आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये: यतींद्र मिश्र

1

गुलज़ार का कवि व्यक्तित्व उनके फ़िल्म सम्बन्धी किरदार का भले ही मुखापेक्षी न रहा हो, मगर इतना जरूर है कि फ़िल्म मीडियम में बरसों से काम करते हुए उसकी ढ़ेरों रंगतों का अनायास ही प्रभाव उन कुछ कविताओं में आसानी से आ गया है, जिसमें हम किसी दृश्य या इमोशन की अभिव्यक्ति को किसी नये बिम्ब के माध्यम से पाते हैं. यह तरीका और इस तरह की नज़्में ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी हैं, जिनसे हिन्दी को एक बिल्कुल नये किस्म का काव्य संस्कार मिलता है. एक यथार्थवादी किस्म का स्पर्श, जो कविता को फ़िल्मी गीतों से काफी ऊपर ले जाता है और उनके लिखे हुए फ़िल्म गीतों को बड़े सुन्दर ढंग से कविता के पड़ोस में ले आता है.

2

यार ज़ुलाहे के सन्दर्भ में एक काबिलेगौर तथ्य यह है कि गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए उसका सहयात्री या पूरक मानकर कर रहे हैं. दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है. उनके जीवन में यह तथ्य खासा महत्त्व रखता है कि उनका बचपन दीना में बीता है. दीना वह इलाका है, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में जा चुका है. इसी के साथ हमें उनके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण निशानदेही के रूप में यह तथ्य भी जानना होगा कि गुलज़ार और उनके परिवार ने विभाजन की पीड़ा को बहुत अन्तरंगता से भोगा है. दीना और पाकिस्तान, उस समय के संस्मरण और आत्मीय ब्यौरे, विभाजन का दंश और अपनों से बिछुड़ने की खरोंचें, साथ ही दिल्ली आकर बाकी बीता हुआ बचपन और रिफ्यूजी कैंपों की रातें, इन सबसे मिल-जुलकर जो इतिहास पीड़ा, संत्रास और कहानियाँ बनी हैं, वही बाद में बड़े शिद्दत से गुलज़ार की रौशनाई में आकर घुली होंगी.

विभाजन का मेटाफर, गुलज़ार की नज़्मों में एक अजीब किस्म की तड़प, दर्द और बेगानापन भरती है. आप उनकी अधिकांश बचपन के संस्मरणों की कविताएँ पढ़ें, तो अनायास ही वह खुशनुमा दीना उभर आता है, जो इस शायर की रूह में घुला हुआ है. ढेरों कविताओं की लम्बी फेहरिस्त है, जिससे हमें उस गुलज़ार का पता मिलता है, जो स्वयं वे आज़ादी के समय पाकिस्तान में छोड़ आये थे. हम सब भाग रहे थे की कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखने लायक हैं

जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन
लेकिन मैंने सरहद के सन्नाटों के सहराओं में अकसर देखा है
एक ‘भमीरी’ अब भी नाचा करती है
और इक ‘लाटू’ अब भी घूमा करता है…

इसी तरह दीना में, बस्ता फेंक के लोची भागा, खेत के सब्जे में बेसुध, चाँद लाहौर की गलियों से गुज़र के, पनाह, दंगे, अगर ऐसा भी हो सकता जैसी कविताएँ उनके जीवन में विभाजन के दर्द का पता देती हैं. थोड़ी देर के लिये यदि हम इस पक्ष पर उनके गीतकार व्यक्तित्व के पास जायें, जो फ़िल्मों के लिये गीत लिखता है, तब वहाँ भी पीड़ा की खरोचें आसानी से देखी जा सकती हैं. आप माचिस के उस गीत को याद करें:

छोड़ आए हम वो गलिया, छोड़ आए हम वो गलियाँ…
जहाँ तेरे पैरो के कवँल गिरा करते थे
हसँ तो दो गालों में भवँर पड़ा करते थे
तेरी कमर के बल पे नदी मुड़ा करती थी
हसँ तेरी सुन-सुनके फसल पका करती थी…
छोड़ आए हम वो गलियाँ…

गुलज़ार की स्मृति दंश की यह कविताएँ दरअसल उनकी भाषा में भरोसा करने की वजह से ही लिखी गयी हैं. वे चाहते तो आसानी से ढेरों कविताओं को किसी फ़िल्म की पटकथा की शक्ल देकर चित्रित कर सकते थे. मगर ऐसा नहीं हुआ, उन्होंने अपने बचपन की उस पीड़ा और बटवारे से मिली उस खौफनाक विरासत को न सिर्फ जिया है, बल्कि बाकी की ज़िंदगी में पड़ने वाली उसकी शिकन और हरारत को अपनी शायरी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाया है. इस बात से गुलज़ार का कहानीकार भी गहराई से भीगा हुआ है. शायद इसीलिए वे कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण कहानियाँ मसलन खौफ, फसल, रावी पार, बँटवारा और दीना लिख पाये हैं. उनकी गज़लें भी इस बात से अछूती नहीं हैं. वहाँ भी बचपन की यादें, विभाजन के दर्द का एहसास बखूबी बयाँ कर देती हैं. कुछ गजलों की पंक्तियाँ इसी सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य हैं:

जिक्र जहलम का है, बात है दीने की
चाँद पुखराज का, रात पश्मीने की

*

राख को भी कुरेद कर देखो
अब भी जलता हो कोई पल शायद

*

एक सन्नाटा दबे पाँव गया हो जैसै
दिल से इक ख़ौफ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का

*

सेहरा के उस तरफ से गये सारे कारवाँ
सुन सुन के हम तो सिर्फ सदाए जरस जिए

स्मृतियों की बात चली है, साथ ही हम गुलज़ार के बचपन और उनकी किशोरवय की यादों को साझा कर रहे हैं, तब उसी वक्त एक और ख़ास बात की ओर उनकी कविताई का रंग खिलता हुआ नज़र आता है. वह यह है कि वे अपने आरम्भिक जीवन की नितान्त सहज और आत्मीय चीज़ों को शायरी के परिवार का सदस्य बनाते हैं. यह सारे घरेलू प्रत्यय, बिम्ब का रूप लेकर कविता का एक अद्भुत लैण्डस्केप रचते हैं. रोटी, तवा, उपले, चूल्हा, धुँआ, गलियाँ, बरगद का पेड़, चाँद, सिक्के, एक हरी पत्ती, बताशे, रेशम के तागे, शहतूत, अख़बार, पंछी, जामुन, बादल, घर का दरवाजा, और पानी की बूँद – यह सब मिलकर गुलज़ार की कविता और शायरी का आनन्दलोक गढ़ती हैं. अपनी गहरी संवेदनशीलता और आश्चर्यचकित करने वाली मौलिकता के साथ गुलज़ार इन शब्दों से अपने नज़्मों की ऐसी सुन्दर दुनिया रचते हैं, जिसको उनके निहायत निजी सन्दर्भों व स्पर्शों के अन्तर्गत पढ़ने की जरूरत है. इन बिम्बों के द्वारा वे बेहद मामूली-सी लगती बात में भी जीवन का एक बड़ा फलसफा दर्ज़ करते हैं. इस अर्थ में वे हिन्दी और उर्दू की मिलनभूमि पर खड़े हुए अकेले ऐसे लोकधर्मी शायर हैं, जिसकी संवेदनशील जड़ें हमें समकालीन हिन्दी कविता में नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विपिन कुमार अग्रवाल और केदारनाथ सिंह की कुछ कविताओं में जाकर मिलती नज़र आती हैं. समकालीन हिन्दी कविता की पहचान बन चुकी इन कवियों की रचनाओं के बरक्स गुलज़ार की कुछ कविताओं की बानगी यहाँ देखने लायक है:

वक्त की हथेली पर बहता
आदमी बुलबुला है पानी का

*

खैरू ने खेते की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में लेकेकर
भीगी-भीगी आँखें से फिर ऊपर देखा
झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा.

*

छोटे थे माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँथा करते थे

*

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

*

सुबह-सुबह इक ख़्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आये हैं
सरहद पर कल रात सुना है, चली थी गोली
सरहद पर कल रात, सुना है
कुछ ख़्वाबों का खून हुआ था

एक अनूठे ढंग की रूमानियत और बेगानेपन के मिश्रण के बावजूद गुलज़ार की कविताएँ साधारण आदमी से संवाद में अपनी पहचान ढूँढ़ती हैं. यही बात उनकी शायरी में ऐसा रंग भरती है, जो हिन्दुस्तानी ज़ुबान में नज़्म लिखने वाले अन्य समकालीनों से उन्हें बिल्कुल अलग करती हैं. एक हद तक हम यह बात आसानी से कह सकते हैं कि निहायत साधारण जीवन जीने वाले समाज की चौखट पर जाकर गुलज़ार की कविता अपना शिखर पाती है. यह अपनत्व और उत्कर्ष, गुलज़ार की पूरी ज़िदगी और उनके अनेक अन्य कार्यों में आसानी से लक्षित की जा सकती है. जैसे अपने संघर्ष के दिनों में एक मोटर गैराज में काम करने से लेकर हिन्दी सिनेमा के दिग्गज निर्देशक विमल रॉय के सहायक की भूमिका में उतरना या ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य जैसे सिद्धान्तवादी फ़िल्मकारों के लिये कुछ बेहद सामाजिक फ़िल्मोंकी पटकथा व संवाद लिखने का कार्य, जो आज भी हमें एक सार्थक सन्देश देती हैं. मसलन गुड्डी, आनन्द, अभिमान, नमक हराम, गृह-प्रवेश और आशीर्वाद जैसी फ़िल्में. और सबसे बढ़कर यह बात कि एक महत्त्वपूर्ण सिनेमाई कद हासिल कर लेने के बावजूद, उनके द्वारा हर क्षण अपने को एक शायर और कहानीकार के रूप में संघर्ष करते रहने की जद्दोजहद. यह सारे तथ्य मिलकर गुलज़ार की कविता का ऐसा करिश्माई स्थापत्य रचते हैं, जिसका कोई दूसरा विकल्प जल्दी ढूँढ़े नहीं मिलता.

गुलज़ार के यहाँ एक तरफ तो ऐसे घरेलू तथा रोजमर्रा की ज़िंदगी से निकलने वाले बिम्ब मिलते हैं, जो उनकी कविता को एक प्रकार की नॉस्टेलजिया पोएट्री में तब्दील करते हैं, तो कुछ दूसरे विशुद्ध मौलिक किस्म के ऐसे अनूठे बिम्ब भी मिलते हैं, जो उनकी शायरी को कभी रूमानी, कभी जादुई, कभी सूफियाना किस्म का स्पर्श देते हैं. वहाँ फिर इस बात की शिनाख़्त या फाँक कर पाना मुश्किल हो जाता है कि निहायत सामान्य आदमी के जीवन से बावस्ता नज़्में एकाएक किस तरह सूफियाना मूड पकड़ लेती हैं. उस क्षण उनकी कविता कभी ग़ालिब की गलियों से गुज़रती हुई दिखायी पड़ती है, तो कभी बनारस में गंगा के घाट पर कबीरी ठाठ ओढ़े हुए नज़र आती है. कभी ये नज़्में सूफी कवियों की बिरादरी में बैठे हुए उदासी का रंग ढूँढती हैं, तो अक्सर उनमें जीवन की खुशी और उसके मिलन-विरह की निजी अभिव्यक्तियाँ आकार ग्रहण करती हैं. लब्बोलुआब यह कि गुलज़ार की कविता की कई परतें हैं और उन परतों के बीच में जीवन और उसकी विसंगतियों की अनगिनत रंगते हैं. जैसे-जैसे हम इन नज़्मों की परतों को एक-एक कर अलग करते चलते हैं, वैसे-वैसे इस शायर का अपना फलसफा पूरी रूमानियत और जज़्बात के साथ खिलता जाता है. कुछ पंक्तियाँ, उनके इसी सूफियाना अन्दाज़ को पकड़ने के लिए यहाँ प्रस्तुत हैः

ज़िदगी किस कदर आसां होती
रिश्ते गर होते लिबास –
और बदल लेते क़मीज़ों की तरह

*

काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तनहाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा

*

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये
कितनी मुद्दत हुई किसी कन्दील पे जलती रौशनी रखे

*

अपने ही साँसों का कैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जायेगा

*

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है…
अभी तो किरदार ही बुझे हैं
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है

*

उस मोड़ पे बैठा हूँ, जिस मोड़ से जाती हैं, हर-एक तरफ़ राहें
इक रोज़ तो यूँ होगा, इस मोड़ पे आकर तुम
रूक जाओगी, कह दोगी
वह कौन सा रस्ता है
जिस राह पे जाना है.

*

गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोंपलों की उदास आँखों में
आसँओं की नमी बची होगी

अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार के यहाँ, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में जहाँ एक ओर हमें कवि के अन्तर्मन की महीन बुनावट की जानकारी मिलती है, वहीं दूसरी ओर सूफियाना रंगत लिये हुए लगभग निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है. एक प्रकार का बीतरागी भाव या जीवन के गहनतम स्तर तक पहुँचा हुआ ऐसा अवसादी मन, जो प्रचलित अर्थों में अपना आशय विराग द्वारा व्यक्त करता है. उदासी की यही भावना और उसमें सूक्ष्मतम स्तर तक उतरा हुआ अवसाद भरा जीवन का निर्मम सत्य, इन नज़मों की सबसे बड़ी ताकत बनकर हमारे सामने आता है. इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी एवं हमारे समय में अधिकांश चीज़ों के सम्वेदनहीन होते जाने के पड़ताल की कविता है. जाहिर है, इस तरह की कविता में दुख और उदासी उसी तरह से अपना आश्रय पाते हैं, जिस तरह निर्गुण पदों और सूफ़ियाना कलामों में प्रेम व आत्मीय क्षण, पीड़ा का रूप धरकर अपनी परिभाषा गढ़ते हैं. यह अकारण नहीं है कि गुलज़ार के लिखे अधिसंख्य फ़िल्मगीत भी इसी कारण अपना संवेदनात्मक उत्कर्ष गहरी मार्मिकता में पाते हैं. एक दो गीतों के उदाहरण से यह मार्मिकता समझी जा सकती है.

एक अकेला इस शहर में…..
जीने की वजह तो कोई नहीं
मरने का बहाना ढूँढ़ता है
(फ़िल्म : घरौंदा)

*

दो नैनों में आसू भरे हैं
निंदिया कैसे समाए…
झूठे तेरे वादों पे बरस बिताए
जिन्दगी तो काटी, यह रात कट जाए
(फ़िल्म: खुशबू)

*

कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूँढ़े जवाब दर्दों के
लोग तो बस सवाल करते हैं
आज बिछुड़े हैं…
(फ़िल्म: थोड़ी-सी बेवफ़ाई)

3

एक और ख़ास चीज़ है, जो इस शायर के यहाँ लगभग उनकी कविता के पहचान का पर्याय बन गयी है. एक हद तक काव्य-रूढ़ि की तरह, जिसे साहित्यशास्त्र में हम मोटिफ के तौर पर जानते हैं. वह है चाँद की उपस्थिति. ‘चाँद’, गुलज़ार की कविता में अकेला ऐसा बिम्ब या प्रतीक है, जो लगभग बार-बार हमसे मुख़ातिब होता है. वह अकेले में ही कभी पूरा का पूरा दृश्य बनता है या किसी नज़्म में अपने प्रवेश के साथ सारी दृश्यावली को एक विशिष्ट किस्म का ‘गुलज़ारटाईप’ बना देता है. एक तरह से ‘चाँद’ उनका सर्वप्रिय प्रत्यय है, जिस पर वे अपने से भी ज्यादा भरोसा करते हैं. इस बिम्ब को लेकर उनका आग्रह इतना गाढ़ा और मुखर है कि एकाएक यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि बाकी के अन्य सारे प्राकृतिक बिम्ब उनके शायर के लिए कुछ कम महत्त्व के हैं. हालाँकि यह गुलज़ार ही हैं, जिनके यहाँ सर्वाधिक प्राकृतिक प्रतीकों की भरमार रही है. फिर वह सूरज, तारे, पहाड़, बारिश, पतझड़, दिन-रात, शाम, नदी, बर्फ, समुद्र, धुंध, हवा कुछ भी हो सकती है. मगर चाँद शायद अकेला ही, ऐसा वज़नी व अर्थवान प्रतीक है जो उनके साहित्य के रसायन को और गाढ़ा बनाता है. आप उनकी ग़ज़लें लें या कोई कविता, किसी गीत को टटोलें या त्रिवेणियों की छोटी-छोटी सार्थक उपस्थितियाँ सभी जगह चन्द्रमा पर आस्था गहरायी ही है. उदाहरण के लिए उनके लम्बे रचना-कर्म से कुछ निहायत सुन्दर और दुर्लभ चाँद के बिम्ब चुनकर, यहाँ आपको याद दिलाता हूँ – आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ, चूम लेता यह चाँद का माथा, चाँद से गिर के मर गया है वो, दामन-ए-शब पे लटकता है अभी चाँद का पैबन्द, ज़र्द सा चेहरा लिये चाँद उफ़क़ पर पहुँचे, चाँद बस पक के गिरने वाला था, रोज़ उठकर चाँद टाँगा है फ़लक पे रात को, चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था, चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है, चाँद निकले तो गिरफ़्तार ही कर लो, चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो ख़ून आ जायेगा, बहुत से लोग थे कल रात चाँद कश्ती में, माँ ने जिस चाँद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे, रात जो गुज़री, चाँद की कौड़ी डाल गई उसमें, चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें तथा रोज़ इक चाँद बेलती है रात आदि. गुलज़ार का बुखार की हद तक पहुँचा हुआ यह ‘चाँद-प्रेम’ उनके फ़िल्मी गीतों में भी कुछ बहुत नये ढंग के दृश्य ले आया है, जैसे –

कुछ चाँद के रथ तो गुज़रे थे
पर चाँद से कोई उतरा नहीं…

*

बदरी हटा के चन्दा
चुपके से झाँके चन्दा…

*

रोज़ अकेली आए, रोज़ अकेली जाए
चाँद कटोरा लिए भिखारन रात…

*

इक बूँद है चन्दा की
उतरी न समन्दर में…

*

चाँद की बिन्दी वाली
बिन्दी वाली रतिया…

*

तुम जो कह दो तो आज की रात
चाँद डूबेगा नहीं, रात को रोक लो…

*

एक सौ सोला चाँद की रातें
एक तुम्हारे काँधे का तिल…

*

ओ मोरे चन्द्रमा
तेरी चादँनी अंगं जलाये…

*

नीली नदी के परे
गीला सा चाँद खिल गया…

बिम्ब और प्रतीकों, खासकर प्राकृतिक रूपकों से सादृश्य रचने में महारत पाये हुए गुलज़ार के यहाँ एक अज़ीब बात यह भी देखने में मिलती है कि चाँद या उस जैसे अन्य कोमल प्रतीकों के इस्तेमाल के बावजूद शायरी का जज़्बा बहुत रूमानी या भावुक नहीं बनता, बल्कि उसमें एक दुर्लभ किस्म का ठंढापन मिलता है, जो नये सिरे से इस बात को रेखांकित करता है कि गुलज़ार की शायरी पीड़ा की अभिव्यक्ति में या कि दर्द के अपनेपन को पूरी गरिमा से स्वीकारने में प्रतिष्ठा पाती है. एक तरीके से रूढ़िगत अर्थों में गुलज़ार ऐसे क्षण उर्दू शायरी की उसी परम्परा का अनुगमन करते नज़ार आते हैं, जहाँ हज़ार सालों से अनगिनत नज़्में अपने दर्द व तड़प को तफसील से बयाँ करने में लिखी गयी हैं. ज़ाहिर है, उदासी का यह आलम, कविता में ऐश्वर्य और चकाचौंध रचने की जगह संवेदना व करुणा से धार पैदा करता है. कुछ-कुछ फ़ैज की इन पंक्तियों की तरह, जिनमें वे कहते हैं –

बड़ा है दर्द का रिश्तः ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़बत सवार चले

गुलज़ार के रचना-कर्म में, विशेषकर उनकी कविता और गज़लों के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रतीति यह भी है कि उनके यहाँ ‘प्रेम’ बहुत गरिमा के साथ प्रतिष्ठित हुआ है. उनके स्वभाव में जो एक अज़ीब सा बेगानापन है, संकोच का ठहरा हुआ सा पर्दा है, वह भी प्रेम को सामान्य अर्थों में विश्लेषित नहीं करता. यह जानना दिलचस्प है कि सूफी कविता व सूफी संगीत में भी प्रेम की उपस्थिति लगभग एक अनिर्वचनीय सत्य के रूप में उजागर होती रही है. फिर बात जब गुलज़ार की हो रही हो, जो स्वयं अपनी अभिव्यक्ति की सहज छायाएँ बुल्लेशाह, बाबा फ़रीद, कुतुब कुलीशाह, शम्स तबरेज़ी एवं नानक में ढूँढते हों, तब यह बात आसानी से स्थापित हो जाती है कि प्रेम में इतनी उदात्त भावना की प्रतिष्ठा किस तरह उनके शायर को उपलब्ध हो सकी है. आज के इस बाज़ारवाद के निर्मम समय में भी वे अपनी उर्दू ज़ुबान, सूफी कविता से प्रेम एवं जीवन के प्रति सहज ढंग से व्यक्त हुयी भावनाओं के प्रति उत्सुक बने रहने के जतन के चलते, खुद की लिखी नज़मों में प्रेम व उसकी संप्रेषणीयता का इतना बड़ा वितान रचते हैं, जो अन्यत्र मुश्किल से मिलता है. कुछ कविताओं के उदाहरण से प्रेम की यह सुन्दर अभिव्यक्ति समझी जा सकती है.

तेरे गुलनार-से दहके हुए रुख़सारों पर
शाम का पिघला हुआ सुर्ख-ओ-सुनहरी रोग़न

*

ज़िस्म जब ख़त्म हो और रुह को जब साँस आए
मुझसे इक नज़्म का वादा है, मिलेगी मुझको

*

तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
ज़ुबाँ पर रख ली है देखो मैंने
वह क़तरा-क़तरा पिघल रही है
मैं क़तरा-क़तरा ही जी रहा हूँ

*

एक शफ्फ़ाक काँच का दरिया
जब खनक जाता है किनारों से
देरे तक गूँजता है कानों में…
तेरी आवाज़ पहन रखी है कानों में मैंने…

प्रेम में उस अनसुनी आवाज़ को, जो बोलना नहीं जानती गुलज़ार बखूबी सुन पाये हैं. और यह उनके किरदार की सबसे बड़ी कैफ़ियत है कि वे प्रेम में इन अलक्षित अन्तरालों को बड़ी शिद्दत से पहचानते हैं. वरिष्ठ लेखिका अमृता प्रीतम ने उनके इसी पक्ष को बहुत सुन्दर ढंग से पकड़ा और कहा है, “गुलज़ार एक बहुत प्यारे शायर हैं, जो अक्षरों के अन्तराल में बसी हुई ख़ामोशी की अज़मत को जानते हैं… उन्होंने इसे इतना पहचाना है कि उसकी बात अक्षरों में ढालते हुए उन्होंने, उस ख़ामोशी की अज़मत रख ली है, जो एहसास में उतरना जानती है पर होठों पर आना नहीं जानती. एक ऐसी ख़ामोशी, जो अक्षरों को पाकर भी बोलना नहीं जानती.” इसी ख़ामोशी को साधने के जतन में उम्र भर लगे रहे गुलज़ार शायद इन्हीं वजहों से प्रेम की स्थापना में उन अन्धेरे दायरों की ओर भी चले गये हैं, जहाँ सिर्फ एहसास की रोशनी से उज़ाला किया जाता है. वे प्रेम को अपनी कविता में इतनी पूर्णता बख़्शते हैं कि उनके लिए फिर यह बात आसान हो जाती है किस तरह कायनात और सय्यारों में भटकते हुए किसी रूह में उतरा जाये, या कि बाहों के दो उलझे हुए मिसरे खोलकर वे अचानक सुबह कर दें और जुलाहे से पूरी बेबाकी से यह प्रश्न कर बैठें कि जब मैंने जीवन में एक ही रिश्ता इतनी सादगी और भरोसे से बुना था, तो फिर क्यों उसकी सारी गिरहें आज मुझे साफ नज़र आती हैं.

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार ज़ुलाहे…
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार ज़ुलाहे

पुराने समयों से शायरी के लिये सर्वाधिक भरोसेमन्द विषय प्रेम की अभिव्यक्ति रही है. गुलज़ार की ग़ज़ल भी इस सार्वजनीन भावना के प्रति उसी ऊँचाई पर पहुँचती है, जहाँ आसानी से हम मीर या फ़िराक की किसी ग़ज़ल को पहुँचा हुआ देख सकते हैं. यह सिद्धहस्तता गुलज़ार की गज़लों का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव इसलिये भी है क्योंकि उन्होंने इतने दशकों में फैले अपने समृद्ध रचनात्मक जीवन में ढेरों ऐसे सृजन के क्षण जुटाये हैं, जहाँ प्रेम कई-कई कोणों से परखा व सँवारा गया है. फ़िल्मोंकी पटकथा व संवाद की बात हो या किसी गैर-फ़िल्मी अलबम के लिए गीत लिखने की पेशकश या स्वयं शुद्ध मनोरंजन परोसने वाली फ़िल्मों में रूमानियत के दृश्य पैदा करने वाले प्रेमगीत – सभी कुछ को लिखते हुए, साथ ही अपनी बेहद सुन्दर छोटी-छोटी कहानियों के सूत्र तलाशते हुए गुलज़ार प्रेम की सफल अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं में दे पाये हैं. यह तथ्य भी यहाँ इस बात के प्रमाण के लिए याद करने लायक है, कि उन्होंने अपना फ़िल्मी कॅरियर जिस पहले गीत को लिखकर शुरू किया था; वह विशुद्ध प्रेम में डूबा हुआ गीत था. बन्दिनी का वह प्रसिद्ध गाना, नायिका कल्याणी के झिझक और उसकी आन्तरिक मनोदशा का सबसे मनोहारी चित्रण था कि कैसे वह अपने प्रेम में भीगी हुई एकाएक किसी चाँदनी रात को घर के आँगन से बाहर पाँव रख देती है. प्रेम को रूपायित करने का वह सिलसिला, जो सन्‌ १९६३ में बन्दिनी के इस अमर गीत के साथ गुलज़ार की कलम से आरम्भ हुआ था, वह बरसों बीत जाने के बाद भी आज उतनी ही नज़ाकत और बेचैनी के साथ उनकी रचनात्मक यात्रा में मौजूद है. उनके गीतों और कविताओं से अलग, कुछ ग़ज़लों से एक-दो अशआर के नमूने इसी बात की पहचान के लिए यहाँ प्रस्तुत हैं –

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते

*

रूके रूके से कदम रूक के बार बार चले
क़रार दे के तेरे दर से बेक़रार चले

*

सिरे उधड गये हैं सुबह व शाम के
वो मेरे दो ज़हान साथ ले गया

गुलज़ार की कविता में प्रेम, विरह, उदासी, रिश्तों की गर्माहट, बचपन की यादें, खोयी हुई चीज़ों की तलाश और सब कुछ गँवा कर सामान्य बने रहने की फितरत इतनी सहजता, संवेदनशीलता और निस्संगता के साथ दर्ज़ हुई है कि जानकर हैरत होती है कि किस तरह कोई शायर इतनी सामान्य सी लगती जमापूँजी पर अपने सृजन का इतना बड़ा मायालोक रच सकता है. ठीक उस जादूगर या नजूमी की तरह, जो अपनी छोटी सी जादू की गठरी से निकालकर दुनिया भर के रंग और तमाशे बच्चों को दिखाता है और बात-बात पर हैरान करता है.

प्रेम से बिल्कुल अलग मृत्यु भी अपने में ऐसा विशिष्ट और विचार पगा शब्द है, जो गुलज़ार के यहाँ पूरी शिद्दत से अपनी उपस्थिति को व्यंजित करता है. वे अपने जीवन-संघर्ष में इतना तपे हुए हैं कि मृत्यु जैसे पड़ाव को भी बहुत उदारता से कविता में बरतते हैं. कभी-कभी लगता है कि अधिकांश कविताएँ जैसे मृत्यु के स्वीकार या उसके गौरवशाली अंकन में ही अपनी सार्थकता पाती हैं. उनके जीवन से निकले हुए तमाम संघर्ष के क्षण इस बात को व्यक्त करने में जरा भी नहीं चूकते कि किस तरह मृत्यु को हराकर, ढुलमुल और संकोची विचारों को त्यागकर, एक मनुष्य अपने लिए तटस्थ किस्म की दृढ़ता अर्जित करता है. यह अकारण नहीं है कि गुलज़ार के रचनाकर्म में जहाँ कहीं भी मृत्यु की उपस्थिति है, वह भयावह या त्रासद न होकर नितान्त सहज और बेपरवाह है. मृत्यु का इतना सकारात्मक चित्रण गुलज़ार के अलावा शायद ही उनके किसी अन्य समकालीन में नज़र आता हो. मृत्यु के रूपक को गौरव दिलाने वाली कुछ पंक्तियाँ यहाँ इसी बात की नुमाइन्दगी के लिए पढ़ी जा सकती हैं. साथ ही इस सम्भावना पर विचार करने की दृष्टि से भी कि ढेरों रूमानी बिम्बों के पैरोकार, कैसे मृत्यु जैसे शान्त पद में भी संवेदना की हरारत भर पाये हैं.

उतारो रूह से यह ज़िस्म का हसीं गहना
उठो दुआ से तो आमीन कहके रूह दे दो

*

ख़याल रखना कहीं कोई ज़िदगी की सिलवट
न मौत के पाक साफ चेहरे के साथ जाये

*

गिरा दो पर्दा कि दास्ताँ ख़ाली हो गई है
गिरा दो पर्दा कि ख़ूबसूरत उदास चेहरे ख़ला में तहलील हो गए हैं

*

क्या पता कब, कहाँ से मारेगी
बस, कि मैं ज़िदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी

*

ज़िस्म सौ बार जले तब भी वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वो कुन्दन होगी

*

ज़िस्म और जाँ टटोलेल कर देखें
ये पिटारी भी खोल कर देखें

(यह आलेख वाणी प्रकाशन द्वारा साल के आखिर तक यतींद्र मिश्र के संपादन में प्रकाश्य नज़्मों के दीवान यार ज़ुलाहे की भूमिका का किंचित संपादित एवं संक्षिप्त रूप है. इस अंक में प्रकाशित गुलज़ार की नज़्में इसी संचयन से हैं.)

5 comments
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  1. it is intresting to read this introduction. Editor has worked hard to select theas poems.i am eagerly waiting this book

  2. गुलजार साहब की कविताई की गंभीर पड़ताल करती यतींद्रजी की यह भूमिका बताती है कि अभी साहित्यकारों का इस तरफ ध्यान गया नहीं है। मुझे लगता है, हिंदी की दोयम दर्जे की कविता पर पन्ने रंगते आलोचकों को इस अोर भी ध्यान देना चाहिए।

  3. itane khubsurat kaam ke liye aapako shukriya

  4. It is indeed enriching experience going through these introductory lines……… I can imagine what a lovely journey it would be for me going through the whole write up. Great job gone. Keep it on and God Bless You.

    Your well wisher.

  5. kya kahu guljar sahab ki baat hi kuch aor ha jab tak dil nahi jalta pyar ki rah main roshni nahi hoti

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