आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बेलफ़्ज: शुभाशीष चक्रवर्ती

“नो हार्ड फीलिंग्स” – इतना सुनकर मैं बचपन के फुटबाल मैदान में पहुँच गया. उस वक्त मैं पाँच वर्ष का था. टीम में सबसे छोटा.जैसे ही मैच शुरू होता मैं सब कुछ भूल जाता. मैं भूल जाता कि मेरा कोई घर है या फिर मुझे घर भी जाना है. मुझे सिर्फ़ मैदान में बिखरे पीपल के पत्ते दिखते रहते.दोस्तों की लम्बी-लम्बी परछाईं एक दूसरे से उलझती जाती. गेंद परछाईं पर इधर उधर लुढ़कता जाता. जैसे जैसे सूरज अस्त होता जाता, खेल भी अपने अंत की ओर बढ़ जाता. मुझे घर याद आने लगता. घर जाने का मन नहीं करता लेकिन मैदान में किसी को ठहरा न पाकर मैं भी धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ जाता.

बचपन की यादों से निकलते ही फिर से वही वाक्य सुनाई दे रहा है. “नो हार्ड फीलिंग्स”. यह वह मुझसे दूर जाते वक्त कह रही है. लेकिन इस बार भी मैं कुछ बोल नहीं पा रहा हूँ. मैं उसके कहे को मन में दोहरा रहा हूँ. उसके होठों के हिलने को शब्दों की बनावट से मिला रहा हूँ. मेज़ पर बिछी अख़बार के नीचे कुछ ढूंढ रहा हूँ. बिस्तर को उठाकर देख रहा हूँ. पिता के दफ्तर के कागजों के बीच खोज रहा हूँ. ड्रेसिंग टेबल के दराज़ को खींच रहा हूँ. आज कहीं कुछ नहीं है. मैं थककर अपने कमरे में लौट रहा हूँ.

मैं अपने दोस्तों के बारे में सोच रहा हूँ. स्कूल में हुई बातें याद कर रहा हूँ. खेल की घंटी का इंतज़ार कर रहा हूँ. दौड़कर मैदान की ओर जा रहा हूँ. दोस्तों की परछाई को एक दूसरे से उलझते हुए देख रहा हूँ. गेंद परछाई पर लुढ़क रहा है. खेल का समय ख़त्म हो रहा है . मैं अपने दोस्तों के बीच बैठा हूँ. वे अपना टिफिन खा रहे हैं. मुझे मेरा टिफिन अच्छा नहीं लगता है. मुझे हमेशा यह लगता है कि शायद माँ तकलीफ में है इसलिए खाना ठीक से बना नहीं पाती है. मैं स्वप्न में दोस्तों का टिफिन खा रहा हूँ. मैं अपना टिफिन छुपा रहा हूँ. मैं भूखा घर लौट रहा हूँ.

मैं छिपकर माँ और पिता की बातें सुन रहा हूँ. माँ के चेहरे को गौर से देख रहा हूँ. संवाद के ज्यादातर समय पिता बोल रहे हैं. मैं देख रहा हूँ, माँ चुपचाप पंखे को देख रही है. पिता माँ के बाल सहला रहे हैं. अपने कंधे पर उसका सर रख रहे हैं. पिता अकेले में माँ को दुलार रहे हैं. वे छिपकर ऐसा क्यों कर रहे हैं? और मैं छिपकर उन्हें क्यों देख रहा हूँ? पूरा घर शांत है. किसी भी नल से पानी के टप-टप की आवाज़ नहीं आ रही है. परदे डोल रहे हैं. मैं काँप रहा हूँ. फर्श पर फिसल रहा हूँ.

मैं अपने कमरे में लौटकर चित्र बना रहा हूँ. अपने दोस्त प्रीतम के बारे में सोच रहा हूँ. उसके पिता हमेशा उसे कुँए में फेंक देने की बात करते हैं. उसकी माँ कुछ नहीं बोलती है. माँ, पिता की बातों का विरोध नहीं करती है. प्रीतम कुँए में गिरने के डर से ज्यादातर किताबें खोले बैठा रहता है. वह स्कूल में सोता है. सारे दोस्त हँसते हैं और मुझे घर और पिता का कमरा याद आता है.

मछुआरे नदी से लौट आये हैं. बच्चे उनका झोला टटोल रहे हैं. एक-एक मछली को निकाल रहे हैं. उनकी माँ, जाल, काँटा और बंसी पिता के हाथ से लेकर एक कोने में रख रही है. बच्चे पास के ईमली के पेड़ के नीचे खेल रहे हैं. चाँद की हल्की रोशनी उनके खेल पर पड़ रही है. अनजानी धरती पर जानबूझकर लोट रहे हैं. गाँव धूल से भर रहा है. धूल धीरे धीरे चाँद पर चिपक रही है. मैं चाँद को एकटक देख रहा हूँ. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. चाँद धुंधला हो रहा है. रसोई से कुकर की सीटी की आवाज़ आ रही है. माँ खाने के लिए बुला रही है. मैं माँ की आवाज़ सुन रहा हूँ. मुझे पिता याद आ रहे हैं. अब माँ और पिता दोनों याद आ रहे हैं. मैं अपने आपको उनकी बातें सुनते हुए देख रहा हूँ. पैर फिसल रहे हैं. मैं लौटकर अपने कमरे में जा रहा हूँ.

बाहर अँधेरा फैल गया है. मैं अंधेरे में निकलकर पिता के पास जा रहा हूँ. परदे की आड़ में छिपकर माँ और पिता को देख रहा हूँ. पिता माँ को दुलार रहे हैं. मैं साफ़ नहीं देख पा रहा हूँ. शायद पिता माँ को छू रहे हैं. बाहर से पक्षियों की आवाज़ आ रही है. सुबह होने का अंदेशा हो रहा है. माँ जग रही है. रसोई की ओर बढ़ रही है. मैं वापस कमरे में लौट रहा हूँ.

मैं कंकडों से खेलता हुआ स्कूल जा रहा हूँ. एक से दूसरे को मार रहा हूँ. मन ही मन यह भी सोच रहा हूँ कि अगर पाँच बार एक से दूसरा टकरा जाय तो पिता माँ को नहीं छुएंगे. मैं एकटक कंकडों को देख रहा हूँ. आंखों में पानी भर रहा है. मेरे दोस्त मुझसे आगे निकल रहे हैं. मैं लेट आने वाले बच्चों के बीच खड़ा हूँ. मुझे नींद आ रही है. मैं सो रहा हूँ. मेरे दोस्त मुझ पर हंस रहे हैं.

मैं पिता के साथ बाज़ार जा रहा हूँ. पिता के कुछ बोलने का इंतज़ार कर रहा हूँ. पिता छुट्टियों में नाना के यहाँ ले जाने की बात कर रहे हैं. मुझे नानी का घर याद आ रहा है.

मैं अपने भीतर उलझता जा रहा हूँ. अपने आप से कई सवाल कर रहा हूँ: नानी के घर में क्यों कमरे और पर्दे नहीं हैं. सब कुछ क्यों इतना खुला खुला सा है. वहाँ पिता माँ को क्यों नहीं छूते हैं. वहाँ वे मुझे क्यों याद नहीं आते हैं. नानी के घर से घर लौटने का मन क्यों नहीं करता है. मैं पिता से कुछ दिन और रुक जाने की ज़िद्द क्यों करता हूँ. माँ को क्यों मनाता हूँ. समय क्यों बीत जाता है. रात क्यों होती है. मुझे कमरे और पर्दे क्यों नज़र आते हैं. मैं आँखें बंद करके उन्हें आंखों से क्यों बुहारता हूँ. वहाँ मुझे इमली के पेड़ के नीचे खेलते बच्चे क्यों नज़र आते हैं. वे इधर-उधर क्यों दौड़ते हैं. गाँव धूल से क्यों भर जाता है. उन बच्चों के साथ मैं भी ज़मीन पर क्यों लोटता हूँ. चाँद की रौशनी खेल पर क्यों पड़ती है. मैं घर क्यों भूल जाता हूँ.

पिता मुझे छोड़ कर दूकान में प्रवेश कर रहे हैं. दूकानदार से धीरे से बुदबुदा रहे हैं. दूकानदार एक बड़े डिब्बे से निकाल कर कुछ पिता को दे रहा है. पिता उसे अपनी जेब में रख रहे हैं. मैं उस डिब्बे को पढने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं हिल-डुल कर देख रहा हूँ. चित्र में धुंधले रंग से बना एक पुरुष, महिला को दुलार रहा है. मैं देख रहा हूँ. पिता पैसे दे रहे हैं. दूकानदार मुझे देख रहा है. मैं सिर झुकाए साईकिल की घंटी छू रहा हूँ.

पिता के साथ घर लौट रहा हूँ. चाँद साफ़ नहीं दिखाई दे रहा है. चाँद पर धूल जम चुकी है. मैं चाँद नहीं देख पा रहा हूँ. खेल पर चाँद की रौशनी नहीं पड़ रही है. बच्चे सो गए हैं. घर के पर्दे मेरी आंखों में डोल रहे हैं.

पिता पॉकेट से कुछ निकालकर मेज़ पर बिछे अखबार के नीचे रख रहे हैं. मैं देख रहा हूँ वे माँ के पास रसोई में जा रहे हैं. मैं अखबार के नीचे हाथ फेर रहा हूँ. डिब्बे को बाहर निकाल रहा हूँ. महिला को दुलारते पुरुष का चित्र साफ़ दिखाई दे रहा है. डिब्बे को खोल रहा हूँ. उसके ऊपर चिपके प्लास्टिक को धीरे से अलग कर रहा हूँ. उसे बाहर से दबा रहा हूँ. अन्दर रखा सामान फिसल रहा है. पिता के कमरे में लौटने की आवाज़ आ रही है. मैं अपने कमरे में लौट रहा हूँ. मैं उसे खोल रहा हूँ. उसमें से ल्यूब्रिकेंट रिस रहा है. ल्यूब्रिकेंट की महक नाक में फैल रही है. वह मेरे भीतर घुस रही है. ल्यूब्रिकेंट उँगलियों में तैर रहा है. उंगली से उंगली चिपक रही है. उसकी महक मन में फैल रही है.

मैं तुम्हारे पास लौट रहा हूँ. तुम सीधी लम्बी सड़क पर जा रही हो. मैं तुम्हे आवाज़ नहीं दे पा रहा हूँ. तुम्हारा पीछे मुड़ने का इंतज़ार कर रहा हूँ. तुम्हारे शब्द “नो हार्ड फीलिंग्स” पूरे परिवेश में आवाज़ बनकर फैल रहे हैं. इन शब्दों में आवाज़ भर जाने से पहले की बातें याद कर रहा हूँ. तुम मेरे साथ बैठी हो. तुम्हारे पैर मेरे पैरों से टकरा रहे हैं. तुम्हारी उंगलियाँ मेरे होठों को छू रही हैं. मैं पिता की तरह तुम्हे दुलार रहा हूँ. तुम्हारे सिर को कंधे पर रख रहा हूँ. मैं मेज़ पर बिछे अख़बार के नीचे रखा डिब्बा ढूँढ रहा हूँ. तुम पंखे को देख रही हो. मैं तुम्हे छू रहा हूँ. डिब्बे के अन्दर रखे पैकेट को फाड़ रहा हूँ. ल्यूब्रिकेंट उँगलियों पर फैल रहा है. तुम्हारी तेज़ साँसे उँगलियों से टकरा रही हैं. आस-पास उसकी महक फैल रही है. मन पर महक का लेप चढ़ रहा है. आंखों में पर्दे डोल रहे हैं. तुम मुझे छू रही हो. मैं तुम्हारे हाथों से अपना हाथ छुड़ा रहा हूँ. तुम मुझे हिला रही हो. मैं स्तब्ध चाँद ढूंढ रहा हूँ. चाँद कहीं नहीं दिखाई दे रहा है. तुम गुस्साने के अंदाज़ में मुझे देख रही हो. तुम्हारा गुस्साना मुझे खेल लग रहा है. तुम सचमुच गुस्सा रही हो. तुम दुपट्टे को ठीक कर रही हो. अपने नाखून से नाखून साफ़ कर रही हो. तुम मुझे फिर से हिला रही हो. मैं चुप-चाप तुम्हे देख रहा हूँ. तुम पंखे को देख रही हो. धीरे से बुदबुदा रही हो, “आई हेट यू बिकॉज़ . . . . आई हेट यू!” मैं तुम्हारे कहे शब्दों को बटोर रहा हूँ. उन्हें वाक्य में पिरो रहा हूँ. मैं अभी तक उन्हें नहीं सजा पाया हूँ. तुम उनके सज जाने से पहले कुछ और शब्द बिखेर रही हो, “आई नो यू डोंट लव मी!”

मैं कुछ नहीं बोल पा रहा हूँ. “नो हार्ड फीलिंग्स” में आवाज़ भर रही है. मैं सुन रहा हूँ. तुम जा रही हो. मैं देख रहा हूँ.

4 comments
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  1. very interesting

  2. good, how many things reflacts in behaviour,(, knowingly or unknowingly) the story tells so many aspect.

  3. Nostalgia, child psychology aur adult ego ka bada shaandaar mix tha. Though the language could have been a bit more realistic. Like the use of the expression ‘Pita’ sounds odd amidst a very contemporary narration otherwise.

  4. arey yaar… mujhe toh mera bachpan yaad aaya… and i have a very bad habit of biting my nails when it comes to visualising my past…. simple yet illustrative and picturistique……

    raungte khade karne wala vivran…

    gud work boss… keep it up….

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