सुर की बारादरी: यतींद्र मिश्र
मींड़ (एक सुर से दूसरे सुर तक बिना टूटे हुए जाना) के काम में बिस्मिल्ला खाँ की कला का कोई सानी नहीं है. उन्होंने अपनी राग अदायगी में जिस एक चीज़ पर सर्वाधिक मेहनत की है, वह उनका मींड़ का काम है. प्रसिद्ध संगीत विद्वान चेतन करनानी लिखते हैं, “बिस्मिल्ला खाँ की कला की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके ध्वनि विन्यास की शुद्धता उत्तेजना जगाती है. उनकी सांगीतिक प्रतिभा अप्रतिम है. वे राग का विस्तार करने, उसकी संरचना के ब्यौरों को उभारने में हमेशा बेहद सधे हुए और जागरूक रहे हैं. बिस्मिल्ला खाँ की मींड़, जो उनकी वादन कला का सबसे सशक्त पक्ष बन गयी है, देखने लायक है. वादन के समय मींड़ लेते वक्त वे सुरों में जो मोड़, घुमाव और दैवीय स्पर्श महसूस कराते हैं वह सुनने वाले को अपूर्व अनुभव देता है. लगता है कि बिस्मिल्ला खाँ मींड़ लेते वक्त शहनाई नहीं बजा रहे, बल्कि शरीर के किसी घाव पर मरहम कर रहे हैं. शहनाई में मींड़ भरने की यह दिव्यता, उनकी कला-यात्रा का सबसे प्रमुख बिन्दु बन गयी है.”
शहनाई में मींड़ के काम पर चेतन करनानी की यह बात बिस्मिल्ला खाँ के उस घनघोर रियाज़ की ओर इशारा करती है, जब उनके उस्ताद बचपन में कहा करते थे कि बरखुरदार सुर कंट्रोल करो. यदि एक सुर का कोई कण सही पकड़ में आ गया, तो समझो कि सारा संगीत तुम्हारी फूँक में उतर आयेगा. स्वयं बिस्मिल्ला खाँ यह बात स्वीकारते हैं कि रियाज़ इस तरह होना चाहिए कि हमने एक षडज (सा) लगाया और उसमें स्वतः ही ऋषभ (रे) बोल जाये. सा और रे का फर्क करने की तमीज़ उन्हें मींड़ को बरतने के व्याकरण के सन्दर्भ में ही बचपन से सिखायी गयी थी.
इधर बिस्मिल्ला खाँ शहनाई में रागदारी सीख रहे थे, उसमें कजरी, चैती और ठुमरी के बोल रच रहे थे. उधर अपने आप ही उनका रियाज़ और सुर को साधने की जागरूक कोशिश उनकी कला में मींड़, गमक, लयकारी, तान, पलटा और मुरकी का संसार भर रही थी. रागों पर कशीदाकारी करते हुए और सुरों को रियाज़ व संयम से अपना बनाते हुए कब बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई में मींड़ अपने शिखर पर पहुँच गयी, लोग जान ही न पाये.
आज उनके वादन में जो बनारसीपन का शहद घुला हुआ है, संगीत के व्याकरण का अनुशासन मिला हुआ है और पूरब की लोक-लय व देसी धुनें शहनाई के प्याले में आकर ठहर गयी हैं, वह इसी बात की ओर बार-बार इशारा करती हैं कि संगीत के मींड़ व तान की तरह ही उनके जीवन में कला और रस, उत्साह और उल्लास, कहकहे और ज़िन्दादिली, एक सुर से दूसरे सुर तक बिना टूटे हुए पहुँचे हैं.
ज़ियारत, अज़ादारी और इमामबाड़े
शहनाई के साथ जिस इतिहास का सर्वाधिक गहरा रिश्ता रहा है, वह अज़ादारी और इमामबाड़ों के निर्माण से सम्बन्धित है. अज़ादारी का आरम्भ मुहर्रम के साथ हुआ था और इसकी परम्परा भारत में अवध के सूबे में सर्वाधिक समृद्ध हुयी थी. इस्लाम सम्बन्धी इतिहास के प्रमुख जानकार अहमद कबीर के अनुसार १७२२ ई. में जब मीर मोहम्मद अमीन बुरहानुलमुल्क सूबेदार बने, तो अवध में अज़ादारी का एक नया दौर शुरु हुआ. समय-समय पर यहाँ आये ईरानी, अपने साथ गमे हुसैन के जो चिराग लाये थे, उन्हें स्वाभाविक माहौल मिला और देखते ही देखते यहाँ की अज़ादारी की चमक सारे हिन्दुस्तान में फैल गयी.
कबीर एक दिलचस्प तथ्य की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं कि बुरहानुलमुल्क ईरानी शिया थे. सूबेदार बनने के बाद उन्होंने घाघरा के किनारे अपने लिये जो बंगला बनवाया था, वहाँ मुहर्रम में अज़ादारी भी होती थी. जल्द ही यह अज़ादारी, बँगले के इर्द-गिर्द बस रही बस्ती में भी फैल गयी. यही बस्ती बाद में फ़ैजाबाद कहलाई.
शुज़ाउद्दौला के दौर (१७५४ से १७७५ ई.) में अवध में अज़ादारी का रंग अपने शबाब पर था. फ़ैजाबाद में जब गुलाबबाड़ी बनी, तो वहाँ एक इमामबाड़ा भी कायम किया गया. मुहर्रम में यहाँ मजलिसें होतीं और सातवीं तारीख को मेंहदी का शानदार जुलूस निकलता. शुज़ाउद्दौला की पत्नी बहूबेगम भी अज़ादारी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं. बाद में सन् १७७५ ई. में जब आसिफुद्दौला तख़्त पर बैठे, तो उन्होंने राजधानी को फ़ैजाबाद से लखनऊ स्थानान्तरित कर दिया. लखनऊ में पहले से हो रही अज़ादारी में आसिफुद्दौला के दौर में काफी विस्तार हुआ. उन्हीं के समय में (१७७५ से १७९७ ई.) लखनऊ में भव्य इमामबाड़े बने, शाही अज़ादारियाँ कायम हुईं और देखते-देखते मुहर्रम अवध की तहजीब नहीं, ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया. फ़ैजाबाद और लखनऊ के मुहर्रम पर आज भी हम नवाबी शासनकाल के निशान आसानी से देख सकते हैं.
यह सारे ऐतिहासिक तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अवध में मुहर्रम मनाने के आरम्भिक दिनों से तथा नवाबी शासनकाल में अज़ादारियों के कायम होने के साथ ही नौहा, मर्सिया और सोज़ख्वानी की परम्परा शुरू हो चुकी थी. फ़ैजाबाद की सातवीं तारीख़ की अज़ादारी, जो मेंहदी के जुलूस के रूप में आज भी मनायी जाती है, में बहुत बाद में सन् १९३९ से १९४५ ई. के बीच अख़्तरीबाई फ़ैजाबादी (प्रचलित नाम बेगम अख़्तर) का जुड़ाव भी काबिलेगौर है. मुहर्रम के दिनों में बेगम अख़्तर मेंहदी के जुलूस में आगे-आगे नौहा गाते हुए चलती थीं और फ़ैजाबाद में गम और मौसीकी का अद्भुत मिलन देखने को मिलता था. फ़ैजाबाद और लखनऊ से थोड़ी ही दूर पर स्थित बनारस में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ दालमण्डी से फातमान तक नौहा की मातमी धुन शहनाई पर निकालते हुए पैदल जुलूस के आगे चलते थे.
बिस्मिल्ला खाँ और बेगम अख़्तर – मौसीकी के दो महत्त्वपूर्ण चेहरे, इन दिनों अज़ादारी में काले कपड़े पहनते थे. इमामबाड़ों में मज़लिसें होती थीं और वे ऐतिहासिक इमारतें आज भी हमें मुहर्रम, नौहा, अज़ादारी और अवध की उन आँसू भरी सांस्कृतिक शामों की गवाही देती नज़र आती हैं.
बिस्मिल्ला खाँ और बेगम अख़्तर के सन्दर्भों से हटकर यहाँ यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि अवध को अज़ादारी और इमामबाड़ों की सौगात देने वाले इतिहास में संगीतप्रेमी नवाब वाज़िदअली शाह भी मौजूद रहे हैं, जिन्होंने मुहर्रम में अपने ढंग से शायरी और संगीत का रंग भरा है. वे इन दिनों शाही लिबास की बजाय हरे कपड़े पहनते थे और शबे आशूरा, यानी मुहर्रम की नवीं तारीख की रात में आम लोगों के घर जाकर ताजियों की जियारत किया करते थे.
सहृदय उस्ताद
एक अप्रतिम शहनाईनवाज़ से अलग भी एक बिस्मिल्ला खाँ हैं, जो सिर्फ कलाकार नहीं हैं. वे एक साधारण इन्सान हैं, जिनके भीतर आपको अनायास ही सहज मानवीयता के दर्शन होते हैं. ये खाँ साहब कोई दूसरे हैं. उनसे मिलना मोमिन के उस शेर से मिलना है, जहाँ वे यह दर्ज करते हैं,तुम मेरे पास होते हो गोया/जब कोई दूसरा नहीं होता. यह कोई दूसरा न होने जैसा व्यक्ति एक सहृदय उस्ताद हैं, जो प्रेम में पगे हुये हैं. उन्हें काशी से बेपनाह मुहब्बत है. वे शहनाई को अपनी प्रस्तुति का एक वाद्य यन्त्र नहीं मानते बल्कि उसे सखी और महबूबा कहते हैं. अपनी पत्नी के गुजर जाने के बाद से उनकी यह महबूबा ही उनके सिरहाने बिस्तर पर साथ सोती है और अपने प्रेमी को दो एक क्षण खुद की खुशी बटोरने का बहाना देती है. वे आज भी बचपन में कचौड़ी खिलाने वाली कुलसुम को पूरी व्यग्रता से याद करते हैं. अपने बड़े भाई शम्सुद्दीन का जब भी जिक्र करते हैं, भीतर का जज़्बात दोनों आँखों की कोरों में पानी बनकर ठहर जाता है. हड़हा सराय से अलग वे कहीं नहीं जाना चाहते, फिर वह लाहौर हो या लन्दन, कोई फर्क नहीं पड़ता.
अपने भरे पूरे कुनबे के साथ रहना और पाँचों वक्त की नमाज़ में संगीत की शुद्धता को मिला देना उन्हें बखूबी आता है. गंगा के पानी के लिये उनकी श्रद्धा देखते बनती है. देश में जब भी कोई फसाद होता है, तो हर एक से उस्ताद कहने लगते हैं कि “भईया गंगा के पानी को छू लो और सुरीले बन जाओ, फिर लड़ नहीं पाओगे. सुर ही सुर होगा भीतर और बड़ी उदारता से भरी होंगी सिर से पाँव तक गंगा.” वे प्रेम को इतने नज़दीक से महसूस करते हैं कि प्रेम का वितान रचने वाले रागों के पीछे पगलाये से घूमते हैं. यह अकारण नहीं है कि बिस्मिल्ला खाँ को शुरुआती दिनों में राग नायकी कान्हड़ा से प्रेम हो गया था. सरल इतने कि पहाड़ी में कोई धुन सुनाने के लिये कहिये, तो हँसकर जवाब देंगे “पहाड़ी सुनियेगा तो जंगलों में जाना पड़ेगा.” लता मंगेशकर के प्रति इतनी मिठास से भरे हुए कि जब-तब कहते मिलेंगे “मियाँ मैने क्या किया है, लता की आवाज़ में तो कुदरत बोलती है.”
कजरी उनकी साँसों में बसी है, तो चैती के बोल गुनगुनाना उनका शगल है. ठुमरी के लिये वे किसी भी नये से नये कलाकार से मिन्नतें करने लगेंगे कि उसे जैसी भी ठुमरी आती है, उस्ताद को सुना भर दे. अपने कमरे में जब बैठते हैं, तब ऊपर आसमान की ओर ताकना उनकी फितरत में शामिल है. लगता है उनकी शहनाई के सात सुरों ने ही ऊपर सात आसमान रचा है. खुदा और सुर, संगीत और अजान जैसे उनके शरीर का पानी और रूह है.
उनका पूरा शरीर और व्यक्तित्व ही जैसे लय का बागीचा है, जिसे उन्होंने ढेरों घरानों से अच्छे-अच्छे फूल तोड़कर सजाया हुआ है. इस बगीचे में आप शुरू से अन्त तक घूम आइये, तो दुनिया भर की सुन्दर चीज़ों के साथ एक अनन्यता महसूस करेंगें और पायेंगे कि इस कभी न थकने वाले कलाकार ने अपने व्यक्तित्व को सन्धि-प्रकाश रागों जैसी ऊँचाई दी है.
कुल मिलाकर किस्सा कोताह यह कि बिस्मिल्ला खाँ सिर्फ एक कलाकार नहीं हैं, वह मानवीय गरिमा की सबसे सरलतम अभिव्यक्ति हैं. उनके साथ होने में हमें अपने को थोड़ा बड़ा करने में मदद मिलती है. उनसे बात करने पर इस बात का एहसास होता है कि शहद जिन जगहों से टपकता है, उनमें से एक जगह आदमी की जुबान भी हो सकती है.
(पेंग्विन-यात्रा बुक्स द्वारा साल के अंत तक प्रकाश्य पुस्तक सुर की बारादरी के अध्याय शहनाई का छंद से। यह अंश उपलब्ध कराने के लिये हम नीता गुप्ता (यात्रा बुक्स) और नावेद (पेंग्विन) के शुक्रगुज़ार हैं)
बहुत सुंदर। उस्ताद बिस्मिल्ला खां पर लिखने के लिए भी शायद उतना ही प्रेम चाहिए और उतना ही रागमय भी। यतींद्रजी ने यह कर दिखाया है। यह गद्य का टुकड़ा भाषा मे सुरीला बन पड़ा है। सचमुच इस किताब का इंतजार है…
Sangit aur Sangitkar per ek thik Baat ke liye bahut-bahut dhnyvaad yatindra ji ko.
Sach mein Yatindra Ji ke kalam ne Khan Saahab ke suro ko bilkul sahi sur me sadhaa hai aur lagta hai pustak ko padhkar hamein khan sahab ki shahnai ki taan ka aanand mil payega.
yatindra ka har kam mujhe achha lagta hai
om nishchal
09955774115