू से
पौंछते फटकारते थे
बैलों की सगी माँ तो थी नहीं
इस संसार में बाबा ही
बैलों की दूसरी माँ थे

अब वे बैल हैं
न बाबा
न गेहूँ के चार दाने ही हैं कहीं
घर में बिखरे हुए

इसमें रहते थे जो लोग भी चले गए
कोई जयपुर कोई गुजरात

सूअर घूमते हैं
और कुत्ते बैठते हैं अब यहाँ
तावड़े में जाते राहगीरों को
दोपहर में अभी भी मिल जाती है यहाँ छाया

7 comments
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  1. यह मेरी कमजोरी है, मेरी खास तरह की बन चुकी बनावट है कि मैं बिना-सोचे विचारे, एक धुन में किसी पर रीझ जाता हूं, फिदा हो जाता हूं। आप लोगों ने, अपनों में नहीं रह पाने का गीत शीर्षक से प्रभात की जो कविताएं छापी हैं, वे अपनी बनावट और बुनावट में इतनी मार्मिक हैं कि क्या कहूं। इस कवि को खूब सारी शुभकामनाएं और आपको बधाई कि इस अंक में ये कविताएं छापी।

  2. AISI KAVITAYE LIKHANE WALA HAMARE BEECH HAI YAH BAT MUJE RAHAT DETI HAI. ABHI SAB KHATAM NAHI HUA HAI……PYAR, RISHTE, PARIVAR AUR LADNE KA MAN. PALLAV

  3. Jhadu…par kavita…bahut sundar….
    Bahan ke vedna…”तूने बुआ मामा काका काकी बहन भाई कोई रिश्ता नहीं छोड़ा था जिसे परखा न हो जाँचा न हो अपनी वेदना न बतायी हो”…sach ko shabdo mein chitrit kiya hai….
    Marm aur yatharth ka mail…dekhne ko mila !

  4. मैं कविताओं का गहरा अध्येता नहीं हूं, लेकिन प्रभात की कविताओं में जाने ऐसा क्या पाया कि बरबस मुंह से वाह निकल पड़ी. वास्तव में यह हमारा सौभाग्य है कि प्रभात जैसे कवि हमारे समय में हैं. आपने ऐसी खूबसूरत और अर्थपूर्ण कविताएं प्रकाशित कर अपनी गुणग्राहकता का विश्वसनीय परिचय दिया है.

  5. I loved these poems. The poems suggest a very good human-being being depicted without foolish eloquience of words. There are many young poets in Hindi who even can design symplicity but can not write that. These poems are different because there is no stock situations, there is no mimicry of idioms and phrases,but a real crisis of not surrendering before the caos of contemparirity of our daily life,instead of that these poems make feel our present time and space as well. Thanks for these beautiful poems.

  6. PRABHAT BHAI, KO PADHANA JIWAN KO DEKHANE JAISA HAI.AK GAJAB KI SAHAJATA HAI IN KAVITAO ME.BAHUT SUNDAR. BADHAI BAR BAR………

  7. मैं इन कविताओं को पढ़ते हुए रोया. बस यही.

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